Friday, March 29, 2024
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कॉन्ग्रेसी महिला ने पूछा – फिर से किसे वोट दोगे – 82% ने कहा, ‘मोदी-मोदी’; खुद की पार्टी को सिर्फ 12%

इस 'मध्यावधि चुनाव' का नतीजा वही निकला जो कोई भी इंसान बिना देखे, सड़क पर रोक कर भी आप पूछिए तो बता देगा। इस सर्वे में भाजपा 82% वोट लेकर विजयी रही, और कॉन्ग्रेस महज़ 12% मत ही जुटा पाई।

कॉन्ग्रेस के चोटी के नेता तो दूर की बात, उसके आम सदस्य भी अभी तक इस सच्चाई को स्वीकारने की बजाय कि देश की जनता उनकी रीति-नीति को सिरे से नकार चुकी है, बार-बार इसी का प्रदर्शन कर रहे हैं कि वे बस मोदी से नाराज़गी के बल-बूते सत्ता में वापसी का ख्वाब पाले बैठे हैं। इसका सबूत है कॉन्ग्रेस की सदस्या और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट ऐंड्रिया “रिया” डिसूज़ा का वह ट्विटर-पोल, जिसमें सवाल पूछा गया है कि देश में पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है, उसे देखते हुए अगर उन्हें फिर से अपना वोट देने का मौका मिले तो किसे वोट देना चाहेंगे। बाकायदा विकल्प भी दिए गए कॉन्ग्रेस, भाजपा, नोटा और अन्य पार्टियों में।

इस ‘मध्यावधि चुनाव’ का नतीजा वही निकला जो कोई भी इंसान बिना देखे, सड़क पर रोक कर भी आप पूछिए तो बता देगा। इस सर्वे में भाजपा 82% वोट लेकर विजयी रही, और कॉन्ग्रेस महज़ 12% मत ही जुटा पाई। झुठलाने को इसे भी “IT सेल वालों ने रेड मार दी” कहकर झुठलाने की भरसक कोशिश की गई, ठीक उसी तरह जैसे कॉन्ग्रेस दीवार पर लिखी लोकसभा नतीजों की इबारत को आखिरी समय तक EVM पर सवाल उठाकर झुठलाने की कोशिश करती रही। जैसे राहुल गाँधी के खुद ही नतीजों की जिम्मेदारी लेकर इस्तीफ़ा देने (जो उनके राजनीतिक करियर के चुनिंदा अनुकरणीय लमहों में से है) के बाद भी कॉन्ग्रेसी आज तक राहुल गाँधी के अलावा हर किसी को हार के ज़िम्मेदार ठहरा कर सच्चाई झुठलाते ही रहे हैं।

विकल्पहीन एंटी-इंकम्बेंसी पंचतंत्र वाले अंडकोष जैसी है

पंचतंत्र में एक कहानी है, जिसमें सियार दंपत्ति सांड के अंडकोषों को पक कर बस गिरने ही जा रहे माँस-पिण्ड समझकर अपनी बनी-बनाई शिकार को छोड़ कर सांड के पीछे भटकने लगते हैं। वे सांड का न जाने कब तक पीछा यही सोच कर करते रहते हैं कि अंडकोष अब गिरे-तब गिरे। अंत में हार कर जब वे वापस लौटते हैं तो पता चलता है कि नदी किनारे की उनकी शिकार की जगह पर किसी और शिकारी ने कब्ज़ा कर लिया है। कॉन्ग्रेस पार्टी वही सियार दंपत्ति है।

कॉन्ग्रेस के पूरे लोकसभा चुनाव अभियान में साफ दिखा कि वह अपना कोई वैकल्पिक, सकारात्मक नीतिगत विकल्प (‘न्याय’ जैसी वाहियात योजनाओं के अलावा) लाने की बजाय केवल “कुछ-न-कुछ प्रतिशत जनता तो मोदी से इतनी नाराज़ होगी ही कि हमें वोट दे बैठे” के भरोसे थी। इसीलिए उसकी 52 सीटें भी बहुत लोगों को बहुत ज़्यादा ही लगीं। इस पोल से साफ़ पता चल रहा है कि यही उम्मीद अभी भी जारी है- कब मोदी कोई बड़ी गलती करे, और कब हमें बैठे-ठाले उससे नाराज़ लोगों के वोट मिलें!

विकल्पहीन एंटी-इंकम्बेंसी कितनी खोखली होती है, भाजपा यह जानती है। इसकी भुक्तभोगी रह चुकी है। 2008 के 26/11 हमलों के कुछ ही समय बाद हुए चुनावों में वह इसी तरह हारी थी- लालकृष्ण आडवाणी ने अपना चुनाव अभियान बिना किसी रीति-नीति के केवल 26/11 के वक्त की गई मनमोहन सरकार की चूकों के लिए जनता की नाराज़गी के भरोसे ही टिका रखा था, इसलिए वह भी झटका खाए, और पार्टी भी। लेकिन हैरानी की बात है कि 2009 में दुश्मन की हार की कीमत पर मिला यह सबक न कॉन्ग्रेस को 2019 चुनावों के पहले समझ में आया था, न ही लग रहा है कि अभी भी समझ में आया है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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