Wednesday, June 18, 2025
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बहन को राजदूत बनाने के लिए माउंटबेटन और लियाकत अली पर चिल्लाए थे नेहरू, आज़ादी से पहले ही बनवा दिया था मंत्री: भारतीय राजनीति में ऐसे बोया गया वंशवाद का बीज

यदि हम इतिहास को सिर्फ इन भावनाओं की दृष्टि से न देखकर, निष्पक्ष विवेक से देखें, तो नेहरू युग का एक ऐसा पक्ष भी उभर कर सामने आता है, जो भारतीय लोकतंत्र की जड़ों में वंशवाद का पहला बीज बोने वाला था।

भारत में जब भी राजनीति में वंशवाद का जिक्र आता है, हमें नेहरू-गाँधी परिवार का स्मरण सबसे पहले आता है। एक ही परिवार से इतने लोग देश के उच्च पदों तक शायद ही किसी देश में गए हों। वर्तमान में देखा जाए तो सोनिया गाँधी राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। उनके पुत्र राहुल गाँधी अमेठी से सांसद हैं। राहुल गाँधी की बहन प्रियंका गाँधी, अपने भाई द्वारा छोड़ी गई वायनाड सीट से सांसद हैं। प्रियंका गाँधी के पति रॉबर्ट वाड्रा भी प्रत्यक्ष राजनीति में आने की इच्छा कई बार जता चुके हैं। इसके अतिरिक्त कॉन्ग्रेस का एक बड़ा धड़ा प्रियंका गाँधी और रॉबर्ट वाड्रा के पुत्र रेहान में भी अपना भविष्य देख रहा है।

वंशवाद के इस वटवृक्ष की जड़ों को जब हम खँगालते हैं, तो हमें जवाहर लाल नेहरू इसके केंद्र में दिखते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व जिन नेताओं ने किया, उनमें जवाहरलाल नेहरू एक प्रमुख नाम हैं। वे न केवल महात्मा गाँधी के प्रिय शिष्य थे, बल्कि गाँधीजी द्वारा उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में भी नियुक्त किया गया। कई वामपंथी इतिहासकारों और राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता थे। 

यदि हम इतिहास को सिर्फ इन भावनाओं की दृष्टि से न देखकर, निष्पक्ष विवेक से देखें, तो नेहरू युग का एक ऐसा पक्ष भी उभर कर सामने आता है, जो भारतीय लोकतंत्र की जड़ों में वंशवाद का पहला बीज बोने वाला था। यह बीज केवल उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद नहीं, बल्कि उससे पहले 1930 के दशक में ही उनके द्वारा अंकुरित हो चुका था।

यह सर्वविदित है, कि जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक जीवन उनके पिता मोतीलाल नेहरू की विरासत से शुरू हुआ। मोतीलाल स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे और अपने पुत्र को राजनीति में स्थापित करने में उनकी बड़ी भूमिका रही। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मोतीलाल नेहरू ने कॉन्ग्रेस को नेहरू परिवार का राजनीतिक मंच बना दिया था। राजनीति में वंशवाद कोई रातों-रात उत्पन्न हुआ विकार नहीं था, बल्कि यह एक सुविचारित प्रक्रिया के तहत पनपा, और इस प्रक्रिया के पहले उत्पाद जवाहरलाल नेहरू ही थे।

जवाहर लाल नेहरू जब कॉन्ग्रेस की मुख्यधारा की राजनीति में आए तो धीरे-धीरे उनका कद बढ़ने लगा। स्वतन्त्रता से पूर्व ही वह इतने प्रभावशाली हो गए थे कि कॉन्ग्रेस की नीतियाँ और उन नीतियों का क्रियान्वयन उनके इर्द-गिर्द घूमने लगा था। इसकी बानगी हमें 1930 के दशक से ही दिखनी शुरू हो गई थी।

1937 में देश में प्रांतीय चुनाव हुए। कॉन्ग्रेस ने 11 में से 8 प्रांतों में अपनी सरकार बनाई। उत्तर प्रदेश में भी गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस ने सरकार बनाई। इस सरकार में जवाहर लाल नेहरू की बहन, विजयलक्ष्मी पंडित को मंत्री पद दिया गया। ‘प्रेस क्लब ऑफ इंडिया’ (PCI) के संस्थापक अध्यक्ष व पत्रकार दुर्गा दास अपनी पुस्तक, ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में लिखते हैं कि नेहरू के पास विजयलक्ष्मी पंडित को मंत्री बनाने की सिफारिश लेकर खुद गोविंद बल्लभ पंत और रफी अहमद किदवई गए थे, लेकिन इसके पीछे का वास्तविक उद्देश्य यह था, ‘यदि हम नेहरू के परिवार के किसी सदस्य को मंत्री बना देते हैं, तो इससे हमें नेहरू का आशीर्वाद मिलेगा और नेहरू अकारण हमें किसी बात पर परेशान भी नहीं करेंगे।’

इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर, दुर्गा दास: पृष्ठ संख्या 184

यह तथ्य इस बात को प्रमाणित करता है कि उस दौर में भी नेहरू के राजनीतिक हस्तक्षेप से बचने के लिए लोग उनके पारिवारिक संबंधों को महत्व देने लगे थे। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं था, बल्कि यह दर्शाता था कि नेहरू का प्रभाव किसी भी तर्क, योग्यता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ऊपर था।

आज़ादी के बाद तो नेहरू ने स्थापित रूप से वंशवाद का बीज भारत की राजनीति में बो दिया। इससे संबंधित एक किस्सा है, जिसे जानना उन लोगों के लिए आवश्यक है, जो नेहरू को लोकतंत्र और समावेशिता का ध्वजवाहक मानते हैं। इस किस्से का जिक्र अमेरिकी इतिहासकार स्टैनली वॉलपर्ट की किताब, ‘नेहरू: ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में मिलता है। 

किस्सा कुछ यूँ है कि जब देश स्वतंत्र हुआ, तो जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ। उस अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री नेहरू थे, वित्त मंत्री लियाकत अली खान थे और गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन थे। माउंटबेटन और लियाकत अली खान के सामने नेहरू ने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को सोवियत संघ में भारत की प्रथम राजदूत नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा। लियाकत अली खाँ ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया। उन्होंने इसे निरंकुश वंशवाद की संज्ञा दी।

लियाकत अली खान के अनुसार, यह केवल एक राजनयिक नियुक्ति का मामला नहीं था, बल्कि यह उस समय भारत की सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया द्वारा सत्ता का निजीकरण करने का प्रारंभिक संकेत था। नेहरू ने लियाकत के विरोध को नजरअंदाज करते हुए अपने प्रस्ताव पर अड़े रहने का न केवल दुस्साहस दिखाया, बल्कि चिल्लाते हुए माउंटबेटन को यह धमकी भी दे डाली, कि यदि माउंटबेटन ने इस मुद्दे पर लियाकत का पक्ष लिया तो वह इस्तीफा दे देंगे।

नेहरू: ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी, स्टैनली वॉलपर्ट पृष्ठ संख्या 398

यह एक लोकतांत्रिक नेता का नहीं, बल्कि एक सामंती मानस का संकेत था, जो यह मान बैठा था कि राज्य की सम्पूर्ण सत्ता उसके निर्णयों में निहित है। राजनीति में परिवारवाद उस समय और भी चिंताजनक हो जाता है जब वह लोकतंत्र की आड़ लेकर उसकी आत्मा का गला घोंटने लगे। नेहरू के उदाहरण में यह स्थिति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उन्होंने कभी सार्वजनिक रूप से वंशवाद का समर्थन नहीं किया, लेकिन व्यवहार में वह ठीक उसी दिशा में काम करते रहे।

यह तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद बाद में एक आम चलन बन गया – गाँधी परिवार, यादव परिवार, अब्दुल्ला परिवार, करुणानिधि परिवार, पवार परिवार, आदि। लेकिन यह प्रवृत्ति आरंभ कहाँ से हुई, यह जानना आवश्यक है। जब देश के पहले प्रधानमंत्री स्वयं वंशवादी नीति को व्यवहार में अपनाएँ, तो नीचे के स्तर पर उसका अनुकरण होना अवश्यंभावी था। कॉन्ग्रेस पार्टी स्वयं को लोकतंत्र, समाजवाद और पंथनिरपेक्षता की पोषक बताती रही, लेकिन वास्तविकता यह थी कि नेहरू युग में इन मूल्यों के स्थान पर एक छिपी हुई कुलीनता और वंशवाद का विस्तार हुआ।

विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों में जब परिवारवाद बढ़ा, तो स्वयं वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। अमेरिका में, भले ही बुश और क्लिंटन परिवार राजनीति में रहे हों, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल उन्हें ‘राजवंश’ नहीं बना सका। फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, हर जगह संस्थाएं व्यक्ति से बड़ी रहीं। लेकिन भारत में संस्थाएँ व्यक्ति और परिवार के आगे बौनी साबित होती रहीं, और यह परंपरा जवाहर लाल नेहरू से ही शुरू हुई।

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रोहित पांडेय
रोहित पांडेय
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