भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय यानी आपातकाल को 50 वर्ष रहे हैं। 25 जून 1975 देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने यह कदम तब उठाया था, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी गड़बड़ियों के चलते उनके निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया।
प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की जिद में इंदिरा गाँधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 का इस्तेमाल करते हुए देश में आपातकाल लागू किया। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने ‘आंतरिक अशांति’ का हवाला देते हुए इसकी मंजूरी भी दी। यह आपातकाल कुल 21 महीनों तक चला।
इस दौरान देश में नागरिको के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, प्रेस की आज़ादी खत्म कर दी गई, अदालतों की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई और पूरे देश भर में हजारों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। उन्हें आरोप भी नहीं बताए गए।
इस दौरान विपक्षी नेताओं जैसे कि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे को भी जेल में बंद कर यातनाएँ दी गईं। संजय गाँधी के नेतृत्व में जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसमें महिलाओ को प्रसव के दौरान जंजीरों में बाँधा गया और लोगों को बलपूर्वक नसबंदी के लिए मजबूर किया गया।
यह दौर भारत में लोकतंत्र के दमन और सत्ता के दुरुपयोग का प्रतीक बन गया। आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के करीबी लोग, जैसे संजय गाँधी, कमल नाथ और अंबिका सोनी, बहुत ताकतवर हो गए थे। इनका असर सांसदों से भी ज्यादा था।
संसद इस दौरान सिर्फ़ एक मुहर लगाने वाली संस्था बनकर रह गई थी। मीडिया की आज़ादी पूरी तरह से छीन ली गई थी। लालकृष्ण आडवाणी ने इस दौर को याद करते हुए कहा था, “मीडिया से झुकने को कहा गया, लेकिन उसने रेंगना चुना।”
पुलिस ने आम लोगों पर इतनी बर्बरता की कि कई लोग जिंदगी भर के लिए अपंग हो गए। देश में ऐसा माहौल बन गया था कि सरकार की नीतियों का विरोध करना अपराध मान लिया जाता था। हर किसी से उम्मीद की जाती थी कि वे सत्ताधारी पार्टी के प्रति वफादार रहें। इस तरह भारत धीरे-धीरे एक पुलिस राज्य बन गया, जहाँ डर और दमन का राज था।
कॉन्ग्रेस के प्रताड़ित ही बाद में राजनीतिक फायदे के लिए बने सहयोगी
50 साल बीत जाने के बाद भी, जहाँ-जहाँ कॉन्ग्रेस की सरकार है, वहाँ तानाशाही जैसा रवैया अब भी देखने को मिलता है। इसका ताजा उदाहरण कर्नाटक में देखने को मिला, जहाँ कॉन्ग्रेस सरकार ने हिंदू कार्यकर्ता चक्रवर्ती सुलीबेले को कर्नाटक राज्य अल्पसंख्यक आयोग की सिफारिशों के आधार पर निशाना बनाया।
पुलिस विभाग के डीजी और आईजीपी कार्यालय ने सभी थानों से उनके खिलाफ दर्ज मामलों की जानकारी माँगी है। एक कार्यक्रम में बोलते हुए, सुलीबेले ने आरोप लगाया कि सरकार ये सब आरसीबी (रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर) के एक कार्यक्रम में भगदड़ की घटना से जनता का ध्यान हटाने के लिए कर रही है।
एक और उदाहरण मध्य प्रदेश का है, जहाँ कॉन्ग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह को पार्टी से छह साल के लिए निकाल दिया गया, क्योंकि उन्होंने राहुल गाँधी और रॉबर्ट वाड्रा की सार्वजनिक आलोचना की थी। इससे साफ होता है कि कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में आज भी असहमति को दबाने और विरोध की आवाज को कुचलने की प्रवृत्ति जारी है।
आपातकाल के दौरान कई विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया और उन पर अत्याचार किए गए। ऐसा ही एक उदाहरण राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का है। उन्हें तत्कालीन कॉन्ग्रेस सरकार ने मीसा कानून के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था।
जेल में उनके साथ जो बुरा सलूक हुआ, वह उनके लिए इतना दर्दनाक था कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम ही मीसा भारती रख दिया, ताकि वह उस दौर को कभी न भूलें। हालाँकि, अब हालात बदल गए हैं। राजद और कॉन्ग्रेस आज एक साथ हैं।
सितंबर 2023 में राहुल गाँधी खुद लालू यादव के घर गए थे, जहाँ लालू ने उन्हें अपने हाथों से बना मटन खिलाया था। यह दिखाता है कि राजनीति में पुराने विरोध भी समय के साथ बदल सकते हैं।
चोकालिंगा चिट्टीबाबू: DMK नेता जिसको स्टालिन को बचाने पर मिली यातनाएँ
लालू प्रसाद यादव अकेले ऐसे नेता नहीं थे जिन्हें आपातकाल के दौरान कॉन्ग्रेस सरकार ने जेल में डाला था, लेकिन आज वे राजनीतिक फायदा उठाने के लिए कॉन्ग्रेस के साथ खड़े हैं। ऐसा ही एक उदाहरण DMK प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री MK स्टालिन का भी है।
स्टालिन का जन्म 1 मार्च 1953 को हुआ था और जब उन्हें 1976 में गिरफ्तार किया गया, तब वे सिर्फ 23 साल के थे। अपनी आत्मकथा ‘उंगलिल ओरुवन’ (आप में से एक) में उन्होंने जेल के उस समय को ‘यातना शिविर’ कहा है।
उनके पिता 31 जनवरी 1976 को करुणानिधि की अगुवाई वाली DMK सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। कुछ ही घंटों बाद, पुलिस स्टालिन को गिरफ्तार करने उनके घर गोपालपुरम पहुँची, लेकिन उस वक्त वे पास के शहर माथुरन्थकम में थे।
आज भले ही स्टालिन और उनकी पार्टी कॉन्ग्रेस के साथ खड़ी हो, लेकिन आपातकाल के समय कॉन्ग्रेस के हाथों उन्हें भी गिरफ्तारी और अत्याचार झेलना पड़ा था। जब पुलिस करुणानिधि के घर पहुँची, तो अधिकारियो ने कहा कि वे यह देखने के लिए तलाशी लेना चाहते हैं कि स्टालिन वहाँ छिपे हुए तो नहीं हैं।
करुणानिधि ने तलाशी का विरोध नहीं किया और पुलिस को बताया कि स्टालिन अगली सुबह लौट आएँगे। उन्होंने यह भी कहा कि अगर जरूरत हो तो स्टालिन की जगह उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए। जब स्टालिन 1 फरवरी 1976 को घर लौटे, तो उन्होंने अपनी माँ दयालु अम्माल और पत्नी दुर्गा को रोते हुए देखा।
उनके पिता करुणानिधि ने उन्हें समझाया कि पुलिस उनकी तलाश कर रही है और राजनीति में आने वालों को बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके बाद करुणानिधि ने खुद पुलिस को बताया कि स्टालिन लौट आया है और कहा कि उसे गिरफ्तार कर लें।
पुलिस ने स्टालिन को मीसा कानून (MISA – आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) के तहत गिरफ्तार कर लिया। इस घटना से हमे समझा आता है कि आपातकाल के समय कॉन्ग्रेस सरकार ने विपक्षी नेताओं और उनके परिवारों को किस तरह से निशाना बनाया था।
आपातकाल के दौरान जेल में रहना अपने आप में बहुत कठिन और डरावना था। पुलिस की बर्बरता इतनी ज्यादा थी कि इससे किसी की भी हिम्मत टूट सकती थी। उस समय MK स्टालिन भी जेल में थे और उनकी हालत बहुत खराब थी। लेकिन उनकी DMK पार्टी के साथी नेताओं ने उन्हें संभाला और बचाया।
चोकलिंगा चिट्टीबाबू, जो DMK नेता और लोकसभा सांसद थे, उन्होंने स्टालिन को पुलिस की मार से बचाते हुए अपनी जान तक गँवा दी। स्टालिन ने 2009 में अपने परिवार के साथ जब जेल का दौरा किया, तो उन्होंने इस दर्दनाक घटना को याद किया। उन्होंने बताया कि चिट्टीबाबू ने उन्हें बचाने के लिए पुलिस की बर्बरता झेली और इसी कारण उनकी मौत हो गई।
करुणानिधि का मानना था कि जेल में जो अत्याचार स्टालिन ने देखे और झेले, वही उन्हें राजनीति में लाने का कारण बने। स्टालिन ने जुलाई 2019 में एक शादी समारोह के दौरान बताया कि कैसे अर्काट एन वीरासामी और चिट्टीबाबू की मजबूत मौजूदगी और नैतिक साहस ने उन्हें जेल में जिंदा रहने में मदद की।
चिट्टीबाबू, जिन्हें ‘मेयर चिट्टीबाबू’ के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने 1967 और 1971 में लोकसभा चुनाव जीते थे। उनका जन्म 4 जनवरी 1937 को हुआ था। 1976 में आपातकाल के दौरान मीसा (MISA) कानून के तहत उन्हें भी गिरफ्तार किया गया था।
स्टालिन ने मई 2023 में चिट्टीबाबू के सम्मान में एक पुल का नामकरण किया और उनके बलिदान को याद करते हुए गहरा आभार व्यक्त किया। चिट्टीबाबू की कुर्बानी आज भी याद की जाती है, क्योंकि उन्होंने स्टालिन की जान बचाने के लिए अपनी जान दे दी।
DMK ने उसी कॉन्ग्रेस के साथ मिलाया हाथ
आपातकाल लगे हुए अब 50 साल बीत चुके हैं, लेकिन इसके ज़ख्म आज भी भारतीय लोकतंत्र में ताज़ा हैं। इस काले दौर की एक दर्दनाक याद DMK नेता और पूर्व सांसद चोकलिंगा चिट्टीबाबू की मौत है। उन्होंने युवा MK स्टालिन को पुलिस की बर्बरता से बचाते हुए गंभीर चोटें खाईं, जिससे उनकी मौत हो गई।
उनकी मौत कोई हादसा नहीं थी, बल्कि कॉन्ग्रेस सरकार की तानाशाही का नतीजा थी। यह दुख की बात है कि आज वही DMK, जिसकी सरकार को कॉन्ग्रेस ने गिरा दी थी और नेताओं को जेल में ठूंस दिया था वही आज राजनीतिक फायदे के लिए उसी कॉन्ग्रेस के साथ खड़ी है। उसको अपने नेता का बलिदान भी याद नहीं रहा।
कॉन्ग्रेस ने सिर्फ नेताओं को नहीं, बल्कि परिवारों को तोड़ा है और और लोकतंत्र का गला घोंटा। इसके पीछे उसने देश में ‘आंतरिक गड़बड़ी’ का हवा हवाई कारण बताया है। स्टालिन को बचाने के लिए जान देने वाले चिट्टीबाबू अगर आज होते, तो शायद DMK और कॉन्ग्रेस के इस गठबंधन को देखकर दुखी और हैरान होते।
चिट्टीबाबू के नाम पर पुल बनाना तभी सच्चा सम्मान होगा जब डीएमके उस पार्टी से नाता तोड़े जिसने उसकी आत्मा को कुचला था। ऐसा लगता है कि सत्ता की लालसा में DMK ने अपने अतीत और आत्मसम्मान को भुला दिया है। गोपालपुरम, जहाँ एक समय यातना और बलिदान की कहानियाँ थीं, अब बस राजनीतिक समझौतों का गवाह बनकर रह गया है।
देश को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल कोई अचानक लिया गया फैसला नहीं था, बल्कि एक सोची-समझी साजिश थी। यह कॉन्ग्रेस की विरासत पर एक काला धब्बा है, और एक चेतावनी है कि जब सत्ता का गलत इस्तेमाल होता है, तो संविधान भी बेबस हो सकता है।