Friday, May 3, 2024
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‘एक लाख राजपूतों के सिर कटेंगे, तब औरंगजेब श्रीनाथ जी को छू पाएगा’: जब डर से कोई नहीं दे रहा था आश्रय, तब मेवाड़ के राणा राज सिंह ने बनवाया मंदिर

लोकथाओं में कहा जाता है कि एक बार औरंगजेब ने इस मूर्ति को तोड़ने की कोशिश की तो वह अंधा हो गया। इसके बाद उसने अपनी दाढ़ी से मंदिर की सफाई की तो उसकी आँखों ज्योति लौटी। इसके बाद उसने मंदिर को एक मूल्यवान हीरा भेंट किया था।

मथुरा के केशवदेव मंदिर (Keshav Dev Temple, Mathura) की स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के परपोते और अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ ने किया था और विभिन्न कालखंड में यह मंदिर इस्लामी आक्रांताओं के हमले झेलता रहा। मुगल बादशाह अकबर (Akbar) ने भी इस मंदिर से जुड़े चबूतरे को तोड़ने के लिए अपने सैनिक भेजे थे, लेकिन मथुरा राजा मानसिंह की जागीर होने के कारण मुगल सैनिक वहाँ कुछ नहीं कर सके।

बाद में राजा मानसिंह ने वहाँ पर एक एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। जब क्रूरता और हिंदू घृणा के लिए कुख्यात मुगल आक्रांता औरंगजेब (Aurangzeb) गद्दी पर बैठा तो इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना दिया और इसकी छत पर बैठकर नमाज भी पढ़ा। इस मंदिर से जुड़े घटनाक्रम का पिछली स्टोरी में हमने विस्तार से जिक्र किया है।

जिस जगह भगवान कृष्ण का मूल मंदिर था, वहीं द्वापर में उनके मामा कंस का कटरा कारागार था। इसी कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस कारागार पर बने मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की मूल प्रतिमा थी। आज इस जगह पर ईदगाह मस्जिद स्थित है और मूल स्थान के बगल में केशवदेव मंदिर स्थित है।

केशवदेव से श्रीनाथ मंदिर

कहा जाता है कि जब इस्लामी आक्रांतों के हमले धर्मनगरी मथुरा के मंदिरों पर बढ़ गए तो वहाँ के पुजारियों ने भगवान के बाल रूपी मूल विग्रह, जिसे श्रीनाथजी कहा जाता है, को अपवित्र होने से बचाने के लिए केशवदेव मंदिर से हटा दिया और वृंदावन भेज दिया। समय बीतने के साथ केशवदेव मंदिर में भगवान कृष्ण की दूसरी प्रतिमा स्थापित की गई।

एक दूसरी मान्यता यतह है कि श्रीनाथजी के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की बाल काल वाली प्रतिमा स्वयंभू है और यह वृंदावन के गोवर्धन पर्वत की गुफा में सन 1556 के आसपास प्रकट हुई थी। उस समय वैष्णव संप्रदाय के वल्लभाचार्य ब्रज की यात्रा पर थे।

इसकी जानकारी जब वल्लभाचार्य को मिली तो वे भगवान का दर्शन करने पहुँचे और उनका नाम गोपाल रखकर पर्वत पर ही कच्ची मिट्टी का एक छोटा-सा मंदिर बनवा दिया। उसी मंदिर में भगवान की पूजा-पाठ होने लगी और पुजारी के रूप में रामदास चौहान को नियुक्त किया गया।

हालाँकि, मुस्लिम आक्रमणों के डर से उस विग्रह को समय-समय पर कई स्थानों पर स्थानांतरित किया जाता रहा। श्रीनाथ जी की प्रतिमा को मथुरा और आगरा में भी कुछ दिन छिपा कर रखा गया। हालाँकि, आगे चलकर पुरनमल खत्री नाम के व्यवसायी के धन और आगरा के शिल्पीकार हीरामल के सहयोग से एक स्थायी भव्य मंदिर का निर्माण 1576 ईस्वी में किया गया।

औरंगजेब ने मंदिर ध्वस्त करने का दिया आदेश

औरंगजेब ने मथुरा के केशवदेव मंदिर के साथ-साथ जिले में स्थित के श्रीनाथ जी का मंदिर भी ध्वस्त करने का आदेश दे दिया। इस बात की जानकारी जैसे ही मंदिर के ब्राह्मणों को लगी, वे परेशान हो गए। मुगल सैनिकों के पहुँचने से पहले ही मंदिर के पुजारी दामोदर दास बैरागी मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाल लाए।

वल्लभाचार्य के वंशज और वल्लभ संप्रदाय के वैरागी दामोदर दास भगवान को लेकर बैलगाड़ी में निकल पड़े। इधर जब औरंगजेब को पता लगा कि मंदिर को तोड़ दिया गया, लेकिन भगवान के विग्रह को सुरक्षित निकालकर कहीं और स्थापित करने के लिए पुजारी अपने साथ ले गए तो वह क्रोधित हो उठा।

औरंगजेब ने चेतावनी जारी कर दी कि जो भी इन पुजारियों को शरण देगा और मंदिर बनवाएगा, उसे मुगल शासन के क्रोध का सामना करना पड़ेगा। उधर दामोदर दास संतों के साथ बैलगाड़ी पर श्रीनाथ जी को लेकर जगह-जगह भटकते रहे और उनकी स्थापना के लिए भूमि की माँग करते रहे, लेकिन औरंगजेब की क्रूरता की वजह से किसी ने भी उन्हें आश्रय नहीं दिया।

उस समय मेवाड़ के उदयपुर के महाराणा और महाराणा प्रताप सिंह के परपोते राज सिंह औरंगजेब को ललकार रहे थे। इन दोनों के बीच गहरी शत्रुता पनप चुकी थी। श्रीनाथ जी लिए घुम रहे पुरोहितों को उम्मीद की आखिरी किरण महाराणा राज सिंह में नजर आई।

महाराणा राज ने दी औरंगजेब को चुनौती

ब्राह्मणों ने महाराणा राज सिंह से श्रीनाथ जी के लिए मंदिर बनवाने और खुद के आश्रय की विनती की। महाराणा राज सिंह इसके लिए तैयार हो गए। ‘महाराणा: सहस्त्र वर्षों के इतिहास’ में डॉक्टर ओमेंद्र रत्नू लिखते हैं कि इसके बाद राज सिंह ने पुरोहितों को उत्तर भेजवाकर आमंत्रित किया।

महाराणा राज सिंह ने ब्राह्मणों से कहा, “जब तक मेरे एक लाख राजपूतों के मस्तक कट नहीं जाते, तब तक औरंगजेब श्रीनाथ जी की मूर्ति को स्पर्श भी नहीं कर पाएगा।” राज सिंह ने ब्राह्मणों को अपने राज्य में ना सिर्फ संरक्षण दिया, बल्कि श्रीनाथ जी के लिए मंदिर बनवाने हेतु स्वेच्छा से स्थान चुनने के लिए भी कहा।

इसके बाद ब्राह्मणों ने मंदिर के लिए उदयपुर से 50 किलोमीटर दूर बनास नदी के किनारे सिहाड़ नाम के ग्राम को चुना। 20 फरवरी 1672 ईस्वी को श्रीनाथ जी को वहाँ स्थापित कर दिया गया। आज वह स्थान ‘नाथद्वारा’ के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध है।

मंदिर बनने तक श्रीनाथ जी की मूर्ति बैलगाड़ी में जोधपुर के पास चौपासनी गाँव में कई महीनों तक रही और यही उनकी पूजा होती रही। यह चौपासनी गाँव अब जोधपुर का हिस्सा है और जिस स्थान पर बैलगाड़ी खड़ी थी, वहाँ आज श्रीनाथ जी का एक मंदिर बनाया गया है। श्रीनाथ जी की चरण पादुकाएँ उसी समय से इस मंदिर में हैं। यह स्थान चरण चौकी कहलाता है।

इधर औरंजेब को जैसे ही इसकी जानकारी मिली, उसने महाराणा राज सिंह को ब्राह्मणों को शरण नहीं देने के लिए लिखा, लेकिन राज सिंह पर कोई फर्क नहीं पड़ा। हालाँकि, भावी युद्ध को देखते हुए उन्होंने सिंहाड़ में सैनिक तैनात कर दिए, ताकि श्रीनाथ जी को कोई मुगल छू ना पाए।

औरंगजेब के साथ महाराणा राज सिंह का युद्ध

राज सिंह से औरंगजेब विशेष रूप से चिढ़ता था, क्योंकि उन्होंने सल्तनत की लड़ाई में औरंगजेब के भाई दारा शिकोह का साथ देते हुए उसे कुछ दिनों के लिए अपने राज्य में आश्रय दिया था। औरंगजेब इसे अपना अपमान मानता था।

इधर मराठा क्षत्रिय शिवाजी महाराज की मदद करने के आरोप में औरंगजेब जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह को विष दिलवा कर हत्या करवा चुका था। इससे महाराणा राज सिंह अत्यंत दुखित और औरंगजेब पर कुपित थे। जय सिंह महाराणा के बेहद मददगार और हिंदुओं को परोक्ष रूप से मुगलों के खिलाफ मदद करते थे।

इसी दौरान पता चला कि औरंगजेब मेवाड़ के अंतर्गत आने वाले किशनगढ़ की राजकुमारी रूपमती से जबरन शादी करने के लिए सेना लेकर आ रहा है। उधर रूपमती ने राज सिंह को चिट्ठी लिखकर उनसे ही शादी करने की इच्छा जाहिर कर दी।

महाराणा राज सिंह ने सामंत रतन सिंह चूड़वात को अपने सैनिकों के साथ अजमेर कूच करने और औरंगजेब की सेना को रोकने का आदेश दिया। रतन सिंह चूड़ावत की नई-नई शादी हुई थी। वह पत्नी के मोहपाश में बंधे हुए थे और बार-बार उसके लिए युद्ध क्षेत्र से संदेश भेजवा रहे थे।

युद्ध क्षेत्र में भ्रमित अपने पति को देखकर बूँदी के हाड़ा वंश की राजकुमारी ने अपना सिर काटकर थाली में रतन सिंह चूड़ावत को भेजवा दिया। रतन सिंह चूड़ावत बेहद साहसी और वीर योद्धा थे। जब दूत के माध्यम से उन्हें अपनी पत्नी का सिर मिला तो वे उसका मंतव्य समझ गए और अकल्पनीय युद्ध करते हुए औरंगजेब की सेना को रोके रखा और अंतत: वीरगति को प्राप्त हो गए।

उधर औरंगजेब की सेना युद्ध में उलझी रही और राजसिंह चारूमती से विवाह कर कृष्णभक्त राजकुमारी के सतीत्व को बचा लिया। इसके साथ ही महाराणा राज सिंह ने हिंदू राजाओं को इसके लिए तैयार कर लिया कि वे किसी भी हाल में मुगलों को जजिया ना दें। इससे औरंगजेब और कुद्ध हो गया।

औरंगजेब ने मेवाड़ पर हमला कर दिया। युद्ध नीति के तहत अपने से कई गुणा बड़ी सेना से लड़ने के लिए महाराणा राज सिंह ने अरावली की पहाड़ियों को चुना। मुगलों के अत्याचार से बचाने के लिए जनता को भी पहाड़ियों में भेज दिया।

युद्ध के मैदान में औरंगजेब के साथ उदैपुरी नाम की उसकी बीवी भी साथ में थी। युद्ध के दौरान राजपूताने के सैनिकों ने उदैपुरी को गिरफ्तार कर लिया। पहाड़ियों में छापामार युद्ध और बीबी की गिरफ्तारी से औरंगजेब को पीछे हटना पड़ा और वह लौट गया। औरंगजेब की वापसी सुनिश्चित होने पर उदैपुरी को ससम्मान औरंगजेब के पास भेजवा दिया गया।

हालाँकि, 3 नवंबर 1680 को महाराणा राज सिंह की जय सिंह की ही भाँति विष देकर हत्या करवा दी गई। कुंभलगढ़ के ओढ़ा गाँव में राज सिंह अपने विश्वासपात्र और मित्र आसकरण चारण के साथ भोजन कर रहे थे। भोजन में विष मिला होने के कारण दोनों की मौत हो गई। इस तरह मरते दम तक उन्होंने श्रीनाथ जी को दिए वचन का पालन किया।

राजस्थान के नाथद्वारा में भगवान का स्वरूप

राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित नाथद्वारा (Nathdwara Temple) मंदिर में स्थापित श्रीनाथ जी के विग्रह को भगवान कृष्ण का द्वितीय रूप माना जाता है। मंदिर में विग्रह उसी अवस्था में है, जिस अवस्था में बाल रूप में भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपने बाएँ हाथ की उंगली पर उठा रखा था।

श्रीनाथ जी का यह विग्रह दुर्लभ काले संगमरमर से बना है। विग्रह का बायाँ हाथ हवा में उठा हुआ है और दाहिना हाथ कमर पर है। श्रीनाथ जी के विग्रह के साथ में एक शेर, दो गाय, दो तोता और दो मोर भी हैं। इन सबके अलावा, तीन ऋषि-मुनियों के चित्र भी विग्रह के साथ हैं।

जनश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्रीनाथ जी की ठोढी में हीरा जड़ा हुआ है। यह मूल्यवान हीरा औरंगजेब की माँ ने भेंट किया था। लोक कथाओं के अनुसार, एक बार औरंगजेब इस मूर्ति को तोड़ने की कोशिश की तो वह अंधा हो गया। इसके बाद उसने अपनी दाढ़ी से मंदिर की सफाई की, इसके बाद उसकी आँखों की ज्योति लौटी। इससे खुद होकर उसकी माँ ने हीरा भेंट किया था।

21 तोपों की दी जाती है सलामी

भगवान श्रीनाथ जी बाल रूप में हैं। जन्माष्टमी यानी उनके जन्मदिन पर उन्हें 21 तोपों की सलामी दी जाती है। यह मेवाड़ राजघराने की परंपरा आज भी जारी है। बालक रूप में होने के कारण उन्हें दिन में 8 बार उन्हें भोग लगाया जाता है। उनके भोग में 56 प्रकार के व्यंजन शामिल किए जाते हैं। आने वाले श्रद्धालु श्रीनाथ जी के लिए तरह-तरह के खिलौने भी लेकर आते हैं और उन्हें चढ़ाते हैं।

नाथद्वारा में हर साल धुलंडी पर ‘बादशाह की सवारी’ निकलती। इस प्राचीन परंपरा में एक व्यक्ति नकली दाढ़ी-मूँछ और आँखों में सुरमा लगाकर तथा मुगल शासक का पोशाक पहनकर औरंगजेब बनता है और अपने हाथ में श्रीनाथ जी की तस्वीर लेकर पालकी में चलता है। मंदिर पहुँचने के बाद वह अपनी दाढ़ी से सीढ़ियों को साफ करता है। इस दौरान लोग उसे तरह-तरह से अपमानित करने का स्वांग करते हैं।

उदयपुर के महाराजा ने सन 1934 में श्रीनाथ जी मंदिर से जुड़ी सभी प्रकार की संपत्ति को पूरी तरह मंदिर के अधिकार में दे दिया था। उस समय के श्रीनाथ जी मंदिर के मुख्य पुजारी तिलकायत जी को मंदिर का संरक्षक, ट्रस्टी और प्रबंधक नियुक्त किया गया था।

हालाँकि, मंदिर से जुड़ी 562 प्रकार की सम्पत्ति का दुरुपयोग न हो, इसके लिए उदयपुर के महाराजा ने श्रीनाथ जी मंदिर की देखरेख का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा। यह अधिकार आज भी उदयपुर राजघराने के पास है। नाथद्वारा मंदिर भारत के सबसे धनवान मंदिरों में से एक है।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
इतिहास प्रेमी

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