“तुम सोचते हो कि हमारी लड़ाई साल भर की है, दस साल की है या फिर बीस, पचास या सौ साल की है, जबकि हमारी लड़ाई तब तक की है, जब तक हमारी जीत नहीं हो जाती।”
ये ध्येय वाक्य एक आतंकी विचारधारा का भी है, इज़रायल वालों का भी है और लगता है कि भारत को बर्बाद करने पर तुले वामपंथियों और लिबरपंथियों के गिरोह का भी है। मतलब इससे नहीं है कि इनके हर झूठ को आप पहले से कम समय में पकड़ लें, मतलब इससे है कि ये प्रलाप करते रहेंगे, अजेंडाबाजी चलती रहेगी, प्रोपगेंडा का प्रपंच चलता रहेगा… एक के बाद एक… आप तर्क करेंगे, ये पिछले झूठ को भुला कर नए झूठ गढ़ लेंगे।
उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ एक भीड़ द्वारा किए गए सामाजिक अपराध को मज़हबी बता कर चुनावों के परिणाम को प्रभावित करने से लेकर आठ साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या को हिन्दू और हिन्दुस्तान से जोड़ कर पूरे विश्व में एक धर्म और राष्ट्र की छवि सिर्फ इसलिए धूमिल करने की कोशिश हुई क्योंकि सत्ता के केंद्र में विरोधी विचारधारा के लोग हैं।
चर्चों में किसी चोर ने आग लगाई, या शराबी ने कुछ तोड़ा और वामपंथी चर्चा का विषय बना कि हिन्दू अल्पसंख्यकों को जीने नहीं दे रहे। कथित चोर तबरेज की मृत्यु हृदयाघात से हुई और बवाल काटा गया कि ‘जय श्री राम’ न बोलने पर उसे मार दिया गया। इसमें दोमत नहीं कि हत्या का कारण पिटाई है, लेकिन पिटाई का कारण उसका समुदाय विशेष से होना नहीं, कथित तौर पर एक चोर होना था। लेकिन 2018 से अब तक 22 हिन्दुओं की समुदाय विशेष द्वारा की गई मज़हबी हत्या पर एक चुप्पी दिखती है।
इनकी संगठनात्मक क्षमता, डिजिटल से लेकर सड़कों तक देखते ही बनती है कि गौरी लंकेश की हत्या के आधे घंटे के भीतर हत्यारे का राइट विंगर होना पता चल जाता है इन्हें और ज़िम्मेदारी सीधे मोदी की, लेकिन राजदेव रंजन सरीखे बाईस और पत्रकारों की हत्या पर एक ट्वीट तक नहीं जाता।
पहले ये खुले सांड की तरह हर खेत में घुस जाते थे, कोई पकड़ने वाला नहीं था और सत्ता में बैठा सत्ताधीश इनकी बातों से आनंद पाता था क्योंकि अगर कुछ घटना हुई तो आसानी से उस विचारधारा पर थोप दो जो तुम्हें चैलेंज करती हो, और अगर वही सत्ता में रहे तब तो कह दो कि हर चीज पर तो इन्हीं का नियंत्रण है, तो ये मनमानी कर रहे हैं, अपराधियों को संरक्षण प्राप्त है। चित मैं जीता, पट तू हारा…
न्यायपालिका पर हमले की शुरुआत
अब आने वाले दिनों में आप देखेंगे कि न्यायालयों के फ़ैसलों पर सवाल उठेंगे, ये कहा जाएगा कि सब कुछ मैनेज हो गया है। चूँकि लोकतंत्र की हत्या का गन्ना पेड़ कर उसकी सिट्ठी निकाल चुके मीडिया के एंकरों, नेताओं और चिरकुट विचारधारा के समर्थकों के लिए सत्ता में बैठी विचारधारा सशक्त ही होती जा रही है, और लोग उसे प्रो-इनकम्बेन्सी के आधार पर सहमति दे रहे हैं, तो न्यायपालिका, जिस पर हर नागरिक का विश्वास है, उसे ही डीलेजिटिमाइज यानी बिका हुआ, नकारा, खोखला जैसा साबित करने पर आ गए हैं।
आप देखिए कि रवीश कुमार मनीला में अवार्ड ले रहे हैं और उनकी स्पीच पोलिटिकल से भी आगे निकल कर एक टुच्ची विरोधी पार्टी के नेता जैसी हो जाती है जिसका एक ही मकसद होता है सामने वाले की छवि खराब करना। रवीश कुमार बहुत ही सामान्य तरीके से बता देते हैं कि जुडिशरी मैनेज हो गई है, नागरिकों के शत्रु के तौर पर कार्य कर रही है।
ऐसा कहने के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है? जबकि मनीला तो छोड़िए अमेरिका भी अब उस स्थिति में नहीं है कि प्रतिबंधों का धमकी दे कर भारत सरकार पर दबाव बना कर किसी को बचा ले या भगा दे। भोपाल गैस कांड वाले एंडरसन की याद तो सबको होगी ही। फिर ऐसे मंचों पर क्यो रो रहे हैं लोग? प्रणय रॉय, अर्बन नक्सलियों की गिरफ़्तारी, चिदम्बरम से लेकर सोनिया तक कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं तो जरूरी है कि जहाँ से सजा मिलने की उम्मीद हो, उस संस्था को ही भ्रष्ट कह दिया जाए।
इसलिए अगला चरण न्यायपालिका पर हमले का है। अपने गिरोह के चोरों और नेताओं को सजा से या पब्लिक परसेप्शन से, उनकी छवि को सही रखने के लिए इन्हें न्यायालय पर, सरकारी संस्थाओं पर हमला बोलना ही होगा। ये जानते हैं कि न्यायिक प्रक्रिया तो लम्बी चलेगी लेकिन लोगों की नज़रों में इनके तारणहारों की, चरणपादुका चटवाने वालों की, इन्हें ज़िंदा रखनेवालों की इमेज तो खराब हो जाएगी, और आज के दौर में जब पार्टी पहले से ही अपनी छवि बर्बाद कर चुकी हो, तो और आरोपों का सही साबित होते जाना, उनकी राजनैतिक करियर के लिए बिलकुल गलत होगा। अतः, रास्ता एक ही है कि ‘जुडिशरी कुछ लोगों के इशारे पर चल रही है’ कहते हुए माहौल बनाया जाए।
लेकिन माहौल बनाने से क्या होगा? माहौल बनाने का सबसे बड़ा फायदा होता है कि लोग उन्मादी होते जाते हैं। उनके पास हर दिन एक नई बात आती है जिससे उन्हें विश्वास दिलाया जाता है कि सरकार उनके ऊपर नकेल कस रही है, विरोधियों का दमन कर रही है, झूठे केस में फँसा रही है, और तो और सरकार साक्ष्य पैदा कर रही है। इससे पार्टी समर्थक तो छोड़िए, जो ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति है, वो भी सोचने लगते हैं कि सही में लोकतंत्र का हर स्तंभ ख़तरे में है या खोखला किया जा रहा है। अगर वो हर रोज यही सुनेगा कि पार्टी सत्ता में है, विरोधी पर केस बनाया, फिर एजेंसियों को कहा कि घर से जलील कर के उठाओ, फिर जज को मैनेज कर के कहा कि इसे बेल मत दो, फिर झूठे सबूत ले आओ और उस आधार पर सजा दिलवा दो।
ऐसा एक बार हो तो आप कहेंगे कि मीडिया वाले कुछ भी दिखाते हैं, लेकिन जब राफ़ेल में ‘जाँच कराने में क्या जाता है’ हर दिन आपको कहा जाए तो आप मानने लगते हैं कि हाँ, जाँच करा ही लो। जबकि जाँच हुई और कोर्ट ने कहा सब ठीक है, फिर भी नहीं माने और कहते हैं कि एक क्लासिफाइड डाक्यूमेंट को, जो संवेदनशील जानकारियों से भरी हुई है, पब्लिक कर दिया जाए ताकि लोगों को पता लगे कि सरकार जो पैसा खर्च कर रही है, उसमें कितने मिसाइल आ रहे हैं और वो कैसे काम करते हैं। जबकि यही एंकर और विरोधी नेता यह भूल जाते हैं कि इस सरकार को प्रतिनिधि के तौर पर इसी जनता ने भेजा है।
इसलिए जब माहौल तैयार हो जाएगा तो नवंबर में राम मंदिर के फ़ैसले के बाद दंगे की स्थिति को हवा देने में सहूलियत होगी कि कथित अल्पसंख्यकों को देश की न्यायपालिका ने भी धोखा दे दिया, सारे जज संघी हो गए है। ये उस स्थिति की तैयारी है जहाँ पूरे देश के हर उन्मादी को उकसाने के प्रयत्न हो रहे हैं। उन्हें बताया जा रहा है कि अगर फ़ैसला तुम्हारे पक्ष में है तब तो ठीक है लेकिन अगर विरोध में गया तब सारा सिस्टम बिक चुका है, इस देश में तो अब तुम्हारी सुनने वाला कोई है ही नहीं।
अतः, न्यायपालिका और जज इस गिरोह का अगला निशाना हैं। पहले भी इन्होंने न्यायपालिका को धता बताते हुए उसके ख़िलाफ़ बोला है। जस्टिस लोया की मौत को उसका परिवार भूल गया लेकिन ये किसी भी तरह बताना चाहते हैं कि किसी ने उन्हें मरवा दिया। साबित कुछ न भी हो, कोई बात नहीं, लेकिन लोगों के मन में शंका का बीज छोड़ देना भी सफलता ही है।
ये गिरोह चालाक है। ये हर बात के झूठे साबित होने के बाद भी उसे अभिव्यक्ति के नाम पर बोलता जाता है। इससे पढ़ने वाला, सुनने वाला अपने अवचेतन में रखता जाता है। उस क्षण में भले ही वो उस बात को नकार दे, लेकिन एक आदमी बार-बार, नए झूठ फेंकता रहे, आप सुनते रहें, तो उसका असर होने लगता है। फिर आप बोलने लगते हैं कि ‘यार जाँच करवाने में क्या जाता है’, फिर आप कहने लगते हैं कि ‘इतनी बार बोल रहा है, कुछ को सच होगा’। जबकि इस गिरोह की यही विशेषता है कि इनका जहर बिना मिलावट का होता है, ये अपने नैरेटिव में सत्य की मात्रा शून्य रखते हैं।
यासीन मलिक पर मुकदमा खुल चुका है, 84 के दंगों पर दोबारा केस खुला है, नेशनल हेराल्ड केस है, चिदंबरम हैं, अगस्ता-वेस्टलैंड है, रामजन्मभूमि है, एनडीटीवी का प्रणय रॉय है, क्विंट का राघव बहल है, 370 का मामला सुप्रीम कोर्ट ने देखने का वादा किया है, अर्बन नक्सलियों पर मामले चल रहे हैं…
इस सरकार ने इन चोरों, डकैतों, दंगाइयों, हत्यारों और देश को तोड़ने की मंशा रखने वालों पर खौलता हुआ पानी डाला है और वो भी एक साथ, हर तरफ से। इनकी चमड़ी मोटी है, इसमें दोराय नहीं लेकिन सरकार के पास खौलता हुआ पानी बहुत ज्यादा है, क्योंकि सरकार सौर ऊर्जा में भी बहुत निवेश कर रही है और नदियों के पानी पर बाँध भी बनाए जा रहे हैं।