Saturday, May 4, 2024
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फटा घाव लेकर जब वो लड़की स्कूल पहुँची, ताकि आगे शादी में दिक्कत न आए!

धर्मों से परे और जाति से परे हर लड़की की कहानी अपने आप में ही इतिहास का समकालीन ज़िंदगी के साथ समावेश है। हम जिस दौर में जी रहे हैं, वहाँ कार की स्टेयरिंग हाथ में लिए हर लड़की आज के समाज का आईना नहीं है। स्कूल जाती लड़की को देखकर कभी भी इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए कि उसके भीतर पढ़ने का बहुत जोश है या फिर उसके घर के लोगों में उसे पढ़ाने की मंशा है। हो सकता है ‘लाडली योजना’ के तहत मिलने वाली 1 लाख की राशि की चमक ने उसे स्कूल के क्लासरूम तक लाकर खड़ा दिया हो… या फिर ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ के बैनर तले उसका नाम दर्ज़ करने के लिए घर की बेटी को स्कूल तो भेजा जा रहा हो, लेकिन घर में उसे शिक्षा उन्हीं लोगों द्वारा दिलाई जा रही हो, जो आज भी औरत का सबसे बड़ा कर्म रोटी को गोल बनाना बताते हैं। हो सकता उसकी डिग्रियों की आड़ में सिर्फ शादी के लिए एक परफ़ेक्ट ‘रेज़्युमे’ तैयार किया जा रहा हो।

ये ऊपर लिखी बातें निराधार नहीं हैं, और न ही मैं महिलाओं की शिक्षा का विरोध कर रही हूँ। मैं बस उस व्यथा को ज़ाहिर करना चाहती हूँ, जो अपने माहौल में देखते सब हैं लेकिन महसूस कोई-कोई ही करता है। ऊपर की बातें लिखते समय मैं कुछ वैसी लड़कियों का चेहरा याद कर रही हूँ, जिनके जीवन को और रहन-सहन को हमेशा से मुझे जानने की इच्छा हुई। लेकिन जब जाना तब सहम गई। इन लड़कियों में एक नाम अन्नू (बदला हुआ नाम) भी है। नीचे की कहानी (सच्ची घटना) है तो अन्नू की लेकिन इस कहानी के पात्र आपको अपने आस-पास देखने को अक्सर मिलेंगे।

बात 2009 की है। 8वीं पास करके मैंने नए स्कूल में 9वीं में एडमिशन लिया था। वो स्कूल मेरे लिए बहुत बड़ा अनुभव था। मैं पहली बार इतनी सारी लड़कियों को एक साथ पढ़ते हुए देख रही थी। इनमें कुछ बहुत पढ़ाकू थीं और कुछ बहुत ही बिंदास… मैं एवरेज वाली सूची में थी। घर में हमेशा से पढ़ाई के लिए दबाव रहता था, इसलिए मुझे पढ़ाकू लड़कियों को न देखने का मन करता था और न ही मैं उनसे प्रभावित होती थी।

क्लास में कुछ ऐसी भी लड़कियों का ग्रुप था, जो बहुत बिंदास था। नम्बर चाहे कम आएँ, लेकिन हेयरस्टाइल हर रोज़ नया रहता था। हम कुर्ता घुटने से नीचे तक का पहनते थे और वो घुटने से ऊपर पहन कर भी कुर्ते की लंबाई को ज़्यादा बताती थीं। उन्हें देखकर मुझे लगता था कि इनके घर का माहौल कितना गज़ब होगा कि ये लोग टीचर की डाँट खाने के बाद भी मस्तमौला होकर घूमती हैं। उन्हें न होमवर्क की चिंता होती थी और न ही यूनिट टेस्ट की। इस ग्रुप की हर लड़की के पास अपनी एक फ़ाइल थी, जिसमें पसंदीदा हिरोइनों की अखबार से काटी हुई तस्वीरें थी। बैक बेंच पर वो भी बैठती थीं और मैं भी। फ़र्क़ बस ये था वो खुलकर हँसती थीं और अपनी तरह से क्लास रूम को जीती थीं और मैं पढ़ाई के साथ उनके लाइफ़स्टाइल को देखने में ही उलझी रहती थीं। इस ग्रुप ने मुझे बहुत प्रभावित किया था।

इस स्कूल में मेरे दिन बीतते जा रहे थे और मैं अपनी एवरेज परफॉर्मेंस के साथ दूर से ही इनमें घुलती जा रही थी। घर आकर भी मैं इसी ग्रुप के बारे में सोचती रहती थी। इनमें एक लड़की अन्नू भी थी। बेहद सुंदर और मस्तमौला… लेकिन उसका पढ़ाई में डब्बा गोल था। इसलिए टीचर ज़्यादा पसंद नहीं करते थे। हालाँकि, इस बात से उसे भी कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उसके लिए तो उपलब्धि ये थी कि स्कूल के बाहर खड़े लड़के उसके ग्रुप की किसी लड़की को न देखकर सिर्फ़ उसे देखते हैं। मुझे लगता था जैसे उसने न पढ़ने की ही ठान रखी है। लेकिन फिर भी मुझे वो पसंद थी।

उसके जन्मदिन वाले दिन उस ग्रुप में बहुत हल्ला था। सबको पता था अन्नू का जन्मदिन है, बस इंतज़ार हो रहा था उसके आने का। प्रार्थना से लेकर पहला पीरियड खत्म हो गया, लेकिन वो नहीं आई। उसकी सहेलियाँ बेहद नाराज़ थीं। मानो अब से अन्नू से दोस्ती बिल्कुल ख़त्म कर लेंगी। स्कूल की घंटी बजी और मैं भी अपने घर आकर यह सोचती रही कि आज आखिर अन्नू क्यों नहीं आई?

अगले दिन वो आई तो हाथ में पट्टी बंधी थी। तब पता चला कि जन्मदिन पर ही कार से उसका एक्सीडेंट हो गया था, जिससे उसके हाथ में गहरी चोट आई थी। क्योंकि चोट गहरी थी, तो सबको लगा टाँके लगे होंगे। लेकिन उसने इस बात को झट से नकारते हुए कहा, “मैंने कोई टाँके नहीं लगवाए।” सहेलियों के ज़्यादा पूछने पर उसने बड़े चिंता-भाव में कहा, “टाँके लग जाते हैं तो निशान पड़ जाता है न यार! फिर शादी में दिक्कत आती है। इसलिए मम्मी ने टाँके नहीं लगवाए। भले ही टेम (समय) लगेगा लेकिन घाव ऐसे ही सही हो जाएगा।”

इस बात को सुनकर अभी मैं हैरान हुई ही थी कि तब तक उस ग्रुप से ही किसी लड़की की आवाज़ आई, “हाँ, ये तो आंटी ने सही किया, शादी में इन सबसे बहुत दिक्कतें आती हैं।” आश्चर्य कि उस ग्रुप में सबने इस बात पर हामी भरी!

इस बात को सुनने से पहले मेरे भीतर कभी भी लड़की होने पर सवाल नहीं उठे थे, लेकिन इस घटना के बाद मानो मैं सहम गई। मैं कई दिनों तक सवालों से जूझती रही कि क्या एक लड़की का शरीर शादी का मटेरियल मात्र है! जो जितना साफ़ रहेगा, उसकी माँग उतने बढ़िया लोग करेंगे?

फिर एक ख़्याल यह भी आया कि क्या अन्नू के जन्मदिन पर हुए एक्सीडेंट में जो चोट उसे लगी, उसे देखकर उसकी मम्मी का मन नहीं पसीजा होगा, जो उन्होंने चोट में बहता ख़ून नकार कर उसके न मिटने वाले निशान को ज़रूरी समझा?

अपनी मम्मी की इस बात को मानकर अन्नू खुले घाव के साथ स्कूल आ गई। मतलब वो भी इस उम्र से ही खुद को शादी के लिए ही तैयार कर रही है?

क्या सच में चोट लगने से ज्यादा शरीर पर निशान का दिखना खतरनाक है?

निशान को लेकर परेशान हो जाने वाली अन्नू की मम्मी कभी भी उसके पढ़ाई में कम नम्बर देखकर परेशान नहीं हुई होंगी?

अन्नू की मम्मी वाली बात पर सहमति भरने वाली उसकी सहेलियों को भी क्या यही सिखाया जा रहा होगा उनके घरों में?

ये वो सवाल थे जो आज भी मुझे कुरेदते हैं। इस घटना के बाद मैं खुद को बेहद ख़ुशनसीब मानती हूँ कि मैंने बतौर लड़की एक ऐसे घर में जन्म लिया, जहाँ मुझे पहला थप्पड़ पढ़ाई न करने पर पड़ा था। मेरे शरीर पर एलर्जी से हुए कई निशानों के बावजूद भी मेरे घर में किसी ने कभी मुझे उसे छुपाने को नहीं कहा, न ही उसे देखकर कभी चिंता जताई। अन्नू को देखकर मेरे मन में इस तरह के सवाल आना शायद मेरी परवरिश का नतीजा है और शायद उसका अपनी मम्मी की बात को मान जाना उसकी परवरिश का… ऐसे में अगर हम ये कहें कि स्कूल जाती हर लड़की शिक्षित होगी तो शायद यह गलत होगा क्योंकि लड़की से ज़्यादा हमारे परिवेश में पनप रही कुंठित मानसिकता का बदलना ज़रूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि हर लड़की स्कूल जाते वक्त शिक्षा को अपना लक्ष्य रखे न कि समाज की थोपी बातों पर।

उम्मीद यही है कि देश में आने वाली हर सरकार बेटी बचाने के साथ समाज को शिक्षित करने का भी काम करे। सिर्फ एक निश्चित समाज या तबके की लड़कियाँ ही कार की स्टेयरिंग पर हाथ न घुमाएँ। बल्कि अन्नू जैसी लड़कियों को भी पता चल सके कि वो साइड में बैठने के अलावा गाड़ी खुद भी चला सकती हैं और मंजिल तक पहुँचा भी सकती हैं।

CBI डायरेक्टर पद से हटाए गए आलोक वर्मा ने दिया इस्तीफ़ा

शुक्रवार (जनवरी 10, 2019) को सीबीआई निदेशक पद से हटाए गए आलोक वर्मा ने शनिवार को नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया है। ज्ञात हो कि शुक्रवार को प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले हाई पावर्ड समिति ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक पद से हटा कर उनका तबादला फायर सर्विसेज में कर दिया था। इसके बाद वर्मा ने फायर विभाग में चार्ज लेने से इनकार कर दिया और सर्विस से इस्तीफ़ा दे दिया। फरवरी 1, 2017 को सीबीआई डायरेक्टर बनाए गए वर्मा इसी महीने की अंतिम तारिख को रिटायर होने वाले थे। अपने इस्तीफ़े में उन्होंने कहा;

“मैं अपनी सर्विस 31 जुलाई 2017 को ही पूरी कर चुका था और सिर्फ सीबीआई डायरेक्टर के पद पर कार्यरत था। सिविल डिफेंस, फायर सर्विसेज़ और होमगार्ड का महानिदेशक बनने के लिए तय आयु सीमा को मैं पार कर चुका हूं।”

बता दें कि सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और उनके डिप्टी राकेश अस्थाना के बीच हुए विवाद के बाद दोनों को ही पद से हटा दिया गया था। 23 अक्टूबर की आधी रात को केंद्र सरकार ने सीबीआई के भीतर बढ़ते विवाद को लेकर आलोक वर्मा को उनके पद से मुक्त कर लम्बी छुट्टी पर भेज दिया था। इसके करीब ढ़ाई महीने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस फ़ैसले को पलटते हुए वर्मा को फिर से बहाल कर दिया था। अदालत ने अपने इस निर्णय में कहा था कि इस मामले में आगे का फैसला चयन समिति करेगी। चयन समिति में प्रधानमंत्री के अलावे नेता प्रतिपक्ष और मुख़्य न्यायाधीश का शामिल होना था। शुक्रवार को हुई समिति की बैठक में मुख़्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि के रूप में न्यायमूर्ति एके सीकरी ने भाग लिया था।

1979 बैच के IPS अधिकारी आलोक वर्मा सीबीआई के 27वें निदेशक थे। सीबीआई निदेशक के रूप में उनका कार्यकाल काफी विवादित रहा और राकेश अस्थाना से उनके झगड़े के कारण सीबीआई भी कई दिनों तक सुर्ख़ियों में रही। वर्मा के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग में भ्रष्टाचार संबंधी जाँच भी चल रहा है। वर्मा ने कहा कि उन्होंने सीबीआई की अखंडता बनाए रखने की पूरी कोशिश की लेकिन कुछ लोगों द्वारा इस संस्था को बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है।

उधर सीबीआई के अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव ने वर्मा द्वारा लिए गए स्थानांतरण वाले सारे निर्णयों को रोक दिया है।

सामान्य वर्ग में आरक्षण के लिए ₹8 लाख और 5 एकड़ फ़ाइनल नहीं: केंद्रीय मंत्री

सामान्य वर्ग के कमज़ोर तबके को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने वाला बिल पास होने के बाद से ही लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। सामान्य वर्ग के ग़रीबों को आरक्षण देने संबंधी बिल के तहत सरकार अब ₹8 लाख और 5 एकड़ ज़मीन के दायरे को कम कर सकती है।

वित्त मंत्रालय के मुताबिक अगले महीने इस तरह के बदलाव को अमल में लाया जा सकता है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने भी बदलाव करने की संभावना व्यक्त की है। उनके मुताबिक़ वर्तमान में जो आय और संपत्ति का दायरा है, वो अधिक है।

सामान्य वर्ग आरक्षण बिल पर जानकारी देते हुए गहलोत ने बताया कि फ़िलहाल जो बिल लोकसभा में पास हुआ है, उसमें आय और संपत्ति का ज़िक्र नहीं किया गया है।

इसका सीधा सा मतलब यह है कि सरकार अगले महीने बिल में इस प्रकार बदलाव करेगी, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि 10 फ़ीसदी आरक्षण का लाभ सामान्य वर्ग के केवल ज़रुरतमंद तबके को ही मिले। वित्त मंत्रालय के मुताबिक, केंद्र इस बात पर भी विचार कर रहा है, कि राज्यों को अपने हिसाब से सवर्ण आरक्षण के दायरे को निर्धारित करने की छूट दी जाए।

केंद्रीय मंत्री ने कहा कि ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के बीच क्रीमी लेयर के लिए मौजूदा मापदंडों से वार्षिक घरेलू आय और भूमि की होल्डिंग का संदर्भ तब लिया गया था, जब आरक्षण हेतु आर्थिक अभाव को शामिल करने के लिए संविधान संशोधन पर विचार किया जा रहा था।

संविधान के अनुच्छेद 15 में क्लॉज़ 4 और 5 में कम समृद्ध दलित, आदिवासी और ओबीसी को कोटा के अंतर्गत कवर नहीं किया गया था। इन क्लॉज़ों के कारण ही आरक्षण की बाधा उत्पन्न हो रही थी। गहलोत ने कहा, “क्लॉज 6 अब इस तरह का आरक्षण देना संभव बनाता है।” इसके अलावा उन्होंने जानकारी दी कि मंत्रालय अब जिन उपायों पर विचार करेगा, उसके अंतर्गत आय और ग़रीबी के मौजूदा संकेतकों को ध्यान में रखा जाएगा।

बेटे की बलि देने वाले अकेले नहीं थे हज़रत इब्राहीम; जानिए वीर माधो सिंह की अमर गाथा

“एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का
एक सिंह माधो सिंह, और सिंह काय का”
उत्तराखंड में प्रसिद्ध इस लोकोक्ति का अर्थ है- एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधो सिंह है, इसके अलावा बाकी सिंह बेकार हैं।

उत्तराखंड की लोक गाथाओं में कई ‘वीर भड़ों’ (वीर योद्धा) का ज़िक्र है। और इन्ही में से एक वीर भड़ हैं माधो सिंह भण्डारी। माधो सिंह भण्डारी का जन्म मलेथा गाँव में हुआ था जो उत्तराखंड के बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है।

पहाड़ की लोक गाथाओं में वीर गढ़वाली योद्धा माधो सिंह भण्डारी का अपना अलग विशेष स्थान है। लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी ‘कूल’ (सुरंग) बनाकर अपने गाँव मलेथा तक लेकर आने का काम महान योद्धा माधो सिंह भण्डारी ने किया था। माधो सिंह द्वारा बनाई गई ‘कूल’ के जरिए जो पानी आता है, उससे मलेथा गाँव के खेतों में आज भी हरियाली है।

‘माधो सिंह मलेथा’

माधो सिंह भण्डारी का जन्म सन 1595 के लगभग उत्तराखंड के टिहरी जिले के मलेथा गाँव में हुआ था। जिस कारण उन्हें ‘माधो सिंह मलेथा’ भी कहा जाता है। उनके पिता का नाम ‘सोणबाण’ कालो भण्डारी था, जो अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी बुद्धिमता और वीरता से प्रभावित होकर तत्कालीन गढ़वाल नरेश ने ‘सोणबाण’ कालो भंडारी को एक बड़ी जागीर भेंट की थी। माधो सिंह भी अपने पिता की तरह ही वीर और स्वाभिमानी थे।

मलेथा गांव के दाईं ओर चंद्रभागा नदी बहती है। बीच में बड़ी चट्टानों और पहाड़ों के कारण चंद्रभागा नदी का पानी गाँव तक लाना मुश्किल था। माधो सिंह भण्डारी ने इसी पहाड़ को खोदकर लम्बी सुरंग बनाई और सुरंग के रास्ते पानी गाँव तक लाने की ठानी। लगभग पाँच सालों की कड़ी मेहनत के बाद माधो सिंह की मेहनत रंग लाई और सुरंग बनकर तैयार हो गई। यह सुरंग अपने आप में इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है।

सोलहवीं सदी में नहर और सुरंग के ज़रिए सिंचाई के लिए पानी खेतों तक पहुँचाना एक दिवास्वप्न जैसी बात थी। गाँव में सुरंग और नहर लाने के उनके प्रयास की यह कहानी काफ़ी हद तक बिहार राज्य के दशरथ माँझी से मिलती-जुलती है, जिन पर बॉलीवुड में फ़िल्म भी बनाई जा चुकी है। माधो सिंह भण्डारी गढ़वाल के महान योद्धा, सेनापति और कुशल इंजीनियर थे और वो गढ़वाल की लोककथाओं का अहम हिस्सा रहे हैं। समय-समय पर उनकी वीरता, त्याग और शौर्य की कहानी पर नाट्य-मंचन भी होते रहते हैं।

राजा महिपती शाह की सेना में सेनाध्यक्ष थे माधो सिंह भण्डारी

माधो सिंह भण्डारी कम उम्र में ही श्रीनगर के शाही दरबार की सेना में भर्ती हो गए और अपनी वीरता और युद्ध कौशल के कारण तत्कालीन राजा महीपति शाह (1631-35) जो कि पँवार वंश के 46वें राजा थे, की सेना के सेनाध्यक्ष के पद पर पहुँच गए। सेनाध्यक्ष के रूप में माधो सिंह दुश्मनों के लिए साक्षात यम के दूत बन गए। माधो सिंह भण्डारी के नेतृत्व में महीपति शाह ने तिब्बत के दावा क्षेत्र से होने वाले लगातार हमलों से राज्य को सुरक्षित करने के साथ ही दावा क्षेत्र और अपने राज्य के बीच सीमा का निर्धारण किया था। इस कारण महीपति शाह ‘गर्भ-भंजक’ नाम से भी जाने जाते थे।

क्या है किस्सा वीर माधो सिंह भण्डारी का?

लगातार अपने हमलों से राज्य की नींद उड़ाने वाले तिब्बत के दावा क्षेत्र के दुश्मनों से लड़ाई में विजय हासिल करने के बाद माधो सिंह भंडारी का विवाह उदीना के साथ हुआ। सेना से छुट्टियों के दौरान अपने गाँव जाने पर वहाँ खेती-बाड़ी और उसर भूमि के हालात देखकर माधो सिंह का मन बहुत दुखी हुआ। उन्होंने देखा कि मलेथा गाँव के अलकनंदा और चंद्रभागा नदियों से घिरे होने के बावज़ूद वहाँ सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। जिस कारण गाँव की खेती सिर्फ़ वर्षा पर निर्भर थी। कभी-कभी नौबत अकाल पड़ने तक की भी आ जाती थी और पानी की कमी के कारण स्थानीय लोगों का खेती करके फ़सल और सब्ज़ी उगाना मुश्किल था। माधो सिंह भण्डारी ने इस समस्या पर विचार किया कि किस प्रकार से गाँव में पानी और सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो सकती है। उन्होंने निश्चय किया कि वो किसी भी तरह से मलेथा गाँव में पानी लेकर आएंगे।

मलेथा गाँव के सबसे नजदीक चंद्रभागा नदी बहती है, लेकिन नदी और गाँव के बीच बहुत बड़े पहाड़ और चट्टानों के कारण यहाँ नदी का पानी पहुँचाना बहुत ही मुश्किल कार्य था। माधो सिंह ने विचार किया की यदि पहाड़ों के बीच से किसी तरह सुरंग बनाई जा सके, तभी पानी को गाँव तक पहुँचाना संभव हो सकेगा। दुरूह कार्य यह था कि कठोर चट्टानों के बीच से लगभग 2 किलोमीटर लम्बी सुरंग किस प्रकार मलेथा तक पहुँचाई जाए। माधो सिंह ने तुरंत ही एक विशेषज्ञों का दल बुलाकर और गाँव के लोगों को साथ लेकर सुरंग बनाने का काम शुरू कर दिया। लगभग पाँच साल तक चले इस हिमालयी परिश्रम के बाद ‘कूल’/’गूल’ (सुरंग) बनकर तैयार हो गई। इसके ऊपर के हिस्से को मजबूत लोहे और कीलों का आवरण दिया गया, जिससे कि भविष्य में आने वाली किसी आपदा और भूस्खलन से इसे सुरक्षित रखा जा सके।

सुरंग के बदले अपने पुत्र का दिया बलिदान

स्थानीय कहानियों के अनुसार माधो सिंह भण्डारी ने अपने पुत्र गजे सिंह का इस सुरंग के लिए बलिदान किया था। लोक कथाओं के अनुसार, जब सुरंग बनकर तैयार हो गई तब नदी के पानी को ‘कूल’ (सुरंग) से गुज़ारने के बहुत प्रयास करने के बावज़ूद भी नदी का पानी ‘कूल’ में नहीं पहुँचाया जा सका। जिससे माधो सिंह के साथ ही सारा गाँव बहुत परेशान हो गया।
एक रात माधोसिंह को स्वप्न आया कि स्वप्न में देवी उनसे अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान करने को कह रही है। उन्होंने यह बात अपने गाँव के लोगों से बताई कि उन्हें ‘कूल’ से पानी लाने के लिए अपने एकमात्र बेटे गजे सिंह की बलि देनी होगी। पहले तो माधो सिंह इस विचार के लिए तैयार नहीं हुए, लेकिन बाद में गजे सिंह लोकहित के लिए इस बलिदान के लिए खुद राज़ी हो गए और अपने पिता माधो सिंह से कहा कि अगर ऐसा करने से मलेथा गाँव के लोगों को पानी मिल सकता है और यहाँ की बंज़र भूमि उपजाऊ हो सकती है तो उन्हें यह बलिदान कर लेना चाहिए।
इसके बाद गजे सिंह की बलि दी गई और उनके सिर को ‘कूल’ (सुरंग) के मुँह पर रखा दिया गया। इसके बाद जब नदी के पानी को सुरंग की ओर मोड़कर गुज़ारा गया तो पानी सुरंग से होते हुए गजे सिंह के सिर को अपने साथ बहा कर ले गया और खेतों में स्थापित कर दिया।
हालाँकि, एक दूसरी प्रचलित कथा के अनुसार ये भी माना जाता है कि माधो सिंह भण्डारी नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र गजे सिंह सुरंग निर्माण के कार्यस्थल पर आए। एक दिन जिद करके गजे सिंह वहाँ पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुँच गया था जहाँ पर गजे सिंह की मौत हुई थी। पुत्र के बलिदान से आहत गजे सिंह की माता उदीना ने श्राप दिया था कि इस परिवार अब कोई ‘भड़’ पैदा नहीं होगा।

इस सुरंग से सफलतापूर्वक नदी का पानी मलेथा गाँव तक पहुँचाने के बाद माधो सिंह वापस श्रीनगर राजा महीपति शाह के पास चले गए और फ़िर कभी गाँव लौटकर न आने का फ़ैसला किया। वर्तमान में मलेथा गाँव का सम्पूर्ण इलाका हरा-भरा और कृषि सम्पदा से पूर्ण है। और माधो सिंह ‘मलेथा’ के त्याग, परिश्रम और दृढ इच्छाशक्ति द्वारा बनाई गई यह नहर आज तक भी गाँव में पानी पहुँचा रही है।

उत्तराखंड के मलेथा गाँव में माधो सिंह भण्डारी द्वारा बनाई गई सुरंग

सेनाध्यक्ष माधो सिंह का था ऐसा भोकाल कि तिब्बत के सैनिक उनके नाम से भी डरते थे

मलेथा गाँव में ‘कूल’ बनाने की घटना के बाद जब माधो सिंह सेना में वापस लौटे तो उन्हें तिब्बत की सेना से लड़ने के लिए भेजा गया, जो उस वक़्त दावा क्षेत्र में लगातार हमला कर रही थी। इसी दौरान ‘छोटा चीनी’ नामक जगह पर युद्ध के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। राजा महीपति शाह ने माधो सिंह की मदद से गढ़वाल और तिब्बत के बीच सीमा तय करने का काम किया था। उनकी मौत को लेकर गढ़वाल के लेखक पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं कि तिब्बत के सैनिक माधो सिंह के नाम से भी घबराते थे।

अपने विजय रथ को जब वे आगे बढ़ा रहे थे तो इसी बीच रोगग्रस्त होने के कारण उनकी मृत्यु हो गई। पुस्तक के अनुसार, मृत्यु से पहले माधो सिंह ने अपने सेना से कहा था कि तिब्बतियों को ये पता नहीं चलने देना कि माधो सिंह मर चुका है, वरना वो फ़िर से हमला करेंगे। पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी जी के अनुसार, माधो सिंह ने कहा था, “लड़ते हुए पीछे होते जाना और मेरे शव को भूनकर और कपड़े में लपेटकर, बक्शे में रखकर, हरिद्वार ले जाना और वहाँ दाह-संस्कार कर देना।”

शिवप्रसाद डबराल (उत्तराखंड का इतिहास) ने भी अपनी अपनी किताबों में यह माना है कि माधो सिंह भण्डारी की मौत ‘छोटा चीनी’ में हुई थी। उनके अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।

माधो सिंह भण्डारी के पिता ‘सौण बाण’ कालो सिंह भण्डारी भी थे एक जांबाज़ वीर सैनिक

यह कहा जा सकता है कि वीरता माधो सिंह भण्डारी के खून में ही थी। यह लगभग उस समय की बात है जब दिल्ली में मुग़ल शासक अकबर का दौर था। उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में राजा गरुड़ ज्ञानचंद और सिरमौर के राजा मौलिचंद ने तपोवन स्थित उपजाऊ भूमि के लिए तत्कालीन गढ़वाल राजा मानसिंह (1591 से 1610) के साथ टकराव शुरू किया। ये तीनों ही इस उपजाऊ भूमि पर अपना अधिकार चाहते थे। राजा मानसिंह ने उनकी इस माँग को ठुकरा दिया।

दिल्ली और चम्पावत के शासकों को यह बात पसंद नहीं आई और दोनों जगह के शासकों ने अपने 2-2 बलवान और युद्धकला में पारंगत सिपाहियों को गढ़वाल भेज दिया। राजा मानसिंह ने माधो सिंह भंडारी के पिता कालो सिंह भंडारी से मदद मांगी और कालो सिंह भंडारी ने अकेले ही इन चारों को परास्त कर दिया। तब राजा मानसिंह ने कालो भण्डारी को ‘सौण बाण’ (स्वर्णिम विजेता) की उपाधि दी। और उसी समय से वो ‘सौण बाण कालो भण्डारी’ कहलाए जाने लगे।

मलेथा गाँव के खेतों की तस्वीर। तस्वीर साभार – euttaranchal.com
मलेथा गाँव की सुरंग। तस्वीर साभार – euttaranchal.com

विगत वर्ष ही मलेथा निवासी वीर माधो सिंह भंडारी को श्रद्धांजलि देते हुए उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने उनके नाम पर उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय (UTU) का नाम वीर माधो सिंह तकनीकी विश्वविद्यालय करने की घोषणा की है।





केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी चार धाम महामार्ग परियोजना को सुप्रीम कोर्ट ने दी हरी झंडी

धार्मिक दृष्टिकोण से देश के बेहद अहम चारधाम महामार्ग परियोजना को सर्वोच्च न्यायालय ने हरी झंडी दिखा दी है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले के बाद अब चारधाम सड़क परियोजना को आसानी से पूरा किया जा सकेगा। इससे पहले एनजीटी (NGT: National Green Tribunal) के फ़ैसले के बाद कोर्ट ने चार धामों को जोड़ने वाली महामार्ग परियोजना पर रोक लगा दी थी।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तब उत्तराखंड सरकार और केंद्र सरकार से भी जवाब तलब किया था। सरकार के इस ड्रीम प्रोज़ेक्ट को रोकने के लिए “सीटिजन फॉर ग्रीन दून” नाम की एक एनजीओ ने कोर्ट में याचिका दायर किया था। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार से जवाब तलब किया था। शुक्रवार (जनवरी 11, 2019) को इस मामले में सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार के महामार्ग परियोजना प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखा दी है।

जानकारी के लिए बता दें कि चारधाम को जोड़ने वाली यह महामार्ग परियोजना देश के पहाड़ी राज्यों के दुर्गम हिस्सों से होकर गुजरती है। पर्यावरण के हितों की अनदेखी को रोकने के लिए एनजीटी ने सरकार को कुछ सुझाव देने के बाद योजना को हरी झंडी दिखा दी थी। एनजीटी ने इसके साथ ही उत्तराखंड हाई कोर्ट के पूर्व जज यूसी ध्यानी के नेतृत्व में इस परियोजना की देख-रेख के लिए एक कमिटी का गठन भी कर दिया था। इसके आलावा एनजीटी ने इस महामार्ग पर पेट्रोल की 10 साल से ज्यादा पुरानी व डीज़ल की 15 साल से ज्यादा पुरानी गाड़ियों की आवाजाही पर रोक लगाने का भी निर्देश दिया था।

एनजीटी के इस फ़ैसले के बाद “सीटिजन फॉर ग्रीन दून” नाम के एनजीओ ने परियोजना के ख़िलाफ़ कोर्ट में काम को रोकने के लिए याचिका दायर की थी।

यह सड़क परियोजना केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है। इस परियोजना के लिए सरकार की तरफ़ से करीब 12 हजार करोड़ रुपए की बजट आवंटित की गई है। चार राज्यों को जोड़ने वाली इस परियोजना में लगभग 880 किलोमीटर से ज्यादा सड़क का चौड़ीकरण होना है।

सामरिक, पर्यटन और धार्मिक दृष्टिकोण से चारधाम महामार्ग परियोजना बेहद महत्वपूर्ण है। इस परियोजना के पूरा होते ही किसी भी मौसम में बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री की यात्रा आसान हो जाएगी।

सामाजिक न्याय को तरसते ‘दलित’ सिर्फ़ SC/ST में ही सीमित नहीं

बभनगामा गाँव का मुन्ना झा एक ब्राह्मण है। वो जनेऊ धारण करता है, कंठ में तुलसी के जड़ से बनी कंठी पहनता है, दिन में कई बार पूजा भी करता है। गाँव में घूम-घूमकर, कब एकादशी है, कब पूर्णिमा है, कब प्रदोष और कब कलश स्थापन का बेहतर मुहूर्त, मुन्ना झा सबको बताता है। रामनवमी में ध्वजा स्थापित करना हो, दुर्गा पूजा में दस दिन पाठ करना हो, या रक्षबंधन में ‘येन बद्धो बली राजा’ कहकर यजमानों के हाथ रक्षासूत्र बाँधना हो, मुन्ना झा हर काम करता है।

इसके बदले मुन्ना झा को हर फ़सल पर अपने यजमानों से दो बोझा गेहूँ, मकई या उनके खेतों की कुछ सब्ज़ियाँ मिलती हैं। अगर कोई विशेष पूजा कराई तो उसके लिए गाँव के हिसाब की दक्षिणा जो कि पेट भर भोजन और इक्यावन रुपए से आगे शायद ही जाती है। घर ईंट का है, छत छप्पर की, किवाड़ वही है जो पचास साल पहले उसके पिता ने लगवाई थी और पेंट न मिलने पर कोलतार से उसे रंग दिया था। घर में पत्नी है, पिता हैं, बच्चे हैं, माँ है, और कमाई का साधन पूजा-पाठ।

ये है बिहार के कई गाँवों का स्टीरियोटिपिकल ब्राह्मण जिसके नाम, दिल्ली के स्टूडियो में बैठे लोग, पाँच हज़ार साल पहले ‘घोड़े में बाँधकर घसीटने’ की बात कह जाते हैं, जबकि इस्लामी आक्रांताओं ने जो भी किताबें जलाने के बाद छोड़ दीं उनमें से किसी में भी ऐसा ज़िक्र नहीं है। विश्वास न हो तो ऐसे किसी गाँव में जाकर, ब्राह्मणों के घर का पता लीजिए और जाकर देखिए कि उनकी स्थिति घोड़ा तो छोड़िए अपना पेट पालने लायक भी है कि नहीं।

सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10% आरक्षण

ऐसे में एक विधेयक आता है कि आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाए और इनमें उन्हें भी शामिल किया जाए जो कि हैं तो सामान्य वर्ग के, जिनमें ऊँची जातियाँ आती हैं, लेकिन आर्थिक रूप से विपन्नता में जी रहे हैं। चूँकि इस देश में हर साल पाँच-सात चुनाव होते ही हैं, तो हर योजना को चुनावी जुमला कहकर नकार दिया जाता है। ऐसे लोग वही लोग हैं जो नोटबंदी के समय भी मुँह बाए रह गए थे, और इतनी देर तक खुला रखा कि जबड़ों में ऐंठन आ गई।

आरक्षण की बात करने से पहले इन माओवंशी कामपंथी लम्पटों की बात करना भी ज़रूरी है जो स्टूडियो से प्राइम टाइम में चुनावी रैली करते रहते हैं। ये वो लोग हैं जिनको हर योजना में नुक़्स निकालना है। मोदी सरकार की जितनी बड़ी योजनाएँ हैं, सबको इन्होंने ये कहकर नकारा कि ‘ये तो कॉन्ग्रेस की ही योजना थी, मोदी ने बस नाम बदल दिया है’।

मोदी ने बस नाम नहीं बदला, मोदी ने देश की सूरत बदल दी। जो योजना काग़ज़ पर नेहरू बाबू दिस योजना से चलते हुए इंदिरा देवी दैट योजना होते हुए राजीव बाबू एवरी योजना तक पहुँचती थी, उसका प्लेन बनाकर राहुल बेबी संसद में उड़ाते पाए जाते हैं। क्योंकि योजनाओं पर अमल हो या न हो, नाम का रजिस्ट्रेशन तो पहले ही हो जाता था कि योजना तो परिवार से बाहर जानी ही नहीं है। न तो कोई उससे बाहर पैदा हुआ, न किसी को पैदा होकर साँस लेने दिया गया।

मोदी ने आधारभूत संरचनाओं को ख़ुमारी से बाहर निकाला, ढाँचागत विकास किया और ऐतिहासिक क़दम लेकर समाज के सोचने की दिशा बदल दी। चाहे वो जीएसटी जैसा एक टैक्स हो, डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम हो, जन-धन का बैंक अकाउंट हो, या अभूतपूर्व गति से इन्फ़्रास्ट्रक्चर के लगातार बनते रहने की बात हो, सामान्य मानव के जीवन को हर योजना ने प्रभावित किया है।

इसी क्रम में पिछले दिनों सामान्य वर्ग के वंचितों और पिछड़े लोगों के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करने वाला विधेयक पास हुआ। चूँकि बात आरक्षण की थी, और ये मुद्दा इतना संवेदनशील है कि न चाहते हुए भी लगभग सारी पार्टियों को इसके समर्थन में आना पड़ा। ये बात और है कि हाशिए तक पहुँचा दिए गए कई नेताओं की नींद में सर पर हथौड़ा बनकर गिरने वाले इस विधेयक ने उन्हें उलूल-जुलूल बयान देने को बाध्य कर दिया।

कुछ ने कहा कि पास ही नहीं हो पाएगा, एक ही दिन में लोकसभा में पास हो गया। फिर कहा गया कि राज्यसभा में पास नहीं होगा, दूसरे दिन वहाँ भी पास हो गया। अब कहा जा रहा है सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिकेगा क्योंकि संविधान में 50% तक के ही आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन, वो प्रावधान जातिगत आरक्षण के लिए है, और ये आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला है। अतः, अगर 124वाँ संविधान संशोधन हो जाता है, तो इस क़ानून का लाभ लाखों वंचित लोग उठा पाएँगे जो कि सिर्फ़ अपनी जाति के कारण इसके दायरे से बाहर थे।

झूठ फैलाने की संगठित साज़िश

अब, जबकि यह लग रहा है कि ये क़ानून हक़ीक़त बन जाएगा, कुछ चिरकुट लोग इसके बारे में तमाम भ्रांतियाँ फैला रहे हैं जिनमें से प्रमुख ये सब हैं: ऊँची जाति के लिए है यह आरक्षण; इस विधेयक का आधार बनाकर मोदी ख़त्म कर देगा आरक्षण; इस आरक्षण ने 50% की लिमिट ख़त्म कर दी है; ₹8 लाख से कम कमाने वाले ‘व्यक्ति’ इसका लाभ ले सकेंगे।

इन चारों झूठ के आधार पर सिवाय अफ़वाहजनित हिंसा करवाने के और कुछ उद्देश्य नहीं दिखता। ये नुस्ख़ा आज़माया हुआ है। अफ़वाह फैलाओ, लोगों को सड़कों पर इकट्ठा करो और बाज़ारों में आग लगाओ, घरों में घुसकर निजी दुश्मनी निकालो, और लोगों की जान तक ले लो। अप्रैल 2018 का वो ख़ौफ़नाक मंज़र अभी भी ताजा है हमारी स्मृतियों में। दलितों को यह कहकर इकट्ठा कराया गया कि आरक्षण समाप्त किया जा रहा है, जबकि बात इतनी-सी थी कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान और नैसर्गिक न्याय के आदर्शों के हवाले से यह निर्णय दिया था कि SC/ST क़ानून के तहत सीधे गिरफ़्तारी के बजाय, जाँच होना चाहिए। बिहार और उत्तर प्रदेश चुनावों के समय भी वोट को पलटने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल हुआ था।

इन चारों झूठों की परिणति उसी अफ़वाह को हवा देने से होगी, और इसके जवाब में दंगे होंगे क्योंकि व्हाट्सएप्प पर कुछ भी मिले, उसे सत्य मानने वालों की बाइकों में पेट्रोल डालकर, हाथ में डंडे और मशाल देकर सड़कों पर उतारना बहुत आसान है। ये हुआ है, और उसका सीधा प्रभाव सरकार को हिला देने तक पहुँचता है। चूँकि संख्याबल बहुत ज़्यादा है, तो इनके आंदोलन को झेलना किसी भी सरकार या कोर्ट के लिए नामुमकिन है। यही कारण है कि संविधान के मूलभूत अधिकारों और सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन के बावजूद उस निर्णय को सरकार ने पलट दिया।

सामाजिक न्याय की अवधारणा और जातिगत व्यवस्था की जड़ में अर्थ

सामाजिक न्याय का हक़दार सिर्फ निचली जाति के लोग नहीं है, उस पर हर नागरिक का हक़ है। साथ ही, हर उस नागरिक का हक़ है जो वास्तव में दलित और शोषित है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, और सामाजिक भेदभाव कई जगह अपने सबसे विकृत रूप में व्याप्त है। लेकिन इस तथ्य से दूसरा तथ्य नहीं बदलता कि तथाकथित ऊँची जातियों के लोगों में, जो सामान्य वर्ग में आते हैं, बहुत ऐसे हैं जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बदतर है।

इसी विषय पर मेजर जनरल (रिटायर्ड) एस आर सिन्हो कमिटी का गठन हुआ था, जिस पर यूपीए सरकार बैठी रही क्योंकि जो आँकड़े सामने आए थे वो एक ऐसा सच बताते थे, जो नॉर्थ और साउथ ब्लॉक में बैठे लोगों समेत न्यूज़ स्टूडियो से रैली करने वाले एंकरों के लिए अविश्वसनीय हो सकती है।

रिपोर्ट में कहा गया कि साक्षरता और प्राथमिक शिक्षा, भूमि जोत, आवास आदि पर दोनों सामाजिक समूहों के निचले स्‍तर पर कमज़ोर वर्ग की स्थिति बहुत अलग नहीं है। सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार पर आयोग ने निष्कर्ष निकाला था कि सामान्य वर्ग की कुल आबादी का 31.2 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग है। साथ ही, यह जानना भी ज़रूरी है कि इसी रिपोर्ट से पता चला कि सामान्य वर्ग के एक तिहाई से ज़्यादा लोगों के पास कोई भूमि नहीं है और 18.2 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा से नीचे अपना जीवनयापन करते हैं।

तो क्या सामाजिक न्याय की व्यवस्था और हमारी सरकारों के लिए लगभग पाँच करोड़ से ज़्यादा ग़रीबों की संख्या का कोई औचित्य नहीं? क्या वो लोग सरकार की उन योजनाओं का हिस्सा लाभ न लें जो कि जाति के आधार पर है लेकिन उसके मूल में आर्थिक विपन्नता है? क्या उन्हें आर्थिक पैमाने पर सरकारी मदद न की जाए ताकि वो बेहतर शिक्षा पाने के लिए थोड़ी मदद पाएँ?

अगर जातिगत आरक्षण से आपको समस्या नहीं है, तो फिर आर्थिक आरक्षण से तो बिलकुल ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि जातिगत आरक्षण की जड़ में यही अवधारणा है कि इन जातियों के लोग ग़रीब और वंचित हैं। तो अंततः क्रायटेरिया ग़रीबी ही है, जो कि कुछ जातियों में शुरु से ही ज़्यादा है। जब आरक्षण का हक़ ग़रीबों और वंचितों के लिए है, तो फिर सत्तर साल बाद भी जो ग़रीबी का दंश झेल रहे हैं, उन्हें समान अवसर क्यों न दिए जाएँ?

आरक्षण का आधार आर्थिक ही होना चाहिए

निजी तौर पर मैं आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था के ख़िलाफ़ हूँ। उसका कारण यह है कि इसका उद्देश्य समान अवसर देकर लोगों को एक समान स्थिति में लाने की बजाय वोटबैंक की राजनीति और इसके दायरे को घटाने की जगह बढ़ाने का होता जा रहा है। एक ही परिवार के लोग बेहतर स्थिति में आने के बाद भी इसका लाभ ले रहे हैं, जो कि कहीं न कहीं किसी सक्षम, कुशल या बेहतर व्यक्ति को हानि पहुँचाता है।

मेरी समझ इतनी है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र में मिलना चाहिए और वो भी बिलकुल मुफ़्त। हर ज़रूरतमंद को शिक्षित बनाना, उसे समान शिक्षा देकर, इस स्तर पर लाना कि वो बारहवीं कक्षा के बाद स्वयं को हीन बताकर नौकरी लेने की बजाय, अपनी क्षमता बताकर नौकरी ले और स्वाभिमानी जीवन जिएँ। बारहवीं के बाद भी अगर किसी को पढ़ाई करनी है तो वहाँ भी उसे मुफ़्त शिक्षा उपलब्ध कराई जानी चाहिए क्योंकि ऐसी जगहों की फ़ीस बहुत ज़्यादा होती है।

कोई अगर शिक्षा या कौशल पाने के लिए आरक्षण चाहता है तो सरकार को हर संभव कोशिश करनी चाहिए कि आर्थिक अक्षमता उसके आड़े न आए। जब एक सामान्य नागरिक समान अवसर पाकर, अपनी क्षमता के बल पर नौकरी पाएगा तो उसे कहीं भी, किसी भी स्तर पर अपने आप को हीनभावना से देखने की ज़रूरत नहीं होगी। इसके साथ ही स्कूलों-कॉलेजों से लेकर ऑफ़िसों में होने वाले भेदभाव में कमी आएगी क्योंकि भेदभाव करने वालों की सीधी समस्या इस बात से होती है कि कोई कम नंबर पाकर भी उससे बेहतर स्थिति में पहुँच जा रहा है।

आरक्षण को कल्पवृक्ष न बनाएँ नेता

लगातार अपना पोलिटिकल कैपिटल गँवाते नेता इस दस प्रतिशत आरक्षण विधेयक के बारे में सही बात कर ही नहीं सकते क्योंकि उनके विरोधी विचारधारा के लोग इसके लिए संविधान संशोधन लेकर आए हैं। इसीलिए जिग्नेश मेवानी, अरविन्द केजरीवाल और लालू की पार्टी के लोग ट्वीट कर रहे हैं कि भाजपा की साज़िश है आरक्षण ख़त्म करने की। इनके तर्क का आधार ‘कुछ लोगों से मैंने बात की’ है।

हुकुमदेव नारायण यादव ने लोकसभा में इस विधेयक पर अपने भाषण में (विडियो नीचे संलग्न) एक पुरानी बातचीत का ज़िक्र किया जब वो लोहिया आंदोलन से जुड़े थे। तब उनके साथ कई ब्राह्मण और सवर्ण जाति के नेता भी थे। उनमें से एक नेता का नाम लेकर उन्होंने याद किया कि कैसे उन्होंने कहा था कि जब एक दिन दलितों की सत्ता आएगी तब उन्हें ये बात याद करनी होगी कि सवर्णों में भी शोषित और वंचित हैं। तो ऐसा नहीं है कि नेताओं को यह बात मालूम नहीं थी कि ग़रीबी जाति देखकर नहीं आती, लेकिन हाँ, उस तरह के आरक्षण का समय तब नहीं आया था।

आर्थिक आधार पर आरक्षण, जिसकी शर्तें अभी भी निश्चित नहीं हैं, ऐसी व्यवस्था है जो कि सत्तर साल के दौरान जातिगत आधार पर दिए गए आरक्षण के मूल में निहित है। भविष्य ऐसा होना चाहिए कि किसी को इसकी ज़रूरत न पड़े, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भारत से शायद ये कभी नहीं जाएगा।


हुकुमदेव नारायण यादव लोकसभा में आरक्षण पर बोलते हुए

कश्मीर ही नहीं सिक्किम पर भी नेहरू की नीति अस्पष्ट थी: विकिलीक्स

विकिलीक्स के एक केबल को खँगालने से पता चलता है कि जवाहर लाल नेहरू की सिर्फ़ कश्मीर नीति ही नहीं, बल्कि सिक्किम को लेकर भी उनकी रणनीति अस्पष्ट थी। बता दें कि 15 अगस्त 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ, तब सिक्किम भारतीय गणराज्य का हिस्सा नहीं था। सिक्किम को भारत के आज़ाद होने के 28 सालों बाद भारतीय गणराज्य में शामिल किया गया था जिसके बाद यह भारत का 22वाँ राज्य बना।

इसकी पूरी कहानी भी बहुत ही रोचक है। और जानने लायक बात यह भी है कि इस पूरी प्रक्रिया पर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका नज़र बनाए हुआ था। जैसा कि सब जानते हैं, अमेरिका का दुनिया के सभी देशों चल रहे महत्वपूर्ण घटनक्रमों पर अपनी नज़र बनाए रखने का पुराना इतिहास रहा है। दशकों से अपने-आप को विश्व में बिग-ब्रदर की तरह पेश करने वाले अमेरिका की भारतीय सिक्किम नीति पर भी पूरी तरह से नजर थी और इस बारे में वो पल-पल की जानकारी हासिल कर रहा था।

हम विकिलीक्स के जिस केबल की बात करने जा रहे हैं उससे पता चलता है कि दिल्ली, कोलकाता, हॉन्गकॉन्ग, लंदन, काठमांडू और न्यूयॉर्क में स्थित अमेरिकी प्रतिनिधिगण इस मामले को लेकर आपस में काफ़ी बातचीत कर रहे थे। अर्थात ये, कि इन घटनाक्रमों पर उनकी पैनी नजर थी और वो इस मामले से जुड़ी हर जानकारी आपस में साझा कर रहे थे।

शुरुआत में अमेरिकी अधिकारियों का मानना था कि सिक्किम हमेशा भारत द्वारा संरक्षित राज्य बना रहेगा और भारत कभी उसे अपने गणराज्य में शामिल करने की कोशिश नही करेगा। इस केबल से यह भी ख़ुलासा होता है कि अमेरिका इस बात पर विचार कर रहा था कि भारत द्वारा सिक्किम को अपना हिस्सा बनाने की प्रक्रिया पर सार्वजनिक तौर पर कोई बयान दिया जाए या नहीं, या फिर इस पर कोई एक्शन लिया जाए या नहीं।

नेहरू और पटेल: 3 साल बनाम 17 साल

जवाहर लाल नेहरू की कश्मीर नीति को लेकर अक्सर तरह-तरह की बातें होती रही है और कहा जाता रहा है कि कश्मीर मामले को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले कर जाना नेहरू की बड़ी भूल थी। ये एक ऐसी भूल थी जिसकी सज़ा आज तक भारत भुगत रहा है। देश में कई सरकारें आईं और गईं लेकिन कश्मीर मसला ज्यों का त्यों बना रहा। वहीं, आज़ादी के बाद भारत के सैकड़ों रियासतों को एक करने वाले सरदार पटेल ने जिस भी मसले को अपने हाथ में लिया, उन्होंने उसे पूरा किया। सरदार पटेल ने जूनागढ़, त्रवनकोर और हैदराबाद सहित कई तत्कालीन रियासतों को भारत का अंग बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज ये सभी भारत के अभिन्न अंग हैं और कश्मीर जैसी समस्या भारत के किसी अन्य क्षेत्र में देखने को नहीं मिलती। बता दें कि अपने 17 सालों के प्रधानमंत्रीत्व में जवाहर लाल नेहरू ने विदेश मंत्रालय भी अपने पास ही रखा था।

सिक्किम की कहानी वैसे तो भारत की आजादी के बाद ही शुरू हो जाती है लेकिन इसे भारतीय गणराज्य में मिलाने की प्रक्रिया पर विचार-विमर्श 1962 में हुए युद्ध के बाद शुरू किया गया। भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत को मिली हार का एक कारण उत्तर-पूर्व में भारतीय सेना के पहुँचने में हो रही कठिनाइयों को भी माना गया। सिक्किम के राजा चोग्याल का चीन की तरफ ज्यादा झुकाव था और अपने विस्तारवादी चरित्र के कारण जाना जाने वाला ड्रैगन अपनी सीमा से सटे भारत के हर एक राज्य को हथियाना चाहता था। आज भी चीन की वही नीति है जिसके कारण अक्सर डोकलाम जैसे विवाद खड़े हो जाते हैं। इसे पंडित नेहरू की अदूरदर्शिता कहें या फिर उनके निर्णय लेने की क्षमता को सवालों के घेड़े में खड़ा किया जाए, उन्होंने अपनी उत्तर-पूर्व नीति अस्पष्ट रखी।

562 छोटी-बड़ी रियासतों को भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनाने वाले सरदार पटेल की दिसंबर 1950 में मृत्यु हो गई। आज़ादी के बाद सिर्फ साढ़े तीन सालों में उन्होंने देश के भूगोल को इस तरह से बदल दिया था जिस से भारत की एकता और अखंडता अनंतकाल तक बनी रहे। लेकिन कुछ ऐसे राज्य भी थे जिन्हे देश के प्रथम गृह मंत्री पटेल की मृत्यु के बाद भारत का हिस्सा बनाया गया। पुर्तग़ालियों के कब्ज़े वाला गोवा, फ्रांस के नियंत्रण वाले पुड्डूचेरी और चोग्याल शासित सिक्किम उन राज्यों में से एक थे। गोवा और पुड्डूचेरी समुद्र के किनारे स्थित थे और इनकी भौगोलिक स्थित ऐसी थी कि इन्हे अंततः भारत का अंग ही बनना था। लेकिन दूसरी तरफ अगर सिक्किम की बात करें तो उसका महत्व समझने के लिए हमें उसके भूगोल को समझना होगा।

सिक्किम और उत्तर-पूर्व में भारत की नाजुक भौगोलिक स्थिति

भारत का उत्तर उत्तर-पूर्वी हिस्सा सामरिक और रणनीतिक रूप से देश का एक महत्वपूर्ण अंग है। यहाँ अभी भारत के आठ राज्य स्थित हैं- अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय व सिक्किम। सिक्किम के उत्तर और उत्तर-पूर्व में तिब्बत स्थित है जिस पर चीन अपना कब्ज़ा जताता रहा है। राज्य के पूर्व में भूटान है जो भारत का मित्र राष्ट्र है लेकिन चीन उसे लुभाने की पूरी कोशिश करता रहा है। सिक्किम के पश्चिम में नेपाल है जहाँ के सत्ताधारियों का झुकाव समय के हिसाब से कभी भारत तो कभी चीन की तरफ रहता है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल की सीमा भी सिक्किम से लगती है। इस तरह से हम देखें तो सिक्किम की भौगोलिक स्थिति ऐसी है जिस पर अगर चीन का नियंत्रण होता तो भारत सामरिक रूप से दक्षिण एशिया में अलग-थलग पड़ चुका होता।

शेष भारत को उत्तर-पूर्वी भारत से जो हिस्सा जोड़ता है उसे हम सिल्लीगुड़ी नेक कहते हैं। सबसे संकीर्ण स्थिति में इसकी चौड़ाई सिर्फ 17 किलोमीटर रह जाती है। भारत जैसे एक बड़े देश के लिए ये एक बहुत ही छोटा क्षेत्र है और इसे संभालना उस से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है। सिल्लीगुड़ी नेक को ‘चिकेन्स नेक’ भी कहते हैं। सिक्किम के चीन की तरफ झुकाव और भारतीय गणराज्य का हिस्सा न होने कारण चुम्बी घाटी के पश्चिम में भारत की स्थिति काफ़ी कमज़ोर थी जिसका परिणाम उसे 1965 के भारत-चीन युद्ध में भगतना पड़ा।

इसके बाद ही जवाहर लाल नेहरू नीत केंद्र सरकार को इसका महत्व समझ में आया और उन्होंने सिक्किम के भारत में विलय पर विचार-विमर्श शुरू किया। लेकिन अब काफ़ी देर हो चुकी थी और युद्ध में हार के कारण देश को ख़ासा नुकसान भी उठाना पड़ा था। प्रधानमंत्री नेहरू ने इस पर सोचा तो ज़रूर लेकिन वो अपनी ज़िंदगी में सिक्किम को भारतीय गणराज्य का हिस्सा नहीं बना पाए।

नेहरू ने ठुकराई पटेल की सलाह?

अब सवाल ये उठता है कि क्या पंडित नेहरू ने सिक्किम के लोगों के मनोभाव के अनुसार निर्णय न ले कर राज्य को भारत को विलय कराने का मौक़ा गँवा दिया? ये सवाल ही हमें विकिलीक्स के उस ख़ुलासे की तरफ ले जाता है जिसकी बात हम यहाँ करने वाले हैं। गुप्त सूचनाओं को सार्वजनिक कर उसका खुलासा करने वाली NGO विकिलीक्स विश्व की एक प्रसिद्ध संस्था है जिसके खुलासों के कारण अमेरिका तक में भी राजैनितक उथल-पुथल मच चुकी है। विकिलीक्स के इस केबल के अनुसार भारत में स्थित अमेरिकी राजनयिकों ने USA के स्टेट डिपार्टमेंट को भेजी गई एक जानकारी में कहा कि अगर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल की बात मान ली होती हो सिक्किम 25 साल पहले ही भारत का अंग बन चुका होता।

कम से कम अमेरिका का तो यही मानना है कि अगर नेहरू ने, भावना के अनुकूल, सरदार पटेल के कहे अनुसार सिक्किम को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया होता तो सिक्किम 1975 की बजाय 1950 में ही भारत का अंग बन चुका होता। ये भी संभावना थी कि अगर 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान सिक्किम भारत का हिस्सा होता तो शायद तस्वीर कुछ और भी हो सकती थी।

इसके अलावा अमेरिका का ये भी मानना था कि भारत ने सिक्किम के विलय (annexation) के लिए कुछ ख़ास नहीं किया बल्कि वो तो सिक्किम की जनता थी जिसने उचित निर्णय लिया और भारत ने सिर्फ ‘परिस्थिति’ का फायदा उठाया। ये सूचनाएँ भारत में स्थित अमेरिकी राजनयिकों द्वारा अपने देश में तब भेजी गई थी जब इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में भारत सरकार ने ये फ़ैसला ले लिया था कि सिक्किम में सेना भेजी जाएगी। ये पूरा घटनाक्रम भी काफ़ी रोचक है और इसमें कई ट्विस्ट्स और टर्न्स हैं।

उत्तर-पूर्वी भारत के लिए नेहरू के ढुलमुल रवैये को लेकर सरदार पटेल ने उन्हें कई बार आगाह किया था। दूरदर्शी पटेल ने नवंबर 7, 1950 को नेहरू को लिखे पत्र में कहा था;

“आइए हम संभावित उपद्रवी सीमा की राजनीतिक स्थिति पर चर्चा करें। हमारे उत्तरी और उत्तर-पूर्वी दृष्टिकोण में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र शामिल हैं। संचार की दृष्टि से ये एक बहुत ही कमजोर स्पॉट है। यहाँ निरंतर रक्षात्मक पंक्ति उपस्थित नहीं है। घुसपैठ की भी असीमित गुंजाइश है।”

अपने इस पत्र में सरदार पटेल ने उत्तर-पूर्वी सीमा के लिए “potentially troublesome” शब्द का प्रयोग किया है जिस से यह पता चलता है कि उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अंदाज़ा था कि इस सीमा पर आगे चल कर मुश्किलें खड़ी हो सकती है। साथ ही उन्होंने वहाँ संचार व्यवस्था तगड़ी करने की भी सलाह दी थी। इस से पता चलता है कि पटेल उस क्षेत्र में सड़कों और इंफ़्रास्ट्रक्चर का विकास करना चाहते थे ताकि उत्तर-पूर्व के राज्य शेष भारत से कटे नहीं रहें और सुरक्षाबलों को भी आवागमन में किसी भी प्रकार की मुश्किलों का सामना न करना पड़े।

सरदार पटेल ने इस पत्र में उस क्षेत्र में कम्युनिकेशन को मजबूत करने की सलाह दी थी। सरदार पटेल ने जिस घुसपैठ का डर इस पत्र में जताया था, उसके परिणाम हमें डोकालाम के रूप में देखने को मिले। तभी देश के तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था कि सरदार पटेल को इस बात का 1950 में ही अंदाज़ा लग गया था कि इस सीमा पर आगे चल कर कुछ गड़बड़ हो सकती है। पटेल जैसे अनुभवी, दूरदर्शी और क्षमतावान नेता का ये डर जायज़ भी था।

सिक्किम के बौद्ध शासक चोग्याल ने एक अमरीकी महिला से शादी की थी जो अपने रहस्यमयी व्यवहार के कारण जानी जाती थी। वो काफ़ी महत्वाकांक्षी थीं और चोग्याल ने उनके प्रभाव में आकर ही भारत से दूरी बनानी शुरू कर दी थी। 70 के दशक के शुरूआती दौर में ही सिक्किम में वहाँ के शासकों के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शनों की गति काफ़ी तेज हो गई थी जिसके बाद राज्य की लोकतंत्र समर्थक पार्टियों ने भारत से हस्तक्षेप की माँग की। आख़िरकार अप्रैल 1975 में भारतीय सेना ने चोग्याल के राजमहल पर दस्तक दी और भारत सरकार ने सिक्किम में एक जनमत संग्रह कराया जिसमे 97.5 प्रतिशत लोगों ने भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए हामी भरी। अगले ही महीने सिक्किम औपचारिक रूप से भारत का 22वाँ राज्य बन गया।

फ़ैक्ट चेक: कुंभ में कंडोम बाँटे जाएँगे? वायरल ख़बर का पोस्टमॉर्टम

इन दिनों सोशल मीडिया में एक अख़बार की कटिंग वायरल हो रही है। वायरल होती अख़बार की इस कटिंग की हेडिंग कुछ इस तरह है – कुंभ मेले में पाँच लाख कंडोम बाँटेगी सरकार। मुहम्मद अब्दुल्लाह नाम के एक फ़ेसबुक यूजर की आईडी से शेयर की गई अख़बार की यह तस्वीर हमारे फ़ेसबुक वॉल पर दिखी।

इस कटिंग को देखने के बाद ‘कुंभ में कंडोम’ टाइप करके हमने फ़ेसबुक ओर गूगल पर सर्च किया। फेसबुक पर सबसे पहले किरण यादव नाम के एक यूजर द्वारा शेयर की गई पोस्ट दिखी। अपने पोस्ट में किरण यादव नाम के इस महिला ने लिखा, “उत्तर प्रदेश की जनता की टैक्स की पैसे अरबों रूपये कुंभ के नाम पर र…ओं की अय्याशी में खर्च की जा रही है। इतने पैसे से करोड़ों उत्तर प्रदेश की नागरिक की गरीबी दूर हो सकती थी।” किरण के इस पोस्ट को करीब 420 लोगों ने शेयर किया है, जबकि 2000 से ज्यादा लोगों ने इस पोस्ट को लाइक किया है।

फेसबुक पर 91 हज़ार से ज्यादा लोग इस किरण यादव के फ़ॉलोवर हैं

आइए करते हैं इस खबर की पड़ताल

इस तरह की ख़बर को देखते ही ऑपइंडिया टीम ने सबसे पहले गूगल की मदद से खब़र को खंगालने की कोशिश की। गूगल पर इस खबर को सर्च करने पर “आजाद सिपाही” और “द वॉइस” नाम की दो वेबसाइट को हमने खोज निकाला, जिसने इस तरह की हेडिंग के साथ खबर को अपनी वेबसाइट पर अपलोड किया है। इसके अलावा मुख्यधारा की किसी भी बड़े मीडिया हाउस ने अपनी वेबसाइट पर इस तरह की खबर को अपलोड नहीं किया है। यही नहीं, आजाद सिपाही नाम के इस अखबार की कटिंग और वेबसाइट पर हेडिंग, इंट्रो से लेकर बॉडी की ख़बर सब एक ही है।

http://www.azadsipahi.com/ – यह इस वेबसाइट का लिंक है
https://thevoices.in/ – यह इनका वेबसाइट लिंक है


क्या सच में यह ख़बर सही है?

इस वायरल ख़बर की पड़ताल के लिए हमने कुंभ के सूचना निदेशक श्री शिशिर से फ़ोन पर बात की। सवाल पूछते ही सूचना निदेशक ने कहा कि यह एक झूठी खबर है। ऐसी कोई बात उनकी जानकारी में नहीं है। यह कुंभ की पवित्रता को बदनाम करने की कोशिश है।

निष्कर्ष में हमारी टीम ने यह पाया

हमारी टीम ने अपनी इस पड़ताल में पाया कि कुंभ की पवित्रता को कुछ लोगों द्वारा बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है। यह महज एक अफ़वाह है। सरकार की तरफ़ से कुंभ के दौरान कंडोम बांटने की किसी भी तरह की घोषणा नहीं की गई है।

3 पूर्व CM को BJP उपाध्यक्ष का पद, अमित शाह का मास्टरस्ट्रोक!

लोकसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं। इस समय में हर राजनीतिक पार्टी अपने किसी भी कदम को बड़ी सूझ-बूझ के साथ उठा रही है। शायद इसलिए राष्ट्रीय परिषद की बैठक से एक दिन ही पहले BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का एक बड़ा फैसला सामने आया है।

अमित शाह ने गुरुवार (जनवरी 10, 2019) को अपनी पार्टी के 3 पूर्व मुख़्यमंत्रियों को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर बड़ी ज़िम्मेदारी दी है। ये पूर्व मुख्यमंत्री हैं – शिवराज़ सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमण सिंह। ये तीनों ही भाजपा के बहुत बड़े चेहरे भी हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा का यह बहुत बड़ा कदम माना जाएगा। इस फैसले से मालूम पड़ता है कि भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा नेतृत्व करने वाले लोगों के लिए जगह तैयार की जा रही है।

जैसा कि हम जानते हैं कि हाल ही में तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) के आए चुनावी नतीज़ों में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम रमण सिंह को हार का मुँह देखना पड़ा था।

इन विधानसभा चुनावों में 13 साल से मध्य प्रदेश की कुर्सी पर आसित शिवराज सिंह चौहान और 15 साल से सीएम की कुर्सी संभालने वाले रमण सिंह और एक टर्म वाली वसुंधरा राजे की कुर्सी चली गई थी। इसके बाद भाजपा के इन नामी शख़्सियतों को केंद्र में लाने का बड़ा फैसला किया गया है।

इस बात की जानकारी बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव अरूण सिंह ने ट्वीट के ज़रिए दी। इसमें उन्होंने बताया कि शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे और रमण सिंह को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया है।

अमित शाह द्वारा लिए गए फैसले से खुश होकर शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह ने ट्वीट करके अमित शाह और प्रधानमंत्री का आभार भी जताया है।

बॉलीवुड के रामभक्त मिले मोदी से, सेकुलर मोदी ने सर पर ‘जय श्री राम’ बाँधने से किया इनकार

कुछ समय पहले बॉलीवुड के कई आला लोग प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात करने गए थे। मीडिया में बात फैली कि ये लोग बॉलीवुड की समस्यायों पर बात करने गए थे, लेकिन गुप्त और सुषुप्त सूत्रों से पता चला है कि मोदी ने उन्हें राम मंदिर निर्माण हेतु चंदा माँगने एवं श्री राम भगवान के जीवन चरित्र पर लगातार कई फ़िल्में बनाने की बात कही थी।

इसी कारण कल शाम मीडिया और सोशल मीडिया में एक तस्वीर घूमती नज़र आई, जिसमें मोदी जी के साथ बॉलीवुड के दिग्गज लोग खड़े थे, और कामपंथी माओवंशी गिरोह की उम्मीदों के विपरीत सारे लोग ख़ुश नज़र आ रहे थे। लोगों को पिछली मुलाक़ात से इसका संबंध बिठाने में बहुत समस्या हो रही है लेकिन गुप्त सूत्रों की ख़बर को याद किया जाए तो ये मुलाक़ात और इसके पीछे की ‘सच्ची तस्वीर’ सामने आ जाती है।

मोदी और बॉलीवुड के लोगों की फोटोशॉप्ड तस्वीर
मोदी और बॉलीवुड के लोगों की फोटोशॉप्ड तस्वीर, असली तस्वीर ऊपर है

आपलोग जो तस्वीर लगातार देख रहे हैं वो चर्च द्वारा फ़ंड पानेवाले वामपंथियों की साज़िश है, जो भले ही हर जगह से जनता द्वारा लतियाकर सत्ता से बाहर किए जा रहे हैं, लेकिन अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहे। इनके आईटी सेल के कामरेड प्रकाश ने सबसे पहले सारे रामभक्तों के सर से ‘जय श्री राम’ की चुन्नी फोटोशॉप के ज़रिए मिटा दी है।

लेकिन सत्य को बहुत ज़्यादा दिनों तक छुपाया नहीं जा सकता। ट्विटर यूज़र कृष्णा ने भगवान कृष्ण की तरह रीवर्स इमेज मैनिपुलेशन के ज़रिए असली तस्वीर मीडिया का सामने ला दी, जो कि आप सबसे ऊपर देख सकते हैं। जब से यह तस्वीर सामने आई है, तब से दोनों ही पक्ष की मीडिया – निष्कच्छ एवं निष्पक्ष – ने इसे अपने तरीके से बताना शुरू कर दिया।

सबसे पहले तो छद्म नारीवादियों ने ‘राम’ का मुद्दा दरकिनार करते हुए महिलाओं की गिनती शुरू कर दी और उसकी कमी पर दोबारा प्रश्न उठाया। महिलाओं को पुरुषों के साथ खड़े होने की जगह, उन्हें एक साइड में ‘रख देना’ भी पितृसत्तात्मक सोच और ऑब्जेक्टिफ़िकेशन का नमूना है। हमारे संवाददाता ने जब इनसे राहुल गाँधी की रक्षामंत्री पर की गई टिप्पणी पर बात करने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, “अरे याँर, उसके डिम्पल कितने क्यूट पड़ते हैं नाँ!”

ट्विटर पर तो इस तस्वीर का इतना पोस्टमार्टम हो रहा है कि लोग भ्रम में हैं कि असली तस्वीर है कौन। वैसे वामपंथी चिरकुटों में लगातार अविश्वास दिखानेवाली जनता को सत्य तक पहुँचने में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि अगर कृष्ण नाम का व्यक्ति कुछ कह रहा है तो उसे सच मान लेना चाहिए।

छद्मनारीवादियों के बाद राहुल (सुरक्षा कारणों से बदला हुआ नाम) नाम के विशुद्ध वामपंथी व्यक्ति ने कहा कि नरेंद्र मोदी को छोड़कर बाक़ी हर व्यक्ति के बाल काले हैं जिसका सीधा अर्थ यह है कि वे लोग वहाँ मोदी की नीतियों का विरोध करने गए थे। फिर किसी ने यह पूछा कि वो सब ‘जय श्री राम’ और ‘बोल बम’ की चुन्नियाँ सर पर बाँधे, दाँत निपोड़कर सेल्फ़ी क्यों ले रहे हैं? राहुल ने बताया कि उनके पास माओ द्वारा सत्यापित वामपंथी सर्टिफ़िकेट है और वो माओ की कसम खाकर झूठ नहीं बोलते, “भैया, जब एसपीजी के लोग चारों तरफ़ से एके सैंतालीस ताने खड़े हों, तो आदमी क्या, पेड़-पौधे भी मुस्कुराते हैं।”

इसी तस्वीर पर चर्चा आगे बढ़ाते हुए नाराजदीप नामक पत्रकार ने कहा कि उन्हें इसी तस्वीर में मौजूद किसी एक्टर ने फोन करके बताया कि ‘जय श्री राम’ की चुन्नी तो करन जौहर ने ले जाने को कहा था क्योंकि अमित शाह बिना चुन्नी देखे और ₹151 का चंदा लिए मोदी जी से मिलने नहीं देते। उसी एक्टर के हवाले से नाराजदीप ने आगे बताया कि उस एक्टर ने एहतियात के तौर पर एक चुन्नी एक्सट्रा रख ली थी कि कहीं खो गया तो इस्तेमाल कर लेंगे।

फिर जो हुआ, वो अप्रत्याशित था। एक्टर ने मोदी जी को सेल्फ़ी लेने से पहले चुन्नी सर पर बाँधने के लिए दी तो मोदी जी ने वैसे ही लौटा दी जैसे वो समुदाय विशेष की ‘मजहबी टोपी’ को पहनने से इनकार कर देते हैं। पत्रकार शिरोमणि ने इस बात का सीधा मतलब यह बताया कि चुनावों से पहले मोदी अपनी पैठ समुदाय विशेष में बनाना चाहते हैं और यही कारण है कि वो सेकुलर छवि बनाने के चक्कर में मन मसोसकर इस तस्वीर में मुस्कुरा रहे हैं।

‘तीन तलाक़’ जैसे चुनावी जुमलों के बाद ‘जय श्री राम’ की चुन्नी ना बाँधना मुस्लिमों को मूर्ख बनाने की एक नाकाम कोशिश है। जब पूछा गया कि ‘तीन तलाक़’ चुनावी जुमला क्यों है तो उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि एडिटर्स गिल्ड में ये फ़ैसला लिया गया है कि मोदी की हर बात पर ‘चुनावी जुमला’ कह देना उनका सम्पादकीय धर्म है।

वहीं मीडिया के दूसरे हिस्से ने इस तस्वीर को देखकर माननीय मोदी जी को एक ‘कम्प्लीट स्टेट्समैन’ कहते हुए कहा कि मोदी ने लगातार दिल लूटते हुए पीएमओ के ‘हार्ट बैंक’ में कई लाख दिल और जमा करा लिए हैं, जिसका ट्रान्सप्लांट हेतु इस्तेमाल किया जाएगा। इस हिस्से की मीडिया का कहना है कि मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद तमाम धार्मिक बातों से दूरी बनाई है क्योंकि ‘मोदी’ भले ही हिन्दू हो सकता है, लेकिन ‘प्रधानमंत्री मोदी’ एक सेकुलर व्यक्ति है। प्रधानमंत्री का बिना ‘जय श्री राम’ बाँधे तस्वीर में मुस्कुराना बताता है कि वो सभी मतों का सम्मान करते हैं, और सुप्रीम कोर्ट जजमेंट आने के बाद ही, इस पर कोई फ़ैसला लेंगे।

कौन जात कुमार ने इसको अपने प्राइम टाइम में कवर करते हुए सतहत्तर मिनट के इंट्रो में मोदी की आँखों की काली पुतली के ओरिएंटेशन पर ध्यान दिलाते हुए कहा है कि उनके दिल में तो ‘जय श्री राम’ था ही क्योंकि पुतलियाँ इस बार कैमरे से ज़्यादा चुन्नियों की तरफ़ थी, लेकिन कैमरामैन (जिस पर डिसअप्रूव लाठी नामक यूट्यूब यूज़र के मुताबिक़ साढ़े तीन करोड़ का ख़र्च करती है पीएमओ) को सख़्त निर्देश थे कि मोदी की भटकती पुतलियों के बीच वो ऐसा शॉट ले ले, जिसमें वो सीधा देख रहे हों।

इस पर हर बात के विशेषज्ञ अभय ले डूबे ने कहा, “इस तरह से सत्ता का गलत इस्तेमाल बताता है कि देश में कोई भी सुरक्षित नहीं है। कैमरामैन को ऐसे धमकाकर काम करवाना किसी भी तरह से ‘अच्छे दिन’ जैसा तो नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ मोदी इस बार कैमरे में तो नहीं ही देख रहे थे। ये तस्वीर पीएमओ द्वारा फोटोशॉप की गई है और फोटोशॉप एक्सपर्ट की कोई वैकेंसी भी नहीं निकली। वहाँ मोदी ने किसी अपने व्यक्ति को नौकरी दे रखी होगी और क्या!” इसके बाद भी वो बहुत कुछ बोले जिसका मतलब निकालने में लेखक नाकाम रहा।

‘कुछ नया एंगल ढूँढो’ सम्पादक समूह एवम् एडिटर्स गिल्ड के मुखिया गुप्ता जी ने आधिकारिक बयान ज़ारी करते हुए कहा कि मोदी और भाजपा ने मीडिया का गला घोंटा है और सारे सदस्य एक मत में इसक कृत्य की भर्त्सना करते हैं। हालाँकि, इसमें मीडिया कहाँ से आई, इस बात पर ‘द मिस्प्रिंट’ नामक अख़बार ने अपने सारे सब-एडिटर्स को काम पर लगा दिया है। ख़बर लिखे जाने तक ‘मिस्प्रिंट’ की तरफ से कोई रिस्पॉन्स नहीं आया है।

मीडिया की कई बड़ी हस्तियों ने ट्विटर पर इसे अमित शाह का मास्टरस्ट्रोक कहा है भले ही वो तस्वीर में कहीं भी नज़र नहीं आ रहे। तीन-चार लोगों को हमने डीएम करके पूछा तो उन्होंने कहा कि मोदी जी या भाजपा कुछ भी करती है तो उसे मास्टरस्ट्रोक ही कहा जाना चाहिए क्योंकि अमित शाह भारतीय राजनीति के आधुनिक चाणक्य हैं।