Wednesday, May 14, 2025
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जिस राज्य के स्टेडियम में कपड़े सूखते हो, मैदान में जलकुंभी उगते हो… उसे इस ‘वैभव’ पर इतराना नहीं, नाला रोड के नाले में डूब मरना चाहिए

वैभव सूर्यवंशी पर इतरा रही बिहार की व्यवस्था उन सैकड़ों वैभव की भ्रूण हत्या की जिम्मेदार है जिन्होंने गाछी, खेत, उबड़-खाबड़ मैदान को पिच बनाकर पसीना बहाया। लेकिन व्यवस्था के आगे अकाल मौत मर गए। जो खिलाड़ी से मजदूर बन गए। जो आज सूरत से लेकर दमन तक की फैक्ट्री में पसीना बहा रहे हैं।

2025 में ही बालिग (18वाँ संस्करण) होने वाले इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) ने प्रशंसकों को क्रिकेट के कई अविस्मरणीय क्षण दिए हैं। हमने कई शानदार इनिंग्स देखी है। गजब के बॉलिंग स्पेल देखे हैं। फील्डिंग के ऐसे पल देखे हैं कि अपनी ही आँखों पर विश्वास न हो। फिर भी वैभव सूर्यवंशी (Vaibhav Suryavanshi) के शतकीय प्रदर्शन ने सोशल मीडिया पर भावनाओं के फाटक खोल दिए हैं।

यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि क्रिकेट स्किल और टाइमिंग का खेल है। भावनाओं पर नियंत्रण रखना होता है। परिस्थिति के अनुसार खुद को ढालना होता है। ऐसे में वैभव सूर्यवंशी को लेकर हम जो भावनाओं का ज्वार देख रहे हैं, उसके दो मोटे कारण समझ आते हैं।

पहली, उनकी उम्र। वैभव 14 साल के हैं। इतनी छोटी उम्र में इससे पहले किसी ने आईपीएल में शतक नहीं लगाया। वे सबसे तेज शतक लगाने वाले भारतीय बन गए हैं। आईपीएल के इतिहास की दूसरी सबसे तेज सेंचुरी ठोक दी है। 38 गेंदों पर करीब 266 के स्ट्राइक रेट से उन्होंने 101 रन बनाए। इसमें 7 चौके और 11 छक्के हैं।

स्ट्राइक रेट, चौके और छक्कों की संख्या बताती है कि इतनी कम उम्र में वे पावर हिटिंग के बड़े उस्ताद हैं। उन्होंने यह कारनामा गुजरात टाइटंस की उस बॉलिंग लाइनअप के सामने किया है जिसमें मोहम्मद सिराज, राशिद खान, वाशिंगटन सुंदर जैसे इंटरनेशनल प्लेयर मौजूद थे। जाहिर है आड़ा-तिरछा बैट भाँज के उन्होंने राजस्थान रॉयल्स के लिए रन नहीं जुटाए हैं। बताया है कि उनके भीतर स्किल भी मौजूद है।

वैभव के जय-जयकार का दूसरा कारण उनका बिहार से होना है। जो राज्य अपने ही नेताओं का मारा हो, जहाँ की जनता पलायन को अभिशप्त हो, जहाँ के लोग ‘बिहारी’ कहकर अपमानित किए जाने के अभ्यस्त हो, जिस राज्य में रहने का मतलब भविष्य को अंधकार में ढकेल देना माना जाता हो, यदि उसी राज्य के समस्तीपुर के एक गाँव से निकल कर कोई लड़का इस तरह का प्रदर्शन कर दिखाए तो भावनाओं का सैलाब आना स्वभाविक है।

पर यह केवल बिहार के आम लोगों तक ही सीमित नहीं है। पक्ष हो या विपक्ष बिहार का हर नेता इस सैलाब के साथ बहना चाहता है। ऐसा प्रदर्शित करने की कोशिश की जा रही है कि बिहार ने देश को एक ऐसी प्रतिभा तैयार करके दी है, जिसका डंका अंतरराष्ट्रीय पटल पर अगले कुछ दशकों तक बजने वाला है।

पर जमीनी वास्तविकता यह है कि वैभव सूर्यवंशी की यह सफलता केवल उसके जिद्द और जुनून के कारण संभव हुई है। केवल और केवल उसके परिवार के समर्पण के कारण संभव हुई है। इसमें बिहार के उन नेताओं का कोई योगदान नहीं है, जिन पर राज्य में खेल की आधारभूत संरचना तैयार करने की जिम्मेदारी है/थी।

बिहार की राजधानी पटना में ही एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम है। नाम है- मोइनुलहक स्टेडियम। कई साल पहले जब मैंने आखिरी बार इस स्टेडियम को देखा था तो इसमें सीआरपीएफ का कैंप लगा था। 1969 में बने इस स्टेडियम में 1996 के विश्व कप का मैच भी हुआ था। आखिरी इंटरनेशल मैच 1997 में महिलाओं का वनडे था।

उसके बाद इस स्टेडियम को धीरे-धीरे मर जाने के लिए छोड़ दिया गया। सालों बाद इस स्टेडियम की चर्चा 2018 में हुई, जब 15 साल बाद रणजी ट्रॉफी में बिहार की वापसी हुई। पर जब मैच हुआ तो स्टेडियम खेल के कारण चर्चा में नहीं आया। इसकी छत और टूटी दीवारें चर्चा में थी। दर्शक गैलरी में कपड़े सुख रहे थे।

अब इस स्टेडियम के पुनर्निर्माण की योजना बनी है। जिला मुख्यालयों के स्टेडियम तो और भी बुरे हाल में हैं। अपने गृह जिले मधुबनी के स्टेडियम को मैंने जब भी देखा वह तालाब की तरह ही दिखा। यहाँ बैट और बॉल का मुकाबला नहीं होता। जलकुंभी के बीच फैलने का मुकाबला होता है। इसी तरह राज्य के कई स्टेडियम पशुओं के चारागाह बने हुए हैं।

राज्य में प्रशिक्षण अकादमी का घोर अभाव है। जो चल रहे हैं उनमें ज्यादातर प्राइवेट हैं। यह भी कुछ शह​रों तक सीमित है। जिलों में निरंतरता से चलने वाले टूर्नामेंट नहीं हैं। ऐसा कोई सिस्टम नहीं है जो गाँव-देहात के खिलाड़ियों को चिह्नित करें, उनके कौशल को निखारे और फिर उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मंच प्रदान करे। जो कुछ भी हो रहा है, वह निजी या सामाजिक स्तर पर ही अधिक दिखता है।

यह बदहाली केवल क्रिकेट तक सीमित नहीं है। बिहार में हर खेल ​व्यवस्था की उदासीनता के कारण दम तोड़ चुका है। वैसे हाल के वर्षों में सरकार के स्तर पर कुछ हद तक यह तंद्रा टूटती दिख रही है। नीतीश सरकार ने अलग से खेल विभाग का गठन किया है। अभी राज्य सरकार का खेल बजट करीब 700 करोड़ रुपए है।

राजगीर में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) और ओलंपिक संघ के मापदंडों के हिसाब से स्टेडियम तैयार किए जा रहे हैं। पटना जिले के पुनपुन प्रखंड में 100 एकड़ में स्पोर्ट्स सिटी बनाने की घोषणा हुई है। बिहार स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी बन रही है। यहाँ खेल से जुड़े पाठ्यक्रमों में डिग्री देने के साथ-साथ करीब 24 खेलों के प्रशिक्षण के लिए विश्वस्तरीय सुविधाएँ जुटाने की योजना है। इसी तरह राज्य में 37 एकलव्य स्पोर्ट्स ट्रेनिंग सेंटर, 32 खेलों इंडिया ट्रेनिंग सेंटर और भारतीय खेल प्राधिकरण के 3 सेंटर चल रहे हैं।

दरअसल बिहार में खेलों की बर्बादी की कथा भी लालू यादव-राबड़ी देवी के उस जंगलराज से ही शुरू होती है जिसने एक तरफ राज्य में पहले से मौजूद हर क्षेत्र की आधारभूत संरचनाओं को ध्वस्त किया, दूसरी तरफ नई संरचनाओं को खड़ा नहीं होने दिया ताकि ‘अपहरण इंडस्ट्री’ के लिए गली-गली ‘खिलाड़ी’ पैदा किए जा सके। इसका दूसरा पक्ष यह है कि 2005 से बिहार में शासन कर रहे नीतीश कुमार की सरकार ने इस स्थिति को ठीक करने की जो पहल की है वह काफी देर से की गई है और उसे एक खास हिस्से में सीमित कर दिया गया है।

असल में वैभव सूर्यवंशी की सफलता बिहार की व्यवस्था पर तमाचा है। परिचायक है हर उस बिहारी की जिजीविषा का जो अपने पुरुषार्थ से अपना भाग्य लिखता है। व्यवस्था और उससे जुड़े लोगों को इस सफलता का जश्न मनाने की जगह शर्म से पटना के नाला रोड के नाले में डूब जाना चाहिए। वे उन सैकड़ों वैभव की भ्रूण हत्या के जिम्मेदार हैं, जिन्होंने गाछी, खेत, उबड़-खाबड़ मैदान को पिच बनाकर पसीना बहाया, पर व्यवस्था के आगे अकाल मौत मर गए। जो खिलाड़ी से मजदूर बन गए। जो आज सूरत से लेकर दमन तक की फैक्ट्री में पसीना बहा रहे हैं।

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अजीत झा
अजीत झा
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