Tuesday, March 19, 2024
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क्या नागरिकता बिल मुसलमानों को भगाने के लिए लाया गया है?

कायदे से इमरान खान को अपने यहाँ भी एक विधेयक लाना चाहिए जहाँ भारत के मुसलमानों के पास ऐसा विकल्प हो कि अगर उन्हें यहाँ प्रताड़ित किया जा रहा है तो वो पाकिस्तान आ सकते हैं। साथ ही, परेशान हिन्दुओं के लिए भी इमरान खान को प्रावधान करना चाहिए कि वो भी पाकिस्तान आ सकते हैं।

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019, या सिटिजनशिप अमेंडमेंट बिल 2019 आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है। जैसा कि आधुनिक भारत लगातार अपने इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पढ़ता रहा है, या उसे जबरन गलत इतिहास पढ़ाया गया है, तो हर विधेयक, या निर्देश जिसमें मुसलमान शब्द का जिक्र हो, या इस्लामी देशों का नाम हो, प्रपंची वामपंथियों और छद्म-लिबरलों की लॉबी द्वारा इस तरह से दिखाया जाता है जैसे भारत के मुसलमान तो अब बैग उठाएँ और निकल लें।

हम, आप सब ने हाल के दिनों में भी इसी तरह की विचित्र बातें सुनी हैं। विचित्र इसलिए क्योंकि जब एक विधेयक बाहर से आए शरणार्थियों की बात कर रहा है, तो फिर इस देश के वो मुसलमान, जो यहाँ के नागरिक हैं, जो वोट देते हैं, ओवैसी जैसों को चुनते हैं, मुख्यमंत्री बनाते हैं, इस बिल को ले कर हंगामा क्यों कर रहे हैं? कोई औचित्य समझ में आता है आपको कि अगर भारतीय राष्ट्र पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के सताए हुए शरणार्थियों के लिए भारत में नागरिकता के लिए आवेदन की प्रक्रिया को सरल बनाने हेतु कोई प्रावधान लाता है तो यहाँ के वो मुसलमान क्यों पागल हो रहे हैं जिनका इससे कोई वास्ता नहीं?

आप यह देखिए कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के बच्चे आंदोलन कर रहे हैं? ओवैसी जैसों का तो समझ में आता है कि उसको राजनीति करनी है, लेकिन ये तो कथित तौर पर पढ़े-लिखे लोग हैं, जिनको यह बात समझ में आनी चाहिए कि विधेयक से मुसलमानों का कोई लेना-देना नहीं है। हाँ, अगर ये प्रावधान होता कि भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान भेजा जा रहा है, तो इनका विरोध समझ में आता कि दो-तीन पीढ़ी से यहीं हैं, दादा-परदादा ने भारत में रहना स्वीकारा था, तो अब उन्हें इस देश से क्यों निकाला जा रहा है।

लेकिन यहाँ तो उसके उलट, विभाजन के कारण इन तीनों मुस्लिम देशों में, हर तरह के अल्पसंख्यक की क्या स्थिति है, उन लोगों को एक दूसरा मौका दिया जा रहा है कि तब तुमने भारत न आ कर गलती की थी, और हमने तुम्हें वापस न ला कर। यह एक ऐतिहासिक गलती को ठीक करने की प्रक्रिया है क्योंकि विभाजन के समय पाकिस्तान में 13% की जनसंख्या वाले हिन्दू आज की तारीख में 1% हो गए, बांग्लादेश में 22% से 8% और अफ़ग़ानिस्तान में इनकी संख्या अब कुछ सौ ही बची है। बात सिर्फ हिन्दुओं की नहीं है। जहाँ-जहाँ हुकूमत घोषित तौर पर इस्लामी है, वहाँ अल्पसंख्यकों का क्या हाल है, क्या प्रतिशत है, पता कर लीजिए।

साथ ही, भारत में बहुसंख्यक हिन्दुओं की आबादी का प्रतिशत लगातार घटा है। मुसलमानों का बढ़ा है। कश्मीर से हिन्दू गायब कर दिए गए, केरल में जनसांख्यिकी पूरी तरह से बदल गई है, और उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी कमोबेश यही हाल है। मतलब साफ है कि भारत में मुसलमानों को इस लिहाज से कोई समस्या नहीं हुई है। इसलिए उनका विलाप अनुचित तो है ही, साथ ही पुरी तरह से मजहबी उन्माद और राजनीति से प्रेरित भी है।

वामपंथियों ने जो प्रपंच गढ़ा था कि हिन्दू हमेशा प्रताड़ित ही करता है, प्रताड़ित हो ही नहीं सकती, उसका भांडाफोड़ हो रहा है। इसी देश में बहुसंख्यक होते हुए हिन्दू कभी दुर्गा विसर्जन के लिए कोर्ट की शरण लेता देखा जाता है, कभी उसके काँवड़ यात्रा पर मुसलमान पत्थरबाजी करते हैं, कभी रामनवमी के जुलूस पर मुसलमान चप्पल फेंकते हैं, कभी दुर्गा की मूर्तियों को मुसलमान और ईसाई विखंडित कर के उन्हें परेशान करते हैं, उनके मंदिरों को हजार साल पहले से भी तोड़ा जाता रहा है, और आज भी मुसलमान उसे तोड़ ही रहे हैं…

ये इसलिए संभव होता है क्योंकि इसे कभी भी राजनीतिक रूप से न तो देखा गया, न बोला गया क्योंकि वामपंथी विचारधारा और कॉन्ग्रेस के वोटबैंक के पोषकों ने हमेशा यह कहा कि जो ज्यादा संख्या में है उस पर अत्याचार कैसे हो सकता है। ये खेल खूब खेला गया और इतना खेला गया कि कश्मीरी पंडित इसी देश में, शंकर और शारदा की धरती कश्मीर से ऐसे निकाले गए, कि आज वहाँ इंटरनेट बंद होने पर मानवाधिकारों की बात उठती है, और बेघर हुई पीढ़ी और बहुसंख्यक हिन्दू की बात भी कोई नहीं करता जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।

लेकिन ये वामपंथी इसी बात को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में बहुसंख्यक मुसलमान को इस विधेयक द्वारा बाहर रखने पर रो रहे हैं। जबकि, यहाँ उन्हीं का तर्क लगाया जा रहा है कि मुसलमान खुद को ही मजहबी तौर पर प्रताड़ित क्यों करेगा क्योंकि अमूमन वो ऐसा दूसरे मजहब और धर्म के लोगों के साथ करता है। विभाजन के समय जो गैरमुसलमान, यह नहीं देख पाए थे कि मुसलमान जहाँ बहुसंख्यक हैं, वहाँ वो अल्पसंख्यकों का क्या हाल करते हैं, वो प्यार-मुहब्बत में वहीं रुक गए, उन्हें यह विधेयक दूसरा मौका दे रहा है क्योंकि सत्तर सालों में उन्हें समझ में आ रहा है कि उनकी तेरह साल की बच्ची को मुसलमान किडनैप कर के ले जाता है, जबरन मतपरिवर्तन कराता है, निकाह कर लेता है और उसके माँ-बाप को चिट्ठी भेजता है कि उसकी बेटी का कनवर्जन इस्लाम में हो गया है।

इसलिए, यह कहना या सोचना कि हिन्दू प्रताड़ित हो ही नहीं सकता, उसे गलत ठहराने के लिए जब इस देश में ही काफी प्रमाण हैं, तो पूरे विश्व में इस्लामी हुकूमतें बहुसंख्यक होने पर अपने देश के हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों, ईसाईयों, सिखों, पारसियों का क्या हाल करती होगी, वो समझने में ज्यादा जतन नहीं करना होगा।

क्या है यह बिल, क्यों लाया गया?

इस विधेयक से इतर विदेशी लोगों के लिए जो कानून हैं, वो दो सूरतों में उन्हें ग़ैरक़ानूनी व्यक्ति बना देते हैं। पहला यह कि आप वैध कागजों, जैसे कि वीजा ले कर, भारत आए और रहने की समय-सीमा खत्म होने के बाद भी टिके रहे। दूसरा यह कि आप किसी भी कारण से, बिना वैध कागजों के भारत में किसी भी तरह से चोरी-छुपे पहुँच गए और यहाँ के प्रशासन ने आपको पहचान लिया। ऐसे लोगों को, अभी तक के कानून के हिसाब से, धर्म-मजहब-देश आदि से परे, नागरिकता नहीं दी जा सकती थी। जिनके पास कागज हैं, वही नागरिकता ले सकते थे।

2015 में इस विधेयक के लिए सूचना जारी हुई कि 2014 की अंतिम तारीख तक, जो लोग भारत में किसी कारण से आए हैं, और उनके पास कागजात नहीं हैं, वो भी नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। हालाँकि, इसमें 2016 से ले कर 2019 तक में कुछ बदलाव हुआ है, जिसमें विस्तार से बताया गया कि यह योग्यता ‘धार्मिक आधार पर, जिन्हें भी अविभाजित भारत से टूट कर बने देशों, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान, में पीड़ा पहुँचाई गई, उन्हें सताया गया, और लगातार उत्पीड़न के बाद उन्हें वहाँ से भागने को मजबूर किया गया, वो लोग (जिसमें हिन्दू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी मतों के लोग हैं) चाहे कागज ले कर शरण माँगने आए हों, या बिना कागज के, वो नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। इससे मुसलमान बाहर हैं क्योंकि तीनों देश मुस्लिम देश हैं, और ऐसा सोचना हास्यास्पद है कि मुसलमान दूसरे मुसलमान को मजहबी तौर पर प्रताड़ित करेगा।

इसके बाद, नागरिकता के पहले के प्रावधानों को थोड़ी ढील दी गई है जहाँ, पहले नैचुरलाइजेशन के लिए, यानी भारत की संस्कृति आदि को समझने के लिए, जहाँ ग्यारह साल की समय सीमा थी कि आप इतने साल भारत में शरणार्थी के रूप में रह रहे हों, तभी आप नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं, उसे घटा कर छः साल कर दिया गया है। 2019 में इसके कुछ प्रावधानों में बदलाव लाया गया क्योंकि उत्तर-पूर्व के राज्यों में इसका विरोध हो रहा था।

उत्तर-पूर्व या नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में कई इलाके अपनी जनजातीय संस्कृति को बचाए रखना चाहते हैं, और सरकार भी यही चाहती है क्योंकि वहाँ किसी भी तरह से दूसरों को नागरिकता दे कर बसाने का मतलब है कि उनकी मूल संस्कृति पर एक प्रकार का हमला। इस बात को देखते हुए सरकार ने इस विधेयक से असम, त्रिपुरा, मिज़ोरम और मेघालय को तो बाहर रखा ही है, साथ ही मणिपुर के भी कई हिस्सों को ‘इनर लाइन परमिट’ के अंतर्गत लाने की घोषणा की है। इनर लाइन परमिट का मतलब है कि आपको इन इलाकों में स्थानीय प्रशासन की अनुमति के बाद ही घुसने दिया जाएगा। आप पर्यटक के तौर पर बेशक जाइए, लेकिन आप वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते जिससे वहाँ की संस्कृति या जनसांख्यिकी प्रभावित होती हो।

भारत ने हमेशा से, पूरे विश्व के प्रताड़ित लोगों को शरण दी है। जिन्हें पूरे विश्व में कहीं जाने को नहीं था, वो भारत आए और उन्हें बसने की जगह दी गई। इसमें ईरान से आए पारसी हैं, तिब्बत से आए बौद्ध हैं, और तो और यहूदी तक को जब हर जगह घृणा और हमलों का शिकार होना पड़ा तो भारत ने उन्हें भी शरण दी। इस लिहाज से भी, इन तीन देशों के अल्पसंख्यकों को एक तय तरीके से यहाँ आने की विधि तैयार कर, भारत अपनी पौराणिक संस्कृति का संवहन ही कर रहा है।

जो लोग इसे हिन्दुओं को घुसाने की बात के तौर पर देख रहे हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि श्रीलंका से आए हजारों हिन्दू, या शायद लाख में हों, इस नागरिकता बिल के दायरे से अलग रखे गए हैं। वो न तो विभाजन के समय का हिस्सा थे, न ही वो धार्मिक आधार पर प्रताड़ित हो रहे हैं। वहाँ के तमिल या हिन्दू राजनैतिक कारणों से संघर्षरत हैं।

साथ ही, यह बात भी गौर करने योग्य है कि इस विधेयक के पारित होते ही इन छः धर्मों और रिलीजन के लोग स्वतः नागरिक नहीं बन जाएँगे। इस बिल से उन्हें बस एक तरीका मिलेगा, जिसके बाद हर व्यक्ति को, निश्चित तौर पर परखने के बाद ही, नागरिकता की शपथ, संविधान की शपथ के साथ दिलाई जाएगी। अगर प्रशासन को लगेगा कि कोई व्यक्ति इसके लिए अयोग्य है, या धोखाधड़ी कर के, हिन्दू का रूप धर कर, यहाँ किसी और कारण से आना चाहता है, तो उन्हें नागरिकता नहीं दी जाएगी।

बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठियों की संख्या लगभग दो करोड़ बताई जा रही है इस देश में। ये लोग किसी भी प्रताड़ना के शिकार नहीं हैं, ये पूरी तरह से वोटबैंक की राजनीति के तहत, और स्वयं के आर्थिक फायदे को देख कर यहाँ दीमक की तरह आ कर बस गए हैं। चाहे वो बांग्लादेशी मुसलमान हों, या रोहिंग्या मुसलमान, ये दीमक हैं, जिनका सफाया जरूरी है। इस बात को भी गृहमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि रोहिंग्या मुसलमानों को यहाँ शरण नहीं दी जाएगी क्योंकि ये लोग राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं।

जो लोग मुसलमानों को पीड़ित रूप में देख रहे हैं, और जो कॉन्ग्रेस आज दवाब बनाना चाह रही है कि आर्टिकल 14 का हनन हो रहा है, संविधान खतरे में, सेकुलर तानाबाना टूट रहा है, वो 18 दिसंबर 2003 को मनमोहन सिंह का बयान याद करें जब उन्होंने कहा था कि जब हम इन देशों के शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात करें तो हमें वहाँ के अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचारों को ध्यान में रखना चाहिए।

आर्टिकल 14 की बात करने वाले लोग बड़ी ही आसानी से यह भूल जाते हैं कि हर तरह का आरक्षण इस आर्टिकल के विरोध में ही दिखता है। लेकिन उसे सकारात्मक भेदभाव के रूप में देखा जाता है क्योंकि वहाँ भेदभाव की मंशा किसी की बेहतरी है, सामाजिक रूप से उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास है, न कि उन्हें उत्पीड़ित करना। उसी तरह, ‘मुसलमानों को इस बिल के दायरे से बाहर’ रखना, उनके साथ भेदभाव नहीं है। पहली बात तो यह कि मुसलमानों के देश में मुसलमानों पर, मुसलमान ही, इस्लामी मजहब के आधार पर अत्याचार कर रहे हों, ऐसा होता नहीं। दूसरी बात, अगर ऐसा होता भी है, तो वो दुनिया में दसियों देश हैं जहाँ उनके लिए शरण लेने की व्यवस्था है।

यहाँ अगर वो रास्ता खोल दिया जाए, तो पाकिस्तान और बांग्लादेश का मुसलमान बखूबी जानता है कि भारत का मुसलमान किस तरह की आजादी और बेहतर जीवन और सामाजिक अवसर यहाँ पा रहा है, इसलिए वो करोड़ों की संख्या में यहाँ आएँगे। इन देशों में न तो बिजली है, न पीने का पानी ढंग से मिल रहा है, भयंकर गरीबी, कुपोषण और तमाम तरह की समस्याएँ हैं। उनके लिए भारत आना हमेशा एक बेहतर विकल्प है। इसलिए, भारत ऐसा कर नहीं सकता, क्योंकि जहाँ वहाँ से आए अल्पसंख्यकों की संख्या कुछ हजार में हैं, यहाँ पहले से ही आए मुसलमान घुसपैठिये दो करोड़ से ऊपर की तादाद में हैं।

ओवैसी और वामपंथियों का प्रपंच

अब बात आती है कि इस देश के आम मुसलमान को क्यों बहकाया जा रहा है कि उन्हें देश-निकाला मिलने वाला है, या उन्हें भगाया जाएगा? ऐसा करने वाले लोग उसी लॉबी से हैं जो हर बात में हिन्दू-मुसलमान करते हैं। ये वही दोगले हैं जिन्हें तबरेज दिखता है, लेकिन भारत यादव जैसे दसियों हिन्दुओं की मुसलमानों के हाथ हुई भीड़ हत्या नहीं दिखती। ये लोग मुसलमानों पर अत्याचार की खबरें गढ़ते हैं और पकड़े जाने पर माफी तक नहीं माँगते। याद ही होगा कि ‘जय श्री राम’ के नाम पर कितनी फर्जी खबरें फैलाई गईं थीं, और झूठ पकड़े जाने पर क्या हुआ।

दो कारणों से मुसलमानों को भड़काने की कोशिश हो रही है। पहला है कि ओवैसी जैसों को मुसलमानों का नेता बनने की फ़िक्र है और उसे मुद्दे मिल नहीं रहे। इसलिए वो हर तरह की नौटंकी कर रहा है। उसे हिन्दू-मुसलमान अगर नहीं मिलेगा, तो वो ऐसे मौके बनाएगा जहाँ लगे कि मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है। कुछ मुसलमान भी पगलाए हुए उसकी बात को मान रहे हैं।

एक मुद्दा NRC, या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर, का है जिसमें पहली बार इस देश के नागरिकों का लेखा-जोखा तैयार होगा। भारत अपने आप में उन विचित्र देशों में होगा जहाँ सरकार के पास उसके नागरिकों का कोई एक रजिस्टर नहीं है जहाँ से पता किया जा सके कि कौन किस जगह से है, क्या करता है, कब आया आदि। इसकी जरूरत इसलिए हुई क्योंकि कॉन्ग्रेस और टीएमसी समेत कई पार्टियों ने अपने राज्यों में मुसलमान वोटबैंक बढ़ा कर, चुनावों में जीत सुनिश्चित करने के लिए इस देश की सीमा और स्थानीय जनसंख्या के साथ खिलवाड़ किया। मुसलमान बाहर से ला कर बसाए गए, उन मुसलमानों ने खरगोशों की तरह बच्चे पैदा किए और आज स्थिति यह है कि बांग्लादेश उन्हें वापस लेने को तैयार नहीं, और भारत इन दीमकों को यहाँ रख नहीं सकता।

इस कारण चर्चा शुरू हुई कि इन्हें अलग किया जाए। इस कारण सरकार ने असम में एनआरसी के लिए, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर, नागिरकों और घुसपैठियों को अलग करने की प्रक्रिया शुरू की। इससे कुछ पार्टियों का वोटबैंक गायब हो जाएगा क्योंकि उन्हें बांग्लादेश वापस भेजा जाए या नहीं, ये तो आगे की बात है, पर उनके मताधिकार तो तय रूप से छीने लिए जाएँगे। बस यही कारण है कि ये लोग चिल्ला रहे हैं कि मुसलमानों का भविष्य खतरे में है।

मुसलमान तो यहाँ हर तरह से सुरक्षित है। कम से कम शिया-सुन्नी के दंगे, मस्जिदों में बम ब्लास्ट, घटिया शिक्षा और बेहतरी के अवसर से परे, भारत का मुसलमान न सिर्फ अल्पसंख्यक होने के कारण विभिन्न योजनाओं का लाभार्थी है, बल्कि उसे मुसलमान होने का वैचारिक लाभ भी हमेशा मिलता रहा है जब उनके खिलाफ हुए अपराधों पर पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाता है जिसमें हिन्दुओं की बहुतायत है। इसे ही गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं इस देश में। हालाँकि, मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर जब अपराध होते हैं, तब मुसलमानों को तो साँप सूँघ ही जाता है, गंगा-जमुनी तहजीब का भी अदरक-लहसुन हो जाता है।

खैर, एनआरसी के जरिए इन दीमक मुसलमानों को, जो भारत के नहीं हैं, बाहर करना आवश्यक है क्योंकि वो भारत के मुसलमानों का हक छीन रहे हैं। किसी के वोटबैंक में इस तरह की सेंध लग जाए, और जो पहले से ही जनाधार खोते जा रहे हों, जिनके राज्यों में विकास और राष्ट्रवाद की बात करने वाली पार्टी लगातार बेहतर कर रही हो, वो आखिर इसका विरोध नहीं करेगी, मुसलमानों को नहीं उकसाएगी, तो करेगी भी क्या!

आम मुसलमान जनता भीड़ बना कर या सोशल मीडिया पर संविधान की दुहाई देते हुए भावुक हो रही है कि मजहब के आधार पर किसी को भारत आने से रोकना नहीं चाहिए। ये लोग बहकाए गए हैं, या फिर जानबूझकर दंगे की स्थिति बना रहे हैं। ये इन्हें इकट्ठा कर के क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने की फिराक में हैं जो कि चिंतनीय है। हाल ही में राम मंदिर पर आया फैसला ओवैसी जैसों के पैरों तले की जमीन खींच चुका है जो कि कई साल अपनी राजनीति हिन्दुओं के खिलाफ यही सब कह-कह कर चलाते रहे कि मुसलमानों के साथ अन्याय नहीं होने देंगे।

जबकि सबसे बड़ा सवाल यही है कि मुसलमानों के साथ कौन सा अन्याय हुआ है? कहाँ के मुसलमान को वो नहीं मिल रहा जो हिन्दुओं को मिल रहा है? क्या कोई ऐसी योजना है, छात्रवृत्ति है, कोई कार्ड है, सिलिंडर है, बिजली है, बैंक अकाउंट है, बल्ब है, बीमा है, हॉस्पिटल है, स्कूल है, कॉलेज है, यूनिवर्सिटी है जहाँ सरकार ने कहा हो कि इसमें भारतीय मुसलमानों को नहीं रखा गया है? जहाँ तक सच्चाई की बात करें तो, पूरे देश में मुसलमानों को ले कर विशेष प्रावधान ही हैं कि जो सबको मिल रहा है, वो तो उन्हें मिले ही, उसके अलावा उनके लिए विशेष स्कूल हों, कॉलेज हों, छात्रवृत्ति हो, यूनिवर्सिटी हो, तमाम कल्याणकारी योजनाएँ हों। फिर मुसलमानों के साथ कौन सा अन्याय हो रहा है जिसकी बात ओवैसी या वामपंथी गीदड़ करते हैं?

सत्य यही है कि बिना मुसलमानों को भड़काए कि देखो तुम्हें भगाने की तैयारी हो रही है, इनकी राजनीति चलेगी नहीं। साथ ही, इस तरह की बातें करके, कॉलेज में जाने वाले नए विद्यार्थियों को, जो कि पहली बार वोट देंगे, उन्हें यह बताया जा रहा है कि वर्तमान सरकार मानवीय मूल्यों के खिलाफ है। टिकटॉक पर विडियो बनाने वाली और फेसबुक पर सेल्फी लगा कर वैचारिक क्रांति में चे ग्वेरा का टीशर्ट पहन कर रेबेल होने वाली यह कॉलेजिया जनता वास्तविकता से बहुत दूर सोशल मीडिया पर सुनी-सुनाई बात लिखने लगती है। इसकी परिणति ध्रुव राठी जैसे गटरछाप लौंडों के ट्वीट पर होती है कि भारत के विभाजन की बात सावरकर ने सबसे पहले की थी। न सिर्फ वो बात गलत है, बल्कि यह सोचना भी कि अगर सावरकर ने बात कह भी दी हो, तो क्या गाँधी और नेहरू ने सावरकर की बात मान कर विभाजन स्वीकारा?

रामचंद्र गुहा से ले कर सारे लोग, इतिहास को बर्बाद करने के बाद अब विभाजन का जिम्मा भी दक्षिणपंथियों के माथे डालना चाह रहे हैं। बताया जा रहा है कि विभाजन मजहबी कारणों से नहीं हुआ। आप इनकी दोगलई देखिए कि ये किस स्तर पर चले जाते हैं। और ये इसलिए वहाँ जाते हैं क्योंकि हमने और आपने इनके झूठों पर सच्चाई का तमाचा मारना शुरू तक नहीं किया है।

संविधान और सेकुलर शब्द की दुहाई देने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए, सत्तर के दशक में जबरन घुसाए इस शब्द की संविधान निर्माताओं ने आवश्यकता नहीं समझी थी। ये किसकी शह पर घुसाया गया था? इसकी जरूरत क्या थी? जरूरत इसलिए थी कि इसे आधार बना कर हिन्दुओं को लगातार अत्याचारी के रूप में दिखाया जाए और जैसे ही कोई कुछ बोले, ‘सेकुलर’ तमाचा लगा दिया जाए। सेकुलर का अर्थ तब भी वही था, आज भी वही है: हिन्दुओं से घृणा करने वाला। हिन्दूविरोधी मानसिकता वालों ने इस शब्द का हर दिन मोलेस्टेशन किया है, इसके कपड़े उतारे हैं और दिन के उजाले में इस शब्द का मानमर्दन हुआ है।

हिन्दू तो स्वभाविक तौर पर सेकुलर होता है इसलिए मूल रूप में संविधान में उसे रखने की जरूरत नहीं पड़ी। आपको क्या लगता है कि इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी के यहाँ ठहरने के बाद भी राजेन्द्र प्रसाद या अंबेदकर समेत तमाम बुद्धिजीवियों और राजनेताओं को इसका विचार नहीं आया होगा कि हिन्दू बहुल देश में इतने भिन्न मतों के लोग अल्पसंख्यक हैं, तो उनके लिए अलग शब्द जोड़ा जाए? न तो भारत का संविधान उसे हिन्दू राष्ट्र लिख पाया, न ही सेकुलर।

वो इसलिए क्योंकि इसकी राजनीति से परे, हिन्दुओं के मूलभूत स्वभाव, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम् और सर्वसमावेशी होने की हजारों सालों की परंपरा के लिए यह अकल्पनीय है कि यह जनसंख्या कभी भी, किसी को भी प्रताड़ित करेगी या अपने बहुसंख्यक होने का लाभ उठाएगी। एक देश ऐसा हो जहाँ हिन्दुओं ने हमला बोल कर, पूरी आबादी को हिन्दू बनाया हो? एक उदाहरण ले आइए जहाँ तेरह साल की गैरहिन्दू बच्ची को किडनैप करके, जबरन हिन्दू बना कर, उससे शादी की जाती हो? लेकिन मुसलमान देशों में हिन्दुओं के साथ ऐसा होना आम है।

किसी भी मुस्लिम राष्ट्र में किसी भी तरह का अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं है, वहीं भारत जैसे हिन्दू-बहुल राष्ट्र में अपने हर त्योहार पर, अपने आराध्य की जन्मभूमि को ले कर, अपनी देवियों के प्रतिमा विसर्जन पर, अपने जयकारे और अभिवादन के शब्दों पर, अपने मंदिरों पर हर दिन, कहीं न कहीं मुसलमानों का अत्याचार झेलना पड़ रहा है। मुहर्रम है तो बंगाल में दुर्गा विसर्जन की तारीख अलग कर दी जाती है! बाबरी मस्जिद टूटने पर चिल्लाते हैं कि अरे तुमने हमारे मस्जिद में मूर्ति रख दी, लेकिन कितनी आसानी से भूल जाते हैं कि उन्होंने तो पूरी की पूरी मस्जिद ही मंदिर के ऊपर रख दी! हर दुर्गा पूजा में मुसलमानों द्वारा मूर्तियाँ तोड़ने और विसर्जन पर पत्थरबाजी की खबरें आम हैं।

इसलिए, मुसलमान कहीं सताया जा रहा है, यह मानना बेमानी है। मुसलमान किसी मुसलमान राष्ट्र में प्रताड़ित किया जा रहा है, यह सुनना हास्यास्पद है। मुसलमानों के लिए विश्व के आधे राष्ट्र के दरवाजे खुले हुए हैं। जब सारी आस्था एक ही दिशा में जाकर परिपूर्ण हो रही है, तो फिर नागरिकता के लिए ऐसे देश में क्यों आना जहाँ के मुसलमान कह रहे हैं कि यहाँ हिन्दू सता रहे हैं! कायदे से इमरान खान को अपने यहाँ भी एक विधेयक लाना चाहिए जहाँ भारत के मुसलमानों के पास ऐसा विकल्प हो कि अगर उन्हें यहाँ प्रताड़ित किया जा रहा है तो वो पाकिस्तान आ सकते हैं। साथ ही, परेशान हिन्दुओं के लिए भी इमरान खान को प्रावधान करना चाहिए कि वो भी पाकिस्तान आ सकते हैं। और हाँ, इमरान को सबसे पहले पाकिस्तान को सेकुलर घोषित कर देना चाहिए ताकि हमारे वामपंथी कीड़े रेंगते हुए वहाँ पहुँच सकें।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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