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Friday, April 11, 2025
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हिन्दुओं के खिलाफ कोई भी मामला हो, काले कोट में दिखता है एक ही चेहरा: अब वक्फ की पैरवी करेंगे कपिल सिब्बल, संयोग या रणनीति?

सिब्बल का इतिहास रहा है कि वे राम जन्मभूमि, तीन तलाक और अनुच्छेद 370 जैसे मामलों में हिंदू हितों के खिलाफ खड़े दिखे। उनके इस रुख से सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह महज वकालत है या वैचारिक पक्षधरता?

ऐतिहासिक वक्फ संशोधन विधेयक 2025 को संसद के दोनों सदनों से मंजूरी मिल चुकी है और इसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की स्वीकृति भी प्राप्त हो गई है। इस नए वक्फ कानून का मुख्य उद्देश्य भारत में वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में सुधार लाना और विशेषाधिकार प्राप्त मुस्लिम अभिजात वर्ग द्वारा नियंत्रित वक्फ बोर्डों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करना है। इसके साथ ही वक्फ अधिनियम 1995 के तहत कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा वक्फ बोर्डों को दी गई कई अनुचित शक्तियों को भी समाप्त कर दिया गया है।

चूँकि वक्फ अधिनियम 2025 वक्फ बोर्डों से उनकी अनियंत्रित शक्तियों को हटा देता है, इसलिए इस्लामवादी, विपक्षी दल और इस्लामो-वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग इस वक्फ कानून की आलोचना करते हुए इसे मुस्लिम मजहबी अधिकारों और स्वतंत्रता पर ‘हमला’ मानते हैं।

वक्फ अधिनियम 1995 की विवादास्पद धारा 40 कॉन्ग्रेस ने दी

तत्कालीन कॉंन्ग्रेस सरकार द्वारा लागू वक्फ अधिनियम 1995 में मुस्लिम समुदाय के अधिकारों का अनियंत्रित दुरुपयोग और संपत्तियों पर अतिक्रमण करने के लिए कई प्रावधान थे। इनमें से एक प्रमुख प्रावधान धारा 40 के तहत था, जो वक्फ बोर्ड को अपने द्वारा एकत्रित जानकारी के आधार पर यह एकतरफा निर्णय लेने का अधिकार देता था कि कोई संपत्ति वक्फ संपत्ति है या नहीं।

इस प्रावधान की पहली उपधारा के अनुसार, “बोर्ड किसी भी संपत्ति के बारे में जानकारी एकत्र कर सकता है, यदि उसे यह संदेह हो कि वह वक्फ संपत्ति है, और यदि कोई प्रश्न उठता है कि विशेष संपत्ति वक्फ संपत्ति है या नहीं, या वह सुन्नी वक्फ है या शिया वक्फ, तो बोर्ड जाँच करने के बाद, जैसा वह उचित समझे, उस प्रश्न का निर्णय कर सकता है।”

वक्फ संपत्ति के निर्धारण में वक्फ बोर्ड का निर्णय अंतिम होता था, जब तक कि न्यायाधिकरण द्वारा उसे रद्द या संशोधित न कर दिया जाए। वक्फ अधिनियम 1995 की धारा 40 वक्फ बोर्ड को प्रारंभिक जाँच के बाद ट्रस्टों और सोसायटियों की संपत्तियाँ कुर्क करने का अधिकार देती थी। इसके तहत, बोर्ड को उक्त ट्रस्टों और सोसायटियों को अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराने का आदेश देने या ऐसा न करने पर कारण बताने का निर्देश देने का अधिकार प्राप्त था।

इस प्रावधान की मनमानी प्रकृति ने देश भर के वक्फ बोर्डों को किसी भी संपत्ति को ‘वक्फ’ घोषित करने और 1882 के ट्रस्ट अधिनियम तथा 1860 के सोसायटी पंजीकरण अधिनियम जैसे अन्य कानूनों को दरकिनार करने का अधिकार दे दिया। वक्फ बोर्डों की शक्तियों को इस हद तक चुनौती नहीं दी जा सकी कि पीड़ित पक्षों को किसी भी वक्फ बोर्ड द्वारा उनकी संपत्तियों पर स्वामित्व का दावा करने के खिलाफ केवल वक्फ न्यायाधिकरणों के निर्णय पर निर्भर रहना पड़ता था। सिविल कोर्ट द्वारा कोई मध्यस्थता नहीं होने के कारण, निर्णय अक्सर वक्फ बोर्ड के पक्ष में होते थे। यही कारण था कि भारत में वक्फ बोर्ड तीसरे सबसे बड़े भूस्वामी के रूप में उभरा।

वक्फ बोर्ड के भीतर भ्रष्टाचार, अवैध तरीके से जमीन हड़पना और अतिक्रमण, हिंदुओं के घरों, जमीनों, कॉलेजों, हिंदू मंदिरों, हिंदू बहुल गाँवों, गुरुद्वारों, चर्चों आदि पर मनमाने ढंग से दावे करना, कॉन्ग्रेस पार्टी द्वारा कथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश में वक्फ बोर्ड को एक अजेय शक्ति बना दिया था। हालांकि, मोदी सरकार ने अंततः लंबे समय से लंबित सुधारों को लागू किया और वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 में धारा 40 को हटा दिया, जिसे औपचारिक रूप से उम्मीद अधिनियम (एकीकृत वक्फ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता और विकास) के नाम से जाना जाता है।

लोकसभा में वक्फ बिल पेश होने से पहले, मुस्लिम तुष्टिकरण के समर्थक राजनीतिक दल, जो खुद को ‘धर्मनिरपेक्ष’ बताते हैं, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB), इस्लामिस्ट और उनके समर्थक ‘अस्थिरता’ और ‘हम सड़कों पर उतरेंगे’ जैसी धमकियाँ देने लगे थे। 2020 में एंटी-सीएए विरोध और हिंदू विरोधी दिल्ली दंगों से पहले के पैटर्न की तरह, इस बार भी गलत सूचनाएँ फैल रही हैं, एक डर का माहौल बन रहा है और वक्फ अधिनियम 2025 को ‘असंवैधानिक’ बताकर भड़काऊ बयान दिए जा रहे हैं। जैसा कि एंटी-सीएए विरोध के दौरान देखा गया था, यह सब शांतिपूर्ण ढंग से शुरू हुआ था, लेकिन जल्द ही, कॉन्ग्रेस नेता सोनिया गाँधी के ‘आर या पार की लड़ाई’ वाले बयान ने भारत के कई हिस्सों, विशेष रूप से दिल्ली, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में ‘शांतिपूर्ण’ विरोध को हिंसा और आगजनी में बदल दिया।

ऐसा लगता है कि अब वही सब कुछ हो रहा है, जैसा कि सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान हुआ था। इस्लामवादियों ने पश्चिम बंगाल में रेलवे को निशाना बनाकर एक ऐसे कानून के खिलाफ ‘विरोध’ किया है, जो केवल गरीबों को लाभ पहुँचाएगा और मुस्लिम अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों को समाप्त करेगा।

जिस तरह नागरिकता संशोधन अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, उसी तरह वक्फ संशोधन अधिनियम भी शीर्ष अदालत तक पहुँच गया है, जिसमें कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएँ दायर की गई हैं।

इसके अलावा राजनीतिक बयानबाजी, भय फैलाने, दुष्प्रचार और सुप्रीम कोर्ट में ‘संविधान पर हमला’, ‘अल्पसंख्यक खतरे में हैं’, ‘लोकतंत्र खतरे में है’ जैसे तर्कों के साथ याचिका दायर करने का पैटर्न भी सामने आता है। ये सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान भी दिखा था और वक्फ अधिनियम विरोधी आंदोलन में भी देखने को मिल रहा है। इन सबके बीच एक महत्वपूर्ण नाम सामने आता है कपिल सिब्बल का, जो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील है। जिनका अतीत हिंदुओं और भारत के हितों के खिलाफ़ मुद्दों की पैरवी करना रहा है।

कपिल सिब्बल – हिंदू विरोधी कानूनी योद्धा

कपिल सिब्बल, कानूनी क्षेत्र में दशकों के अनुभव वाले एक अनुभवी वकील हैं। वे कई ऐतिहासिक मामलों में वकील के रूप में शामिल रहे हैं, जिन्होंने भारतीय लोगों में आक्रोश पैदा किया, खासकर उन मामलों में जहाँ हिंदू हित शामिल थे।

कपिल सिब्बल की सबसे विवादास्पद कानूनी गतिविधियों में से एक राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में थी। पूर्व कॉन्ग्रेस नेता और यूपीए मंत्री ने अयोध्या में तत्कालीन विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर के निर्माण का विरोध करते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए राम जन्मभूमि का मामला लड़ा था। उन्होंने विलंबकारी रणनीति भी अपनाई और सर्वोच्च न्यायालय से 2019 के आम चुनावों तक राम जन्मभूमि मामले में निर्णय को स्थगित करने के लिए कहा, यह मानते हुए कि हिंदू पक्ष के पक्ष में निर्णय भाजपा को लाभ पहुँचा सकता है।

हिंदू आस्था से जुड़े इस मुद्दे का राजनीतिकरण होने और चुनावी राजनीति से कहीं ऊपर होने के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फैसले ने अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल पर राम मंदिर के निर्माण का समर्थन किया, जिससे कपिल सिब्बल और उनके मुवक्किल सुन्नी वक्फ बोर्ड को भारी झटका लगा। जनवरी 2024 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य “यजमानों” ने अयोध्या में उनके जन्म स्थान पर बने उनके भव्य निवास में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा की। अदालत में पराजित होने के बाद, सिब्बल की निराशा ने उनके होश उड़ा दिए और उन्होंने अभिषेक समारोह को ‘दिखावा’ कहा। पूर्व कॉन्ग्रेस के दिग्गज नेता और यूपीए मंत्री ने तर्क दिया कि भगवान राम उनके दिल में बसते हैं और प्राण प्रतिष्ठा का भव्य तमाशा ‘दिखावा’ है।

कपिल सिब्बल की उपलब्धियों में एक और उपलब्धि शफीनजहाँ बनाम केएम अशोकन मामला है, जिसे हादिया लव जिहाद मामले के रूप में भी जाना जाता है। कपिल सिब्बल ने केरल उच्च न्यायालय द्वारा हादिया और शफीन की शादी को रद्द करने के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में हादिया के पति शफीनजहाँ का प्रतिनिधित्व किया।

यह याद रखना चाहिए कि अखिला नाम की एक हिंदू लड़की ने इस्लाम धर्म अपनाने और शफीन जहाँ नाम के एक मुस्लिम व्यक्ति से शादी करने के बाद अपना नाम बदलकर हादिया रख लिया था। हादिया/अखिला के पिता जो भारतीय सेना के सेवानिवृत्त सैनिक हैं, ने आरोप लगाया था कि यह लव जिहाद का मामला है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने हादिया के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें उसने एक वयस्क के रूप में अपना धर्म और जीवनसाथी चुनने के अधिकार को बरकरार रखा, यह सामने आया कि अब प्रतिबंधित इस्लामिक आतंकी संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) शफीन जहाँ के मामले में शामिल है।

इस्लामिक जिहादी संगठन ने इस मामले पर 99,52,324 रुपये खर्च किए थे। इसमें से 93,85,000 रुपये कथित तौर पर चार वरिष्ठ वकीलों कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे, इंदिरा जयसिंह और मरज़ूक बफ़ाकी को दिए गए थे, जिन्होंने शफ़ीन जहान की ओर से केस लड़ा था। 2020 में, प्रवर्तन निदेशालय ने आरोप लगाया कि दिसंबर 2019 में संसद के दोनों सदनों द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद देश भर में सीएए विरोधी प्रदर्शनों को बढ़ावा देने के लिए पीएफआई को भारी मात्रा में धन प्राप्त हुआ।

बताया गया कि पीएफआई ने देश में हिंसक दंगों को अंजाम देने के लिए एक महीने में लगभग 120 करोड़ खर्च किए, जिसमें प्रख्यात वकील कपिल सिब्बल, इंदिरा जयसिंह और दुष्यंत दवे को भी पीएफआई के वित्तपोषण के लाभार्थियों के रूप में नामित किया गया। सिब्बल को 77 लाख रुपये मिलने की खबर थी। हालाँकि, वरिष्ठ वकील ने एक ‘स्पष्टीकरण’ जारी करते हुए कहा कि अब प्रतिबंधित इस्लामिक जिहादी संगठन से उन्हें जो राशि मिली, वह हादिया लव जिहाद मामले में वकील के रूप में उनकी सेवाओं के लिए उनकी फीस थी।

कपिल सिब्बल ने पीएफआई सदस्य सिद्दीकी कप्पन की रिहाई की माँग की

2020 में, हाथरस मामले को लेकर जाति-आधारित अशांति और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की योजना बनाने के आरोप में यूपी पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए चार पीएफआई सदस्यों में से एक सिद्दीकी कप्पन की रिहाई की माँग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई थी। केरल पत्रकार संघ के कानूनी प्रतिनिधि और पत्रकार के रूप में काम करने वाले सक्रिय पीएफआई सदस्य सिद्दीकी कप्पन के रूप में पेश हुए सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उन्हें उनसे संपर्क करने की अनुमति देने का आग्रह किया। हालाँकि, तत्कालीन सीजेआई एसए बोबडे ने उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था।

उत्तर प्रदेश पुलिस ने हाथरस मामले के सिलसिले में मुजफ्फरनगर के नगला के सिद्दीकी, मलप्पुरम के सिद्दीकी, बहराइच जिले के जरवाल के मसूद अहमद और रामपुर जिले के कोतवाली क्षेत्र के आलम को गिरफ्तार किया था।

दिल्ली दंगों के आरोपित उमर खालिद की ज़मानत याचिका वापसी: कपिल सिब्बल की भूमिका पर उठे सवाल

नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध में हुए 2020 दिल्ली दंगों के मामले में आरोपी उमर खालिद की जमानत याचिका हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से वापस ले ली गई। इस मामले में उमर खालिद की पैरवी वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल कर रहे थे। फरवरी 2024 में जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और पंकज मिथल की पीठ ने खालिद को याचिका वापस लेने की अनुमति दी, जिसके पीछे ‘परिस्थितियों में बदलाव’ को कारण बताया गया।

कपिल सिब्बल ने अदालत को जानकारी दी कि अब ट्रायल कोर्ट में नई जमानत याचिका दायर की जाएगी। इसके साथ ही, सिब्बल ने UAPA की कुछ धाराओं को चुनौती देने वाली एक अन्य याचिका भी वापस ले ली।

हालाँकि, इस मामले में कपिल सिब्बल की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल उठे हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार, 2023 और 2024 में उमर खालिद की याचिका पर कुल 14 बार स्थगन हुए, जिनमें से 7 बार स्थगन की माँग खुद खालिद की ओर से की गई थी। आरोप है कि यह देरी कपिल सिब्बल की रणनीति का हिस्सा थी, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर फ़ोरम शॉपिंग (वांछित बेंच की तलाश में याचिका दाखिल करना) की कोशिश की।

ऑपइंडिया की रिपोर्ट में बताया गया कि किस प्रकार कपिल सिब्बल ने बार-बार याचिकाएँ दायर कर मामले को अलग-अलग पीठों के समक्ष रखने का प्रयास किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने व्यक्तिगत रूप से इन प्रयासों को असफल किया था। यहाँ तक कि सेवानिवृत्त होने के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में पूर्व सीजेआई ने भी इस घटनाक्रम की पुष्टि की।

यह घटनाक्रम न केवल उमर खालिद के केस में कानूनी रणनीतियों पर प्रश्न खड़े करता है, बल्कि कपिल सिब्बल की निष्पक्षता और उद्देश्य पर भी बहस छेड़ देता है। एक ओर जहाँ वे संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर बार-बार ऐसे मामलों में उनका पक्ष लेना, जो देश की सुरक्षा और सामाजिक समरसता से जुड़े हैं, चिंता का विषय बना हुआ है।

अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि ट्रायल कोर्ट में उमर खालिद की जमानत याचिका पर क्या रुख अपनाया जाता है और क्या सिब्बल की रणनीतियाँ भविष्य में किसी निर्णायक मोड़ पर पहुँचती हैं या नहीं।

कपिल सिब्बल पर पक्षपात के आरोप

साल 2022 में एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल उस समय विवादों में घिर गए, जब उन्होंने भाजपा सांसद परवेश वर्मा के खिलाफ एक भ्रामक बयान दिया। सिब्बल ने अदालत में दावा किया कि वर्मा ने मुस्लिम समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की अपील की थी, जबकि वर्मा की उस स्पीच में किसी विशेष समुदाय का उल्लेख नहीं था।

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस केएम जोसेफ ने जब सिब्बल से पूछा कि क्या मुस्लिम समुदाय की ओर से भी नफरत फैलाने वाले बयान सामने आए हैं, तो उन्होंने ऐसा कोई उदाहरण होने से इनकार कर दिया। यह इनकार तब आया जब देशभर में उस दौरान कई ऐसे मामले सामने आए थे, जिनमें कुछ मुस्लिम नेताओं ने हिंदुओं के खिलाफ खुलेआम भड़काऊ भाषण दिए थे।

इनमें AIMIM के कुछ नेताओं के साथ-साथ अजमेर दरगाह के खादिम सैयद आदिल चिश्ती और सावर चिश्ती के बयान प्रमुख थे, जिन्होंने हिंदुओं के आर्थिक बहिष्कार की बात सार्वजनिक मंचों पर कही थी। इसके बावजूद सिब्बल ने अदालत में उन घटनाओं की अनदेखी की और उन्हें नकार दिया।

सिब्बल की इस भूमिका को लेकर उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठे। आलोचकों का मानना है कि उन्होंने अदालत में राजनीतिक झुकाव दिखाया और एकतरफा तर्क रखे, जिससे न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगा। यह मामला आज भी बतौर उदाहरण सामने आता है, जब भी अदालत में प्रस्तुत दलीलों की सच्चाई और वकीलों की जिम्मेदारी की बात की जाती है।

राज्यसभा में कपिल सिब्बल का दो राष्ट्र सिद्धांत पर भ्रामक दावा और अंबेडकर का गलत उद्धरण

साल 2019 में राज्यसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) पर बहस के दौरान कॉन्ग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने एक विवादास्पद बयान देते हुए इतिहास को लेकर भ्रामक दावे किए। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत के विभाजन की नींव रखने वाला दो राष्ट्र सिद्धांत वीर सावरकर का विचार था और डॉ. भीमराव अंबेडकर भी इससे सहमत थे।

सिब्बल ने कहा कि सावरकर ने यह लिखा था कि भारत में दो विरोधी राष्ट्र रहते हैं, हिंदू – मुस्लिम और ये दोनों एक साथ शांतिपूर्वक नहीं रह सकते। उन्होंने यह भी दावा किया कि नागरिकता संशोधन विधेयक के ज़रिए सरकार इस विचारधारा को लागू कर रही है, जो भारत के एकता और समरसता की भावना के विरुद्ध है।

उन्होंने अपने भाषण में अंबेडकर की किताब ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ का हवाला देते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि अंबेडकर ने भी सावरकर के विचारों का समर्थन किया था। लेकिन बाद में यह सामने आया कि सिब्बल ने अंबेडकर के विचारों को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किया था।

वास्तव में, अंबेडकर ने सावरकर के कथन का विश्लेषण करते हुए लिखा था कि भले ही भारत में दो राष्ट्रों जैसी स्थिति हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि देश का विभाजन होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट किया था कि दोनों समुदायों को एक ही संविधान के तहत, एक ही राष्ट्र में रहना चाहिए, जिसमें हिंदू राष्ट्र को प्राथमिक स्थान मिलेगा और मुस्लिम राष्ट्र को सहयोग की स्थिति में रहना होगा।

वीर सावरकर ने भी कभी भारत के विभाजन की वकालत नहीं की थी। उन्होंने यह स्वीकार किया था कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भिन्न समुदाय भारत में रहते हैं, लेकिन इसका अर्थ अलग राष्ट्रों की भौगोलिक माँग नहीं था।

कपिल सिब्बल का यह भाषण उस समय खासा विवादास्पद बन गया, जब कई इतिहासकारों और विश्लेषकों ने उनके बयानों को तथ्यात्मक रूप से गलत बताया और आरोप लगाया कि उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा।

2जी स्पेक्ट्रम घोटाला में कपिल सिब्बल की ‘जीरो लॉस थ्योरी’

कॉन्ग्रेस नेता और पूर्व दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल का नाम 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के संदर्भ में एक बेहद विवादास्पद बयान के साथ जुड़ा है, जिसे ‘जीरो लॉस थ्योरी’ के रूप में जाना जाता है। 2011 में जब 2जी घोटाले को लेकर देशभर में आक्रोश फैला हुआ था, तब सिब्बल ने दावा किया कि इस पूरे प्रकरण में सरकार को कोई आर्थिक नुकसान नहीं हुआ है।

यह दावा उस समय और अधिक विवादास्पद हो गया जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 2008 में 2जी स्पेक्ट्रम के वितरण में की गई अनियमितताओं के कारण सरकार को लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपये का संभावित नुकसान हुआ। रिपोर्ट में बताया गया कि स्पेक्ट्रम को पारदर्शी नीलामी के बजाय ‘पहले आओ, पहले पाओ’ नीति के तहत बेहद कम कीमतों पर कंपनियों को दे दिया गया।

सिब्बल का तर्क था कि जिन कंपनियों को स्पेक्ट्रम आवंटित किया गया, उन्होंने बाद में सेवाएँ प्रदान कीं जिससे जनता को लाभ हुआ। इसलिए किसी प्रकार का ‘राजस्व हानि’ नहीं मानी जानी चाहिए। लेकिन उनका यह बयान जनभावनाओं के खिलाफ चला गया और उन्हें सरकार के भ्रष्टाचार को ढकने की कोशिश करने वाला चेहरा माना जाने लगा।

साल 2017 में जब विशेष सीबीआई अदालत ने ए. राजा, कनिमोझी समेत सभी आरोपितों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया, तब सिब्बल ने इसे ‘दोषमुक्ति’ कहकर प्रचारित किया। हालाँकि, अदालत ने साफ तौर पर यह कहा था कि अभियोजन पक्ष भ्रष्टाचार साबित करने में विफल रहा, इसलिए बरी किया गया। यह कोई ‘क्लीन चिट’ नहीं थी।

इस पूरे मामले में सिब्बल की भूमिका को लेकर यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या उन्होंने देश के एक बड़े घोटाले को हल्का दिखाने की कोशिश की? टाइम मैगजीन ने इसे दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सत्ता का दुरुपयोग बताया था, लेकिन सिब्बल जैसे नेताओं के लिए यह महज एक ‘शून्य नुकसान’ वाला प्रकरण था।

2जी घोटाला यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए कई घोटालों की कड़ी में सबसे बड़ा उदाहरण था कि कैसे राजनीतिक अहंकार आर्थिक सच्चाई पर भारी पड़ सकता है।

जज की ‘कठमुल्ला’ टिप्पणी पर महाभियोग प्रस्ताव, याचिका खारिज

दिसंबर 2024 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश शेखर कुमार यादव विवादों में घिर गए जब उन्होंने विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम के दौरान इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए ‘कठमुल्ला’ शब्द का प्रयोग किया। उनके बयान को लेकर देश की सियासत में हलचल मच गई। इस बयान को संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना के खिलाफ बताते हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के नेतृत्व में राज्यसभा के कई सांसदों ने न्यायमूर्ति यादव के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव राज्यसभा महासचिव को सौंपा।

इस प्रतिनिधिमंडल में सिब्बल के साथ विवेक तन्खा, दिग्विजय सिंह, पी. विल्सन, जॉन ब्रिटास, केटीएस तुलसी, मनोज कुमार झा और साकेत गोखले जैसे नेता भी शामिल थे। उनका आरोप था कि जस्टिस यादव ने सार्वजनिक मंच से इस्लामी चरमपंथियों को ‘राष्ट्रविरोधी’ करार देते हुए ‘कठमुल्ला’ शब्द का इस्तेमाल किया, जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगता है।

न्यायमूर्ति यादव ने कार्यक्रम के दौरान कहा था, “ये कठमुल्ला… यह शायद उचित शब्द नहीं हो, लेकिन मैं कहने से नहीं हिचकूंगा क्योंकि ये देश के लिए हानिकारक हैं, राष्ट्रविरोधी हैं और समाज को भड़काते हैं। ऐसे लोगों से हमें सावधान रहने की जरूरत है।”

इस बयान के कुछ दिनों बाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने 16 दिसंबर से प्रभावी आदेश में जस्टिस यादव के न्यायिक रोस्टर में बदलाव कर दिया। इसके साथ ही 10 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए इस बयान पर नाराज़गी जताई और जज यादव को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बुलाया।

हालाँकि जनवरी 2025 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ दाखिल एक जनहित याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह मामला संसद की प्रक्रिया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के तहत आता है।

यह पूरा घटनाक्रम इस बात पर गहरा सवाल उठाता है कि क्या संविधान और न्यायिक गरिमा के नाम पर विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता को राजनीतिक नजरिए से सीमित किया जा रहा है, या फिर यह एक संवेदनशील समाज के लिए आवश्यक संतुलन का हिस्सा है।

कोलकाता रेप-हत्या मामले में कपिल सिब्बल ने पीड़िता के माता-पिता पर डाला दोष

सितंबर 2024 में कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में हुई एक मेडिकल छात्रा की बलात्कार और हत्या की भयावह घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस मामले में जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई, तो पीड़िता को न्याय दिलाने की उम्मीद के बीच एक और विवाद खड़ा हो गया। इस विवाद के केंद्र में था, सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल का रुख।

पश्चिम बंगाल सरकार का पक्ष रख रहे सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में मामले की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग का विरोध किया। उनका तर्क था कि इससे “पिछले पाँच दशकों में बनी वकीलों की प्रतिष्ठा बर्बाद हो जाएगी” और वकीलों को धमकियाँ मिल रही हैं। उन्होंने कोर्ट से अनुरोध किया कि लाइव फीड रोकी जाए। लेकिन CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने जनहित और पारदर्शिता को प्राथमिकता देते हुए यह माँग खारिज कर दी।

सिब्बल को उस समय कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा जब उन्होंने एफआईआर में देरी को लेकर राज्य प्रशासन का बचाव किया और उल्टा पीड़िता के माता-पिता को ही दोषी ठहरा दिया। जबकि कोर्ट ने खुद राज्य की कार्रवाई पर सवाल उठाए और एफआईआर दर्ज करने में देरी को लेकर नाराज़गी जताई।

मामले की सुनवाई के दौरान सिब्बल पर कोर्टरूम में हँसने का आरोप भी लगा, जिसे उन्होंने खारिज किया। लेकिन इस बीच राज्यभर में डॉक्टर और आम नागरिक सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे थे, न्याय की माँग कर रहे थे और सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठा रहे थे।

यह पूरा मामला सिब्बल के रवैये और टीएमसी सरकार के बचाव में उनकी भूमिका को लेकर लोगों के बीच तीखी बहस का विषय बन गया। क्या उन्होंने एक जघन्य अपराध की पीड़िता को न्याय दिलाने की प्राथमिकता दी या अपनी कानूनी छवि और सत्ताधारी दल की राजनीतिक सुरक्षा को?

अनुच्छेद 370 मामले में सुप्रीम कोर्ट में पाक समर्थक नेता का किया प्रतिनिधित्व

सितंबर 2023 में जब सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 और 35A को हटाए जाने की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई हो रही थी, तब कपिल सिब्बल एक ऐसे याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो पहले पाकिस्तान समर्थक नारों के चलते विवादों में आ चुका था। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता मोहम्मद अकबर लोन, जिसने 2018 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए थे, उसी का पक्ष सिब्बल अदालत में रख रहे थे।

इस पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने लोन की पुरानी टिप्पणियों को लेकर कपिल सिब्बल से सवाल किया, लेकिन सिब्बल ने इसके राजनीतिक असर को नजरअंदाज करते हुए कहा कि यह मुद्दा मीडिया में अनावश्यक तूल पकड़ेगा। उन्होंने लोन की टिप्पणियों की निंदा करने से परहेज़ किया और इसे बहस के केंद्र से दूर रखने का प्रयास किया।

सिब्बल न केवल लोन बल्कि अन्य याचिकाकर्ताओं का भी प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्होंने अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध किया। उन्होंने इसे ‘राजनीतिक निर्णय’ बताते हुए इसकी तुलना ब्रेक्जिट से की और कश्मीर में जनमत संग्रह की माँग करते हुए कहा, “जब कोई संबंध टूटता है, तो लोगों की राय ली जानी चाहिए।” इस बयान को अदालत ने खारिज कर दिया।

विवाद इस बात को लेकर और भी गहरा गया कि अनुच्छेद 370 और 35A जैसे प्रावधानों ने जम्मू-कश्मीर में दशकों से आतंकवाद, अलगाववाद और कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ भेदभाव को जन्म दिया था। ये प्रावधान न सिर्फ भारत के संविधान में अस्थायी थे, बल्कि इन्होंने राज्य में अलग कानून, बाहरी नागरिकों के बसने पर रोक और केंद्र सरकार की सीमित भूमिका को प्रोत्साहन दिया।

अब जब अनुच्छेद 370 हटाया जा चुका है, राज्य में सामान्य स्थिति लौट रही है, आतंकवाद में कमी आई है और निवेश के नए रास्ते खुले हैं। इसके बावजूद, कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ नेता द्वारा पाकिस्तान समर्थक व्यक्तियों की पैरवी और जनमत संग्रह जैसी संवेदनशील माँगें न्यायिक एवँ राष्ट्रीय विमर्श में गंभीर चिंता का विषय बनी हुई हैं।

राफेल डील विवाद पर कपिल सिब्बल ने कैग की निष्पक्षता पर उठाए सवाल

साल 2018 में कपिल सिब्बल एक बार फिर सुर्खियों में आए, जब उन्होंने यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की। इस याचिका में केंद्र सरकार द्वारा फ्रांस से खरीदे जा रहे राफेल लड़ाकू विमानों की डील पर सवाल खड़े किए गए। सिब्बल ने आरोप लगाया कि इस सौदे में पारदर्शिता की कमी है और विमानों की कीमतें पहले की तुलना में अधिक हैं। यह मामला उस समय काफी तूल पकड़ गया था, खासकर 2019 के आम चुनावों से पहले, जब कॉन्ग्रेस और विपक्षी दलों ने ‘चौकीदार चोर है’ का नारा देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा।

हालाँकि, दिसंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने मामले में दखल देने से इनकार कर दिया और सरकार को क्लीन चिट दे दी। अदालत ने कहा कि राफेल सौदे में कोई प्रक्रिया संबंधी खामी या अनियमितता नहीं पाई गई है। इस निर्णय के बाद कपिल सिब्बल और कॉन्ग्रेस पार्टी की स्थिति कमजोर पड़ गई।

बावजूद इसके जब यह संकेत मिला कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) राजीव महर्षि की रिपोर्ट भी राफेल डील को क्लीन चिट देने वाली है, तो कपिल सिब्बल ने अचानक उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। सिब्बल ने दावा किया कि राजीव महर्षि उस समय वित्त मंत्रालय में थे जब राफेल सौदे से संबंधित प्रक्रियाएँ चल रही थीं, इसलिए उन्हें इस मामले की ऑडिट नहीं करनी चाहिए थी।

यह घटनाक्रम दिखाता है कि कैसे एक राजनीतिक एजेंडे के तहत राफेल डील को चुनावी मुद्दा बनाया गया, लेकिन जब न्यायिक और संवैधानिक संस्थानों ने डील को वैध और पारदर्शी बताया। तब कॉन्ग्रेस और उसके वकील सवालों की दिशा बदलते नज़र आए। यह प्रकरण न केवल एक रक्षा सौदे पर उठे विवाद की कहानी है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे कानूनी मंच का इस्तेमाल राजनीतिक दाँव-पेंच के लिए किया गया।

अतीक अहमद के बेटे असद पर कपिल सिब्बल की सहानुभूति भरी टिप्पणी

साल 2023 में उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था और अपराध के खिलाफ कार्रवाई के बीच, गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक अहमद के बेटे असद अहमद की पुलिस मुठभेड़ में मौत ने देशभर में सुर्खियाँ बटोरीं। लेकिन उससे भी अधिक विवाद खड़ा हुआ तब, जब कपिल सिब्बल ने असद के पक्ष में सहानुभूति जताते हुए पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठाए।

कपिल सिब्बल ने कहा, “एक 19 साल का लड़का देश की सुरक्षा के लिए कैसे खतरा हो सकता है? अगर उसे पकड़ना था तो पैर में गोली मारते या मुकदमा चलाते, उसे मारना क्यों ज़रूरी था?” यह बयान तब आया जब असद अहमद का नाम उमेश पाल हत्याकांड में मुख्य आरोपितों में था। 24 फरवरी 2023 को दिनदहाड़े हुए इस जघन्य हत्याकांड ने पूरे प्रदेश को झकझोर कर रख दिया था और असद की भूमिका को लेकर पुलिस ने पुख्ता सबूत भी प्रस्तुत किए थे।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, असद न केवल हत्या की साजिश में शामिल था, बल्कि वह अपने अब्बू अतीक अहमद को पुलिस हिरासत से छुड़ाने और पुलिस काफिले पर हमले की योजना भी बना रहा था। इन तथ्यों की सार्वजनिक पुष्टि के बावजूद, कपिल सिब्बल ने इस पूरे मामले को एक ‘युवा लड़के की मौत’ के रूप में पेश करने की कोशिश की, जो कानून और सुरक्षा एजेंसियों के लिए चिंता का विषय बना।

सिब्बल के बयान ने न केवल पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़े किए, बल्कि यह भी दर्शाया कि कुछ राजनेता और वकील किस तरह से अपराधियों के लिए मंच तैयार करते हैं, जब उनके नाम के साथ एक खास राजनीतिक या सांप्रदायिक पहचान जुड़ी हो। यह वही कपिल सिब्बल है, जिसने पहले आतंकवादियों की उम्र को लेकर भी सवाल खड़े किए थे। जैसे 2008 मुंबई हमले में शामिल पाकिस्तानी आतंकी भी महज़ 20-21 साल का था, परंतु उससे देश को कितना बड़ा खतरा था, इतिहास गवाह है।

कानून का सम्मान और निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया की बात करने वाले सिब्बल जैसे वरिष्ठ वकील द्वारा इस तरह की एकतरफा सहानुभूति न केवल न्याय व्यवस्था को कमजोर करती है, बल्कि अपराधियों को परोक्ष रूप से संरक्षण देने जैसा प्रतीत होती है।

असम म्यांमार का हिस्सा था’-कपिल सिब्बल के बयान से हुआ था विवाद

साल 2023 में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही बहस के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने एक ऐसा बयान दे दिया, जिसने देशभर में तीखी प्रतिक्रियाएँ जन्म दीं। 7 सितंबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सिब्बल ने दावा किया कि “असम मूल रूप से म्यांमार का हिस्सा था।”

सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ उस समय नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। धारा 6A 1985 के असम समझौते के बाद अधिनियम में जोड़ी गई थी, जिसके तहत 25 मार्च 1971 तक असम में आए सभी लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है। यह कट ऑफ पूरे भारत के लिए तय 19 जुलाई 1949 की तारीख से अलग है।

सिब्बल, जो जमीयत उलेमा-ए-हिंद और ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) की ओर से पेश हो रहे थे, ने न केवल असम के म्यांमार से जुड़े होने का दावा किया। कपिल ने यह भी कहा कि “प्रवास का कोई मानचित्रण संभव नहीं है।” उनका तर्क था कि इतिहास जटिल है और सीमाएँ समय के साथ बदली हैं, इसलिए अवैध प्रवास की परिभाषा तय करना मुश्किल है।

सिब्बल का यह बयान न केवल इतिहास के तथ्यों से उलझता दिखा, बल्कि असम के लोगों की भावनाओं पर भी चोट करता नजर आया। असम जो सदियों से भारत की सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान का अहम हिस्सा रहा है, उसे म्यांमार से जोड़ना न केवल तथ्यात्मक रूप से संदिग्ध है, बल्कि यह भारत की एकता और अखंडता पर भी सवाल खड़े करता है।

राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने कपिल सिब्बल की इस टिप्पणी की कड़ी आलोचना की, इसे ऐतिहासिक तथ्यों के साथ खिलवाड़ और अवैध घुसपैठ को जायज ठहराने की कोशिश बताया। असम की पहचान और सीमाओं पर इस तरह के बयान देना न केवल संवेदनशील मसलों को और उलझाता है, बल्कि न्यायिक बहसों को भी दिशा से भटकाने का काम करता है।

कुल मिलाकर कपिल सिब्बल का यह विवादास्पद बयान एक बार फिर उनके राजनीतिक रुख और कोर्टरूम में उनके द्वारा लिए गए पक्षों को लेकर बहस का विषय बन गया ।

ईदगाह मैदान विवाद में कपिल सिब्बल ने वक्फ बोर्ड का रखा पक्ष रखा, SC ने लगाई पूजा और नमाज़ पर रोक

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु स्थित चामराजपेट का ईदगाह मैदान एक बार फिर से धार्मिक और कानूनी विवादों के केंद्र में आ गया। यह विवाद तब और गहरा गया जब कर्नाटक वक्फ बोर्ड की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए आपत्ति जताई कि यदि वक्फ की जमीन पर हिंदू धार्मिक त्योहारों की अनुमति दी गई, तो इससे मुस्लिम समुदाय में नाराज़गी और तनाव की स्थिति पैदा हो सकती है।

कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया कि पिछले 200 वर्षों से इस मैदान पर सिर्फ इस्लामी धार्मिक कार्यक्रम होते आए हैं, और ऐसे में गणेश चतुर्थी जैसे हिंदू त्योहार को अनुमति देना न केवल इस स्थान के धार्मिक स्वरूप को बदल देगा, बल्कि इससे सांप्रदायिक सौहार्द को भी खतरा हो सकता है। उन्होंने अदालत के सामने यह भी कहा कि “अगर वक्फ की जमीन पर दूसरे धर्मों के त्योहार मनाने की इजाजत दी गई, तो आप जानते हैं कि इसका अंजाम क्या हो सकता है।”

गौरतलब है कि कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को सीमित अवधि के लिए इस मैदान पर गणेश चतुर्थी आयोजन की अनुमति पर विचार करने की छूट दी थी। इसके खिलाफ वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और हाईकोर्ट के आदेश को 1964 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने फैसले का उल्लंघन बताया।

विवाद की जड़ यह है कि ईदगाह मैदान पर कर्नाटक वक्फ बोर्ड और बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (BBMP) दोनों ही स्वामित्व का दावा कर रहे हैं। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2022 में हस्तक्षेप करते हुए मैदान पर ‘यथास्थिति’ बनाए रखने का आदेश दिया, जिसका मतलब है कि ना वहाँ पूजा होगी और ना ही नमाज़।

यह मामला केवल एक जमीन के स्वामित्व का नहीं, बल्कि भारत में धार्मिक सहअस्तित्व और सांप्रदायिक संतुलन को लेकर गहराते मतभेदों का प्रतीक बन चुका है। कपिल सिब्बल, जो खुद को ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का पैरोकार बताते आए हैं, उनके बयान ने एक बार फिर राजनीति और धर्म के टकराव को उजागर कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट के यथास्थिति के आदेश से फिलहाल किसी भी धार्मिक आयोजन पर रोक है, लेकिन ईदगाह मैदान पर स्वामित्व और धार्मिक अधिकारों की यह लड़ाई आने वाले समय में और भी गर्मा सकती है।

वक्फ (उम्मीद) अधिनियम के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल

वरिष्ठ वकील और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल एक बार फिर से वक्फ से जुड़े विवादित मुद्दे को लेकर सुर्खियों में हैं। इस बार वे जमीयत उलेमा-ए-हिंद की ओर से सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (उम्मीद) संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने के लिए पेश होंगे। यह अधिनियम हाल ही में संसद के दोनों सदनों में पारित हुआ था और राष्ट्रपति की मंजूरी भी प्राप्त कर चुका है।

कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में वक्फ अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई की माँग की थी, लेकिन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने उन्हें और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी को फटकार लगाते हुए कहा कि वे स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करें।

विवादित वक्फ संशोधन अधिनियम का उद्देश्य वक्फ बोर्डों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाना, गैर-मुस्लिमों की संपत्तियों पर अतिक्रमण को रोकना और सरकारी या सार्वजनिक भूमि पर अवैध कब्जों को समाप्त करना है। वहीं, जमीयत उलेमा-ए-हिंद इस कानून को मुस्लिमों के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों पर हमला मानते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुकी है।

गौरतलब है कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद देश के सबसे प्रभावशाली इस्लामी संगठनों में से एक है, जो पिछले एक दशक से आतंकवाद के मामलों में आरोपित मुस्लिम युवकों को कानूनी सहायता प्रदान करता रहा है। इस संगठन का दावा है कि वो ‘निर्दोष मुसलमानों’ को न्याय दिलाने का प्रयास कर रहा है। जमीयत की कानूनी टीम अब तक करीब 700 से अधिक आरोपितों को कानूनी मदद दे चुकी है, जिनमें से करीब 192 आरोपितों को अदालतों ने पर्याप्त सबूतों के अभाव में बरी कर दिया है।

संगठन ने नूहँ हिंसा के आरोपित कॉन्ग्रेस नेता मम्मन खान का भी बचाव किया है और देश में इस्लामोफोबिया के कथित मामलों के खिलाफ सख्त कानून की माँग की है। वहीं, काशी और मथुरा मंदिर विवादों में हिंदू पक्ष की याचिकाओं का भी विरोध किया गया है।

कपिल सिब्बल एक बार फिर ऐसे संगठन का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जो खुद को शरिया आधारित विचारधारा के करीब मानता है। वक्फ अधिनियम के खिलाफ उनकी यह कानूनी लड़ाई ऐसे समय में हो रही है जब देश में धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों को लेकर पहले से ही गहमागहमी है।

तीन तलाक़ पर कपिल सिब्बल की पैरवी: सामाजिक सुधारों के विरुद्ध धार्मिक कट्टरता की वकालत?

तीन तलाक़ के ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) का प्रतिनिधित्व करते हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने एक बार फिर अपनी भूमिका को लेकर राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया। शायरा बानो बनाम भारत संघ मामले में सिब्बल ने उस प्रथा का बचाव किया, जिसे व्यापक रूप से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ और अत्यधिक पितृसत्तात्मक माना गया था।

सिब्बल की ओर से अदालत में दिए गए प्रमुख तर्कों में से एक था कि “तीन तलाक़ 1400 वर्षों से चली आ रही परंपरा है, इसे असंवैधानिक कैसे कहा जा सकता है?” उनके इस तर्क ने सामाजिक न्याय की आधुनिक अवधारणाओं को धार्मिक परंपराओं के अधीन रखने की प्रवृत्ति को उजागर किया। उन्होंने यहाँ तक कहा कि यदि अयोध्या में राम जन्म पर हिंदुओं की आस्था को चुनौती नहीं दी जा सकती, तो तीन तलाक पर भी मुसलमानों की आस्था को सवालों के घेरे में नहीं लाया जाना चाहिए।

सिब्बल ने यह भी तर्क दिया कि शरिया कानून संविधान के अधीन नहीं आता और बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों के लिए कोई सुधारात्मक कानून नहीं बना सकता, जब तक कि वह सुधार समुदाय के भीतर से न आए। लेकिन यह प्रश्न भी उठता है कि यदि 1400 वर्षों में समुदाय के भीतर से कोई सुधार नहीं आया, तो मुस्लिम महिलाएँ और कितनी सदियाँ इंतज़ार करें?

सिब्बल की इस पैरवी को समाज के एक बड़े वर्ग ने प्रतिगामी और महिला विरोधी करार दिया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2017 को एक ऐतिहासिक निर्णय में तत्काल तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को असंवैधानिक घोषित कर दिया। अदालत ने कहा कि यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (लिंग के आधार पर भेदभाव से मुक्ति) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करती है।

इसके बाद 2019 में मोदी सरकार ने कानून बनाकर तीन तलाक को आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया, जिससे यह स्पष्ट संकेत गया कि भारत का लोकतंत्र अब धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में महिलाओं के मौलिक अधिकारों की अनदेखी नहीं करेगा।

कपिल सिब्बल द्वारा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का बचाव करना केवल एक कानूनी बहस नहीं थी, बल्कि उस गहरी वैचारिक लड़ाई का हिस्सा था जहाँ धर्म और संविधान आमने-सामने खड़े थे। सवाल यह भी उठता है कि क्या सिब्बल जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता को धार्मिक परंपराओं के नाम पर सामाजिक अन्याय का समर्थन करना शोभा देता है।

तीन तलाक का मामला केवल एक कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि भारत में महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक निर्णायक मोड़ था, जिसमें आखिरकार संवैधानिक मूल्य विजयी रहे।

कपिल सिब्बल की वकालत या वैचारिक पक्षधरता?

वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल एक बार फिर कानूनी और वैचारिक बहस के केंद्र में हैं। वक्फ अधिनियम 2025 के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जमीयत उलेमा-ए-हिंद की ओर से पैरवी करने के निर्णय ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या सिब्बल एक वकील की भूमिका में हैं या एक खास वैचारिक पक्षधरता के तहत लगातार काम कर रहे हैं।

एक ओर जहाँ कपिल सिब्बल कानून के छात्र और एक पेशेवर अधिवक्ता के रूप में किसी भी मुवक्किल की ओर से अदालत में खड़े होने के अधिकार का दावा कर सकते हैं, वहीं उनके करियर की दिशा और उनका वकालती इतिहास यह संकेत देता है कि वह अक्सर उन मामलों को चुनते हैं जो या तो हिंदू हितों के विरोध में होते हैं या ऐसे मुस्लिम संगठनों के समर्थन में जो खुद को संविधान से ऊपर मानते हैं। तथ्य यही बताते हैं कि

  • राम जन्म भूमि विवाद में उन्होंने सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से हिंदू आस्था का विरोध किया।
  • तीन तलाक जैसे महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ मानी जाने वाली प्रथा के पक्ष में उन्होंने AIMPLB का बचाव किया।
  • अनुच्छेद 370 और 35A की बहाली के लिए सुप्रीम कोर्ट में जोरदार पैरवी की।
  • 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले जैसे गंभीर आर्थिक मामलों को सामान्य दिखाने की कोशिश की।
  • और अब वक्फ अधिनियम जैसे कानून का विरोध कर रहे हैं, जो वक्फ बोर्डों द्वारा किए जा रहे संपत्ति कब्जे, सरकारी ज़मीनों पर अतिक्रमण और गैर-मुस्लिमों की संपत्तियों पर मनमाने दावों को रोकने के लिए लाया गया है।

विश्लेषकों का मानना है कि सिब्बल का यह व्यवहार केवल कानूनी रणनीति नहीं, बल्कि एक वैचारिक एजेंडे की निरंतरता है। जिस तरह उन्होंने बार-बार इस्लामी संगठनों, इस्लामवादी रुझानों और उन संगठनों का प्रतिनिधित्व किया है जिन पर कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के आरोप हैं, वह उनके ‘धर्मनिरपेक्षता’ के दावे को संदेह के घेरे में लाता है।

विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि कपिल सिब्बल जैसे प्रभावशाली वकील और राजनेता से अपेक्षा की जाती है कि वे राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और समावेशी विकास को प्राथमिकता देंगे, न कि केवल राजनीतिक और वैचारिक प्रतिद्वंद्विता में हिंदू हितों को चुनौती देने वाले मंचों को ही चुनेंगे।

कुल मिलाकर देखें तो कपिल सिब्बल की वकालत अब केवल एक पेशेवर कर्तव्य नहीं, बल्कि एक वैचारिक अभियान की तरह दिखने लगी है। जिसमें वे बार-बार उन पक्षों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो बहुसंख्यक हितों के विरोध में और अल्पसंख्यक विशेषाधिकारों के पक्ष में खड़े होते हैं। यह रुख केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय विमर्श को भी प्रभावित कर रहा है। और यही बात उन्हें अन्य अधिवक्ताओं से अलग और विवादास्पद बनाती है।

मूल रूप से यह रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा में प्रकाशि है। मूल रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

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