मंगलवार (28 सितंबर) को कलकत्ता उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की बेंच ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान प्रदेश के मुख्य सचिव के बारे में तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि; मुख्य सचिव ने एक लोक सेवक की तरह नहीं बल्कि सत्ताधारी दल (तृणमूल कॉन्ग्रेस) के सेवक की तरह काम किया। यह जनहित याचिका सायन बनर्जी ने मुख्य सचिव एच के द्विवेदी द्वारा चुनाव आयोग से किये गए उस अनुरोध के खिलाफ की थी जिसमें मुख्य सचिव द्विवेदी ने चुनाव आयोग से भवानीपुर विधानसभा उप चुनाव की प्रक्रिया को जल्दी निपटाने की सिफारिश की थी।
चुनाव आयोग को की गई अपनी सिफारिश में मुख्य सचिव ने कहा था कि यदि चुनाव जल्दी न कराए गए तो संवैधानिक संकट आ जाएगा। अपनी दलील के समर्थन में मुख्य सचिव ने चुनाव आयोग को बताया था कि शहर में COIVID-19 संकट और बाढ़, दोनों नियंत्रण में थे।
वैसे तो न्यायालय ने इस जनहित याचिका को खारिज कर दिया पर सुनवाई की प्रक्रिया में मुख्य सचिव के बारे में बेंच की टिप्पणियाँ राज्य में ब्यूरोक्रेसी और प्रशासन व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ कहती है। न्यायालय ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा कि; मुख्य सचिव ने चुनाव आयोग से प्रदेश में COVID-19 और बाढ़ को लेकर जो कुछ भी कहा वह भ्रामक था।
अपनी टिप्पणी में न्यायलय ने आगे कहा कि राज्य सरकार द्वारा COVID-19 सम्बंधित प्रतिबंध अपने 15 सितंबर के आदेश (संख्या 753/IX-ISS/2M-22/2020) के द्वारा 30 सितंबर तक बढ़ाने का अर्थ ही यह था कि प्रदेश में महामारी पर काबू नहीं पाया जा सका था। साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि; प्रदेश में बाढ़ की समस्या को लेकर भी मुख्य सचिव ने चुनाव आयोग को गुमराह किया क्योंकि यह सबको पता है कि प्रदेश में इस वर्ष सामान्य से अधिक वर्षा हुई है।
उच्च न्यायालय ने मुख्य सचिव के बारे में जो टिप्पणी की है, उसे अखबारों और टीवी समाचारों की रिपोर्ट में जगह तो मिली पर उसे लेकर इकोसिस्टम में व्याप्त चुप्पी साफ़ सुनाई देती है। कारण साफ़ है। मुख्य सचिव के बारे में न्यायालय की इस टिप्पणी को मीडिया और विशलेषकों द्वारा जानबूझकर महत्वहीन बना देना शायद सेक्युलर रणनीति का अहम पहलू है क्योंकि ये ऐसी सरकार के मुख्य सचिव के विरुद्ध है जिसके नेतृत्व से निकट भविष्य में राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए स्थान बनाकर केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी से लड़ने और उन्हें हराने की आशा की जा रही है। ऐसे में लिबरल-सेक्युलर विचारकों के हित में है कि वे न्यायालय की ऐसी टिप्पणियों को अपनी कोशिशों से नेपथ्य में रखे किसी लॉकर में बंद कर दें।
न्यायालय द्वारा मुख्य सचिव के बारे में की गई टिप्पणियाँ हमें वर्तमान मुख्य सचिव से ठीक पहले जो मुख्य सचिव थे उनकी भी याद दिलाती हैं। यह भी याद दिलाती हैं कि प्रधानमंत्री के प्रदेश के दौरे पर उन्होंने किस तरह से एक अफसर के लिए निर्धारित प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया था। उसके परिणामस्वरूप जो कुछ भी हुआ वह न केवल राजनीति का विषय रहा बल्कि उसके बाद कैसे इस्तीफा दिलवाकर उन्हें मुख्यमंत्री ने अपना सलाहकार नियुक्त कर लिया था। यह राज्य के सत्ताधारी दल, उसके नेतृत्व और उसके द्वारा अफसरशाही पर समग्र नियंत्रण की कहानी कहता है।
उच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों को यदि हाल के विधानसभा चुनाव परिणामों के पश्चात हुई हिंसा और उसपर राज्य प्रशासन की कार्रवाई करने (या न करने) के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ये और महत्वपूर्ण हो जाती हैं। चुनाव परिणामों के पश्चात हुई हिंसा, बलात्कार और हत्या की घटनाओं पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और उच्च न्यायालय के आदेश, प्रदेश सरकार और उसके प्रशासन की मंशा और कार्यशैली के बारे में संदेश देते हैं।
ऐसे में यह आवश्यक है कि इन टिप्पणियाँ पर बहस होनी चाहिए क्योंकि ऐसा करना दीर्घकालीन लोकतंत्र और उसके सुधार का रास्ता खोल सकता है। पर यदि उस बहस को केवल इसलिए रोक दिया जाएगा क्योंकि ऐसा करने से भविष्य की संभावित राजनीतिक लड़ाई पर बुरा असर होगा, तब लोकतंत्र में सुधार पश्चिम बंगाल जैसे राज्य के लिए हमेशा चुनौती बना रहेगा। दशकों तक बहस से बचते-बचते ही राज्य ने चुनावी हिंसा को प्रदेश की राजनीति का अभिन्न अंग बना दिया है।