Thursday, October 3, 2024
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चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पड़े अकेले, पार्टी में हो रही आलोचना

बिहार में सत्ताधारी पार्टी जनता दल युनाइटेड में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का शामिल होना काफी चर्चा में रहा था, मगर हाल के दिनों में पार्टी के अंदर चल रही सियासी हलचलों को देखकर यह बात साफ हो गई है कि प्रशांत किशोर भले ही चुनावी रणनीति बनाने में सफल रहे हों, लेकिन राजनीति उनके लिए आसान नहीं। अभी हाल ही में आए उनके बयानों के बाद प्रशांत किशोर पार्टी में अकेले पड़ते नजर आ रहे हैं।

दरअसल प्रशांत किशोर ने एक कार्यक्रम के दौरान कह दिया था कि आरजेडी से महागठबंधन तोड़ने के बाद जेडीयू को एनडीए में न जाकर नया जनादेश लेना चाहिए था। इस बयान के बाद प्रशांत किशोर चारों तरफ से घिरते दिखाई दे रहे हैं। पार्टी और भाजपा के नेता इस बयान पर आपत्ति जता रहे हैं।

वहीं विपक्षी पार्टी आरजेडी के नेता और बिहार सरकार के पूर्व मंत्री शिवचंद्र राम ने चुटकी लेते हुए कहा कि “प्रशांत किशोर ने जो कहा है वह यहाँ प्रदेश के हालात को देख कर सही कहा। मुख्यमंत्री ने जनादेश का अपमान किया। महागठबंधन से जीत कर आए थे। महागठबंधन से नाता टूटने के बाद इनको जनादेश में जाना चाहिए। आज जो विकास का ढिंढोरा पिट रहे हैं, अगर ये चुनाव में जाते तो इनको इनकी औकात पता चल जाती।”

प्रशांत किशोर के बयान पर जेडीयू के महसचिव आरसीपी़ सिंह ने शुक्रवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनका नाम लिए बगैर उन पर निशाना साधते हुए कहा, “जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वो उस समय पार्टी में भी नहीं थे। उन्हें इसकी जानकारी नहीं होगी। सभी नेताओं की सहमति से पार्टी महागठबंधन से अलग हुई थी और फिर सबकी सहमति से ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हुई थी।”

गौरतलब है कि प्रशांत किशोर कुछ दिन पहले भी तब पार्टी के निशाने पर आ गए थे, जब उन्होंने मुजफ्फरपुर में युवाओं के साथ कार्यक्रम के दौरान कहा था कि उन्होंने देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनाए हैं। अब वह युवाओं को भी सांसद और विधायक बनाएँगे। इस बयान के बाद भी पार्टी के कई नेता उनके विरोध में उतर आए। जेडीयू के प्रवक्ता और विधान पार्षद नीरज कुमार ने कहा, “पार्टी के रोल मॉडल नीतीश कुमार हैं। किसी को विधायक और सांसद बनाना जनता के हाथ में है। पार्टी उनके इस बयान से इत्तेफाक नहीं रखती। नेता बनाना किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं, यह जनता के हाथ में है।”

आपको बता दें कि साल 2012 में गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी के सफल राजनीतिक अभियानों का श्रेय प्रशांत किशोर को दिया जाता है। उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी का चुनाव प्रचार संभाला और उनकी जीत का बड़ा श्रेय इन्हें मिला था।

राम मंदिर के लिए मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पर नहीं है शंका, बोले RSS के भैय्या जी जोशी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह भैय्या जी जोशी ने राम मंदिर मामले पर कहा है कि 1980-90 से जो आंदोलन चल रहा है वो तब तक जारी रहेगा जब तक मंदिर बन नहीं जाता। साथ ही यह भी लिखा कि हम न्यायालय से यह अपेक्षा करते हैं कि वो शीघ्रता से इस संदर्भ में फ़ैसला दे। आपको बता दें कि कोर्ट ने 8 सप्ताह का समय मध्यस्थता के लिए तय किया था। कोर्ट की तरफ से आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर, मध्यस्थता कानूनों के विशेषज्ञ श्रीराम पंचू और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस इब्राहिम कलीफुल्लाह को मध्यस्थता पैनल के लिए नामित किया गया है।

न्यूज़ एजेंसी ANI के अनुसार भैय्या जी जोशी ने केंद्र सरकार पर भरोसा जताते हुए कहा कि अभी भी सरकार की निष्ठा पर हमें कोई संदेह नहीं है। उन्होंने कहा “हम मानते हैं कि सत्ता में बैठे हुए लोगों में अभी राम मंदिर का विरोध नहीं है। उनकी प्रतिबद्धता को लेकर हमारे मन में कोई शंका नहीं है।”

इससे पहले गुरुवार (मार्च 10, 2019) को सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि मामले पर सुनवाई करते हुए मामले को मध्यस्थता के लिए भेज दिया। न्यायालय के इस निर्णय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। संघ ने अयोध्या मामले को मध्यस्थता के लिए भेजने के निर्णय को ‘आश्चर्यजनक’ बताया था।

अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की तीन दिवसीय वार्षिक बैठक की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि अयोध्या मामले में न्यायिक प्रक्रिया में तेज़ी लाने के विपरीत उच्चतम न्यायालय ने एक आश्चर्यजनक फैसला लिया है। रिपोर्ट में आगे कहा गया कि न्यायालय का हिन्दू धर्म के संवेदनशील विषयों को प्राथमिकता न देना समझ के बाहर है।


LoC के पास 2 किलो ड्रग्स और नकली नोटों के साथ मोहम्मद ज़फर ख़ान गिरफ़्तार

जम्मू-कश्मीर के पुंछ ज़िले में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास मोहम्मद ज़फर ख़ान नामक तस्कर को ₹10 लाख की नकली भारतीय मुद्रा और दो किलोग्राम ड्रग्स के साथ गिरफ़्तार किया गया।

पुलिस प्रवक्ता ने बताया कि शनिवार शाम पुंछ के बालाकोट इलाके में नियंत्रण रेखा के पास बाड़ गेट को पार करने का प्रयास करते हुए गाँव डब्बी निवासी मोहम्मद ज़फर ख़ान को पकड़ा गया था।

गिरफ़्तारी को एक बड़ी सफलता बताते हुए अधिकारी ने बताया कि ज़फर के बैग से 2000 के 500 और 500 के 400 नकली नोट और ड्रग्स बरामद की गई। इसके अलावा अधिकारी ने बताया कि ज़फर को ये खेप सीमा पार से मिली थी और वह देश में इसकी तस्करी करने की कोशिश में था।

पुलिस के अनुसार, खान को रणबीर दंड संहिता के नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंस (एनडीपीएस) अधिनियम और 489 C (जाली या जाली नोटों से संबंधित) के तहत गिरफ़्तार किया गया।

एक अन्य घटना में, एक ड्रग्स बेचने वाले को शुक्रवार को जम्मू के गाँधी नगर इलाके से गिरफ़्तार किया गया था। बता दें कि पंजाब निवासी गुरप्रीत सिंह उर्फ़ गोल्डी को 20 ग्राम हेरोइन के साथ गिरफ़्तार किया गया। अधिकारी ने बताया कि गोल्डी की गिरफ़्तारी मामले को NDPS अधिनियम के तहत दर्ज किया गया था।

लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ लागू हो जाएगी आदर्श आचार संहिता, जानिए क्या होंगे इसके प्रभाव

आज रविवार (मार्च 10, 2019) को शाम 5 बजे 17वीं लोकसभा के चुनाव के लिए तारीखों की घोषणा के साथ ही देश में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी। आपने अक्सर चुनावों के मौसम में इसका नाम सुना होगा। हम आपको बताने जा रहे हैं कि आचार संहिता आख़िर है क्या और इसके लागू होते ही क्या असर होंगे। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोजित कराने के लिए भारत निर्वाचन आयोग द्वारा सभी उम्मीदवारों तथा राजनीतिक दलों को समान अवसर और बराबरी का स्तर प्रदान किया जाता है। इस संदर्भ में आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों के लिए बराबरी का समान स्तर उपलब्ध कराना है। इसका उद्देश्य है चुनावी प्रचार एवं अभियान को निष्पक्ष तथा स्वस्थ्य रखना। दलों के बीच झगड़ों तथा विवादों को टालने में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान है। इसका उद्देश्य आम चुनाव में केन्द्र या राज्यों की सत्ताधारी पार्टी को सरकारी मशीनरी का अनुचित लाभ लेने से रोकना है।

आगे हम आचार संहिता के इतिहास के बारे में भी चर्चा करेंगे लेकिन उस से पहले इसके नियमों को समझते हैं। आपने अक्सर ख़बरों में पढ़ा होगा कि ‘फलां नेता ने आचार संहिता का उल्लंघन किया’ या ‘फलां राजनीतिक दल पर आचार संहिता उल्लंघन का मामला दर्ज हुआ’। ये तब होता है जब ये नेता या दल आचार संहिता के नियमों का उल्लंघन करते हैं। आइए समझते हैं कि क्या हैं ये नियम:

  • कोई भी पार्टी या उम्मीदवार ऐसी किसी भी ऐसी गतिविधि में शामिल नहीं होगा जो मौजूदा मतभेदों को बढ़ा सकता है या विभिन्न जातियों और समुदायों (धार्मिक या भाषाई) के बीच आपसी द्वेष पैदा कर सकता है या तनाव पैदा कर सकता है।
  • जब अन्य राजनीतिक दलों की आलोचना की जाती है, तो नेतागणों के बयान उनकी नीतियों, कार्यक्रमों और पिछले रिकॉर्ड और कार्यों तक ही सीमित रहेंगे। पार्टियों और उम्मीदवारों को किसी के निजी जीवन के सभी पहलुओं की आलोचना से बचना होगा। ऐसी आलोचनाएँ आचार संहिता का उल्लंघन मानी जाएगी, जो अन्य दलों के नेताओं या कार्यकर्ताओं की सार्वजनिक गतिविधियों से जुड़ी नहीं है। असत्यापित आरोपों या विरूपण के आधार पर अन्य दलों या उनके कार्यकर्ताओं की आलोचना नहीं की जा सकती।
  • किसी भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार या उसके कार्यकर्ताओं द्वारा किसी व्यक्ति की भूमि, भवन, परिसर की दीवार इत्यादि का उपयोग बिना उसकी अनुमति नहीं की जा सकती। इसमें झंडे खड़ा करना, बैनरों को चस्पाना, नोटिस चिपकाना, नारे लिखना इत्यादि शामिल है।
  • अगर किसी भी तरह की राजनीतिक बैठक या रैली प्रस्तावित हो तो पार्टियों व नेताओं को आयोजन से पहले स्थानीय प्रशासन व पुलिस को सूचित करना होगा। ऐसा इसीलिए, ताकि पुलिस शांति व्यवस्था और ट्रैफिक सुगमता के लिए पहले से तैयारी कर सके।
  • ऐसे इलाक़ों से जुलूस या रैली नहीं निकाली जा सकती, जिन्हे संवेदनशील होने या अन्य कारणों की वजह से इस क्रियाकलापों के लिए प्रतिबंधित किया जा चुका है। विशेष छूट मिलने पर ही ऐसा किया जा सकता है। राजनीतिक कार्यक्रमों के दौरान यातायात नियमों का सावधानीपूर्वक पालन होना चाहिए।
  • सभी राजनीतिक दल और उम्मीदवार यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके समर्थक अन्य दलों द्वारा आयोजित बैठकों और जुलूसों में अवरोध पैदा न करें। किसी एक राजनीतिक दल के कार्यक्रम में दूसरे राजनीतिक दल के कार्यकर्ता मौखिक या लिखित रूप से प्रचार नहीं कर सकते। इसका अर्थ यह हुआ कि वे अपनी पार्टी के पैम्पलेट किसी दूसरी पार्टी के कार्यक्रम में नहीं बाँट सकते। अगर किसी स्थल पर किसी एक राजनीतिक पार्टी की बैठक चल रही हो तो दूसरे दल समान समय पर वहाँ किसी कार्यक्रम का आयोजन नहीं कर सकते।

सत्ताधारी पार्टी के लिए विशेष नियम

निर्वाचन आयोग ने सत्ताधारी पार्टियों के लिए कुछ विशेष नियम तय किए हैं क्योंकि सरकारी मशीनरी उनके नियंत्रण में होती है। निर्वाचन आयोग को यह सुनिश्चित करना होता है कि सरकारी मशीनरी का उपयोग पार्टी प्रचार के लिए न किया जाए। अभी भारतीय जनता पार्टी की नेतृत्व वाली सरकार को इन बातों का ध्यान रखना होगा।

  • मंत्रीगण अपने आधिकारिक व सरकारी दौरों का उपयोग चुनाव प्रचार के लिए नहीं कर पाएँगे। सरकारी वाहनों और कर्मियों का उपयोग चुनाव के दौरान सत्ताधारी पार्टी के हितों में नहीं हो सकता।
  • चुनावी सभाओं के आयोजन के लिए सार्वजनिक स्थानों जैसे कि मैदान और हवाई-उड़ानों के लिए हेलीपैड के उपयोग पर सत्ताधारी पार्टी का एकाधिकार नहीं होगा। अन्य दलों और उम्मीदवारों को ऐसे स्थानों और सुविधाओं के उपयोग की अनुमति उन्हीं नियमों और शर्तों पर दी जाएगी, जो सत्ताधारी पार्टी पर भी लागू होंगी।
  • चुनाव की तारीख का ऐलान होने के बाद से सरकारी विभाग और मंत्रीगण किसी भी प्रकार के वित्तीय अनुदान की घोषणा नहीं कर सकते हैं अथवा ऐसा करने का निर्णय नहीं ले सकते। उन्हें किसी भी प्रकार की योजनाओं या परियोजनाओं की आधारशिला रखने की अनुमति नहीं होगी। सरकारी अधिकारियों पर ये नियम लागू नहीं होंगे।
  • मतदाताओं को लुभाने के लिए सरकार किसी सार्वजनिक उपक्रम या सरकारी विभाग में नियुक्तियाँ नहीं कर सकती।
  • मतगणना के दौआर्ण केंद्र या राज्य सरकार के मंत्री, उम्मीदवार या मतदाता किसी भी मतदान केंद्र या मतगणना स्थल में प्रवेश नहीं करेंगे। इसके लिए राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों की तरफ से अधिकृत एजेंट होंगे, जो यह कार्य करेंगे।

आचार संहिता: संक्षिप्त इतिहास

1968 में निर्वाचन आयोग ने राज्य स्तर पर सभी राजनीतिक दलों के साथ बैठकें की तथा स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए व्यवहार के न्यूनतम मानक के पालन संबंधी आचार संहिता का वितरण किया। 1971-72 में लोकसभा/विधानसभाओं के आम चुनावों में आयोग ने फिर आचार संहिता का वितरण किया।

1974 में कुछ राज्यों की विधानसभाओं के आम चुनावों के समय उन राज्यों में आयोग ने राजनीतिक दलों को  आचार संहिता जारी किया। आयोग ने यह सुझाव भी दिया कि ज़िला स्तर पर जिला कलेक्टर के नेतृत्व में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को सदस्य के रूप में शामिल कर समितियाँ गठित की जाएँ ताकि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर विचार किया जा सके तथा सभी दलों तथा उम्मीदवारों द्वारा संहिता के परिपालन को सुनिश्चित किया जा सके। 1977 में लोकसभा के आम चुनाव के लिए राजनीतिक दलों के बीच संहिता का वितरण किया गया।

1979 में निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर आचार संहिता का दायरा बढाते हुए एक नया भाग जोड़ा जिसमें “सत्तारूढ़ दल” पर अलग नियम लगाने का प्रावधान हुआ ताकि सत्ताधारी दल अन्य पार्टियों तथा उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक लाभ न उठा पाए व अपनी शक्तियों का दुरूपयोग न कर पाएँ। 1991 में आचार संहिता को मजबूती प्रदान की गई और वर्तमान स्वरूप में इसे फिर से जारी किया गया।

सत्ता पाकर शिक्षा को कैसे बर्बाद किया जाता है यह कॉन्ग्रेस से सीखना चाहिए

देश के मुख्य विपक्षी दल कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी बीते दिनों राष्ट्रीय राजधानी स्थित एक स्टेडियम में शिक्षा के मुद्दे पर छात्रों से बात कर रहे थे। उन्होंने तमाम तरह की बातें कीं। उनकी पीआर टीम ने युवा छात्र छात्राओं की बाइट लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। लगा कि वाह! कोई एक ऐसा दल भी है जो शिक्षा के बारे में सोचता है। राहुल जी का मानना है कि बिना शिक्षा की रीढ़ मजबूत किए देश का विकास नहीं हो सकता। यह सच भी है, हम इससे इनकार नहीं कर सकते।

लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आए दिन विश्वविद्यालयों में हो रहे ‘गैर कानूनी’ बदलाव पर उनकी चुप्पी साल जाती है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार आते ही एक साक्षात्कार में खुद तमाम शैक्षणिक संस्थाओं के अप्रत्यक्ष मालिक मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा था कि माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ‘अड्डा’ बन चुका है। उन्होंने कहा था कि अगर जरूरत पड़ी तो हम संस्थाओं में बदलाव करने से पीछे नहीं हटेंगे।

बदलाव प्रकृति का शाश्वत नियम है बशर्ते कि वह प्रतिशोध की अग्नि से भरा न हो। कमलनाथ ने माखन लाल में जो किया वह बदलाव नहीं बल्कि प्रतिशोध नजर आया। सिर्फ इसलिए किसी विश्वविद्यालय के वीसी जगदीश उपासने को पद से हटने के लिए मजबूर कर देना कि वह संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी एक पत्रिका के संपादक थे, कतई समझ के परे है।

कुछ ऐसा ही हाल छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किया गया। छत्तीसगढ़ में वर्षों से सत्ता की लालसा में भूखी कॉन्ग्रेस ने सत्ता की चाभी पाते ही वहाँ के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में ‘मनमाना’ बदलाव शुरू कर दिया। राजस्थान में तो मानो अशोक गहलोत की सरकार को ओम थानवी से बेहतर कोई मिला ही नहीं। पत्रकारिता के किसी विश्वविद्यालय को ऐसा वीसी मिलना जो ऐसे दल विशेष के प्रति निष्ठा रखता हो जिसकी पार्टी ने चीन के युद्ध के समय देश का साथ नहीं दिया! इतना ही नहीं यह शख्स दिल्ली में सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र समूह का मेंबर रह चुका है। यह समझ के परे है कि खुद को बुद्धिजीवियों का खजाना बताने वाली कॉन्ग्रेस को भी एक वीसी पद के लिए उस शख्स का सहारा लेना पड़ा जिसने उसी दल के लिए काम किया जिससे कांग्रेस दिल्ली में गठबंधन तक नहीं करना चाहती।

देश के किसी भी विश्वविद्यालय में किसी भी आमूल चूल बदलाव को फासीवाद का नाम देने वाले कांग्रेस और वामदलों ने एफटीआईआई के पूर्व चेयरमैन गजेंद्र सिंह चौहान का विरोध इतने निचले स्तर पर आकर किया था कि आखिरकार उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया। लाल सलाम और अभिव्यक्ति की आजादी के नारों से गुंजायमान रहने वाले जेएनयू कैंपस के एक हिस्से में जब भारतीय जनसंचार संस्थान के निदेशक पद पर केजी सुरेश को नियुक्त किया गया तो उनका विरोध इस बात पर किया जाने लगा कि उन्हें पत्रकारिता ही नहीं आती। विरोध का स्वर छात्रों में ठूंस दिया गया और जब सुरेश ने संस्थान की साख को दांव पर लगने से रोकने के लिए कुछ कड़े फैसले लिए तो उनकी तस्वीरों को फोटोशॉप कर उन्हें ‘हिटलर’ तक की संज्ञा दी जाने लगी।

यह हास्यास्पद है कि जो कांग्रेस और वामदल अक्टूबर 2017 में ‘पत्रकार’ विनोद वर्मा की गिरफ्तारी पर आँसू बहा रहे थे वही अब छत्तीसगढ़ सरकार में मुख्यमंत्री के ‘राजनीतिक सलाहकार’ बन जाने पर चुप्पी साध बैठे हैं। आए दिनों कांग्रेस और वामदल का नेक्सस कहता रहता है कि संघ के पास कोई बुद्धिजीवी नहीं है। क्या बुद्धिजीवी होने का ठेका सिर्फ इसी नेक्सस ने ले रखा है? एक पत्रकार जो आए दिन लोगों से कहते रहते हैं कि पत्रकारिता बदनाम हो गई है उन्होंने कांग्रेस शासित राज्यों में हुए ‘बदलाव’ पर मुँह खोलना तक उचित नहीं समझा। छात्रों के हित में शिक्षा पर सीरीज कर देने वाले पत्रकार महोदय अपने ही पेशे के छात्रों का भविष्य बर्बाद होते हुए चुपचाप देख रहे हैं। हो सकता है कि अपने गैंग के लोगों को ‘सेट’ होता देख उन्होंने यह चुप्पी साध ली हो।

बातें करना बहुत आसान है, ठीक है वैसे ही जैसे कभी इंदिरा गांधी गरीबी हटाने की बात करती थीं, आज उनका पोता पत्रकारिता की आजादी पर लेक्चर दे रहा है। अपने ही अखबार के उद्घाटन समारोह में राहुल गाँधी ने कहा था कि वह नेशनल हेराल्ड से निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद करते हैं। उनकी इस बात को कैसे सच मान लिया जाए जब उनके मुख्यमंत्रियों को कथित तौर पर दूसरी विचारधाराओं के प्राध्यापक और वीसी ही बुरे लग रहे हैं?

यह बहुत अच्छा होगा कि कांग्रेस शासित राज्य अपने ही अध्यक्ष की बात मान लें तो उन्हें इतनी फजीहत न झेलनी पड़े। जो कॉन्ग्रेस खुद को बुद्धजीवियों की खदान बताती है उससे यह उम्मीद तो नहीं ही है कि वह ओम थानवी सरीखे को किसी पत्रकारिता विश्वविद्यालय का वीसी सिर्फ इसलिए बना देगी कि वह भाजपा विरोधी हैं।

वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसके नाम पर योग्यता का पैमाना तय करना गलत है। अगर राहुल गाँधी वाकई चाहते हैं कि शिक्षा का स्तर सुधरे, पत्रकारिता आजाद हो उन्हें सबसे पहले अपने मुख्यमंत्रियों और नेताओं को निर्देश देना होगा कि वह ऐसे बदलाव न करें जो उनके अध्यक्ष को ही थूक कर चाटने पर मजबूर कर दे।

सौरव शेखर

खालिस्तानियों ने फिर उठाया फन, लंदन में भारतीय उच्चायोग के सामने तिरंगे को रौंदने का किया प्रयास

मार्च 9, 2019 को कुछ ISI समर्थित खालिस्तानियों ने लंदन में भारतीय उच्चायोग के बाहर खड़े होकर ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों पर हमला किया। इस दौरान सिखों की पगड़ी पहने हुए कुछ लोगों ने ‘नारा-ए-तक़बीर’ और ‘अल्लाह-हु-अकबर’ के नारे भी लगाए।

विरोध प्रदर्शन में पाकिस्तानी एजेंसी ISI समर्थित खालिस्तानियों ने भारत-विरोधी नारे भी लगाए। इस दौरान उन्होंने भारतीय ध्वज को उखाड़ने और पैरों से रौंदने के प्रयास भी किए। यह विरोध लंदन में भारतीय उच्चायोग के सामने हुआ। खालिस्तान समर्थक भारत में जातीय अल्पसंख्यकों पर कथित अत्याचार के ख़िलाफ़ विरोध कर रहे थे।

इसके जवाब में ब्रिटिश भारतीयों ने कथित तौर पर एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। विरोध प्रदर्शन के दौरान पाकिस्तान समर्थकों ने भारतीय प्रवासियों पर हमला किया और कुछ लोगों को घायल भी किया।

इस विरोध प्रदर्शन के दौरान ओवरसीज पाकिस्तानिस वेलफेयर काउंसिल (OPWC) और सिख फॉर जस्टिस जैसे समूहों के सदस्यों और फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी, यूके सहित समूहों के प्रदर्शनकारियों के बीच जमकर आपसी टकराव हुआ।

पाकिस्तान हमेशा से ही भारत के ख़िलाफ़ छद्म युद्ध को बढ़ावा देने के लिए खालिस्तानियों और ISI समर्थित कश्मीरियों का इस्तेमाल करता आया है। हाल ही में एक आतंकवादी ने ख़ुलासा किया था कि पाकिस्तान, पंजाब में अशांति फैलाने और हिंसा को भड़काने के लिए खालिस्तान समर्थित तत्वों का उपयोग करने की कोशिश कर रहा है। कॉन्ग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने भी गोपाल सिंह चावला के साथ फोटो खिंचवाई थी जब वो इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह के लिए पाकिस्तान गए थे। मई 2018 में, पाकिस्तानी आतंकवादी हाफ़िज़ सईद ने भी एक सम्मेलन आयोजित किया था, जहाँ उन्होंने भारत-विरोधी प्रचार के लिए खालिस्तानियों का इस्तेमाल किया था।

छिन सकती है इमरान खान की कुर्सी: Pak PM कितना नेक और ईमानदार है, यह तय करेगा लाहौर हाईकोर्ट

बालाकोट में भारतीय वायु सेना की तरफ से किए गए एयर स्ट्राइक के बाद से पाकिस्तानी पीएम इमरान खान की मुश्किलें लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। इसी बीच अब एक ऐसा मामला सामने आया है, जिससे इमरान खान की प्रधानमंत्री की कुर्सी खतरे में पड़ सकती है। दरअसल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के खिलाफ लाहौर के हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। इस याचिका में इमरान खान पर नेक और ईमानदार (सादिक़ और अमीन) नहीं होने का आरोप लगाते हुए अयोग्य करार देने की माँग की गई है।

याचिका में कहा गया है कि इमरान खान ने पिछले साल यानी 2018 में हुए आम चुनाव के दौरान नामांकन पत्र में एक बेटी के पिता होने की खबर छिपाई थी। लाहौर हाईकोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया है और सोमवार दिनांक 11 मार्च को इस पर सुनवाई होगी।

दायर की गई याचिका में माँग की गई है कि पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिए इमरान खान को अयोग्य घोषित किया जाए, क्योंकि पाक संविधान के तहत संसद का सदस्य बनने की पूर्व शर्त होती है कि व्यक्ति ‘सादिक़ और अमीन’ यानी कि ईमानदार और नेक हो।

पाकिस्तानी अखबार डॉन के मुताबिक याचिका में दावा किया गया है कि इमरान खान ने 2018 के आम चुनाव में जो नामांकन पत्र दाखिल किया था, उसमें उन्होंने अपनी कथित बेटी टायरियन जेड खान वाइट के बारे में जानकारी नहीं दी थी। बता दें कि टायरियन जेड खान, इमरान खान की पूर्व पार्टनर ऐना लूसिया वाइट की बेटी हैं और ऐसा कहा जाता है कि टायरियन इमरान खान की ही बेटी है। इसी को लेकर याचिका में संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के तहत इमरान को पाकिस्तानी सांसद के लिए अयोग्य घोषित करने की माँग की गई है।

हालाँकि इससे पहले जनवरी में भी इस्लामाबाद हाई कोर्ट में ऐसी ही एक याचिका दायर की गई थी, जिसे कोर्ट ने ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह व्यक्तिगत मामला है और इस पर विचार नहींं किया जा सकता है।

‘भारत की नदियों से पाकिस्तान जाने वाला 5 लाख 30 हज़ार एकड़ फ़ीट पानी रोका गया’: अर्जुन राम मेघवाल

भारतीय जनता पार्टी के नेता और बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के सांसद अर्जुन राम मेघवाल ने अपने एक बयान में यह साफ कर दिया है कि भारत की तरफ से पाकिस्तान जाने वाला ब्यास नदी का पानी रोक दिया गया है और उसे संरक्षित कर लिया गया है। राजस्थान और पंजाब के हिस्से के पानी को पाकिस्तान जाने से रोकने के लिए उन्होंने भारत सरकार की सराहना की और इसे बड़ी उपलब्धि बताया।

वर्तमान में केन्द्रीय जल संसाधन, गंगा विकास राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि मंत्रालय में इसके बारे में निर्णय लिया गया और इस पर एक्शन भी लिया गया। मेघवाल ने कहा कि भाखड़ा ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड से जो उन्हें आँकड़ा प्राप्त हुआ है, उसके मुताबिक 5 लाख 30 हज़ार एकड़ फीट पानी को रोक दिया गया है जो कि पाकिस्तान जा रहा था।

सांसद ने कहा कि अभी तो शुरूआत हुई है, जैसे जैसे पानी को रोका जाएगा और स्टोर किया जाएगा, ये आँकड़ा बढ़ता जाएगा। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि अब जैसे ही राजस्थान या पंजाब को पानी की ज़रूरत होगी वो उपलब्ध रहेगा, पीने के लिए भी और सिंचाई के लिए भी।

गौरतलब है कि पुलवामा आतंकी हमले के बाद केंद्रीय जल संसाधन नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी ने ऐलान करते हुए कहा था कि अब पाकिस्तान जाने वाले पानी को रोक कर यमुना में लाया जाएगा
उन्होंने बताया था कि भारत के अधिकार में जो 3 नदियाँ हैं, उनके लिए प्रोजेक्ट्स तैयार कर लिया गया है। उन्होंने कहा था कि भारत से पाकिस्तान की तरफ जाने वाली रावी, व्यास और सतलुज नदी की धारा को पाक की तरफ जाने से रोक कर पंजाब व राजस्थान की तरफ मोड़ दिया जाएगा जिसकी शुरूआत हो चुकी है।


होली के पर्व पर ‘पानी’ की तरह बर्बाद होती किराए की कलमों की स्याही

कुछ ही वर्ष पहले तक मार्च की दस तारीख के आसपास गर्मियों का मौसम शुरू हो चुका होता था। होली के वक्त बदन पर पानी पड़ जाना सुखद होता था। मौसम के चक्र का समय बदलना हम लोग हाल के वर्षों में देख चुके हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जो होगा वो सब अब किताबों और अंग्रेजी फिल्मों की कल्पना से निकलकर हकीकत की जमीन पर उतर आई घटनाएँ हैं।

हाल के वर्षों के समाचारों में लातूर दिखा। महाराष्ट्र में इस नाम की कोई जगह है, इसके बारे में ज्यादातर भारतीय लोग जानते भी नहीं होंगे। जब वहाँ रेल और टैंकर से पानी भेजे जाने की जरूरत पड़ने लगी तो ये अज्ञात सा इलाका अचानक सुर्ख़ियों में आ गया। जैसा कि हम अक्सर कहा करते हैं, मीडिया के पत्रकारों लिए “अच्छी खबर वो है जो बुरी खबर हो”, वैसा ही इस घटना में भी देखने को मिला।

जब सूखा पड़ा और ट्रेन से पानी भेजा जाने लगा, तब तो लातूर की ख़बरें खूब छपीं। आज वहाँ हालात बदले हैं, या नहीं, ये झाँकने कोई नहीं गया। क्या लोगों को वहाँ बारिश का पानी बचाना सिखाया गया? क्या जल संरक्षण के परम्परागत उपायों को जीवित किया गया? क्या अनुपम मिश्र की “आज भी खरे हैं तालाब” जैसी किताबों से निकाल कर कोई योजना वहां की जमीन पर उतरी? ऐसी कहानियां ढूँढने किसी को भेजा नहीं जाता।

एक दिन की होली को पानी की बर्बादी घोषित करने वाले लोग आपको ये नहीं बताते कि तथाकथित शुद्ध जल आरओ (रिवर्स ओसमोसिस) से निकालना हो तो एक लीटर पानी निकालने में कम से कम नौ लीटर पानी बर्बाद होता है। स्कूलों में जो बच्चों को सूखी होली खेलने के प्रण दिलवा रहे थे, उन्होंने आरओ में इस वर्ष कितना पानी बर्बाद किया, इसका हिसाब उनसे कोई पूछने ही नहीं गया।

हाल के दौर में भारत के प्रधानमंत्री ही नहीं, बिहार के मुख्यमंत्री भी पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर अपनी ओर से पहल करते नजर आये हैं। बिहार में हाल ही में, शराब की ही तरह, प्लास्टिक को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। बिहार के आधे हिस्से के लिए पानी की समस्या सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों वाली ही है, लेकिन बाकी आधा ज्यादातर बाढ़ से जूझ रहा होता है। ऐसे में प्लास्टिक से निपटना जरूरी भी था।

पानी के निकास के लिए बनी नालियाँ, ज्यादातर वक्त कचरे, ख़ास तौर पर प्लास्टिक से जाम रहती हैं। पटना शहर मामूली सी बारिश में ही बाढ़-ग्रस्त सा दिखने लगता है। सिर्फ प्लास्टिक रोक देने से ये ठीक हो जाएगा ऐसा भी नहीं है, लेकिन फिर भी, कुछ ना करने से बेहतर ये एक शुरुआत तो है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने के प्रयासों में बोतलबंद पानी पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

एक समस्या तो ये है कि इस तरह के बोतलबंद पानी के उत्पादन में, एक लीटर पानी निकालने के लिए कम से कम नौ लीटर पानी पूरी तरह बर्बाद हो रहा है। ये होली में हुई पानी की बर्बादी से कई सौ गुना ज्यादा है। होली में फेंका गया पानी तो जमीन सोख लेगी और वो फिर से पर्यावरण के चक्र में जाएगा। आरओ से खराब हुए पानी को दोबारा कृषि, सिंचाई इत्यादि में भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

बोतलबंद पानी से होने वाली दूसरी समस्या है उस पानी की बोतल। स्लमडॉग मिलियनेयर फिल्म जैसा उस पानी की बोतल का दोबारा इस्तेमाल ना हो, इसलिए तोड़ मरोड़ के प्लास्टिक की बोतल को फेंक दिया जाता है। शहरों के लिए ये कचरा कितना भारी होता है, इस बात का अंदाजा दिल्ली में हुई कुछ मौतों से लगाया जा सकता है। हाल ही में दिल्ली में चार लोग कचरे के ढेर के निचे दब कर मर गए थे जिन्हें देखने के लिए वहां के मुख्यमंत्री को जाना पड़ा था।

अगली पीढ़ी के लिए सोचना हो तो याद रखिये कि सबसे ज्यादा जहाँ बर्बादी होती हो, पहले उसपर नजर डालनी होगी। बाकी होली पर पानी की बर्बादी का रोना रोने से मिलने वाली जो टीआरपी है, उसका लालच तो कुछ किराये की कलमों को रहेगा ही।

पिछले 6 महीनों में दक्षिणपंथी न्यूज़ वेबसाइटों पर बढ़ा ट्रैफिक, वामपंथी में उतार-चढ़ाव

दक्षिणपंथी न्यूज़ पोर्टलों का बेहतरीन प्रदर्शन

यदि वेबसाइटों पर रहे ट्रैफिक को जनता के मूड के पैमाने के तौर पर देखें तो दक्षिणपंथी विचारधारा आम भारतीय जनमानस में तेज़ी से जगह बना रही है। वेब ट्रैफिक को इकठ्ठा कर उसमें रुझानों का विश्लेषण करने वाली वेब एनालिटिक्स कंपनी सिमिलरवेब द्वारा जारी फरवरी तक के वेब ट्रैफिक डेटा से इसकी पुष्टि होती है।

सिमिलरवेब द्वारा इकट्ठे किए गए आँकड़ों के अनुसार भारत के शीर्ष दक्षिणपंथी न्यूज़ पोर्टलों स्वराज्य और ऑपइंडिया ने बीते 6 महीनों (सितम्बर 2018 से फ़रवरी 2019 तक) में वेब ट्रैफिक में बेहतरीन बढ़ोतरी दर्ज की है। स्वराज्य पोर्टल पर उपरोक्त समय में मासिक ट्रैफ़िक जहाँ बढ़कर 17 लाख से 30 लाख तक जा पहुँची, वहीं ऑपइंडिया ने 10 लाख (सितम्बर 2018) से बढ़कर लगभग 17 लाख (फ़रवरी 2019) मासिक ‘विज़िटर्स’ तक छलाँग लगाई। इसी बीच ऑपइंडिया ने अंग्रेज़ी के साथ-साथ अपना हिंदी संस्करण हिंदी पइंडिया भी शुरू किया।

वामपंथी न्यूज़ पोर्टलों में उतार-चढ़ाव का माहौल

वहीं इसी समय सीमा के दौरान वामपंथी रुझान वाले न्यूज़ पोर्टलों पर ट्रैफ़िक या तो सुस्त या उतार चढ़ाव वाला रहा। वामपंथी रुझान वाले न्यूज़ पोर्टलों में शीर्ष पर मौजूद ‘द वायर’ में जहाँ नवम्बर के बाद से वेब ट्रैफिक लगातार ढलान पर है, वहीं दूसरे पायदान पर मौजूद द क्विन्ट इस साल (वर्ष 2019 में ) वेब ट्रैफ़िक में बढ़ोतरी देखने वाले चुनिंदा पोर्टलों में शामिल है। पर सिमिलरवेब द्वारा संज्ञान में लिए गए पूरे छः महीनों की समयसीमा पर यदि गौर करें तो ‘द क्विन्ट’ का भी मासिक ट्रैफ़िक ~65 लाख से गिरकर ~50-55 लाख हो जाना एक सुरक्षित अनुमान होगा।

रामायण के वर्तमान भारत नहीं बल्कि वर्तमान ईरान-अफ़ग़ानिस्तान में घटित होने जैसे विवादस्पद लेख छापने वाला पोर्टल ‘स्क्रॉल’ लगातार उतार-चढ़ाव के बीच सितम्बर, 2018 में 50 लाख से थोड़े कम से बढ़कर फ़रवरी, 2019 में 50 लाख से ज़रा ही ऊपर तक पहुँचने में सफल रहा।

आजतक चैनल चलाने वाले इंडिया टुडे ग्रुप का ‘डेली-ओ’ भी उतार-चढ़ाव भरी छमाही के अंत में अंततोगत्वा लगभग उतना ही ट्रैफ़िक (~9 लाख) जुटा पाया जितना कि छमाही के शुरू में था।

पुलवामा में हताहत हुए सीआरपीएफ जवानों की जातिगत गणना करने व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल के पुत्र पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने को लेकर विवादों का केंद्रबिंदु बने “कारवाँ” न्यूज़ पोर्टल को सबसे तगड़ा झटका लगा है। 5 महीनों में 2 लाख मासिक से बढ़कर 4.4 लाख मासिक तक पहुँचा कारवाँ का वेब ट्रैफ़िक फरवरी में लगभग 1 लाख का गोता लगाने के पश्चात् 3.4 लाख पर जा टिका।

नकारात्मक पत्रकारिता को नकारा

इसमें कोई दोराय नहीं कि मोदी सरकार न रामराज्य है और न ही उसकी वैचारिक भिन्नता के चलते आलोचना करना गलत या आपराधिक है, पर वामपंथी समाचार पोर्टलों ने मोदी-विरोध और देश-विरोध में कोई अंतर ही नहीं छोड़ा है। मोदी-विरोध में सच-झूठ का अंतर भुला देने और ख़बरों की यथास्थिति रिपोर्टिंग करने की बजाय एक नकारात्मकता और निराशा का एजेंडा आगे बढ़ाने का काम आज ज़्यादातर वामपंथी न्यूज़ पोर्टल कर रहे हैं।

और इसी नकारात्मकता से देश के उकताने का परिणाम है कि देश एक वैकल्पिक नैरेटिव की तलाश में है, जो कि दक्षिणपंथी मीडिया में उसे मिल रहा है।

एक बात और गौर करने लायक है कि अधिकांश दक्षिणपंथी मीडिया आउटलेट अपना वैचारिक आग्रह (ideological bias) खुल कर घोषित कर देते हैं (और जनता भी हमारी बातों पर विश्वास-अविश्वास उसी परिमाण में करती है जितने कि हम निष्पक्ष असल में रह पाते हैं)।

इसके ठीक उल्टे शायद ही कोई वामपंथी समाचार पोर्टल अपना वैचारिक आग्रह सर्वप्रथम आगे रखता है। आप, प्रिय वामपंथियो, अपना एजेंडा निष्पक्षता की ओट में चलाते हैं, जब कि अधिकांश दक्षिणपंथी पत्रकार और मीडिया संस्थान घोषित आग्रह के बावजूद यथासंभव निष्पक्षता-पूर्वक ख़बरों का विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं, और खबर व अपनी राय को अलग-अलग परोसते हैं।

सिमिलरवेब और आंकड़ों के बारे में

वेब ट्रैफ़िक के आंकड़ों को इकठ्ठा और विश्लेषित करने वाली सिमिलरवेब इकलौती कंपनी नहीं है, और न ही इन आंकड़ों को ‘अंतिम तौर पर’ निर्णायक माना जा सकता है, चूँकि यह आँकड़े सिमिलरवेब की सीमित, मुफ़्त सेवा का प्रयोग कर इकट्ठे किए गए हैं।

पर इन तमाम सीमाओं के भीतर भी यह आंकड़े किसी भी विवेकशील व्यक्ति को यथास्थिति का भान कराने के लिए पर्याप्त हैं।