Wednesday, May 14, 2025
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वक्फ बोर्ड पर याचिका कबूल नहीं, वक्फ कानून पर डायरेक्ट सुनवाई: अयोध्या पर प्रमाण माँगने वाले पूछ रहे – 1500 साल पुरानी मस्जिद कहाँ से लाएँगे कागज

एक तरफ आप राम मंदिर के लिए कहेंगे कि सबूत लाओ और दूसरी तरफ वक़्फ़ के लिए ये कहेंगे कि ये बेचारे काग़ज़ कहाँ से दिखाएँगे - ये दोहरा रवैया कैसे चल सकता है? और हाँ, अगर 'वक़्फ़ बाय यूजर' नामक कोई प्रावधान हो सकता है, फिर 'मंदिर बाय यूजर' और 'गुरुद्वारा बाय यूजर' जैसा कोई प्रावधान क्यों नहीं हो सकता?

उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की गिरती हुई साख की बात करते हुए कहा है कि वो ‘सुपर संसद’ बनकर क़ानून नहीं बना सकता, ये काम उस संसद का है जो जनता के प्रति जवाबदेह है। हाल ही में संसद के दोनों सदनों से पारित होकर और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वक़्फ़ संशोधन अधिनियम क़ानून बना। अब सुप्रीम कोर्ट में इसके ख़िलाफ़ कई याचिकाएँ पहुँच गईं। सब इसपर भी सुनवाई चल रही है, क़ानून के कई प्रावधानों पर अगली सुनवाई तक रोक लग गई है। सरकार को सुप्रीम कोर्ट में तमाम सवालों के जवाब देने पड़ रहे हैं।

हालाँकि, मोदी सरकार में ये एक चलन बन गया है जहाँ कुछ NGO, वकील और याचिकाकर्ता तय होते हैं। चाहे अनुच्छेद-370 और 35A निरस्त किए जाने का मामला हो या फिर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया – ऐसा बार-बार हो रहा है जब मोदी सरकार के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट की थकाऊ न्यायिक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। ख़ासकर के वक़्फ़ संशोधन क़ानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हैरान करनी वाली है। इसका कारण ये है कि इस बिल को पास कराया जाना लोकतंत्र में एक उदाहरण होना चाहिए था।

‘हमारी याचिका पर कहा – HC जानिए, उनकी याचिकाएँ स्वीकार’

इसे संसद में पेश किए जाने के बाद ‘संयुक्त संसदीय समिति’ (JPC) को भेजा गया। इसमें शामिल पक्ष-विपक्ष के 21 लोकसभा व 10 राज्यसभा सांसदों 36 बैठकें कीं। इतना ही नहीं, 10 शहरों में जाकर ग्राउंड की भी स्थिति देखी। कुल 284 हितधारकों से उनके सुझाव लिए गए। 25 राज्यों के वक़्फ़ बोर्ड्स के प्रतिनिधियों से सुझाव लिए गए। लोकसभा में 12 घंटे की चर्चा के बाद रात के 2 बजे बिल पारित कराया गया। जिसे एक उदाहरण के रूप में लिया जाना चाहिए था, न्यायपालिका उसकी स्क्रूटनी करने में लग गया है।

काशी-मथुरा से लेकर हिन्दुओं से जुड़े तमाम विषयों पर विभिन्न अदालतों में हिन्दुओं का पक्ष रखने वाले अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने सुप्रीम कोर्ट के इस दोहरे रवैये पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने बताया है कि वक़्फ़ बोर्ड को लेकर जब वो सुप्रीम कोर्ट में याचिका लेकर गए थे तब उनसे पूछा गया था कि सीधे सुप्रीम कोर्ट क्यों आ गए, हाईकोर्ट्स में जाना चाहिए था। उन्होंने बताया कि 7 साल से समाज 140 से अधिक याचिकाओं के साथ अलग-अलग अदालतों में संघर्ष कर रहा है, आज तक कोई अंतरिम राहत नहीं मिली।

विष्णु शंकर जैन ने पूछा कि आखिर क्या कारण है कि एक पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाता है तो तुरंत उसकी याचिका स्वीकार कर ली जाती है और अंतरिम राहत देने की बात भी की जाती है, जबकि दूसरे पक्ष के लिए ये क़ानून लागू नहीं होता। अधिवक्ता ने कहा कि पिछले 13 वर्षों से 4 राज्यों में एंडोमेंट एक्ट के जरिए मंदिरों पर कब्ज़ा किए जाने के विरुद्ध सुनवाई चल रही है, हाल ही में फ़ैसला भी आया है जिसमें सारे मुद्दों को हाईकोर्ट में भेज दिया गया है। विष्णु शंकर जैन ने कहा कि ये सारे सवाल इस मामले में क्यों नहीं किए जा रहे हैं?

गुरुवार (17 अप्रैल, 2025) को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने से पहले विष्णु शंकर जैन ने मीडिया के समक्ष ये तर्क दिए थे। उन्होंने सलाह दी कि सारे मामलों को एक हाईकोर्ट में भेजकर एक संवैधानिक पीठ बनाई जाए और इसकी सुनवाई हो जाए। उनका सवाल जायज है – आख़िर AIMIM, अमानतुल्लाह ख़ान, जमीयत और कई विपक्षी राजनीतिक दलों की याचिकाएँ सीधे सुप्रीम कोर्ट में कैसे स्वीकार कर ली जाती हैं, जबकि हिन्दुओं को अयोध्या से लेकर काशी-मथुरा तक के लिए जिले की कचहरी से होकर गुजरना पड़ता है और सदियों लग जाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट में गिड़गिड़ाते रहे SG, खुद ही प्रावधानों पर लगा दिया स्टे

इससे पहले कि सुप्रीम कोर्ट नए वक़्फ़ क़ानून पर रोक लगाता, केंद्र सरकार की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया तुषार मेहता ने ख़ुद ही कह दिया कि अगली सुनवाई तक हम सेन्ट्रल वक़्फ़ काउंसिल और राज्यों के वक़्फ़ बोर्ड्स में नई नियुक्तियाँ नहीं करेंगे। नए क़ानून में इनमें ग़ैर-मुस्लिमों की नियुक्तियों का भी प्रावधान है, जिसपर स्वतः ही स्टे लग गया। साथ ही ‘वक़्फ़ बाय यूजर’ सहित अन्य वक़्फ़ संपत्तियों को भी अगली सुनवाई तक नहीं छुआ जाएगा। अब केंद्र सरकार एक सप्ताह बाद रिपोर्ट दाखिल करेगी।

अबतक इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार 2 दिन सुनवाई की है। आप देखिए, काशी में ज्ञानवापी के सर्वे में भी निकला कि ये हिन्दू मंदिर था। उसकी दीवारें चीख-चीख कर कहती हैं कि ये मंदिर है। क्या वहाँ किसी प्रकार की रोक लगाई गई? क्या मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त करके बने शाही ईदगाह मस्जिद के संबंध में ऐसा कोई निर्णय आया? मध्य प्रदेश स्थित भोजशाला मंदिर को लेकर कोई स्टे आया? मुस्लिमों को नहीं भी नहीं रोका गया, फिर बार-बार मोदी सरकार के क़ानूनों पर स्टे क्यों?

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चीख-चीख कर बताया है कि लाखों सुझावों के बाद ये प्रावधान तय किए गए हैं, ऐसे में इन्हें सिर्फ़ ऊपर-ऊपर से पढ़कर इनके बारे में राय नहीं बनाई जा सकती। कई गाँवों को वक़्फ़ संपत्ति बताकर छीन लिया गया। सोचिए, तमिलनाडु में तिरुचेंदुराई नामक एक गाँव में 1500 वर्ष पुराने मंदिर को वक़्फ़ ने अपना बता दिया। डेढ़ हजार वर्ष पूर्व इस्लाम था ही नहीं। हाल ही में तमिलनाडु के वेल्लोर स्थित कट्टुकोल्लै गाँव में 150 परिवारों की कृषि वाली भूमि को दरगाह की जमीन बताकर वक़्फ़ ने नोटिस थमा दिया।

तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट के जजों से कहा कि वो प्रावधानों पर रोक लगाकर बहुत ही कठिन क़दम उठा रहे हैं। CJI संजीव खन्ना ने कहा कि सुनवाई तक इन प्रावधानों के अनुसार फ़ैसले नहीं होने चाहिए, ताकि लोगों के अधिकारों का उल्लंघन न हो। विडम्बना देखिए कि इधर दाउदी बोहरा समाज के मुस्लिम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर इस क़ानून के लिए उन्हें धन्यवाद दे रहे थे, इधर सुप्रीम कोर्ट ‘अधिकारों के उल्लंघन’ की बात कर रहा था। अब 5 मई को सुप्रीम कोर्ट अगली सुनवाई करेगा।

सुप्रीम कोर्ट के ये तर्क हिन्दुओं के मामले में कहाँ चले जाते हैं?

अब देखिए, वक़्फ़ के मामले में CJI संजीव खन्ना कहते हैं कि कई ऐसी मस्जिदें हैं जो 14वीं-15वीं शताब्दी में बनी हुई हैं, ऐसे में वो दस्तावेज कहाँ से दिखाएँगे क्योंकि अंग्रेजी राज से पहले रजिस्ट्रेशन की कोई प्रक्रिया ही नहीं थी। विडम्बना देखिए, अयोध्या में श्रीराम की जन्मभूमि पर एक अदद मंदिर के लिए हिन्दुओं को 134 वर्षों तक कोर्ट में लड़ाई लड़नी पड़ी। काग़ज़ दिखाने की ही तो लड़ाई थी, स्वामित्व साबित करने की। क्या अब काशी, मथुरा, भद्रकाली, भोजशाला और अटाला पर भी सुप्रीम कोर्ट काग़ज़ नहीं माँगेगा क्योंकि उस समय रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था नहीं थी?

याद कीजिए, ये वही सुप्रीम कोर्ट है जिसने कृषि क़ानूनों पर सुनवाई के बिना ही अंतरिम रोक लगा दी थी। इससे दिल्ली को घेरे अराजक प्रदर्शनकारियों के बीच ये सन्देश गया था कि भीड़तंत्र का डर दिखाकर वो अपनी कोई भी बात मनवा सकते हैं। गनीमत है कि इस बार बिना सुने रोक नहीं लगाई गई और केंद्र सरकार ने ख़ुद क़दम पीछे खींच लिए। ‘वक़्फ़ बाय यूजर’ वैसे भी एक विवादित प्रावधान है, जहाँ कोई संपत्ति सिर्फ़ इसीलिए वक़्फ़ की हो जाती है क्योंकि उसका इस्तेमाल इस्लाम के लिए हो रहा है।

एक तरफ आप राम मंदिर के लिए कहेंगे कि सबूत लाओ और दूसरी तरफ वक़्फ़ के लिए ये कहेंगे कि ये बेचारे काग़ज़ कहाँ से दिखाएँगे – ये दोहरा रवैया कैसे चल सकता है? और हाँ, अगर ‘वक़्फ़ बाय यूजर’ नामक कोई प्रावधान हो सकता है, फिर ‘मंदिर बाय यूजर’ और ‘गुरुद्वारा बाय यूजर’ जैसा कोई प्रावधान क्यों नहीं हो सकता? कल को गाँव के गाँव ‘वक़्फ़ बाय यूजर’ हो जाएँगे, क्योंकि कश्मीर में तो हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर किया गया तो वहाँ कौन देखने गया किसकी संपत्ति का क्या इस्तेमाल हुआ? पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में भी आज वही हो रहा है।

बड़ी अजीब बात है कि एक तरफ एक गिरोह को सड़क पर दंगे करने से लेकर किसी भी संपत्ति को अपना बताने तक के अधिकार हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने आराध्यों के मंदिर में पूजा के अधिकार के लिए एक वर्ग दशकों तक कोर्ट में दौड़ता है। एक तरफ फंडिंग और रसूख है, दूसरी तरफ इस देश को अपना मानने वाले लोग हैं जो संविधान से ऊपर शरीयत को नहीं रखते। अब समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट हिन्दुओं की भी सुने, उन्हें हाईकोर्ट जाने न बोले और मंदिरों से काग़ज़ माँगना बंद करे।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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