Saturday, October 5, 2024
Home Blog Page 5479

पी चिदंबरम के अब कैसे आएँगे अच्छे दिन? कानून मंत्रालय ने मुकदमा चलाने के लिए CBI को दी मंजूरी

क़ानून मंत्रालय ने आईएनएक्स मीडिया मामले में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के लिए सीबीआई को मंजूरी दे दी है। जाँच एजेंसी ने पिछले महीने इस मामले के सिलसिले में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के लिए केंद्र सरकार से मंज़ूरी माँगी थी।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सीबीआई ने मई 15, 2017 को INX मीडिया को फ़ॉरेन इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड (FIPB) की मंज़ूरी में कथित अनियमितताओं के ख़िलाफ़ एक प्राथमिकी दर्ज की थी।

बता दें कि पी चिदंबरम पर आरोप है कि उन्होंने वित्त मंत्री (साल 2007) रहते हुए गलत तरीके से विदेशी निवेश को मंजूरी दी थी। उन्हें 600 करोड़ रुपये तक के निवेश की मंजूरी देने का अधिकार था, लेकिन यह सौदा करीब 3500 करोड़ रुपये निवेश का था। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अपने अलग आरोप पत्र में कहा है कि कार्ति चिदंबरम के पास से मिले उपकरणों में से कई ई-मेल मिली हैं, जिनमें इस सौदे का जिक्र है। इसी मामले में पूर्व टेलिकॉम मंत्री दयानिधि मारन और उनके भाई कलानिधि मारन भी आरोपित हैं।

चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम को इस मामले में गिरफ़्तार किया गया था। कार्ति पर आरोप है कि उन्होंने आईएनएक्स मीडिया के लिए ग़लत तरीक़े से फॉरन इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड की मंज़ूरी ली। इसके बाद आईएनएक्स को ₹305 करोड़ का फंड मिला। इसके बदले में कार्ति को 10 लाख डॉलर की रिश्वत मिली। इसके बाद आईएनएक्स मीडिया और कार्ति से जुड़ी कंपनियों के बीच डील के तहत ₹3.5 करोड़ का लेनदेन हुआ। कार्ति पर यह भी आरोप है कि उन्होंने इंद्राणी की कंपनी के खिलाफ टैक्स का एक मामला खत्म कराने के लिए अपने पिता के रुतबे का इस्तेमाल किया।

पूर्व केंद्रीय मंत्री व वरिष्ठ कॉन्ग्रेस नेता का इस्तीफ़ा, कहा आंध्र प्रदेश में पार्टी कोमा में

लोकसभा चुनाव से पहले कॉन्ग्रेस पार्टी के नेता उनका साथ छोड़ रहे हैं। गुजरात में ऊँझा विधानसभा सीट से कॉन्ग्रेसी विधायक आशाबेन पटेल और विधायक कुँवर जी बावलिया के इस्तीफ़े के बाद अब आध्र प्रदेश में कॉन्ग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री किशोर चंद्र देव ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा राहुल गाँधी को सौंप दिया है।

ख़बरों के अनुसार किशोर चंद्र ने कहा कि आंध्र प्रदेश में कॉन्ग्रेस पार्टी कोमा में चली गयी है, और पार्टी नेतृत्व में कोई जवाबदेही नहीं बची है, यहाँ कॉन्ग्रेस विलुप्त हो चुकी है। आंध्र प्रदेश में कॉन्ग्रेस के अनुभवी सांसद के रूप में अपनी पहचान बना चुके किशोर चंद्र का इस्तीफ़ा कॉन्ग्रेस के लिए तगड़ा झटका माना जा रहा है।

जानकारी के अनुसार, किशोर चंद्र अब चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी (टीडीपी) में शामिल हो सकते हैं। बता दें कि वो पिछले चुनाव में कॉन्ग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे, जिसमें वो हार गए थे।

पंचायती राज मंत्री रह चुके हैं किशोर चंद्र

कॉन्ग्रेस के किशोर चंद्र यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में जुलाई 2011 से मई 2014 तक आदिवासी मामलों और पंचायती राज मंत्री रह चुके हैं। बता दें कि वह 1979-80 में लोकसभा के चुनाव के बाद इस्पात, खान और कोयला राज्य मंत्री भी रह चुके हैं। इन्होंने 2008 के कैश-फॉर-वोट घोटाले में संसदीय जाँच का नेतृत्व भी किया था।

राहुल गाँधी: जो तेजस्वी और लालू के साथ बिहार को बदलना चाहता है!


शेक्सपीयर ने कहा था कि कुछ लोग जन्मजात महान होते है, कुछ लोग महान बनते हैं, और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। इस लाइन का इस आर्टिकल से कोई लेना-देना नहीं है, ये बस यह बताने के लिए लिख दिया कि आपको लगे कि मैं कुछ गम्भीर बात करूँगा क्योंकि शेक्सपीयर से शुरू किया। जैसा कि राहुल गाँधी करते हैं, “मैं जब फ़्रान्स के राष्ट्रपति से मिला, तो उन्होंने कहा; मैं जब चीन के राजनयिकों से मिला तो उन्होंने कहा; मैं जब पर्रीकर जी से मिला तो उन्होंने कहा…”

आज नया कांड किया है बिहार में। पटना में एक रैली के दौरान, तेजस्वी और लालू को अपना साथी कहते हुए, राहुल ने बताया कि आप जाइए बिहार के किसी भी गाँव में, युवकों से पूछिए कि वो क्या करता है, तो बताएगा कि वो नौकरी ढूँढ रहा है। आगे गाँधी परिवार के फड़फड़ाते चिराग़ ने कहा कि बिहारी जहाँ जाता है, भगा दिया जाता है। 

पहली बात तो यह है कि किसी भी सेंसिबल व्यक्ति को लालू या लालूनंदन को साथी मानकर बिहार में उसकी बदहाली पर लेक्चर तो देना ही नहीं चाहिए, और दे भी रहे हैं तो ये तो मत ही कहिए कि लालू जी और तेजस्वी जी के साथ मिलकर आप बिहार की तस्वीर बदल देंगे। ऐसा कहना आपकी राजनैतिक डेस्पेरेशन से कहीं ज़्यादा आपकी मानसिक क्षमता पर सवाल उठाता है। 

ख़ैर, 2005 से पहले बिहार क्या था, और तब तक की सरकारों ने वहाँ लिक्विड गोल्ड की नदियाँ बहा दी थी, ये राहुल गाँधी को पता नहीं होगा क्योंकि तब तक वो विश्व के किसी कोने में चिलम, सॉरी, चिल कर रहे थे। उन्हें ये मालूम नहीं होगा कि जो हालत सुधरी है, जितनी ही सुधरी है, वो लालू और कॉन्ग्रेस के न होने से ही सुधरी है। उन्हें ये नहीं मालूम होगा कि वो नदियाँ लिक्विड गोल्ड की नहीं, पीत विष्ठा की थी जो कॉन्ग्रेस और लालू-राबड़ी काल की कुल कमाई है जिसको छाँटने कर साफ़ करने में बाद की सरकारों को बहुत समय लग चुका है।

किस गाँव में राहुल ने जाकर पूछ लिया? किस युवा से मिल लिए जाकर? कौन-सी रिसर्च एजेंसी ने यह डेटा दिया कि वो ‘किसी भी गाँव के युवा’ की बात कर पा रहे हैं? 2015-16 के डेटा के अनुसार भारत में प्रति 1000 लोगों में 50 लोग बेरोज़गार हैं, बिहार सारे राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को मिलाकर 60 के साथ, 15वें स्थान पर है।

लेकिन डेटा और रिसर्च तो राहुल गाँधी के वश की बात है भी नहीं, इसलिए नब्बे के दशक में रोज़गार के क्या हाल थे, इस पर मैं नहीं जा रहा। वैसे, अपहरण, रंगदारी, ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम आदि को भी ‘रोज़गार’ में मिला लिया जाए, तो भी वो दौर भूलने लायक ही था। जो अस्सी और नब्बे में जन्मे हैं, उन्हें पता है कि किस ख़ौफ़ में हमने जीवन जिया है।

उस दौर का बच्चा जानता है कि उसे अपने माँ-बाप से दूर, किसी प्राइवेट स्कूल के हॉस्टल में रहना होता था ताकि उसे बेहतर शिक्षा मिले, उसका अपहरण न हो, या जबरन कोई पकड़ कर शादी न कर दे। चाणक्य, चंद्रगुप्त, बुद्ध और दिनकर की धरती पर लालू भी पैदा होगा, ये अगर इन्हें पता होता तो अपने नाम और काम के लिए, ये लोग भी कई लाख बिहारियों की तरह शर्म से कहते, “मैं तो दिल्ली का हूँ।” 

‘बिहारी’ होना शर्मिंदगी की निशानी थी, और आज भी करोड़ों बिहारियों के लिए है जो बाहर रह रहा है। बिहारियों की इतनी दुर्गति हुई कॉन्ग्रेस और लालू के काल में कि, वो और ख़राब स्थिति में जा ही नहीं सकता था। वहाँ से ऊपर आने की ही संभावना थी। ‘बिहारी बहुत मेहनती होते हैं, पढ़ने में बहुत आगे’, ये भी आपने बहुत सुना होगा। लेकिन इसके पीछे की कहानी आप समझ नहीं सकते अगर आप बिहारी नहीं हैं।

मेहनत और पढ़ाई ही वो चीज़ें थीं जो हमारे वश में थीं। मेहनत के लिए पैसा नहीं लगता, और किरासन तेल के डिबिया, या लालटेन की रोशनी में सेकेंड हैंड किताबें पढ़कर हम बेहतर स्कूलों में जाते रहे, और अपनी राह बनाते रहे। वो इसलिए क्योंकि पढ़ाई के सिवाय कोई चारा नहीं था। और, चारा तो वैसे भी लालू जी ही खा गए। 

आज राहुल गाँधी गाँवों के युवा से पूछने की बात कहते हैं! बिहार में एक तय तरीके से सारे कारख़ानों को किसने बंद होने दिया? किस केन्द्र और राज्य सरकार की नीतियों ने यहाँ के स्कूलों की दुर्गति की? किस सरकार की नीति ने अपराध को इतना बढ़ावा दिया कि लोग भारत ही नहीं, अफ़्रीका तक जाकर बसने लगे? क्या कारण थे कि बिहार में कभी भी तरह का निवेश करने से लोग कतराते थे, और आज भी कतराते हैं?

रोजग़ार लाने के लिए जो माहौल चाहिए था, वो तो बर्बाद कर दिया तुमने और तुम्हारे साथियों ने! बची हुई कसर, बिहार को लेकर जो मानसिकता बनी कि ‘ट्रेन से जाओगे तो घड़ी चुराने के लिए लोग हाथ काट लेते हैं’, इस डर ने पूरी कर दी। कमाल की बात नहीं है कि अंडरवर्ल्ड के ख़ौफ़ से दहले मुंबई के लोग, बलात्कारों की राजधानी दिल्ली के लोग, राजनैतिक हत्याओं और अपराधों वाले उत्तर प्रदेश के लोग भी बिहार का नाम सुनकर वहाँ जाने से मना कर देते हैं? जबकि अपराधों के नज़रिए से देखें तो कोई भी जगह बिहार से कम तो नहीं ही है। फिर ये माहौल बनाने में किसका हाथ था कि लोग वहाँ फ़ैक्टरी लगाने की नहीं सोचते?

ये सब याद है कि नहीं जब रेल बजट में हर राज्य की राजधानी को पटना से डायरेक्ट ट्रेन से जोड़ दिया गया था? क्या उससे पटना में पर्यटन को बढ़ावा देना चाहता था लालू? या हर राज्य में ईंट ढोने से लेकर, रिक्शा खींचने, भट्टी में औज़ार बनाने, खेतों में फ़सल काटने और तमाम तरह के काम करने के लिए ‘चीप’ लेबर सप्लाय करने के रास्ते बना रहा था? याद आया कुछ?

शर्म कर लो राहुल गाँधी और तेजस्वी यादव! तुम्हारी शक्लें और तुम्हारे मुँह से बिहार की भलाई की बात सुनता हूँ तो नीतिश के साथ चुनकर आते ही पहले दो महीने में 578 हत्याएँ याद आ जाती हैं। और फिर याद आती है दिल्ली के दोस्तों की बात कि ‘बिहार ने लालू को दोबारा कैसे चुन लिया, तुम लोग *** हो, और रहोगे’। शायद वो सही था।

जेल में बंद एक अपराधी को अपना सहयोगी मानकर बिहार की स्थिति सुधारने की बात सुनना देह में सिहरन ला देता है। लेकिन क्यों न हो, पब्लिक के पैसे से परिवार को पालने में जैसे राहुल के घरवाले, वैसे ही तेजस्वी, ऑटोमेटिक ट्यूनिंग है। इनकी फ़्रीक्वेंसी मैच करती है, दोनों ही परिवारों ने देश और राज्य को लूटा और बर्बाद किया है। इसलिए एक दूसरे के नेचुरल अलाय (प्राकृतिक सहयोगी) तो बनेंगे ही।

राहुल गाँधी, बिहार में बेरोज़गारी है, लेकिन तेजस्वी के बापू और आपका ख़ानदान उसके लिए ज़िम्मेदार है। नीतिश भी ज़िम्मेदार है, लेकिन नब्बे प्रतिशत जवाबदेही आपकी है। चोरों को दोबारा सत्ता देकर एक बार बिहार ने देख लिया है, शायद अगली बार वो ऐसी गलती नहीं करेंगे। 

क़ायदे से आपको ‘ये जो कैलाश है, वो एक पर्वत है’ पर ही रह जाना चाहिए था। आपको डिटॉक्सिफ़िकेशन की ज़रूरत है क्योंकि जिस माहौल में आपकी परवरिश हुई है, उस माहौल में नैसर्गिक रूप से आपको चोरों की संगति पसंद आएगी। नाना के जीप से लेकर बाप के टैंक और माँ के पता नहीं किस-किस घोटाले तक, करप्शन तो डीएनए लेवल तक उतर चुका है। आपको पूरे परिवार, अपने घर और हो सके तो देश से दूर रहना चाहिए क्योंकि जब देश तबाह हो रहा था, तब आप बच्चे थे। लूट के दूसरे दौर में सत्ता आपके माताजी के पास थी। ये बात और है कि आप देश को लूटने पर अपना भी पारिवारिक हक़ जताना चाहते हों!

आप क्यूट आदमी हैं, आपको दोनों गालों में डिम्पल पड़ते हैं, आप कहाँ ये राजनीति और बिहार के बेरोज़गार युवाओं को राह दिखाने आ गए! पहले अपने लिए कोई ढंग का काम देख लीजिए। क्योंकि आपके भी घर में घुसकर अगर मैं पूछ लूँ कि ये चिरयुवा क्या करता है, तो आपकी माताजी ‘मेला छोना बाबू, अभी तो लैली में एछपीछ देता है’ से ज़्यादा नहीं कह पाएँगी। और हाँ, जैसे आपने कहा न कि मोदी के गुजरात में बिहारियों को भगा दिया जाता है, वैसे ही शायद आपकी माताजी ये न बोल दें, “मोदी ने भारत से मेरे युवा बेटे का रोज़गार छीन लिया है, और उसे भगाना चाहता है।”

माँ की मौत की ख़बर के बाद रोया, खूब रोया… लेकिन इस क्रिकेटर ने नहीं छोड़ा टीम का साथ

‘कर्म ही पूजा है’ इस बात को आपने ज़रूर सुना होगा, लेकिन वेस्टइंडीज़ क्रिकेट टीम के तेज़ गेंदबाज अल्ज़ारी ज़ोसेफ़ ने इसको कुछ इस तरह से परिभाषित किया है, जिससे किसी की आँख नम हो जाएँ। जी हाँ वेस्टइंडीज़ के इस गेंदबाज की माँ का निधन इंग्लैंड के ख़िलाफ़ दूसके टेस्ट मैच के दौरान हो गया, बावजूद इसके वह मैच में खेलने के लिए मैदान में उतरे और साथी खिलाड़ियों का बख़ूबी साथ दिया।

अल्ज़ारी ज़ोसेफ़ की माँ शेरॉन का शनिवार की (2 फरवरी 2019) सुबह निधन हो गया था। जिसके बाद वह काफ़ी देर तक माँ की याद में रोए थे। जिसके बाद उनकी टीम के खिलाड़ियों ने उन्हें समझाया और उनके परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त की। बता दें कि, अल्ज़ारी ज़ोसेफ़ की माँ काफ़ी समय से बीमार चल रहीं थी। साथी खिलाड़ी की माँ के देहांत पर दुख व्यक्त करते हुए दोनों टीम के खिलाड़ियों ने मैच के तीसरे दिन अपने बाजू़ पर काली पट्टी बांधे रखी।

वेस्टइंडीज़ टीम के मैनेजर रॉल लुइस ने कहा, ‘युवा तेज गेंदबाज अल्ज़ारी ज़ोसेफ़ की माँ शेरॉन जोसेफ़ की सूचना पाकर हम बहुत दुखी हुए। वह अब इस दुनिया में नहीं रहीं। हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि ये समय अल्ज़ारी और उनके परिवार के लिए मुश्किल भरा है। उम्मीद करते हैं कि वो जल्द से जल्द इससे उबर जाएँगे।’

बता दें कि तीसरे दिन का खेल शुरू होने से पहले अल्ज़ारी विंडीज टीम के हर्डल में मौजूद थे। टीम प्रबंधन ने उनके बल्लेबाजी और गेंदबाजी करने की पुष्टि भी की है। मैच के तीसरे दिन मेजबान वेस्टइंडीज़ की टीम पहली पारी 306 रनों पर समाप्त हुई थी। जिसमें वेस्टइंडीज़ के लिए डेरेन ब्रावो ने 50 रनों की पारी खेली।

बिहारियों की बात कर राहुल-तेजस्वी ने अपने पैर पर ‘8 बार’ मारी कुल्हाड़ी – 5वीं बहुत जोर की लगी

बिहार के जनाकांक्षा रैली में राहुल जी बोल रहे थे, मंच पर लालू यादव के सुपुत्र एवं गठबंधन के नए साथी तेजस्वी यादव भी मौजूद थे।

राहुल जी की रैली थी तो जैसा कि हमेशा होता है राफेल का जिक्र हुआ और हर बार की तरह उन्हें आज भी सही आँकड़ा याद नहीं था। 7 दिन पहले का अनिल अंबानी का ₹45,000 करोड़ का कर्ज आज ₹1 हजार लाख करोड़ हो गया (अंक में लिखना पड़ा क्योंकि मुझे ₹1 हजार लाख करोड़ लिखना नहीं आता)।

खैर, बात निकलते-निकलते बेरोजगारी तक पहुँच गई और श्रीमान ये बोल बैठे कि बिहार में बेरोजगारी बड़ी समस्या है। लोगों को रोजगार के लिए गुजरात जाना पड़ता है और हम इसे खत्म करके रहेंगे, जिसे सुनकर साथ बैठे तेजस्वी यादव जी जोर-जोर से तालियाँ बजाते दिखे।

पर जोश में आकर ये बात बोलते समय न राहुल जी को ये याद रहा न ही तेजस्वी यादव जी को कि असल में वो खुद पर हमला कर रहे हैं। कैसे, वो एक बिहारी होने के नाते मैं बताता हूँ –

आजादी के बाद से 1990 तक 40 साल तक 1-2 साल छोड़ दें, तो करीबन कॉन्ग्रेस ने ही लगातार बिहार में शासन किया।

उसके बाद 1990 से 2005 तक भी करीबन 15 साल राहुल के अभी के हमजोली लालू यादव एंड फैमिली ने शासन किया।

तो क्या बिहार में रोजगार की समस्या 2005 के बाद शुरू हुई? क्या पहले गुजरात से लोग बिहार नौकरी ढूँढने जाते थे?

जाते होंगे पर मेरे पिता 1992 में गुजरात आए थे, पढ़ने नहीं काम की तलाश में।

97 में चाचा जी आए और फिर करीब-करीब पूरा खानदान यहीं आ गया। यहाँ आकर पता चला एक चौथाई गुजरात बिहार के लोगों से भरा पड़ा है, क्यों? क्या करने आये थे वो सब? बिहार में लालू-कॉन्ग्रेस की सरकार जबर्दस्ती नौकरी दे रही थी। उससे भाग कर आए थे? जी नहीं, हर व्यक्ति यहाँ काम की तलाश में आया था।

दूसरी बात ये कि राहुल जी खुद अपने मुँह से कबूल किए कि बिहार के लोग गुजरात जाते हैं काम ढूँढने। तो क्या ये मोदी जी के उस बात पर मुहर नहीं लगाता है कि गुजरात रोजगार देने के मामले में सबसे बेहतर है? यहाँ के लोग खुशहाल होते हैं?

क्या ये इस बात पर मुहर नहीं लगाता है कि व्यापार करने की सुगमता गुजरात में दूसरे राज्यों की अपेक्षा बेहतर है?

इसलिए अगर ठीक से विश्लेषण करें तो राहुल जी का आज का भाषण भाजपा के खिलाफ कम और कॉन्ग्रेस-जनता दल के खिलाफ ज्यादा माना जा सकता है।

यह विचार Mr Sinha का है। जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

₹6000 से बढ़ सकती है किसानों को दी जाने वाली सहायता राशि: जेटली

किसानों को सालाना ₹6,000 की न्यूनतम सहायता राशि को भविष्य में बढ़ाया जा सकता है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके संकेत दिए हैं। मोदी सरकार द्वारा पेश किए गए अंतरिम बजट में कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने 2019-20 के बजट में किसानों को सालाना ₹6,000 की सहायता देने की घोषणा की थी। बता दें कि यह राशि तीन किश्तों में किसानों को दी जाएगी, जो ₹500 मासिक बैठती है।

जानकारी के अनुसार जेटली ने कहा कि सरकार के संसाधन बढ़ेंगे, इससे भविष्य में किसानों को दी जाने वाली सालाना राशि को बढ़ाया जा सकेगा। साथ ही राज्य इस राशि के ऊपर अपनी ओर से आय समर्थन योजनाओं की घोषणा भी कर सकते हैं।

इस दौरान जेटली ने राहुल गाँधी के उस बयान पर जिसमें उन्होंने कहा था सरकार किसानों को प्रतिदिन ₹17 देकर उनका अपमान कर रही है। तंज कसते हुए कहा कि विपक्ष के नेता को ‘परिपक्व होना चाहिए’ और उन्हें यह समझना चाहिए कि वह किसी कॉलेज यूनियन का चुनाव नहीं राष्ट्रीय चुनाव लड़ने जा रहे हैं।

जेटली ने कहा, ’12 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों को हर साल ₹6,000 दिए जाएँगे। इसके अलावा सरकार की योजना उन्हें घर देने, सब्सिडी पर खाद्यान्न देने, मुफ़्त चिकित्सा सुविधा, मुफ़्त साफ़-सफ़ाई की सुविधा, बिजली, सड़क, गैस कनेक्शन देने की योजना किसानों की दिक्कतों को दूर करने से जुड़ी हैं।’

उन्होंने कहा कि किसानों को न्यूनतम आय समर्थन देने का यह सरकार का पहला क़दम है। सरकार के संसाधन बढ़ने के साथ इस राशि को भी बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए हमने ₹75,000 करोड़ सालाना से शुरुआत की है।

‘राज्यों की मदद से बनेगी बात’

जेटली ने कहा कि कुछ राज्यों की मदद से इस राशि को और अधिक बढ़ाया जा सकेगा। जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि कुछ राज्यों ने इस बारे में योजना शुरू की है। मुझे लगता है कि और राज्य भी उनके रास्ते पर चलेंगे। उन्होंने कहा कि किसानों की समस्याओं और कृषि क्षेत्र की दिक्कतें दूर करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की भी बनती है।

जेटली ने कहा, ‘मैं नकारात्मक सोच रखने वाले नवाबों से कहूँगा कि वे अपनी राज्य सरकारों से कहें कि इस समर्थन के ऊपर वे सरकारें भी कुछ मदद दें।’ उन्होंने कहा कि सभी राजनीतिक दल इस मामले में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करेंगे तो किसानों को ज्यादा लाभ मिलेगा। उन्होंने कहा कि ज़्यादातर केंद्रीय योजना 60:40 अनुपात में होती हैं। इसमें भी अगर राज्य अपनी ज़िम्मेदारी समझें तो किसानों का ज़्यादा हित हो सकेगा।

हैलो… मैं अरविंद केजरीवाल बोल रहा हूँ और मेरा काम है अफ़वाह फैलाना

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का विवादों से गहरा रिश्ता रहा है। अपने इस गहरे रिश्ते को निभाने में वो किसी भी तरह की कोई क़सर भी नहीं छोड़ते, फिर उसके लिए चाहे कुछ भी कर गुज़रना पड़े। अपने नए-नए अंदाज़ में वो कई तरह की राजनीतिक कलाबाज़ियाँ लगाते नज़र आते हैं। राजनीति में जो सर्कस ये जनाब लेकर आए हैं शायद इनकी नई वाली राजनीति यही थी। फिर भले ही इन कलाबाज़ियों का नतीजा कुछ भी रहे लेकिन ये हार नहीं मानते।

हाल ही में इनकी पार्टी (आम आदमी पार्टी) नया रायता फैलाने में जुटी हुई है। रायता फैलाने का मतबल तो आप बख़ूबी जानते ही होंगे। अगर नहीं जानते हैं तो चलिए हम ही बता देते हैं, रायता फैलाना मतलब बिना किसी बात के लोगों को भ्रमित कर देना और उन्हें इस क़दर उलझा देना कि वो सुलझ ही न पाए। केजरीवाल यह भूल गए हैं कि जनता बेवकूफ़ नहीं होती वो रायते को समेटना भी अच्छी तरह से जानती है।

ऐसा ही एक मामला सामने आया है जहाँ केजरीवाल की पार्टी के कार्यकर्ता, लोगों को कॉल करते हैं और बोलते हैं कि, ‘जी आपका नाम वोटर लिस्ट से कट गया था लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री ने फिर से आपका नाम वोटर लिस्ट में जुड़वा दिया है’। अपने इस वाक्य में पार्टी कार्यकर्ता एक लाइन जोड़ना भूल जाते हैं और वो ये कि आप हमारी इस अफ़वाह से बेवकूफ़ बन गए हैं इसके लिए हमारे लिए ज़रा तालियाँ तो बजा दीजिए।

अब ज़रा रुकिये और सोचिए कि केजरीवाल के इस कॉल का आख़िर क्या मक़सद हो सकता है। पहली नज़र में तो यह हास्यास्पद कृत्य केंद्र को घेरने की ताक में दिखता है, वहीं दूसरी तरफ़ ये मखौल केजरीवाल के दिमागी बुख़ार को उजागर करता है। इसके पीछे कारण यह है कि जब इस तरह की कॉल लोगों के पास पहुँचती है तो ज़ाहिर सी बात है पहले तो वो अवाक् रह जाते हैं और फिर ये जानने के प्रयास में जुट जाते हैं कि कहीं सच में तो ऐसा नहीं हो गया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से कट गया हो। लेकिन जैसे ही सच्चाई सामने आती है और लोगों को पता चलता है कि असल में ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था यानी वोटर लिस्ट में उनका नाम मौजूद था, तो उन्हें इस कॉल पर बहुत ग़ुस्सा आता है। अफ़वाह की इस कॉल पर लोग अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, वो इस भ्रामक कॉल पर चिड़चिड़ाते हैं, भड़कते हैं, झल्लाते हैं और यहाँ तक की पुलिस में शिक़ायत भी दर्ज़ कराते हैं।

अपनी आपत्ति दर्ज कराने वालों में कई ऐसे नाम शामिल हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर इस तरह की कॉल का उल्लेख किया और आप पार्टी के द्वारा इस तरह की भ्रामक कॉल का जवाब दिया। अपने ट्विटर हैंडल @akash15 से यूज़र ने एक ऐसे ही कॉल का ज़िक्र किया जिसमें फोन करने वाले ने कहा कि वो आम आदमी पार्टी से है और बताया कि बीजेपी ने उसका नाम दिल्ली की वोटर लिस्ट से हटा दिया था। इसके बाद फोन करने वाले ने कहा कि अरविंद केजरीवाल द्वारा चुनाव आयोग से संपर्क करने के बाद हटाए गए नामों की लिस्ट प्राप्त कर ली गई है। इस मामले पर आगे के अपडेट के लिए वो उससे फिर संपर्क करेगा।

असल में जिस ट्विटर यूजर के पास यह कॉल आया था वो दिल्ली से नहीं बल्कि हरियाणा से था और ऐसे में यह संभव ही नहीं है कि उसका नाम दिल्ली की वोटर लिस्ट में दर्ज हो। इस कॉल से केजरीवाल द्वारा अफ़वाह फैलाने की गतिविधि स्पष्ट दिखती है।

ऐसा ही एक मामला अकाली दल के विधायक मनजिंदर सिरसा का है। उनके साथ भी ऐसा ही सबकुछ हुआ। लेकिन जब फोन करने वाले उस व्यक्ति से पूछा गया कि उसे यह (मनजिंदर सिरसा) फोन नंबर कहां से मिला, तो इस पर फोन करने वाले पार्टी के कार्यकर्ता ने कोई जवाब नहीं दिया। इस तरह की भ्रामक कॉल के दुष्प्रचार को रोकने के लिए मनजिंदर ने ट्विटर के ज़रिए एक स्क्रीनशॉट भी साझा किया।

सिरसा ने एक विक्रम कपूर के उस पोस्ट का भी स्क्रीनशॉट साझा किया जिसमें विक्रम कपूर ने आप पार्टी कार्यकर्ता की अफ़वाह संबंधी कॉल का ज़िक्र किया था।

इसके अलावा निशांत शर्मा के नाम से एक अन्य व्यक्ति ने भी एक ऐसी ही घटना की जानकारी दी। बता दें कि निशांत नई दिल्ली में रहते ज़रूर हैं, लेकिन उनका पंजीकरण पटना के मतदाता के रूप में हैं। उनके पास आप पार्टी के कार्यकर्ता द्वारा कॉल किया गया और कहा गया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से हटा दिया गया है। लेकिन इन सब में एक दिलचस्प बात सामने आई और वो ये कि फोन करने वाले व्यक्ति ने निशांत को उसके पिता के नाम से यानी विभूति नारायण के नाम से संबोधित किया। दिल्ली में निशांत के पिता के नाम उसका बिजली कनेक्शन पंजीकृत है। इसलिए, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि आप पार्टी को कॉल करने के लिए बिजली कंपनी के डेटाबेस से लोगों के फोन नंबर मिल रहे हों।

इस मामले में आगे बढ़ते हैं और बताते हैं कि केजरीवाल का यह भ्रामकता फैलाने वाला कॉल दिल्ली पुलिस में शिक़ायत दर्ज होने तक का सफर भी तय कर चुका है। बीजेपी नेता नितिन भाटिया ने इस भ्रामक कॉल को आड़े हाथों लेते हुए पुलिस में शिक़ायत दर्ज कराई। इस शिक़ायत में भाटिया ने उल्लेख किया कि उन्हें ललिता नाम की एक महिला का फोन आया और उसने बताया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से से हटा दिया गया था।

इसके कुछ दिनों बाद दोबारा जतिन नाम के एक कार्यकर्ता का कॉल उनके पास आता है और फिर से वही बातें दोहराई जाती हैं जो पहले कॉल में कही गई थीं। इसके बाद बीजेपी नेता नितिन भाटिया से चुप नहीं बैठा गया और दिल्ली पुलिस में शिक़ायत दर्ज की और अपील की कि आप पार्टी द्वारा फैलाए जा रहे इस तरह के दुष्प्रचार पर लगाम लगनी चाहिए।

दिल्ली में ऐसे तमाम लोग हैं जिनके पास इस तरह की अफ़वाह फैलाने वाला कॉल आया है। पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा फैलाए जा रहे इस दुष्प्रचार के मुखिया तो आख़िर केजरीवाल ही हैं। वोट माँगने की राजनीति में क्या केजरीवाल इतने बेसुध हो गए हैं जहाँ उन्हें इतना भी होश नहीं है कि वो दिल्ली की जनता को भ्रमित करने का पाप कर रहे हैं। आख़िर केजरीवाल अपनी इन अफ़वाहों के बलबूते राजनीति के किस शिखर तक पहुँचना चाहते हैं।

वैसे सच पूछो तो महत्वाकांक्षी होना कोई ग़लत बात नहीं है, लेकिन जनता को गुमराह करना अपराध है। इस अपराध को भी केजरीवाल इस तरह करते हैं जैसे वो कोई क़िला फ़तह कर रहे हों। झूठ बोलने में महारथ हासिल करने की दिशा में लगातार अग्रसर होते केजरीवाल आगामी लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली में डुगडुगी बजाकर तमाशा दिखाने की फ़िराक में हैं। बीजेपी को बदनाम करने और दिल्ली की जनता को अपने खेमें में लाने की जुगत करते केजरीवाल असल में अब अफ़वाह फैलाने को ही अपना मक़सद बना चुके हैं।

पत्रकार महोदय! जाति के नाम पर आप पीत नहीं, पतित पत्रकारिता कर रहे हैं

किसान गजेंद्र की मौत पर TV शो के दौरान फूट-फूट कर रोने वाले और कपड़ों की तरह पेशा बदलने वाले बेचैनी से भरपूर पत्रकार आशुतोष जी, जो कभी केजरीवाल ‘सरजी’ एवं कंपनी में नेता हुआ करते थे, आजकल एकदम अलग किस्म की आग उगल रहे हैं। यानी अपनी वेबसाइट और ट्विटर पर एजेंडा-परस्त गिरोह के बीच सस्ती लोकप्रियता के लिए पूरे होशोहवास में ऐसा ट्वीट करते हैं, जिससे समाज में बंटवारे की खाई बढ़ती ही है लेकिन कम नहीं होती। इन्हें लगता है कि यह दलितों के आका हैं और इनकी वजह से ही गरीबों को रोटी मिल रही है।

तभी आशुतोष जी अचानक नींद से जागते हैं और फ़ौरन सीबीआई के नए निदेशक ऋषि कुमार शुक्ला को लेकर ट्वीट फेंकते हुए लिखते हैं, ”शुक्ला जी तो हो गए सीबीआई निदेशक, कभी कोई दलित होगा सीबीआई निदेशक?” पत्रकार आशुतोष जी इस बात को लेकर यह कहना चाह रहे हैं कि शुक्ला जी को सवर्ण होने के कारण ही CBI का निदेशक बनाया गया है।

मगर आशुतोष जी शायद यह भूल गए हैं कि 1983 बैच के जिस आईपीएस अधिकारी ऋषि कुमार शुक्ला को सीबीआई का नया निदेशक बनाया गया है, उनके नाम पर जिस सेलेक्शन कमेटी ने मुहर लगाई है, उसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी शामिल थे। इसके बाद भी आशुतोष का किसी दलित को सीबीआई निदेशक बनाए जाने को लेकर किया गया यह ट्वीट उनकी संकीर्ण सोच को ही दर्शाता है।

सवाल उठता है कि क्या आशुतोष को नहीं लगता है कि देश के प्रथम नागरिक, यानी
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जो आज तीनों सेनाओं के कमांडर हैं, भी दलित हैं? क्या यह देश में अवसरों की समानता को नहीं दर्शाता है? इसके अलावा आशुतोष जी आपको याद दिला दें कि इससे पहले भारत के 10वें राष्ट्रपति के आर नारायणन भी दलित थे।

आशुतोष जी, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस कॉन्ग्रेस ने 60 सालों तक देश को तमाम घाव दिए हैं, आज आप उनकी हिमाकत करते हुए ऊल-जुलूल ट्वीट कर रहे हैं, जो वाकई शर्म की बात है। पत्रकार महोदय, आपको याद होना चाहिए कि कभी जिस पार्टी के ‘वॉलंटियर’ आप हुआ करते थे, उसके मुखिया जनता की सिम्पैथी और वोट बटोरने के लिए खुद को बनिया घोषित कर चुके हैं। दरअसल आप जैसे पत्रकार ही चाहते हैं कि समाज में जात-पात और भेदभाव का दायरा बढ़े, ताकि आपकी दुकान चलती रहे। यदि इस क्रांतिजीव पत्रकार की मानें तो इस देश के तमाम पदों पर किसी व्यक्ति के निर्वाचन का मापदंड उसकी योग्यता नहीं बल्कि उसकी जाति होनी चाहिए।

टुकड़े-टुकड़े दलों में आपकी चाह होना स्वाभाविक है, लेकिन मात्र चर्चा में बने रहने के लिए हर दूसरे किस्से में जाति और धर्म का बीज ढूंढकर बो देना अतार्किक है और ये आपकी कम अक्ल का परिचय है। जिस लोकतंत्र का प्रथम नागिरक दलित है, उसमें इस तरह के प्रश्न आपकी सस्ती लोकप्रियता का हथकंडा मात्र है। वैसे आपकी वेबसाइट फ़ेक न्यूज़ भी फैलाती है, ऐसा साबित हो चुका है।

पहले पीत पत्रकारिता होती थी। उसमें पत्रकार गिरते थे। लेकिन गिरने की सीमा से भी ज्यादा गिरने को पतित कहते हैं और आप कर रहे हैं पतित पत्रकारिता!

दुनिया की पहली पीड़िता, जिसे अपने साथ हुए छेड़छाड़ और व्यभिचार का खुद ही पता नहीं

तीन बड़े राज्यों के चुनाव के बाद ईवीएम नीरो वंशी बजाते हुए सो रही थी कि अचानक से किसी ने उसे बीच नींद से उठाया और कहा कि देख तेरे नाम की प्रेस कॉन्फ्रेंस हो रही है। ईवीएम ने उस शख्स जो चुप कराते हुए कहा कि अरे! इसमें कौन सी नई बात है, जैसे सूरज का पूर्व से उगना प्रकृति का नियम है और रवीश कुमार का हरेक मुद्दे पर प्रतिसंघी होना शाश्वत सत्य है, वैसे ही मेरे खिलाफ़ ज़हर उगलना भी मतिछिन्नो का प्रिय शग़ल है।

इस बार ईवीएम एकदम भावुक हो गईं थी। उसने आगे लंबा एकालाप लेते हुए कहा कि मैं दुनिया की पहली पीड़िता हूँ, जिसे अपने साथ हुए छेड़छाड़ और व्यभिचार का खुद ही पता नहीं है। मुझे तो डर लगता है कि कहीं किसी दिन कोई मेरा हितैषी आईपीसी की धारा 354 के तहत कोर्ट में मुकदमा न दर्ज करवा दें। आए दिन के इन विपक्षी प्रपंचों से मेरा बाहर निकलना मुहाल हो गया है। बाहर निकलते ही सब ये पूछने लगते है कि तू ठीक तो है न, कहीं लगी तो नहीं! मेरा वश चले तो इज्ज़त के इन ठेकेदारों को तिहाड़ भेज दूँ।

हल्की सी सांस लेते हुए ईवीएम ने आगे भी बोलना जारी रखा। सैय्यद शुजा नाम का मुआ न जाने किस दाढ़ीजार की दाढ़ी से फुदकते हुए बाहर निकल आया और आते ही बोला कि 2014 में मुझसे बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ की गई थी। अरे! इतनी छेड़छाड़ के बाद भी मैं अभी तक जिंदा हूँ और तबसे मैंने बीस से अधिक राज्यों में लोकतंत्र को पल्लवित किया है। मन तो करता है कि इस सैय्यद शुजा के शूजा घोंपा दूँ मग़र अपनी मर्यादा के हाथों बंधी हूँ।

तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी विपक्षी कॉन्ग्रेस ने हमें नैतिकता-शुचिता का प्रमाणपत्र न दिया। अरे! माँ सीता ने भी एक ही बार अग्निपरीक्षा दी थी, हमने तो पंजाब से लेकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान चार-चार जगहों पर अग्निपरीक्षा दी है। सिब्बल जी को चाँदनी चौक ने धोबी पछाड़ दे दिया तो वो अब चार साल बाद हमको दोषी ठहरा रहे हैं। जिस प्रेस कॉन्फ्रेंस से विदेशी पत्रकारों के समूह ने स्वयं को अलग कर दिया, उस सभा के सैय्यद साथी बनकर वकील बाबू आपने देश की लोकतांत्रिक प्रणाली और चुनाव व्यवस्था का सरेआम मज़ाक बनाया है। फिलहाल सुनिए लोपक और रौनक का इस विषय पर क्या कहना है!

कहने को तो बहुत कुछ था ईवीएम के पास मग़र अब वो मारे भावुकता के बोलने में सक्षम न थी और फ़िर अभी तो उन्हें आगे भी पराजितों के समूह द्वारा स्वयं से छेड़छाड़ किए जाने का दंश झेलना है। सो उसने फिलहाल के लिए आराम करना ही उचित समझा।

यह व्यंग्य लोपक पर ‘देख तमाशा ईवीएम का!‘ नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। सहमति के साथ यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है, ताकि ऑपइंडिया के पाठक भी हँसते रहें, मज़े लेते रहें 🙂

प्यारे बुद्धिजीवियो! नितिन गडकरी उड़ता तीर है, इसे लेकर बुरे फँसोगे

राजनीति में और खासकर विपक्ष में इन दिनों एक हल्ला उठा हुआ है और वो है भाजपा के केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को लेकर। महागठबंधन से विभीषण की तरह लतियाए जाने के बाद अपने प्रधानमंत्री पद के चेहरे लिए तरसती और जूझती हुई ये पार्टी, इस मामले में ज्यादा मशगूल है कि सत्ताधारी पार्टी में क्या चल रहा है और क्या नहीं?

पहला सवाल तो यह है कि क्या भारत में आज विपक्ष की मात्र यह भूमिका रह गई है कि वो अपने घर में फैले रायतों को समेटने के बजाए, पड़ोस में चल रहे हो-हल्ला पर कान रखता है? इस तरह से इसे विपक्ष कम और मोहल्ले की उस मौसी का नाम देना ज्यादा बेहतर होगा, जिसे मोहल्ले भर के एक-एक घर की कानाफूसी से जुटाई हुई तमाम जानकारियों में रूचि रहा करती है।

कॉन्ग्रेस शासनकाल में वित्त मंत्री रह चुके पी चिदमबरम का मानना है कि नितिन गडकरी नरेंद्र मोदी को चुनावों के बाद चुनौती देने वाले हैं। यानी, आगामी आम चुनाव में भाजपा बहुमत जुटाने में विफल रहती है तो प्रधानमंत्री पद के लिए नितिन गडकरी अपनी दावेदारी ठोकेंगे।

दिवास्वप्न देखना और कॉन्सपिरेसी थ्योरी में यकीन करना कॉन्ग्रेस पार्टी का एक पार्ट टाइम पेशा बनता जा रहा है, और शायद इस तरह की संभावनाओं पर भविष्यवाणियाँ कर के कॉन्ग्रेस के नेता अपने लिए 2019 के आम चुनावों के बाद रोज़गार तलाश रहे हैं।

पार्टी अध्यक्ष मुँगेरीलाल ही जब सोते-जागते स्वप्न देखने में मशगूल हैं तो फिर सिपहसालारों से तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए। उनके सपनों के किस्से और कहानियाँ मैं पहले भी बता चुका हूँ।

क्या नरेंद्र मोदी को सिर्फ इसलिए नकार दिया जाना चाहिए, क्योंकि वो जनता के मर्म को जानते और समझते हैं?

तीन दशक तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे और सिंगापुर के संस्थापक माने जाने वाले ली कुआन यू ने नोटबंदी के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था को जिस प्रधानमंत्री की जरुरत थी, वो उसे मिल चुका है। उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी देश की जनता की नब्ज़ को समझते हैं और उस अनुसार काम भी करते हैं। साथ ही यह भी कहा था की भारत के नागरिकों की विशेषता है कि पहले तो ये लोग किसी काम के लिए हामी नहीं भरते, लेकिन जब एक बार रास्ते पर चल पड़ते हैं तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखते।

पिछले 4 सालों में जो एक बात सबसे ज्यादा गौर करने लायक रही है वो ये कि विपक्ष लगातार भाजपा की बिछाई पिच पर ही क्रिकेट खेलने उतरा है और नरेंद्र मोदी ऐन समय पर गुगली फेंक देते हैं जिससे विपक्ष की तमाम रणनीति तितर-बितर हो जाती है और वो पगबाधा होकर पवेलियन लौट जाता है।

वंशवाद और चमचागीरी में लिप्त कॉन्ग्रेस सरकार अपने वैचारिक और बुद्दिजीवी ब्रिगेड को मोर्चे पर लाने के बजाए निरंतर एक ऐसे प्यादे पर दाँव लगाने की फ़िराक में लगी रहती है, जिसे कुछ दिन पहले ही वो प्रियंका गाँधी को राजनीति में लाकर ‘जोकर’ साबित कर चुकी है। इसके लिए भी अगर वो किसी दिन नरेंद्र मोदी को ही जिम्मेदार ठहरा दें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। साथ ही, इतिहास गवाह है कि इस वंशवाद, शासन करने और सत्ता अपने हाथों में रखने की शौक़ीन यह पार्टी, अपने बुद्दिजीवी वर्ग को कभी घोटालों में बलि का बकरा बनाती आई है या फिर उन्हें किसी ना किसी तरह से पार्टी की मुख्यधारा से दूर कर के उनके पँख कुरेदते आई है।

राहुल गाँधी और उनकी गोदी मीडिया ये सत्य बखूबी जानती है कि वर्तमान सरकार की सबसे बड़ी जीत उनके कार्यकाल में एक भी घोटाले का न होना है। यही वजह है कि मुद्दों की कमी के चलते यह गिरोह प्रधानमंत्री को कभी तानाशाह तो कभी फासीवादी कहता नज़र आता है।

नितिन गडकरी को लेकर खेले जा रहे इस दाँव के लिए मुद्दों के लिए भटकती हुई विपक्ष की आत्मा ही जिम्मेदार है। लेकिन मेरा मानना है कि नितिन गडकरी के बयानों को मुद्दा बनाना उस संस्था के लिए स्वाभाविक है, जो खुद एक परिवार की दकियानूसी और चापलूसी में संलग्न रहने का आदी है।

कॉन्ग्रेस को स्वतंत्र विचार रखने वाले लोग सिर्फ और सिर्फ बगावती नज़र आते हैं क्योंकि उनके साथ यही होता आया है। नितिन गडकरी जैसा व्यक्तित्व हर हाल में भाजपा की धरोहर है और ये पार्टी में मौजूद लोकतंत्र को दर्शाता है, ना कि बगावत को। लेकिन अगर कॉन्ग्रेस यही बात समझ जाती तो आज देश की इतनी पुरानी पार्टी की कहानी कुछ और होती।

ये भाजपा ही है, जिसके नेता को एक ऐसे व्यक्तित्व के ख़िलाफ़ बोलने की आज़ादी है जिसके समर्थन में लोकतंत्र का एक बड़ा वर्ग मौज़ूद है, जबकि कॉन्ग्रेस पार्टी के हालात ये हैं कि जिसने भी शीर्ष नेतृत्व के विरुध्द आवाज़ उठाई उसे ही ‘उठा’ लिया गया। नीतिन गडकरी इस बात का उदाहरण हैं कि BJP में कम से कम कोई तो है भी जो मोदी को कह सके कि ‘हटो’, वरना कॉन्ग्रेस में तो जिस-जिस ने ‘हटो’ कहा, उसे ही ‘हटा’ देने की प्रथा रही है।

कॉन्ग्रेस का असल दर्द:

क्योंकि मोदी सरकार के दौरान कॉन्ग्रेस को आए दिन घोटाले, जनता पर आँसू गैस छोड़ने, रबड़ की गोलियाँ जैसे काण्ड देखने को नहीं मिल रहे हैं, इसलिए अब लीडरशिप में फूट डालने के लिए नई नौटंकी रच रही है। इसके लिए वो यदा-कदा उस गोदी मीडिया का भी सहारा लेते दिख जाता है, जो अब धीरे-धीरे उभरता हुआ कहानीकार बन चुका है। ‘व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी’ के ‘जातिवाचक कुलपति’ तो इनके पास हैं ही।

नितिन गडकरी वही काम कर रहे हैं, जो एक मंत्रिमंडल से उम्मीद की जा सकती है। वो अगर सत्ता में रहते हुए शासन-प्रशासन की कमियों के बारे में बात करते हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए एक बेहतरीन सबक है और हर राजनीतिक दल को इससे सीख लेनी चाहिए। यह हर मायने में प्रशंसा का विषय है, ना की मौकापरस्त होकर नरेंद्र मोदी सरकार को कोसने का।

प्यारे कट्टर विपक्षी साथियों, नींद से जाग जाइए और इस हक़ीक़त को समझकर स्वीकार करिए कि इस देश के नागरिक का असल रोना लोकतंत्र, पितृसत्ता या अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे प्रोपैगैंडा नहीं, बल्कि एक मजबूत विपक्ष की माँग है। बेहतर होगा कि आप ‘सरला मौसी’ होने के बजाए ,एक बेहतर राजनीति के विकल्प बनने पर ध्यान दें।