सुप्रीम कोर्ट में सावन महीने के पहले दिन यानी सोमवार (22 जुलाई, 2024) को एक गंभीर मामला गया। मामला सावन में बम भोले का नारा लगा गंगाजल उठाने वाले कांवड़ियों से जुड़ा था। सुप्रीम कोर्ट में कॉन्ग्रेसी वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने याचिका लगाई थी कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कांवड़ रूट पर दुकानदारों को नाम दिखाने का आदेश ठीक नहीं है।
जैसा कि अक्सर ऐसे हाई प्रोफाइल वकीलों के मामले में होता है, यह मामला भी तुरंत सुना गया। सुप्रीम कोर्ट में न्याय की राह तक रहे बाक़ी 65,000 मामले अपनी प्रतीक्षा जारी रख सकते हैं। मामला चूंकि हाई प्रोफाइल वकील ने दाखिल किया था और इसलिए दाखिल किया था कि कहीं सेक्युलरिज्म ना खतरे में पड़ जाए, इसलिए एक अंतरिम आदेश भी जारी हो गया।
आदेश सुनाने से पहले जज साहब ने एक कहानी सुनाई, कहानी में बताया कि केरल का एक मुस्लिम मालिक वाला रेस्टोरेंट, हिन्दू मालिक वाले रेस्टोरेंट से बढ़िया खाना खिलाता था। यह भी बताया कि यूपी और उत्तराखंड के कांवड़ रूट पर अगर कांवडियो को यह पता चल गया कि दुकान अब्दुल की है या फिर अभिमन्यु की, तो सेक्युलरिज्म और संविधान के आर्टिकल 14,15 और 17 का उल्लंघन हो जाएगा।
इसके बाद कोर्ट ने कलम उठाई और कहा कि यूपी और उत्तराखंड के इस आदेश को रोक दिया जाए, भले ही अंतरिम तौर पर रोका जाए। कोर्ट ने कहा कि यूपी और उत्तराखंड में कांवड़ियों वाले रास्ते पर कोई भी दुकान लगाए, उसका नाम नहीं पता चलना चाहिए। कोर्ट ने अपनी कलम से यह भी लिखा कि पुलिस ऐसा करने के लिए किसी को मजबूर ना करे।
कोर्ट ने यह किस्से-कहानी और आदेश सुनाने के दौरान प्रबुद्ध कॉन्ग्रेसी वकील के अलावा दूसरी तरफ नहीं देखा। दरअसल, दूसरी तरफ देखने के लिए कोई था ही नहीं। ना उत्तर प्रदेश के वकील और ना ही उत्तराखंड सरकार का पक्ष रखने के लिए कोई यहाँ था। था इसलिए नहीं क्योंकि जिस याचिका पर सुनवाई हुई वह एक दिन पहले ही दाखिल हुई थी।
याचिका दाखिल हुई और सुनवाई हो गई, लखनऊ और देहरादून से वकील दिल्ली नहीं आ सके। खैर इन सब बातों के बीच कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि नाम दिखने पर रोक लगाई जा रही है, लेकिन कागज दिखाने पर कोई रोक नहीं है। कोर्ट ने कहा कि सरकारें सभी दुकानदारों को कागज दिखाने का आदेश दे सकती हैं।
कोर्ट ने कहा कि पुलिस वाले डंडे के जोर से दुकानदारों को नाम छाती पर लटकाने को ना कहे लेकिन यूपी सरकार कानून के रास्ते पर चले। उसने तरीका भी बताया। कोर्ट ने बताया कि जिस कॉन्ग्रेस के वकील सिंघवी यह याचिका लाए हैं, उसी की सरकार 2006 और 2014 में पहले ही इस बात का इलाज कर चुकी है।
कोर्ट ने बताया कि 2006 में भारत खाद्य सुरक्षा के लिए एक कानून लाया गया था। इसका नाम फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स एक्ट था। इस कानून में कहा गया कि कोई ढाबा, रेस्टोरेंट या होटल जो खाने के नाम पर कुछ भी बेचता हो, उसे FSSAI से सर्टिफिकेट लेना पड़ेगा। लेने के बाद इसे दुकान पर साफ़ अक्षरों में दिखाना भी पड़ेगा। इस सर्टिफिकेट में दुकानदार का नाम चाहे अब्दुल हो अभिषेक, लिखा होना चाहिए और साथ ही उसका पता और क्या बेचता है, यह सब बताना पड़ेगा।
कोर्ट ने एक और कानून बताया। इसको स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट कहा जाता है। यह कानून 2014 में सरकार लाई थी। इसके तहत रेहड़ी पटरी वालों को एक सर्टिफिकेट दिया जाना था। चाहे कोई फल का ठेला हो या घर घर जाकर सब्जी बेचने वाले, इन सबको नाम और क्या बेचते हैं ये बताते हुए सर्टिफिकेट में जानकारी देनी होगी। इसको माँगे जाने पर दिखाना भी होगा।
अब अगर कोई भले ही नाम ना बताए, कागज तो दिखाना ही पड़ेगा और जरूर दिखाना पड़ेगा। कांवड़ रूट के होटल-ढाबे पर अगर अब भोले के भक्त किसी से सर्टिफिकेट माँग बैठें तो फिर सिंघवी किस अदालत का रुख करेंगे। सुप्रीम कोर्ट का कर नहीं सकते क्योंकि उसी ने कहा है कि कागज़ तो दिखाना पड़ेगा।
ऐसे में यूपी सरकार अब नासिर फल वाले को अपने नाम की तख्ती हटा कर अपना सर्टिफिकेट चिपकाने को बोल सकती है। इससे नाम क्या गाँव-पता भी मालूम हो जाएगा और सेक्युलरिज्म भी सुरक्षा के घेरे में रहेगा। कोर्ट को यूपी सरकार को यह राह दिखाने के लिए धन्यवाद तो देना ही चाहिए।
अब जब कागज दिखाने की बारी आएगी तो फिर से शायद फैज की नज्में गई जाएँ। कोई क्रांतिकारी यह भी लिख सकता है कि कांवड़ से अपना धंधा चलाएँगे पर कागज नहीं दिखाएँगे। अब नाम दिखाने से चालू हुई यह बहस कागज़ के रास्ते होते हुए कहाँ तक पहुँचती है, ये तो समय ही बताएगा।