Wednesday, April 24, 2024
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रोता हुआ आम का पेड़, आरती के समय मंदिर में देवता को प्रणाम करने वाला ताड़ का वृक्ष… वेदों से प्रेरित था जगदीश चंद्र बोस का शोध, नहीं मिला योगदान लायक सम्मान

आज के युग में उस डार्विन की थ्योरी बिना किसी सबूत के पढ़ा-पढ़ा कर बताया जाता है कि आदमी पहले बंदर थे (जबकि Creation और Evolution) के कई अन्य सिद्धांत भी हैं, उस समय में कई वैज्ञानिक भी ये मानते हैं कि जगदीश चंद्र बोस के योगदानों को भुला दिया गया।

भारतीय वैज्ञानिकों में जगदीश चंद्र बोस का एक खास स्थान है। खासकर जीवविज्ञान के मामले में तो वो दुनिया भर में जाने जाते हैं। उन्होंने ही पहली बार साबित किया था कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। सन्न 1906 में ही उन्होंने अपने एक रिसर्च पेपर के जरिए साबित किया था कि कैसे पेड़-पौधे अपने साथ होने वाले बर्तावों पर प्रतिक्रिया देते हैं। ऐसे समय में जब विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मानवीय सुख-सुविधाओं पर केंद्रित था, जगदीश चंद्र बोस उन वैज्ञानिकों में थे जिन्होंने प्रकृति को समझा।

हालाँकि, भारत में वामपंथियों और इतिहासकारों ने जगदीश चंद्र बोस को भाव नहीं दिया या यूँ कहें कि उनके योगदानों की उतनी चर्चा ही नहीं की गई। शायद इसीलिए, क्योंकि जगदीश चंद्र बोस वेदों में विश्वास रखते थे और सनातन धर्म के सिद्धांतों को समझ कर ही उन्होंने आधुनिक विज्ञान के जरिए दुनिया भर में भारत का डंका बजाया। उन्होंने दिखाया था कि कैसे कोलकाता में एक आम का पेड़ तापमान में उतार-चढ़ाव के कारण ‘रो रहा था।’

इससे भी ज्यादा रोचक है ‘Praying Palm Tree’ वाला रिसर्च, जिसमें उन्होंने बताया था कि कैसे शाम को जब पास के मंदिर में आरती होती थी जब खजूर का वृक्ष भी झुक गया था – इसका कारण क्या था। ये ऐसा ही था, जैसे ताड़ का पेड़ भी मंदिर में भगवान की प्रार्थना कर रहा हो। ये कोरी कल्पना नहीं थी। असल में तापमान के उतार-चढ़ाव के कारण ऐसा हो रहा था। इसके पीछे विज्ञान था, जो उन्होंने साबित किया – कोई अंधविश्वास नहीं। असल में रात में तापमान घटते ही ये पेड़ झुक जाता था – ऐसा साबित कर के उन्होंने आसपास के लोगों को इसका सही कारण बताया।

बावजूद इसके लिबरल गिरोह उन्हें एक सफल वैज्ञानिक के रूप में स्वीकार नहीं करता। उन्होंने प्रयोगों के द्वारा सिद्ध किया कि कैसे पेड़-पौधों की जड़ें ही नहीं, बल्कि उसके पत्ते और तना भी पानी खींचते हैं। जैसे मानव हृदय रक्त खींचने के लिए फैलता-सिकुड़ता है, पेड़-पौधों की कोशिकाओं में भी ऐसे ही लक्षण उन्होंने साबित किए। जगदीश चंद्र बोस का स्वभाव ऐसा था कि उनके बनाए उपकरणों के बदले में जब भारी धनराशि के ऑफर्स आए तो उन्होंने स्वीकार नहीं किया।

उनका कहना था कि ज्ञान किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं हो सकती है। उन्होंने कुछ पौधों में बिजली का प्रवाह डाल कर ये साबित किया कि उसकी प्रतिक्रिया कैसी होती है। साथ ही उन्होंने बताया कि भारत के ऋषि-मुनि काफी पहले से ये सब जानते थे। छुईमुई का पौधा मनुष्य के छूते ही प्रतिक्रिया देता है। उन्होंने दिखाया कि अन्य पेड़-पौधों में भी ऐसा होता है, लेकिन नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता। उन्होंने प्रदर्शित किया कि विष देने से पेड़-पौधों की भी मृत्यु हो सकती है।

जिस ‘रॉयल सोसाइटी’ में उन्होंने कई चीजें साबित की थीं, उसने उनके शोध को प्रकाशित करने में विलंब किया। उन्होंने कई पुस्तकें लिख कर खुद प्रकाशित की और हमेशा विश्वास जताया था कि उनका उद्देश्य सत्य की खोज करना है। उन्होंने वेदों के सिद्धांत की प्रशंसा करते हुए कहा कि हजारों वर्ष पूर्व ही गंगा किनारे तपस्या करने वाले हमारे ऋषि-मुनियों ने विश्व के सभी सजीव-निर्जीव वस्तुओं में एक ही ईश्वर को देखा। उन्होंने एक तत्व ही सब में देखा।

आज के युग में उस डार्विन की थ्योरी बिना किसी सबूत के पढ़ा-पढ़ा कर बताया जाता है कि आदमी पहले बंदर थे (जबकि Creation और Evolution) के कई अन्य सिद्धांत भी हैं, उस समय में कई वैज्ञानिक भी ये मानते हैं कि जगदीश चंद्र बोस के योगदानों को भुला दिया गया। जबकि बोस अपने समय से काफी आगे थे। कहा जाता है कि उनके प्रयोग गलत साबित हो चुके हैं। बोस के कार्यों को गलत साबित करने के चक्कर में कई वर्षों तक ‘प्लांट इलेक्ट्रिक सिग्नलिंग’ का कार्य रुका रहा।

जगदीश चंद्र बोस के वैज्ञानिक करियर को सामान्यतः 3 चरणों में बाँटा जा सकता है। पहला चरण, जब उन्होंने 1894 से लेकर 1899 तक माइक्रोवेव रेडिएशन पर शोध किया। इसी शोध के आधार पर इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन को अच्छे से समझने का कार्य क्लर्क मैक्सवेल के नेतृत्व में शुरू हुआ। इसके बाद अगले 3 वर्ष उन्होंने सजीव-निर्जीव वस्तुओं पर एलेक्ट्रोग्राफ़िक प्रतिक्रिया के अध्ययन में बिताए। इसके बाद अपने निधन तक उन्होंने पेड़-पौधों पर रिसर्च किया।

अंग्रेजों के गुलाम भारत में जगदीश चंद्र बोस ने दुनिया को दिखाया कि वैदिक विज्ञान को आधार बना कर हमारा देश भी वैज्ञानिक शोधों में सक्षम है। उन्होंने एक संबोधन में कहा था कि प्राचीन चिंतकों को ये पता था कि जीवन और सोचने की क्षमता हर जगह मौजूद है, बस ऊर्जा और क्रियाकलाप के मामले में वो अलग-अलग हैं। वेदों में ‘ब्राह्मण’, अर्थात एक सत्ता का चिंतन है, जिस पर विश्वास जताते हुए उन्होंने कहा था कि नए खोज हमारे उन पूर्वजों की बातों पर मुहर लगा रहे हैं।

जगदीश चंद्र बोस के पिता ‘ब्रह्मो’ परंपरा के अनुयायी थे। इस समाज की तरह उनका भी हिन्दू धर्म में हो रहे तमाम सुधारों को लेकर सहमति थी। तकनीक और वैज्ञानिक वैज्ञानिक रचनात्मकता के देवता भगवान विश्वकर्मा में उनकी आस्था थी। सबसे बड़े शिल्पकार के रूप में कलाकारों द्वारा विश्वकर्मा की पूजा से बोस भी प्रेरित थे। ब्रह्मो समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय को लेकर भी वो प्रेरित थे, जिन्होंने वो पूर्व-पश्चिम में संपर्क बढ़ाने के लिए योगदान देने वाला मानते थे।

जहाँ जगदीश चंद्र बोस के पिता अद्वैत वेदांत के अनुयायी थे, उनकी माँ की महाकाली में गहरी आस्था थी। विवेकानंद भी जगदीश चंद्र बोस का काफी सम्मान करते थे। पेरिस में दोनों की मुलाकात भी हुई थी। पूरे विश्व में एकत्व को लेकर उनकी धरना का विवेकानंद ने भी समर्थन किया था। तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय कैसे दुनिया भर में शिक्षा और शोध के सबसे बड़े केंद्र थे, इस संबंध में उन्होंने दुनिया को परिचित कराया और BHU के छात्रों से एक बार कहा कि बुद्धिजीवी राष्ट्रों के बीच स्थान सुनिश्चित करने के बाद हमें अपनी प्राचीन संस्कृति की बात करनी चाहिए।

30 नवंबर, 1858 को जन्मे जगदीश चंद्र बोस ने बताया था कि बचपन में चिड़िया, पशुओं और जलीय जीवों की कहानियाँ सुन कर प्रकृति के प्रति उनकी रुचि जाएगी। उनकी माँ के व्यवहार के बाद बचपन में ही उनके मन से छूत-अछूत की भावना हट गई थी और सभी जीवों को एक समान देखने की धारणा बलवती हो गई थी। 1879 में कलकत्ता से स्नातक करने वाले जगदीश चंद्र बोस का ये भी कहना था कि नैतिक मूल्यों के बिना शिक्षा का कोई महत्व ही नहीं है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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