देशभर में मंदिरों को कम्युनिस्ट सत्ता से आजादी के सिलसिले में गत 13 जुलाई को ही सुप्रीम कोर्ट ने केरल के तिरुवनंतपुरम में ऐतिहासिक श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रशासन में त्रावणकोर राजपरिवार के अधिकारों को बरकरार रखने का आदेश दिया।
इसके कुछ ही दिन बाद, गत 21 जुलाई को उत्तराखंड हाईकोर्ट से त्रिवेंद्र रावत सरकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए ‘चारधाम देवस्थानम एक्ट’ को चुनौती देने वाली भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका को खारिज कर दिया।
सुब्रमण्यम स्वामी ने इस जनहित याचिका में तर्क दिया था कि सरकार और अधिकारियों का काम अर्थव्यवस्था, कानून-व्यवस्था की देखरेख करना है न कि मंदिर चलाने का। स्वामी का कहना था कि मंदिर को भक्त या फिर उनके लोग ही चला सकते हैं, जिस कारण सरकार के एक्ट को निरस्त किया जाना चाहिए।
राज्य सरकार ने इस याचिका के विरुद्ध नैनीताल हाईकोर्ट में अपने पक्ष में कहा कि सरकार ने इस एक्ट को बड़ी पारदर्शिता से बनाया है और इसमें मंदिर में चढ़ने वाले चढ़ावे का पूरा रिकॉर्ड रखा जा रहा है और इससे संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 32 का भी उल्लंघन नहीं होता है। उत्तराखंड सरकार ने याचिका को निराधार बताते हुए इस को खारिज करने की अपील की थी।
इस पर राज्य सरकार का कहना है कि ‘चारधाम देवस्थानम अधिनियम’ चारधाम (गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ, केदारनाथ) और उनके आसपास के मंदिरों की व्यवस्था में सुधार के लिए है। जिसका मकसद यह है कि यहाँ आने वाले यात्रियों का ठीक से स्वागत हो और उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिलें। इसके साथ ही बोर्ड भविष्य की जरूरतों को भी पूरा कर सकेगा।
ऐसे में यह देखा जाना जरूरी है कि क्या केरल जैसे ‘सेक्युलर’ राज्य, जहाँ वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व रहा है, और देवभूमि कहा जाने वाला उत्तराखंड राज्य, जहाँ पर लोग धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक गौरव को प्राथमिकता देते आए हैं; इन दोनों ही मामलों में मंदिरों को सरकार के हस्तक्षेप से दूर रखने जैसे नजरिए को सिर्फ एक ही दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए?
इसका जवाब यह है कि वामपंथी सत्ता वाले केरल राज्य के मंदिरों के विपरीत, उत्तराखंड जैसे आपदा से प्रभावित और विषम भौगौलिक परिस्थितियों वाले राज्यों के मंदिरों के रखरखाव और उनके प्रबंधन के लिए सरकार को प्रमुखता से आगे आना चाहिए और यह निहायती आवश्यक भी है। इसके पीछे कई तर्क हैं, जिन पर चर्चा से पहले चारधाम देवस्थानम अधिनियम को समझना आवश्यक है।
चारधाम देवस्थानम एक्ट
पिछले साल नवंबर-दिसंबर में उत्तराखंड सरकार ने बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री समेत प्रदेश के 51 मंदिरों का प्रबंधन हाथ में लेने के लिए चार धाम देवस्थानम एक्ट से एक बोर्ड, चार धाम देवस्थानम बोर्ड बनाया था।
इन मंदिरों में अवस्थापना सुविधाओं का विकास, समुचित यात्रा संचालन एवं प्रबंधन के लिए उत्तराखंड चारधाम देवस्थानम प्रबंधन अधिनियम का गठन किया गया है। बोर्ड के अध्यक्ष मुख्यमंत्री होंगे। संस्कृति मामलों के मंत्री को बोर्ड का उपाध्यक्ष बनाया गया है। मुख्य सचिव, सचिव पर्यटन, सचिव वित्त व संस्कृति विभाग भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर तक के अधिकारी पदेन सदस्य होंगे।
हाईकोर्ट में इस याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार के बचाव में देहरादून की रुलेक संस्था के वकील कार्तिकेय हरि गुप्ता ने कहा कि उत्तराखंड के मंदिरों के प्रबंधन के लिए बना यह पहला एक्ट नहीं है बल्कि ऐसा ही कानून सौ साल पुराना है।
गुप्ता ने कोर्ट को बताया कि वर्ष 1899 में हाईकोर्ट ऑफ कुमाऊं ने ‘स्क्रीम ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन’ के तहत इसका मैनेजमेंट टिहरी दरबार को दिया था और धार्मिक क्रियाकलाप का अधिकार रावलों व पण्डे-पुरोहितों को दिया गया था।
वर्ष 1933 में मदन मोहन मालवीय ने अपनी किताब में इसका ज़िक्र किया है। साथ ही, मनुस्मृति में भी कहा गया है कि मुख्य पुजारी राजा ही होता है और राजा चाहे तो किसी को भी पूजा का अधिकार दे सकता है।
उत्तर भारत के मंदिरों की आर्थिक स्थिति
यह भी एक वास्तविकता है कि यदि दक्षिण भारत के मंदिरों और उत्तर भारत के मंदिरों की तुलना करें तो उत्तर भारत के मंदिर दक्षिण की तुलना में बेहद कम आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों की आय का बड़ा प्रतिशत रावल और पुजारियों से लेकर मंदिर सेवकों और अपने अनुष्ठानों के क्रियान्वयन के लिए आत्मनिर्भर हैं।
जबकि, उत्तर भारत के, एक आपदाग्रस्त राज्य उत्तराखंड में यदि बेहद विषम भौगौलिक परिस्थितियों में बसे मंदिरों की वार्षिक सम्पत्ति का अंदाजा लगाएँ तो वह नाममात्र की ही निकलती है। जितने संपन्न यह मंदिर अतीत में थे, उन्होंने आक्रान्ताओं को यहाँ लूट के लिए उकसाया, लेकिन उसके बाद हालात और परिस्थितियाँ एकदम विपरीत हैं।
यह भी एक सत्य है कि अन्य मजहब और धर्मों की तरह ही हिन्दू मंदिरों में चंदे, दान और वित्तीय सहायता का बेहद अभाव देखा जाता है। जहाँ, इसाई मिशनरी विदेशी पैसे का एक बहुत बड़ा और भारी-भरकम हिस्सा सिर्फ उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों के धर्मांतरण मात्र पर फूँक रहे हैं, उसका एक प्रतिशत भी हिन्दू मंदिरों को उनके श्रद्धालुओं के द्वारा प्राप्त नहीं हो पाता है।
क्या ऐसे में यह उम्मीद जताई जा सकती है कि उत्तराखंड के मंदिर अपने सिर्फ स्थानीय समितियों के आधार पर कुम्भ जैसे विशाल मेले और अनुष्ठानों का आयोजन करने में सक्षम हैं? सड़क, इन्फ्रास्ट्रक्चर, बुनियादी सुविधाओं, सरकारी सब्सिडी और आपदा के दौरान क्या स्थानीय लोग और समितियाँ इन चुनौतियों का सामना कर पाने में सक्षम हैं?
यदि आय का विवरण देखें तो मंदिरों की बहुत सी सम्पत्ति गाँव की जमीन के रूप में दर्शाई गई है, जिसकी कीमत आज ना के बराबर है। यदि यही भूमि सरकारी संरक्षण में रहे तो इसका मूल्य स्थानीय लोगों के लिए ही लाभदायक साबित हो सकता है।
यदि केदारनाथ की ही बात करें तो राज्य और केंद्र सरकार ने करोड़ों रुपए इसके पुनर्निर्माण और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर निवेश कर चुकी है और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर गतिविधि का स्वयं ही जायजा लेते हैं। यह एक तरह से यह उसी परम्परा का अनुसरण है, जिस तरह से पहले राजा ही उत्तराखंड के मंदिरों का ध्यान रखा करते थे और उसके बाद यह दायित्व सरकार के पास आ गया है।
जबकि, इसकी तुलना में आय की यदि बात करें तो पिछले साल श्री बद्रीनाथ धाम मंदिर की वार्षिक आय महज 25 करोड़ रुपए थी और श्री केदारनाथ जी मंदिर की आय 15 करोड़ रुपए! गंगोत्री मंदिर को पुजारियों द्वारा निजी तौर पर प्रबंधित सीईओ ने केवल 1-2 करोड़ रुपए ही आय बताई।
मंदिरों पर किसका स्वामित्व हो?
यह आश्चर्यजनक लग सकता है, लेकिन तथ्य दुर्भाग्यपूर्ण हैं। तथ्य यह है कि सरकार के विरोध में याचिकाकर्ताओं में से एक – श्री पाँच मंदिर समिति, गंगोत्री धाम, वास्तव में मुखबा के 5 कुलों की समिति है और वे मंदिर की पूरी आय पर अधिकार का दावा कर रहे हैं। उन्होंने इस मंदिर का निर्माण भी नहीं किया है।
भागीरथ शिला के कारण गंगोत्री धाम की पवित्रता है। वह स्थान, जहाँ राजा भागीरथ ने माँ गंगा को धरती पर लाने के लिए तपस्या की थी। इस मंदिर के प्रथम जीर्णोद्धार का प्रलेखित प्रमाण नेपाली शासन के दौरान मिलता है, जब गढ़वाल के गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 18वीं सदी में गंगोत्री मंदिर का निर्माण उसी जगह किया, जहाँ राजा भागीरथ ने तप किया था। मंदिर में प्रबंध के लिए सेनापति थापा ने मुखबा गंगोत्री गाँव से पंडों को भी नियुक्त किया। इसके पहले टकनौर के राजपूत ही गंगोत्री के पुजारी थे।
टिहरी राजपरिवार ने बाद के वर्षों में मंदिर का ध्यान रखा और फिर लकड़ी के मंदिर को फिर से पुनर्निर्मित करने की आवश्यकता पड़ी। तब 20वीं सदी में जयपुर राजपरिवार के सवाई जय सिंह ने इसके निर्माण के लिए 3 लाख रुपए का भुगतान किया था और इसी कारण से वे मंदिर के स्वामित्व का भी दावा करते हैं। एटकिंसन ने ‘दी हिमालयन गजेटियर’ (वोल्युम-3, भाग-1, वर्ष 1882) में लिखा है कि अंग्रेजों के टकनौर शासनकाल में गंगोत्री प्रशासनिक इकाई पट्टी तथा परगने का एक भाग था।
समय के साथ, टिहरी के राजपरिवार द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में मंदिर का अधिकार आ गया था, वे अपने तहसीलदारों की एक समिति के माध्यम से मंदिर का प्रबंधन करते थे। स्वतंत्रता के बाद भी इसी प्रणाली को जारी रखा गया था, जब टिहरी राजघरानों की तहसीलदार प्रणाली को सरकार की एसडीएम प्रणाली द्वारा बदल दिया गया था, जो कि वर्ष 2002 तक भी जारी रहा।
वर्ष 2002 में, एसडीएम ने स्थानीय सेमवाल पुजारियों के दबाव में आकर मंदिर के प्रबंधन को जारी रखने में असमर्थता व्यक्त की। तब राज्य नवगठित था और इस पर वांछित ध्यान नहीं दिया गया था। 5 गुटों के सदस्य – मुखबा के पंच भाइयों ने एक समिति गठित की, जिसने मंदिर प्रबंधन पर अधिकार जमा लिया था।
जबकि, यमुनोत्री धाम में प्रणाली 2020 तक वही जारी रही, जो वर्ष 2002 तक गंगोत्री में प्रचलित थी, यानी एसडीएम के साथ मंदिर समिति और खरसाली के उनियाल इसके प्रमुख हिस्सा थे।
गंगोत्री धाम का एक और दिलचस्प पहलू मंदिर प्रबंधन दान की आय के बँटवारे के बारे में है, जो कि मंदिर रखरखाव के लिए प्रदान करने के बाद 5 कुलों के बीच बाँटा जाता है। हर साल प्रति एक सदस्य को मंदिर की आय से कमाई करने का अधिकार दिया जाता है।
आय के वितरण और बँटवारे की प्रणाली इतनी जटिल है कि ऐसे में कुल ही के एक बेटे को जहाँ हर साल हिस्सा मिलता है, वहीं दूसरे के बेटों को 4 साल बाद अपनी बारी का इन्तजार करना होता है। आय के हिस्से में बाँट की यह अनियमित प्रणाली कई बार विरोध और विवाद का कारण बन जाता है।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि राज्य सरकार के चारधाम देवस्थानम एक्ट को गलत बताने वाले लोग मंदिरों की इस कमाई और इनके रखरखाव वाले खर्चे के बीच तुलना कर पाने में असमर्थ नजर आते हैं। ना ही सरकार के खिलाफ याचिका डालने वाले तब यह सवाल स्थानीय मंदिर समितियों के ‘सीईओ-जनों’ से करते हैं, जब वार्षिक आय में फर्जीवाड़ा किया जाता है।
उत्तराखंड सरकार के पास मंदिरों के संरक्षण का विषय विवादित रूप से देखने के बजाए तार्किक रूप से देखा जाना चाहिए। इसमें अर्थव्यवस्था के साथ ही दक्षिणपंथी हिंदूवादी सरकार की मंशा को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
उत्तराखंड राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत यह बात कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि राज्य सरकार का प्रमुख लक्ष्य मंदिरों की स्थिति को बेहतर बनाना है, ताकि ज्यादा से ज्यादा निवेश, श्रद्धालु और रोजगार के अवसर खुल सकें। साथ ही, किसी भी बड़े फैसले पर मंदिर के पुजारियों और समिति की राय को सर्वोपरी रखा जाएगा।
मेरा मानना है, भविष्य की जरूरतों को देखते हुए चारधाम देवस्थानम बोर्ड की जरूरत पड़ी। चारधामों के प्रबंधन में सुधार,अवस्थापना विकास व धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बोर्ड कार्य करेगा। बोर्ड गठन में हमारी सरकार ने मान्यताओं और तीर्थपुरोहितों के हकहकूकों का पूरा ध्यान रखा है।
— Trivendra Singh Rawat (@tsrawatbjp) July 21, 2020
अब सवाल यह भी उठता है कि जिस दिन राज्य में कॉन्ग्रेस की सरकार बनेगी, उस दिन मंदिरों की सम्पत्ति क्या उतनी ही सुरक्षित रहेगी जितनी कि दक्षिणपंथी सरकार के दौरान मानी जा रही है? इसका जवाब यह है कि हिन्दू हितों और अधिकारों की रक्षा के बारे में चिंतित लोग क्या कभी कॉन्ग्रेस को सत्ता में आने देना चाहेंगे?
हिन्दू हितों के बारे में कॉन्ग्रेस का परम्परागत इतिहास कोई छुपी हुई बात नहीं है। यह वही राजनीतिक दल है, जो वोट बैंक के लिए गाय/बैल को चुनाव चिन्ह बना लेता है तो कभी वोट बैंक के लिए सड़कों पर गाय को काटने वालों के साथ जश्न भी मनाता है।
व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि उत्तराखंड की जनता वर्ष 2013 की आपदा के उस बुरे अनुभव को शायद कभी भुला सकेंगे, जब जनता त्रासद थी और कॉन्ग्रेस के ही नेता अपनी जनता के बीच होने के बजाए दिल्ली में अपने अन्नदाताओं के पास अपने नम्बर बढ़ाना ज्यादा आवश्यक समझ रहे थे?
यह हिन्दू हितों का स्वर्णिम दौर है। इसी दौर में सदियों से लंबित अयोध्या के राम मंदिर का फैसला और निर्माण कार्य की प्रस्तावना रखी जा रही है। इसी में देश के प्रधानमंत्री खुलकर गंगा आरती करते हैं। केदारनाथ धाम को देशभर का हॉट टॉपिक बना देते हैं।
उन्हें हिन्दुओं की पहचान को स्वीकार्यता देने में कोई संकोच नहीं है और इसे वामपंथी नैरेटिव एवं व्यक्तिगत अहम के वर्चस्व वालों की नजर से देखने के बजाए यह ज्यादा आवश्यक है कि राज्य सरकार इसी एक्ट के अन्तर्गत क्या कुछ कर सकती है।
Reviewed various aspects relating to the Kedarnath Reconstruction project. Emphasised on redevelopment that is eco-friendly and ensures convenience to pilgrims as well as tourists. https://t.co/Xgp7DWMXbc
— Narendra Modi (@narendramodi) June 10, 2020
चार धाम यात्रा के लिए ऑल वेदर रोड के प्रोजेक्ट हों या फिर चार धामों के विकास की योजनाएँ हों, राज्य ने हमेशा ही तमाम परम्परागत तुष्टिकरण के विपरीत ऐतिहासिक फैसले लेने का साहस दिखाया है। इसलिए जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि सरकार को वह करने का अवसर देने में सहयोग करे, जिसके लिए वह प्रतिबद्ध नजर आई है।
नोट- ऑपइंडिया हिन्दू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र रखने की विचारधारा का प्रखर पक्षधर है, लेकिन उत्तराखंड जैसे राज्य के सुदूर क्षेत्रों में स्थित मंदिरों की आर्थिक एवं भौगोलिक स्थिति के साथ ही तमाम तर्कों को देखते हुए उत्तराखंड राज्य सरकार के पक्ष को जानने के लिए हमने इस लेख को प्रकाशित करने का निर्णय लिया है।