दिल्ली में चल रहा ‘किसान आंदोलन’ मंगलवार (जनवरी 26, 2021) को एक हिंसक विरोध प्रदर्शन में बदल गया और इसकी परिणीति 300 से अधिक पुलिस वालों के जख्मी होने, लाल किला के अतिक्रमण और दिल्ली की सड़कों पर सरेआम अराजकता के रूप में हुई। अब तक हम सब को पता चल चुका है कि क्या हुआ, कैसे हुआ, किसने किया, क्यों किया और कहाँ किया। उनके उद्देश्य किसी से छिपे नहीं।
हम योगेंद्र यादव पर निशाना साध ही रहे हैं। दर्शन पाल, राकेश टिकैत, गुरनाम सिंह चढूनी और हन्नान मोल्लाह की करतूतों को जनता के सामने रख ही रहे हैं। लेकिन, ये सभी आज सब कुछ कर के भी मीडिया में स्वच्छंद विचर रहे हैं और खुलेआम बयान दे रहे हैं तो इसके पीछे दोषी कौन है? इन सभी को आज जब सलाखों के पीछे होना चाहिए, तब ये अराजकतावादी सड़कों पर हैं। आइए, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के किरदारों को भी देखते हैं।
ऐसे अराजक असामाजिक तत्वों को बर्दाश्त ही क्यों कर रही है मोदी सरकार?
ये आश्चर्य की बात है कि जो चीजें आम जनता को महीनों से पता थी, उसकी सरकार को भनक नहीं लगी होगी। एक से एक तेज़ अधिकारी हैं केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस के पास। जो चीजें पूरे देश को पता थी, उसका आकलन वो क्यों नहीं कर पाए – ये समझ से परे है। जब पंजाब से किसानों का जत्था एक-एक कर हरियाणा होकर दिल्ली पहुँच रहा था, तभी उन्हें रोकना चाहिए था। हरियाणा में भी भाजपा की ही सरकार है।
पहले ही इतने उलटे-सीधे बयान दिए गए कि राज्य में मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व वाली सरकार के सहयोगी और जजपा के मुखिया दुष्यंत चौटाला दबाव में आ गए। उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत ने फिर खट्टर को दबाव में डाला। इन दोनों ने दिल्ली में आलाकमान पर दबाव बनाया। अमित शाह से इनकी बैठक हुई। लेकिन, असली गलती यहीं हुई थी कि हरियाणा की दोनों सीमाओं को खुला छोड़ दिया गया। पंजाब से आकर घुसो, दिल्ली को निकल जाओ।
अगर किसी अन्य पार्टी की हरियाणा और केंद्र में सरकार होती तो वो इस आंदोलन को दिल्ली पहुँचने से पहले ही रोक सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिल्ली पुलिस भी केंद्र सरकार के ही अधीन है। ऐसे मामलों से निपटने का अनुभव है। शाहीन बाग़ को हमने हाल ही में झेला। जनता के बर्दाश्त का स्तर जब हदें पार हो जाता है, तब भी सरकार का सख्त नहीं होना सवाल उठाने को विवश कर देता है।
जब लोग देखते हैं कि तबलीगी जमात कोरोना वायरस का सुपर स्प्रेडर बन गया और मुस्लिमों को सरकारी दिशा-निर्देशों के खुलेआम उल्लंघन का प्रवचन देने वाले मौलाना साद इतने महीनों बाद भी खुलेआम मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ रहा है, तो वो सोचते हैं तो क्या ये वही भाजपा है जिसे हमने वोट दिया था? खासकर ये सवाल तब और जायज हो जाता है, जब भाजपा के ही प्रवक्ता सारे न्यूज़ चैनलों पर घूम कर उसी व्यक्ति को दोषी बताते हैं लेकिन उस पर कार्रवाई नहीं होती।
ऐसे तत्वों को बर्दाश्त करे सरकार, जनता ऐसा नहीं चाहती। उनकी पोल खोलने के लिए कुछ नया क्या करना है, वो तो पहले से नंगे हैं। शरजील इमाम जब असम को देश से अलग करने की बातें करता है तभी वो नंगा हो चुका है। हम इंतजार नहीं करेंगे न कि वो सचमुच ऐसा कर के दिखाए, फिर हम दुनिया के सामने उसकी पोल खोलें और उस पर कार्रवाई करें। ये एक खतरनाक रास्ता है। इससे दंगाइयों को और बल मिलता है।
जो न्यायपालिका का सम्मान नहीं करते, वो भी खुले घूम रहे
सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ताओं की एक बड़ी फ़ौज खड़ी है, जो जामिया, AMU, JNU, CAA विरोधी, कृषि कानून विरोधी और अंततः मोदी सरकार विरोधी सभी गिरोहों का बचाव करने में रमी रहती है। दंगाई तो दंगाई, प्रशांत भूषण सरीखे लोग आधी रात में आतंकी के लिए सुप्रीम कोर्ट खुलवा चुके हैं। ये सड़क पर खुलेआम दंगा करते हैं, क्योंकि इन्हें लगता है न्याय की देवी की आँखों पर बँधी पट्टी के कारण इनकी करतूतें अदालत को नहीं दिखती।
सुप्रीम कोर्ट के CJI बोबडे खुद जामिया वाले मामले में कह चुके हैं कि जब तक पत्थरबाजी और हिंसा ख़त्म नहीं होती, सुनवाई नहीं होगी। किसान आंदोलन के मामले में उन्होंने केंद्र सरकार से पूछा कि वो इन कानूनों पर रोक नहीं लगाती है तो शीर्ष अदालत लगा देगा। ऐसा हुआ भी। लेकिन, कानूनों पर रोक लगने से उनका मनोबल बढ़ा जो सुप्रीम कोर्ट का सम्मान नहीं करते थे। सरकार ने तो सारी फटकार सही और हर निर्णय का सम्मान किया, लेकिन उनका क्या?
अगर सचमुच में किसान संगठनों के मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान होता तो भूपिंदर सिंह मान को सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की गई कमिटी में से खुद का नाम वापस नहीं लेना पड़ता। अगर ये सुप्रीम कोर्ट की चिंता करते तो ट्रैक्टर रैली शांतिपूर्ण रखने का आश्वासन देकर इस तरह से लाल किले पर चढ़ कर खालिस्तानी झंडा नहीं फहराते और तिरंगे को फेंक कर उसे अपमानित नहीं करते। न्यायपालिका का इन्होंने मजाक बनाया है, क्योंकि इन्हें पता है कि वहाँ इन्हें बचाने वाले लोग बैठे हैं।
इन किसान नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित की गई कमिटी के साथ बातचीत करने से ही इनकार कर दिया। जब सरकार के साथ इनकी दर्जन भर दौर की वार्ताएँ फेल हो चुकी है, तो ये समझने वाली बात है कि किसी अन्य कमिटी से ये क्या बात करेंगे। किसान संगठनों ने आरोप लगा दिया कि कमिटी के चारों सदस्य कृषि कानूनों का समर्थन कर चुके हैं। इसीलिए, वो उनसे कोई बातचीत नहीं करेंगे।
दरअसल, राकेश टिकैत ही नहीं बल्कि सभी किसान नेता ऐसे कानून चाहते थे जिससे बिचौलियों का हस्तक्षेप कम हो और किसानों को उत्पाद बेचने के लिए ज्यादा विकल्प मिले। कई राज्यों में, यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी, ऐसे कानून पहले से बने हुए हैं। लेकिन अचानक से सब बदल गए और उसी तर्ज पर केंद्र में आया कानून खराब कैसे हो गया? सुप्रीम कोर्ट को ये बताने वाला कोई न था कि ये प्रदर्शन कृषि कानूनों को लेकर है ही नहीं, मोदी का अंध-विरोध ही इसके पीछे है।
क्या ये सचमुच एक किसान आंदोलन है?
दंगाइयों को अब ‘किसान’ कहना भी इस शब्द का अपमान है। जिस तरह से महिला कॉन्स्टेबलों के साथ बदसलूकी का वीडियो सामने आया, उससे लगता नहीं कि ये किसान हैं। एक महिला पत्रकार के साथ बदतमीजी हुई। कोने में घेर कर दिल्ली पुलिस के महिला जवान की पिटाई की गई। एक भी महिलावादी ने आवाज़ नहीं उठाई। फेमिनिस्ट्स चुप हैं। उनके गिरोह के लोग हैं, उनके लिए सब कुछ जायज है।
लाल किला में पुलिसकर्मियों को खदेड़ा गया। उन्हें दीवार फाँद-फाँद कर अपनी जान बचानी पड़ी। कई पुलिसकर्मी ICU में हैं। 300 से अधिक घायल हुए हैं। कइयों का सिर फट गया। अधिकतर के हाथ-पाँव और सिर में ही चोटें आई हैं। तलवारें लहराते हुए उन्हें खदेड़ा गया। जम्मू कश्मीर के आतंकियों जैसी हरकतें कर के ये सरकार और सुप्रीम कोर्ट के लिए किसान कैसे बन जाते हैं, ये समझ से परे है।
क्या आपने कभी किसी किसान को अपनी खेती-बाड़ी और जमीं-जत्था छोड़ कर कहीं और रहते देखा है? ये ऐसे किसान हैं जो गेहूँ के सीजन में महीनों से घर छोड़ कर बाहर हैं। पानी कौन पटा रहा इनके खेतों में? बुआई किसने की? इन्हें अपने फसलों की चिंता नहीं, कैसे किसान हैं ये। सभी किसान नेताओं ने एकमत से धमकाया था कि वो जनवरी 26 को हिंसा करेंगे। मीडिया में ऐसे बयानों का तब तक कोई महत्व नहीं, जब तक वो किसी भाजपा नेता के न हों।
पुलिस की पिटाई कर के उलटा पुलिस को ही दोष दिया जा रहा है। कोरोना के दिशानिर्देशों का उल्लंघन तो शाहीन बाग़ वालों ने भी किया था, 3 महीने से ये ‘किसान’ भी कर रहे। इनके खिलाफ ‘महामारी एक्ट’ के तहत कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? बस एक, अगर सरकार एक ऐसा उदाहरण सेट कर दे जहाँ ऐसे करतूतों की उचित सजा मिले तो ये दोबारा निकलने से पहले सोचेंगे। इसके लिए यूपी मॉडल अपनाया जा सकता है।
लाल किला में 250 बच्चे फँसे हुए थे, उन्हें इन प्रदर्शनकारियों से बचा कर दिल्ली पुलिस ने निकाला किसी तरह। गणतंत्र दिवस के कलाकारों के साथ बदसलूकी हुई। उन्हें भी बचाया गया किसी तरह। राम मंदिर और केदारनाथ की झाँकी के लिए बने मॉडल को नुकसान पहुँचाया गया। क्या ये किसानों का कार्य है? आंदोलन के नाम पर देश के एक स्मारक पर चढ़ कर अलगाववादी झंडा फहरा दिया जाएगा? नहीं न।
‘किसानों’ से पहले ‘महिलाएँ, छात्र, बुजुर्ग’ सब दंगा कर चुके हैं
दिसंबर 2019 में जामिया वालों ने दंगा किया। बसें धू-धू कर जलीं। ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और इंदिरा जयसिंह जैसे वकीलों ने दंगाइयों को बचाया। अगर यही सब करना है तो कश्मीर के पत्थरबाज भी सही हैं। सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की, जिससे दिल्ली के शाहीन बाग़ में खुलेआम हिन्दू विरोधी प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ, देवी-देवताओं का अपमान हुआ और महिलाओं को आगे कर-कर के ये सारा खेल चला।
जनवरी के पहले हफ्ते में वामपंथी छात्रों ने हॉस्टलों में घुस-घुस कर ABVP के छात्रों की पिटाई की, लेकिन मीडिया ने उलटा दोषियों को ही पीड़ित साबित कर दिया। इससे किसी का भी विश्वास डिग सकता है। जो घायल हुए, उनमें कई छात्राएँ भी शामिल हैं। उस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर दोषी वामपंथी छात्रों में से एकाध को भी कॉलेज से निकाला जाता तो शायद आगे इस तरह की हरकतों से पहले वो 100 बार सोचते।
इसके बाद शाहीन बाग़ में दादियों का खेल चालू हुआ। जिन बुजुर्ग महिलाओं को पता भी नहीं था कि CAA/NRC होता क्या है, उन्हें भी मीडिया चैनलों पर एक्टिविस्ट्स के रूप में लाकर बिठाया जाने लगा। एक महिला के बच्चे की मौत हो गई क्योंकि वो उसे लेकर हर प्रदर्शन में घूम रही थी, तो इसके लिए भी सरकार को दोषी बताया गया। बिलकिस दादी को ‘Times’ मैगजीन तक ने प्रभावशाली महिलाओं में स्थान दे दिया।
जनवरी-फरवरी 2020 में पूरे दो महीने हिन्दू विरोधी दंगा के आरोपितों को सही साबित करने की कोशिश हुई। ताहिर हुसैन के पक्ष में जावेद अख्तर जैसों ने ट्वीट किया। उमर खालिद के बचाव में तो पूरा गैंग उतर आया। कॉन्ग्रेस की पार्षद रहीं इशरत जहाँ का रोल सामने आया। AAP और कॉन्ग्रेस नेताओं के इस दंगे में सामने आने के बावजूद सवाल उनसे नहीं पूछे ही गए। सफूरा जरगर और खालिद सैफी जैसे आरोपित जेल से बाहर आने में कामयाब रहे।
दिक्कत ये है कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो कल को हर एक वर्ग को ऐसे ही भड़का कर सड़क पर लाया जाएगा और हिंसा होती रहेगी। कुछ लोग बुद्धिजीवी बन कर इस हिंसा को बढ़ावा देते रहेंगे और बच कर निकलते रहेंगे। उनके खिलाफ कार्रवाई न होने पर जनता को अपने वोट की ताकत का एहसास नहीं होगा। हिन्दू वोट भी दे, सब्सिडी भी छोड़े और सड़क पर आकर लड़ाई भी करे – इतना सब कुछ शायद संभव नहीं!