हाल ही में हवस के पादरी, बिशप फ्रेंको मुलक्कल के ऊपर बलात्कार और बरसों तक यौन शोषण करने के मामले जब सामने आए तो भारतीय लोगों का थोड़ा चौंकना लाज़मी था। अक्सर जॉन दयाल या इयान डीकोस्टा जैसे आत्मा की चोरी (सोल हार्वेस्टिंग) के क्रूसेडर अपने पास आने वाले चंदे के जोर पर सच को दबाए रखने में कामयाब हो जाते हैं। ऊपर से जब माता-रोम की सत्ता का वरदहस्त भी मिला हुआ हो तो क्या कहने! चुनावी दौर की छापेमारी में जब बिशप फ्रेंको मुलक्कल के एक करीबी पादरी के पास से अवैध रूप से इकट्ठा किए 9 करोड़ 66 लाख के लगभग रुपए भी निकल आए तो फिर इनका चुनावों को धनबल से प्रभावित करने की मंशा और औरतों के प्रति इनके नजरिए के बारे में कोई सवाल नहीं रह जाता।
थोड़े समय पहले तक का दौर देखें तो चर्च के अपराधों के बारे में कुछ भी बोलना-लिखना लगभग नामुमकिन था। हिंदी फिल्मों की जानी-मानी हस्ती, हृतिक रौशन को भी एक ट्वीट के लिए माफ़ी मांगने पर मजबूर किया गया था। ‘स्पॉटलाइट’ जैसी पुरस्कार विजेता फ़िल्में विदेशों में भले बनकर इनाम भी ले जाएँ, लेकिन भारत में ‘सिन्स’ जैसी फ़िल्में गुमनाम कर दी जाती हैं। कैथोलिक चर्च और उससे जुड़े अपराधों पर अब जाकर कुछ बात होनी शुरू हुई है। केवल पोप जॉन पॉल द्वित्तीय का दौर देखें तो उन्होंने चर्च के सौ से अधिक घृणित अपराधों के लिए माफ़ी मांगी है। इसमें गैलेलियो जैसे वैज्ञानिकों की प्रताड़ना की माफ़ी से लेकर उपनिवेशवाद के काल में चीन में किए गए अमानवीय अपराधों तक के लिए माफ़ी माँगना शामिल है।
इस सब के बावजूद अगर कहा जाए कि कैथोलिक चर्च कैसे घृणित, जघन्य, अमानवीय कुकृत्यों में लिप्त रहा है, तो इसे हजम करना मुश्किल होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अल्बेनिया की टेरेसा, उन्हें मिला नॉबेल पुरस्कार और उनके कृत्यों की समीक्षा में दिख जाएगा। भारत संविधान और वैज्ञानिक विचारधारा में विश्वास करने वाला देश है और यहाँ जादू-टोने जैसी चीज़ों की कोई जगह नहीं। अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ते हुए हाल में कई लोगों ने जान गँवाई है मगर अफ़सोस कि इसके बावजूद ‘चमत्कार’ करने वालों को जबरन ‘संत’ की उपाधि से नवाज़ा जाना जारी है।
टेरेसा पर आम जनता का ध्यान शायद 1969 में आई बीबीसी की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म (समथिंग वंडरफुल फॉर गॉड) से शुरू हुआ था। उनका कोलकाता स्थित संस्थान पीड़ितों का इलाज नहीं करता था बल्कि उन्हें बताता था कि उन्हें पापों के लिए ईश्वरीय दंड मिला है, जिसे उन्हें बिना शिकायत झेलना चाहिए। ऐसा नहीं है कि उनकी संस्था के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे। हाँ ये ज़रूर है कि अल्पसंख्यक संस्थान होने के कारण उन्हें हिसाब किताब भारतीय सरकार को देने की ज़रूरत नहीं थी, और अब वो दान में मिले पैसे कहाँ हैं, इसकी कोई ख़ास खबर नहीं मिलती।
नॉबेल पुरस्कार लेते वक्त टेरेसा ने 1979 में कहा था कि आज के दौर में शांति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा गर्भपात है। उन्होंने 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड का समर्थन किया था। वो मार्गरेट थेचर और रोनाल्ड रीगन जैसों की सरकार का समर्थन करती थीं। उन्होंने निकारगुआ जाकर वहाँ के कॉण्ट्राज का समर्थन किया था। चार्ल्स कीटिंग ने उन्हें 1.25 मिलियन डॉलर का चंदा दिया था। इसके थोड़े ही दिन बाद वो बचत और कर्ज के घोटाले के लिए पकड़ा गया और उसे सजा हुई थी। इन सब के बारे में आमतौर पर बात नहीं होती।
इस विषय पर एक वामी किस्म के लेखक (जिसने बाद में विचारधारा को त्याग दिया) क्रिस्टोफर हित्चेंस ने ‘मिशनरी पोजीशन’ नाम से 128 पन्ने की एक किताब लिखी है। वो टेरेसा को ‘घोउल ऑफ़ कोलकाता’ बुलाया करता था। हाल के दौर में एक भारतीय (जो अब विदेशों में रहते हैं) ने भी इस विषय पर लिखा है। उनकी किताब थोड़ी मोटी (400 पन्ने की) है। औरूप चटर्जी ने इस विषय पर करीब पच्चीस साल शोध किया है। वो अक्सर टीवी चैनल पर भी इस विषय पर बोलते दिख जाते हैं। टेरेसा की सच्चाई पढ़नी या जाननी हो, तो इस विषय पर किसी भारतीय की लिखी ये शायद सबसे अच्छी किताब है। किताब का नाम है Mother Teresa: The Untold Story.