उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने नैमिष तीर्थ को भी अयोध्या की तर्ज पर विकसित करने का फ़ैसला लिया है। नैमिषारण्य का सनातन धर्म में बड़ा ही पौराणिक महत्व है। योगी सरकार ने संतों के सुझाव पर आधुनिकता के साथ-साथ पुरातनता का ध्यान रखने का भी आश्वासन दिया है। ये नैमिषारण्य ही है जहाँ अधिकतर पुराण लिखे गए, साथ ही भगवान श्रीराम ने अपना अश्वमेध यज्ञ भी यहीं आयोजित किया था। नैमिषारण्य में अक्सर ऋषि-मुनियों की धर्मसभा होती रहती थी।
नैमिषारण्य का विकास कर रही योगी सरकार
नैमिषारण्य में जल्द ही हेलीकॉप्टर सेवा भी शुरू की जाएगी। नए घाट बनाए जाएँगे, साथ ही पुराने घाटों का कायाकल्प किया जाएगा। साथ ही सड़कों का चौड़ीकरण भी किया जाएगा। नैमिषारण्य में हेलीपोर्ट बनकर तैयार हो गया है और PPP (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) की तर्ज पर संचालित किया जाएगा। पर्यटन विभाग ने इसे लेकर टेंडर की प्रक्रिया शुरू कर दी है। दक्षिण भारत से यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। पर्यटन भी बढ़ेगा। पहली उड़ान यहाँ से अयोध्या के लिए निकलेगी।
नैमिषारण्य में श्रीमद्भागवत एवं सत्यनारायण समेत तमाम कथाओं का श्रवण करने का भी विशेष महत्व है। इसे 88,000 ऋषि-मुनियों की पावन तपोभूमि के रूप में जाना जाता है। इसे योगी सरकार एक ‘वैदिक सिटी’ के रूप में विकसित करेगी। ठाकुरनगर-रुद्रावर्त धाम मार्ग के किनारे हेलीपोर्ट बनकर तैयार हो गया है, जिसमें 9 करोड़ रुपए लगे हैं। 3 हेलीपैड भी बनाए गए हैं। 5-7 सीटर हेलीकॉप्टर उड़ान भरेंगे। मनु-शतरूपा ने भी नैमिषारण्य में ही तपस्या की थी।
नैमिषारण्य में वेद विज्ञान अध्ययन केंद्र की भी स्थापना की जाएगी, जिससे युवाओं को प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन का मौका मिलेगा। यहाँ आधारभूत संरचनाओं को भी विकसित किया जाएगा। इसके लिए 5 एकड़ जमीन भी सरकार ने आवंटित कर दी है। इसके लिए सबसे पहले 25 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था। वैदिक आर्किटेक्चर और वास्तुशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री भी दी जाएगी। गुरुकुल परंपरा के साथ आधुनिक तकनीक मिलेगा और इस तरह यहाँ शास्त्रों का अध्ययन कर युवा निकलेंगे।
नैमिषारण्य में हुई धर्मसभा, जहाँ पड़े महापुराणों के बीज
वाराह पुराण में एक कथा है, जिसमें भगवान विष्णु ने गुरमुख नामक ऋषि से कहा था कि उन्होंने निमिष मात्र (पालक झपकते ही) में यहाँ असुरों का संहार कर दिया है, इसीलिए ये क्षेत्र नैमिषारण्य के नाम से जाना जाएगा। इसी तरह पद्म पुराण में कथा है कि प्रयागराज में इकट्ठा हुए ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से एक ऐसे स्थल के बारे में पूछा, जहाँ वो कथा कर सकें। भगवान विष्णु ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि जहाँ इस चक्र का नेमि (बीच का डंडा) नष्ट हो जाएगा, वही वो स्थल होगा। ऋषि-मुनि इस चक्र के पीछे चले और नैमिषारण्य वाली जगह आकर ही ये चक्र ठहर गया।
आख़िर नैमिषारण्य महत्वपूर्ण क्यों है? अगर हम प्राचीन काल में जाते हैं तो पता चलता है कि महाभारत के युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने धर्मपूर्वक भारत-भूमि पर शासन किया। इसके बाद परीक्षित और फिर जनमेजय हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे। तबतक कलियुग का प्रादुर्भाव होने लगा था। ये घटना महाभारत युद्ध के 1500 वर्ष बाद की है, जब शौनक ऋषि ने देश भर के तमाम ऋषि-मुनियों को यहाँ इकट्ठा किया। शौनक ऋषि का मन्त्रों की रचना में बड़ा योगदान था। माना जाता है कि तब देश-समाज पर अवश्य ही कोई संकट आन पड़ा होगा, तभी ये धर्मसभा बुलाई गई थी।
वहाँ सूत ऋषि को विशिष्ट अतिथि के रूप में बुलाया गया था, जिन्होंने एक के बाद एक करके सैकड़ों कथाएँ सुनाईं। सवाल-जवाब का लंबा दौड़ चला और इनको लिपिबद्ध भी किया गया। इसी तरह पुराणों की रचना हुई। कई वर्षों तक ये प्रश्नोत्तरी चलती रही। हालाँकि, इस धर्मसभा के बाद भी सदियों तक पुराणों में कुछ न कुछ जोड़ा जाता रहा, इस दौरान कई ऐसी चीजें भी जोड़ दी गईं जो धर्म विरोधियों की साज़िश थीं। मुग़लकाल में इस्लामी आक्रांताओं ने भी पुराणों को दूषित करने का प्रयास किया। एक पौराणिक श्लोक है:
एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः।
प्रपच्छुर्मुनयः सर्वे सूतं पौराणिकं खलु॥
अर्थात, एक बार नैमिष वन में शौनक आदि ऋषियों ने सूतजी से कई पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रश्न किए। संस्कृत भाषा के विद्वान सूर्यकान्त बाली ने अपनी पुस्तक ‘भारत गाथा’ में नैमिषारण्य में हुई इस महासंगोष्ठी के बारे में विस्तार से बताया है। नैमिषारण्य में एक नहीं, बल्कि कई धर्म-संगोष्ठियाँ हुई थीं। महाभारत और ब्रह्मपुराण में कथा मिलती है कि एक बार 12 वर्षों का सत्र चला था। मत्स्य पुराण, और अग्निपुराण में भी एक दीर्घसत्र की बात है। भागवत महापुराण में तो एक 1000 वर्षों तक चलने वाले सत्र का जिक्र है।
नैमिषारण्य में रहने वाले ऋषियों को नैमिषीय कहा जाता था। जिस तरह से त्रेतायुग में दण्डकारण्य का महत्व था, उसी तरह कलियुग के प्रारंभ में नैमिषारण्य का महत्व रहा। वो आध्यात्मिक संवाद और स्वाध्याय का एक केंद्र हुआ करता था। इसका अर्थ है कि उस समय नैमिषारण्य में इतने ऋषि-मुनियों के ठहरने, खाने-पीने और कथा का श्रवण करने के लिए उचित व्यवस्थाएँ रही होंगी। सभी 18 पुराणों की रचना के बीज यहीं हुए अंतिम धर्मसभा में पड़े। सूत एवं शौनक ऋषियों ने कथाओं के प्रचार-प्रसार के लिए अपने उत्तराधिकारी भी तय किए।
नैमिषारण्य के मंदिर, वहाँ का आध्यात्मिक महत्व
नैमिषारण्य तीर्थ आज उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में स्थित है। वहाँ दक्षिण भारत से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। नैमिषनाथ विष्णु मंदिर यहाँ का प्रमुख मंदिर है, जहाँ उनकी शेषनाग पर विराजमान प्रतिमा भी है। यहाँ एक ‘चक्र तीर्थ’ भी है, जहाँ स्थित कुंड का विशेष महत्व है। यहाँ कई प्राचीन आश्रम व मठ हैं, जहाँ ऋषि-मुनि तपस्या किया करते थे। लखनऊ से 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नैमिषारण्य तीर्थ को अब तक की सरकारों ने विकास से अछूता रखा था, यहाँ के महत्व को पिछली सरकारें समझ नहीं पाईं।
चक्रतीर्थी, भेतेश्वरनाथ मंदिर, व्यास गद्दी, हवन कुंड, ललिता देवी का मंदिर, पंचप्रयाग, शेष मंदिर, क्षेमकाया, मंदिर, हनुमान गढ़़ी, शिवाला-भैरव जी मंदिर, पंच पांडव मंदिर, पंचपुराण मंदिर, माँ आनंदमयी आश्रम, नारदानन्द सरस्वती आश्रम-देवपुरी मंदिर, रामानुज कोट, अहोबिल मंठ और परमहंस गौड़ीय मठ – ये सब वो पवित्र स्थल हैं, जो नैमिषारण्य के महत्व को बढ़ाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में भी आपको नैमिषारण्य तीर्थ की महत्ता को लेकर ये चौपाई मिलेगी:
तीरथ बर नैमिष बिख्याता।
अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
यहाँ स्थित ललिता देवी मंदिर का भी स्थानीय श्रद्धालुओं में विशेष महत्व है। ये कथा तो आपको पता ही है कि हिमालय के कनखल में प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया था और उसमें महादेव को नहीं बुलाया था। सती के आत्मदास के बाद जब उनका मृत शरीर लेकर महादेव फिर रहे थे, तब विष्णु ने चक्र से मृत शरीर के टुकड़े किए। इस दौरान सती का हृदय नैमिषारण्य में ही गिरा और यहाँ लिंगधारिणी ललिता देवी का प्राकट्य हुआ। माना जाता है कि नैमिषारण्य में कलियुग का प्रभाव नहीं रहता।
यहाँ एक अक्षय वट भी है, जिसके बारे में प्रचलित है कि महर्षि वेद-व्यास के शिष्य महर्षि जैमिनी ने यहाँ तपस्या की थी। जैसे बिहार के गया को पितरों का चरण मानते हैं, ऐसे ही नैमिषारण्य में उनकी नाभी मानी गई है। पितरों की शांति के लिए भी यहाँ दान-पुण्य किए जाते रहे हैं। अक्षय वट के नीचे ही ‘व्यास गद्दी’ भी है, जहाँ से महर्षि वेद-व्यास ने उपदेश दिए थे। इस धाम के बारे में ये भी उल्लेख है कि वृत्रासुर के वध के लिए महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ यहीं दान की थीं। इन हड्डियों से देवराज इंद्र का वज्र बना।
हनुमान गढ़ी का भी विशेष महत्व है। यहाँ पटल लोक से हनुमान जी के उद्भव को दर्शाया गया है। भगवान राम और लक्ष्मण को अपने कंधे पर लेकर जाते हुए हनुमान जी की मूर्ति यहाँ है। इसे दक्षिणेश्वर मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यहाँ की मुख्य प्रतिमा दक्षिण दिशा की ओर है। ये चक्रतीर्थ से 500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। 12 किलोमीटर दूर मिश्रिख में दधीचि कुंड है। यहाँ का सबसे बड़ा आश्रम देवपुरी मंदिर है, जिसे नारदानंद स्वामी ने बनवाया था। ये 5 मंजिला परिसर है, जहाँ 108 मंदिर हैं। ये 3 एकड़ में फैला हुआ है।

दक्षिण भारत से भी नैमिषारण्य का ख़ास जुड़ाव है, जो बताता है कि भारत भूमि सनातन के कारण ही एक है। नैमिषारण्य के बालाजी मंदिर में तिरुपति मंदिर भी है, जिसका प्रबंधन आंध्र प्रदेश स्थित TTD (तिरुमला तिरुपति देवस्थानम) बोर्ड सँभालता है। प्रत्येक वर्ष फरवरी में यहाँ मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय आते हैं। एक सप्ताह तक चलने वाले इस आयोजन में ‘दीप यज्ञ’ भी चलता है। 1996 में वेंकटरामाचार्य से प्रेरणा लेकर इस मंदिर को निर्मित किया गया था। चक्रतीर्थ से 7 किलोमीटर दूर महादेव का ‘रुद्रावर्त तीर्थ’ भी है।