सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (21 मार्च 2024) को कहा कि चुनाव आयुक्तों (ECs) की हालिया नियुक्ति पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि लोकसभा चुनाव नजदीक है और इससे अराजकता फैल जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संसद ने एक कानून बनाया है और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) वाली उस पैनल द्वारा ईसी के नए चयन का आदेश नहीं दे सकता।
शीर्ष न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने कहा कि वह CJI को छोड़कर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री और विपक्ष के नेता वाले पैनल को निर्धारित करने वाले कानून की वैधता की जाँच करेगा, जैसा कि 2023 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सुझाव दिया गया था। लेकिन, अभी नियुक्तियों पर रोक लगाने से संतुलन बिगड़ जाएगा।
यह टिप्पणी करते समय अदालत ने यह भी कहा कि नव-नियुक्त चुनाव आयुक्तों– ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू के खिलाफ कोई आरोप नहीं हैं। उन्हें नए कानून के तहत चयन समिति में बदलाव के बाद चुना गया है। हालाँकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में प्रक्रिया थोड़ी धीमी होनी चाहिए, क्योंकि पैनल के प्रत्येक सदस्य को उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि के बारे में पता होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि विपक्ष के नेता को शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों की योग्यता जाँचने के लिए चार या पाँच दिन का समय क्यों नहीं दिया गया। उन्होंने कहा कि वे चयनित चुनाव आयुक्त की साख पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, बल्कि उस प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं जिसमें चयन किया गया था। हालाँकि, खंडपीठ ने यह भी कहा कि अदालत यह नहीं कह सकती कि सरकार किस तरह का कानून पास करे।
जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि ऐसा नहीं है कि इससे पहले चुनाव नहीं हुए। यह एक प्रक्रियात्मक प्रक्रिया प्रतीत होती है। अब उनकी नियुक्ति हो चुकी है और चुनाव नजदीक है। ऐसे में यह सुविधा के संतुलन का सवाल है। अदालत ने याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण से यह भी कहा, “आप ये नहीं कह सकते कि चुनाव आयोग कार्यपालिका के कब्जे में है।”
दरअसल, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक 2023 को पिछले साल संसद में पारित किया गया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने इसकी मंजूरी दे दी थी। नए कानून में चुनाव आयुक्तों को चुनने के लिए चयन समिति में CJI की जगह एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया है।
नए कानून को लागू होने के बाद चुनाव आयुक्तों की चयन समिति में अब प्रधानमंत्री, एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री और विपक्ष के नेता हैं। इस समिति में पहले प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होते थे। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने एक याचिका दाखिल करके नियुक्ति प्रक्रिया में खामियों की बात कही थी।
भूषण ने कहा कि 14 फरवरी को रिटायर हुए एक निर्वाचन आयुक्त की रिक्ति 9 मार्च को दिखाई गई। उसी दिन दूसरी रिक्ति भी दिखाई गई। उन्होंने दलील दी कि इसके अगले दिन अदालत द्वारा पारित किसी भी आदेश को रद्द करने के लिए 14 मार्च को दो चुनाव आयुक्तों को जल्दबाजी में नियुक्त किया गया। इसी दिन कोर्ट ने मामले को अंतरिम राहत पर सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया था।
प्रशांत भूषण ने कहा कि चयन समिति ने शुरू में 200 से अधिक नाम दिए और फिर उसी दिन नामों को शॉर्टलिस्ट कर लिया गया। उन्होंने तर्क दिया कि यह ऐसे समय में हुआ जब कोर्ट ने 15 मार्च 2024 की तारीख को सुनवाई की तारीख तय की थी और उस दिन इस मामले की सुनवाई होने वाली थी।
कोर्ट ने पूछा कि आयुक्त को नियुक्ति करने वाली मौजूदा समिति (पीएम, कैबिनेट मंत्री और नेता विपक्ष) से क्या समस्या है। इस पर प्रशांत भूषण ने कहा कि नियुक्ति निष्पक्ष तरीके से नहीं हुई है। उन्होंने कहा, “सवाल प्रक्रिया पर है। हम ये नहीं माँग कर रहे हैं कि चुनाव टाल दिए जाएँ। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक, नई नियुक्ति होने तक उन्हें काम करने दिया जाए।”
इससे पहले बुधवार (20 मार्च 2024) को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि पिछले 73 सालों से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति केंद्र सरकार ही करती आ रही है। ऐसे में नई नियुक्ति पर विवाद क्यों किया जा रहा है? केंद्र ने तर्क दिया कि चयन समिति में न्यायिक सदस्य की मौजूदगी चुनाव आयोग की स्वतंत्रता के लिए जरूरी नहीं है।
केंद्र सरकार की ओर से कानून एवं न्याय मंत्रालय द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया कि चुनाव आयुक्त के रूप में सेवा देने के लिए सूची में नामित किसी भी व्यक्ति की योग्यता या क्षमता पर कोई आपत्ति नहीं उठाई गई थी। नव नियुक्त चुनाव आयुक्तों के खिलाफ कोई आरोप भी नहीं लगाए गए हैं। इसकी जगह राजनीतिक बयानबाजी करके विवाद पैदा करने की कोशिश की जा रही है।