Tuesday, April 30, 2024
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पहले कैप्टन को निपटाया, फिर चन्नी-सिद्धू को भिड़ाया… ‘परिवार’ के लिए पंजाब में पार्टी की कुर्बानी: कॉन्ग्रेस की पॉलिटिक्स यह भी

पार्टी को किसी तरह अमरिंदर सिंह को किनारे लगाना था और अपने गाँधी परिवार की साख को बचाना था। इसके लिए कॉन्ग्रेस ने सहारा लिया नवजोत सिंह सिद्धू का। अमरिंदर सिंह पर आरोप लगा कि वह पंजाब में चल रहे कथित किसान आंदोलन के हितैषी थे, उन्होंने ही इसे हवा दी थी।

पाँच राज्यों के चुनावी नतीजों में कॉन्ग्रेस के लिए सबसे बुरी खबर पंजाब से आई। अब तक के रुझानों के मुताबिक, पंजाब में कॉन्ग्रेस को 12 सीटें मिलती दिख रही हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश भर में भाजपा की लहर के बीच कॉन्ग्रेस ने जो राज्य बचाए रखे थे, उनमें से एक मजबूत गढ़ पंजाब था, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह के अलग हो जाने का कॉन्ग्रेस को यहाँ साफ तौर पर नुकसान होता दिख रहा है। 

हालाँकि, इसकी नींव अगस्त 2020 में ही उस वक्त रखी जा चुकी थी, जब बिना किसी स्थायी अध्यक्ष के चल रही पार्टी से असंतुष्ट 23 वरिष्ठ नेताओं ने G-23 ग्रुप बनाया था। 23 वरिष्ठ कॉन्ग्रेस नेताओं ने अंतरिम पार्टी प्रमुख सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखकर तत्काल और सक्रिय नेतृत्व, संगठनात्मक परिवर्तन का अनुरोध किया था। गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा आदि इस ग्रुप के प्रमुख सदस्य थे। अटकलें थी कि अमरिंदर सिंह इसके प्रमुख चेहरा थे। इसको लेकर वह कॉन्ग्रेस के निशाने पर थे।

पार्टी को किसी तरह अमरिंदर सिंह को किनारे लगाना था और अपने गाँधी परिवार की साख को बचाना था। इसके लिए कॉन्ग्रेस ने सहारा लिया नवजोत सिंह सिद्धू का। अमरिंदर सिंह पर आरोप लगा कि वह पंजाब में चल रहे कथित किसान आंदोलन के हितैषी थे, उन्होंने ही इसे हवा दी थी। हालाँकि, इस आरोप की वजह से पंजाब में उनका समर्थन एक बार फिर बढ़ता दिखाई दिया, जो कि कॉन्ग्रेस किसी भी हाल में नहीं चाहती थी।

इसलिए पंजाब में कॉन्ग्रेस के ‘ओल्डगार्ड’ कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ पार्टी आलाकमान यानी गाँधी परिवार ने ही विद्रोह को हवा दी। नवजोत सिंह सिद्धू के सहारे कॉन्ग्रेस शीर्ष नेतृत्व कैप्टन अमरिंदर सिंह को पार्टी से बाहर निकालने में सफल हो गया। लेकिन, अमरिंदर सिंह के जाते ही पंजाब में कॉन्ग्रेस दर्जनों गुटों में बँट गई। सुनील जाखड़ से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू तक हर कोई खुद को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए हाथ-पैर मारने लगा। 

इस बीच कॉन्ग्रेस आलाकमान ने चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित सीएम बनाने का दाँव खेला। लेकिन, गाँधी परिवार के इस दाँव से सिद्धू खफा हो गए। ऐसा मालूम होता है कि भाई-बहन (राहुल गाँधी-प्रियंका गाँधी) की लीडरशिप ने पहले तो सिद्धू की हर बात मानी लेकिन आखिर में रणनीति बदल दी और सिद्धू का तो एक ही मिशन था- गाँधी परिवार ने मुख्यमंत्री या सीएम फेस नहीं बनाया तो सब छोड़ कर घर बैठ गए और पंजाब कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। इतना ही नहीं, धुरी में चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने मंच पर भाषण देने से मना कर दिया।

प्रियंका गाँधी कॉन्ग्रेस कैंडिडेट बलवीर सिंह गोल्डी के समर्थन में प्रचार करने धुरी गईं थी। मंच पर प्रियंका गाँधी वाड्रा, नवजोत सिद्धू और सीएम चरणजीत सिंह चन्नी समेत कई और नेता मौजूद थे। जब नवजोत सिंह सिद्धू का नाम पुकारा तो उन्होंने हाथ जोड़ लिए। सिद्धू ने प्रियंका गाँधी की तरफ इशारा करते हुए कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया और चरणजीत चन्नी की ओर इशारा किया कि वे अगले वक्ता होंगे। 

एक समय में भारत के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दल का ये हाल हो गया जब ना वो कोई आत्ममंथन करने की स्थिति में है और ना ही वो कोई ठोस फैसला लेने की हालत में ही नज़र आ रही है। एक लंबे अरसे से कॉन्ग्रेस नेतृत्व के सवाल पर अंदरूनी खींचतान से रूबरू होती रही है। इसलिए आज पार्टी का यह हाल है- न खाता न बही, जो राहुल कहें वही सही।

सुदृढ़ और उर्जावान नेतृत्व की कमी, खेमेबाजी और क्षमता की बजाय चाटुकारिता को मिल रहे प्रश्रय से जूझ रही कॉन्ग्रेस की हालत कुछ ऐसी हो गई है एक दीवार को सँभालने की कोशिश होती है तो दूसरी भड़भड़ाने लगती है। पार्टी के अंदर यही तय नहीं हो पाता कि परिवार बचाया जाए या पार्टी। या यूँ कहा जाए कि अब तक पार्टी नेता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि परिवार और पार्टी अलग अलग है और नेता कार्यकर्ता पार्टी के लिए हैं, परिवार के लिए नहीं।

अब अगर इस पूरे प्रकरण पर नजर डाला जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि कॉन्ग्रेस ने एक बार फिर से पार्टी के ऊपर परिवार को रखा। पार्टी के लिए जो भी नेता चुनौती बने, कॉन्ग्रेस ने बड़ी ही चालाकी से उन्हें आपस में निपटा कर अपने परिवार को बचा लिया। कॉन्ग्रेस ने वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर अपने परिवार को बचाने की नैया को पार लगा लिया। 

यदि अंतिम नतीजे अब तक सामने आए रुझानों के मुताबिक ही रहते हैं तो यहाँ कॉन्ग्रेस का प्रदर्शन 1977 में आपातकाल के बाद हुए विधानसभा चुनाव से भी खराब रहेगा। तब कॉन्ग्रेस 17 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। वहीं, 1984 में सिख विरोधी दंगों के बाद 1985 में जब राज्य में विधानसभा चुनाव हुए, तब भी कॉन्ग्रेस 32 सीटें जीती थी। 1997 में उसका प्रदर्शन सबसे खराब रहा था, जब पार्टी ने 14 सीटें जीती थीं।

1977 में किन हालात में चुनाव हुए, नतीजे क्या रहे? 

1975 में केंद्र की इंदिरा गाँधी सरकार ने देश भर में आपातकाल का ऐलान कर दिया था। इस आपातकाल की अवधि लगभग दो साल तक रही। 1977 में जब तक आपातकाल खत्म होने का ऐलान हुआ। 1977 में हुए लोकसभा चुनाव से लेकर सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कॉन्ग्रेस का प्रदर्शन सबसे खराब रहा। पंजाब की 117 सीटों में से कॉन्ग्रेस को 17 सीटें मिली थीं। 

फोटो साभार: ECI

1985 में किन हालात में चुनाव हुए, नतीजे क्या रहे?

पंजाब में पहली बार अलगाववाद की आवाज कॉन्ग्रेस के ही दौर में उठना शुरू हुई। 1984 में पहले ऑपरेशन ब्लू स्टार में जरनैल सिंह भिंडरावाले की मौत और बाद में हुए सिख दंगों से कॉन्ग्रेस को बड़ा नुकसान हुआ। इसके बावजूद 1985 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 31 सीटों पर जीत हासिल की।

1997 में किन हालात में पड़े वोट, कॉन्ग्रेस का क्या हुआ?

पंजाब की राजनीति के लिए सबसे मुश्किल समय 1980-90 का दौर रहा। पंजाब में आतंकवाद के मामले बढ़ने के चलते 1987 से 1992 तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा। 1992 में चुनाव में हुए चुनाव में पूरे राज्य में महज 20 फीसदी वोटिंग हुई। इसके बावजूद कॉन्ग्रेस ने 87 सीटें जीतते हुए पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई। इन चुनाव में अकाली दल को महज दो सीटें ही मिलीं और बाकी कोई भी पार्टी दहाई का आँकड़ा नहीं छू पाई।

फोटो साभार: ECI

अब कॉन्ग्रेस के पास कितने राज्य बचेंगे? 

अगर कॉन्ग्रेस पंजाब हार जाती है, तो उसके पास सिर्फ दो राज्य- छत्तीसगढ़ और राजस्थान ही बचेंगे। चार और राज्यों में उसके सहयोग वाले गठबंधनों की सरकार है। इनमें महाराष्ट्र, झारखंड और तमिलनाडु शामिल हैं। इसके अलावा जिन चार अन्य राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें से मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड में भी कॉन्ग्रेस किसी खास फायदे में नहीं दिख रही है। 

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