कहते हैं आदमी ‘आदम’ से आया था। आदम को अंग्रेज़ी में एडम कहते हैं। इससे जुड़ी एक कहावत है ‘बाबा आदम के जमाने से’। हिन्दू लोग आदम में यकीन नहीं करते क्योंकि कोई मतलब नहीं है। उनका फंडा अलग है। आदमी आज के दौर में व्यक्ति को कहते हैं, मानव को कहते हैं। देश के लिए नागरिक की अवधारणा होती है जहाँ लोगों के पहचान मिट जाते हैं, और बस राष्ट्रीय पहचान होती है कि हम भारतीय है, जापानी हैं, चीनी हैं, अरबी हैं।
भारत एक सेकुलर देश माना जाता है। माना इसलिए जाता है क्योंकि इस शब्द विशेष को लोग सहूलियत से इस्तेमाल करते हैं। अमूमन सेकुलर का मतलब गैर हिन्दू या गैर दक्षिणपंथी होता है। आप लाख मुझे समझा लें कि ऐसा नहीं है, मैं नहीं मानूँगा क्योंकि मैं शब्दों को उनके स्वतंत्र अस्तित्व में, उन्हें अक्षरों का मेल भर नहीं मानता, बल्कि मैं मानता हूँ कि शब्दों के मायने काल, परिस्थिति, देश और संदर्भ में बदल जाते हैं।
सेकुलर के नाम पर आप हिन्दुओं के देवी-देवताओं का अपमान कर सकते हैं, उनकी मूर्तियाँ तोड़ सकते हैं, मंदिरों को गिरा सकते हैं, उनके प्रतीक चिह्नों का उपहास कर सकते हैं, और न तो हिन्दू, न ही भारत का कोई कानून आपका कुछ कर पाएगा। उसे हमारे सेकुलर संविधान में ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ कहा गया है। यही आज़ादी किसी भी गैर हिन्दू (या हिन्दू के अंग-प्रत्यंग) वाले मजहबों के ऊपर नहीं है। अगर आपने गलत संदर्भ में भी कुछ भी कह दिया, कुछ भी मतलब कुछ भी, तो दो-दो साल से घात लगा कर बैठा मजहबी आदमी आपको ऐसे रेत देगा कि लाश देखने वालों की आत्मा काँप जाएगी।
ये ‘सेकुलर इंसान’ वहीं तक नहीं रुकता। वो आपको कमेंट में, उसके ख़िलाफ़, उसके दंगों के ख़िलाफ़ लिखने पर, आपको याद दिलाएगा कि ‘तुझे भी काटेंगे साले कमलेश तिवारी की तरह, इंशाअल्लाह’। ऐसा मजहबी आदमी ऐसे दुष्कृत्यों को सम्मान की तरह देखता है। ऐसा ‘सेकुलर’ आतंकियों को, जिसने उसके पूर्वजों की बस्तियों को आग लगाया था, उनकी लड़कियों का बलात्कार किया था, उनके मंदिर तोड़े थे, और अंत में तलवार की नोक पर धर्मांतरण कर दिया था, बस इसलिए महान समझता है क्योंकि वो भी मुस्लिम हैं।
आज इनकी बात क्यों कर रहा हूँ?
आज इसलिए उनकी चर्चा हो रही है क्योंकि आम तौर पर जिन लोगों को पूरा भारत कवि, शायर, इतिहासकार, पत्रकार, धर्महीन वामपंथी समझता रहा, वो CAA और NRC के विरोध के नाम पर हो रहे दंगों को न सिर्फ सहमति दे रहे हैं, बल्कि उकसा रहे हैं मरना ही है तो लड़ कर मर जाओ। ये लोग अब रंगरेज के नीले रंग वाले नाँद से जितना दूर जा रहे हैं, इनका हरा रंग उतना ही बाहर आता जा रहा है।
हरे रंग में समस्या नहीं है, समस्या तब है जब तुम दिख तो हरे रहे हो, लेकिन चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हो कि ‘हम तो नीले हैं।’ ये सारे कवि, शायर, पत्रकार, इतिहासकार, वामपंथन अचानक से आदमी से ‘मुस्लिम’ हो गए हैं। और सिर्फ मुस्लिम नहीं, वैसे मुस्लिम हो गए हैं जो सेकुलर होने की परिभाषा से कहीं बहुत दूर, भारत को ये बता रहे हैं कि इनके बापों ने भारत पर राज किया था, ये लिख रहे हैं कि तिलकधारियाँ नहीं चलतीं, ये कह रहे हैं कि भारत माता की जय कम्यूनल है, और ला इलाहा इल्लल्लाह बिलकुल भी कम्यूनल नहीं, ये चिल्ला रहे हैं कि मुस्लिमों के साथियों को मजहबी नारे का सम्मान करना ही होगा…
और ये सारी इस्लामी बातें किस बात के विरोध में? एक राजनैतिक कानून के विरोध में जिसका भारत के समुदाय विशेष से कोई वास्ता नहीं। तो सवाल यह है कि ये जो मुनव्वर राणा अचानक से ‘मजहबी’ हो कर ‘मरना ही मुकद्दर है तो फिर लड़ के मरेंगे’ की बात करने लगे हैं, वो ऐसा क्यों कर रहे हैं? आखिर इनको दर्द किस बात का है कि ये अभिजात्य अल्फ़ाज़ में दंगाइयों को उकसा रहे हैं कि ‘लड़ के मरो’?
आखिर ‘माँ’ के नाम पर शायरी करने वाले मुनव्वर राणा किस बात से इतने दुखी हो गए कि टिक-टॉक विडियो पर “800 वर्षों तक हमने देश पर राज किया, लेकिन हमारी हड्डी में उबाल नहीं आया, लेकिन पाँच साल से तुम्हें सत्ता मिल गई है तो तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है! बहुत ज्यादे सनक में मत रहो, वरना अगर हम अपने पर आ गए तो भागने का रास्ता नहीं रहेगा…” बोलने वाले लम्पट का परिष्कृत संस्करण बन कर ‘यही वो मुल्क है जिसकी मैं सरकारें बनाता था’ लिख रहे हैं?
आखिर राहत इंदौरी ‘ये तिलकधारियाँ नहीं चलती’ कह कर ‘तिलक करने वाले हिन्दुओं को इतने घृणित लहजे में क्यों ललकार रहा है? इस आदमी को क्या समस्या हो गई है जिसकी महफिलों में समुदाय विशेष से ज्यादा हिन्दू ही हुआ करते हैं? वो तिलकधारियों को मक्कार क्यों कह रहा है? आखिर एक शायर, जिसे संवेदनशील और ग़ैर राजनीतिक माना जाता है, वो किसी पार्टी और देश के प्रधानमंत्री, और उन्हें वोट देने वालों पर शब्दों की मदद से ऐसे निशाने क्यों लगा रहा है?
आख़िर फ़ैज अहमद फ़ैज के उस नज़्म को गाने की ज़रूरत आज के भारत में क्यों पड़ती है, जहाँ लगातार दो बार, पूर्ण बहुमत से चुन कर एक प्रधानमंत्री आया है, जो नज़्म एक पाकिस्तानी तानाशाह के लिए गाई गई थी? मैं क्या संदर्भ भूल जाऊँ कि तुमने मेरे चुने हुए, लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री को पहले तो तानाशाह कहा और फिर, इस्लामी शायरी से ले कर तमाम तरीक़ों में काफिरों के लिए एक अंतर्निहित, स्थायित्व लिए हुए घृणा ली हुई बातों को दोहराया जहाँ ‘सब बुत उठवाए जाएँगे’ का मतलब सीधा इस बात से है कि भाजपा को ‘हिन्दुओं की पार्टी’ कहा जाता है। क्या हम इतने मूर्ख हैं कि बिम्बों को न समझ सकें?
क्या हम ये कह कर तुम्हारी बात मान लें कि वो बस एक नज़्म थी, जो गाई गई IIT कानपुर में? क्या वो नज़्म किसी ने ट्विटर पर डाली थी, एक रैंडम दिन में किसी ने अपनी प्रेमिका को भेजी थी वो नज़्म, या फिर किसी तानाशाह के लिए लिखी गई और आज के दौर में गाई गई उस नज़्म में तानाशाह मोदी है, और ‘बुत उठवाए जाएँगे’ में सीधा निशाना हिन्दुओं की मूर्तिपूजा से है? हम क्या इतने मूर्ख हैं कि इस्लामी शायरी के भीतर की हिन्दू घृणा के ज़हर को समझ न सकें? तुम मोदी को हिटलर से प्रतीकात्मक तौर पर तौलते रहो, तुम नाज़ियो के चिह्न से हमारा पवित्र ‘ॐ’ बना दो, नीचे ‘फक हिन्दुत्व’ लिखो, और हम ये मान लें कि ये तो विरोध का एक तरीका है, हिन्दुत्व से मतलब हिन्दुओं से नहीं राजनैतिक विचारधारा से है!
इसी नज़्म पर एक और नौटंकी जो दिखी वो यह थी कि सारे वामपंथी और हिन्दुओं से घृणा करने वाले एक फर्जी खबर बना कर फैलाने लगे कि IIT कानपुर ने इस बात की जाँच पर एक कमिटी बिठा दी है कि ‘ये नज्म हिन्दू विरोधी है या नहीं’। जबकि सच्चाई इससे अलग यह है कि कमिटी इस बात की जाँच करेगी कि जो आयोजन हुआ वो संस्थान के नियमों के हिसाब से हुआ या नहीं, उसके बाद सोशल मीडिया पर जो बातें कही गईं, वो सही थीं, या गलत। लेकिन इरफान हबीब जैसे लोग अपना एजेंडा ठेलने से बाज नहीं आए।
जो खुद को वामपंथन कहती है। जिस वामपंथ में धर्म-मजहब की कोई पहचान है ही नहीं, वो शेहला रशीद, मुस्लिमों के मजहबी उन्मादी नारों की बात करते हुए कहती है कि अगर आप उनसे शर्मिंदा हैं तो आप हमारे सहयोगी नहीं हैं। अगर आपको इन नारों से दिक्कत है, तो आप भी समस्या का ही हिस्सा हैं। और जनाब इनके वो मजहबी नारे क्या हैं? वो नारे हैं: हिन्दुओं से आजादी, हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी, AMU की छाती पर, नारा ए तकबीर अल्लाहु अकबर, तेरा मेरा रिश्ता क्या ला इलाहा इल्लल्लाह…
ये हैं वो नारे जो एक मजहबहीन वामपंथन ‘नॉन-नेगोशिएबल मानती है। और आप फिर सोचेंगे कि एक राजनैतिक विरोध-प्रदर्शन में ‘मजहबी नारों की क्या ज़रूरत है’ तो आपको जवाब नहीं मिलेगा। शेहला रशीद यह मान कर चल रही है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही सेकुलरिज्म तेल लेने चला गया था। ये बात और है कि जब इनका सेकुलरिज्म तेल ले कर वापस लौटा तो पहले जामिया में आग लगाई, फिर सीलमपुर में पेट्रोल बम फेंका, फिर लखनऊ के परिवर्तन चौक में आग लगाई, फिर बंगाल में ट्रेन फूँक दिया, बिजनौर में आग लगाई, मेरठ और अलीगढ़ को लहका दिया। वाकई, सेकुलरिज्म तेल तो बार-बार लेने गया है मोदी के आने के बाद, खास कर समुदाय विशेष का सेकुलरिज्म जहाँ वामपंथन भी खुल कर मुस्लिम हुई जा रही है!
शशि थरूर ने लम्बे समय के बाद कुछ ढंग की बात कही कि मुस्लिमों को समझना चाहिए कि CAA/NRC के प्रदर्शन में ‘तेरा मेरा रिश्ता क्या’ जैसे नारों की जगह नहीं है क्योंकि वहाँ अल्लाह को लाया जा रहा है। ये बात कई मुस्लिमों को नहीं पची क्योंकि उनके लिए हर प्रदर्शन विशुद्ध रूप से मजहबी है क्योंकि उनके लिए पहचान का मतलब भारतीयता, नागरिकता और सामान्य बातों से परे सिर्फ और सिर्फ इस्लाम है, उम्माह है, कौम है।
स्वयं को पत्रकार कहने वाली आरफ़ा खानम ने कुछ समय पहले ट्वीट किया था कि ‘हाँ, भारत माता की जय एक साम्प्रदायिक नारा है’, उसने आज पत्रकारिता को ढोंग त्यागते हुए, खुल कर सामने आ कर कहा कि ‘ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अकबर, इंशाअल्लाह किसी भी तरह से साम्प्रदायिक, इस्लामी कट्टरपंथी नारे नहीं हैं। इन सारे नारों को या तो आप सीधा ‘शब्दों को झुंड’ के रूप में देख सकते हैं, या फिर आप इन्हें संदर्भ में देखेंगे।
‘भारत माता की जय’ कहने से हम किसी देवी की पूजा नहीं करते, हम अपनी मातृभूमि की जय-जयकार करते हैं। यहाँ किसी का मुस्लिम होना तब तक प्रभावित नहीं होता जब तक वो इस भाव से जय-जयकार न करे जहाँ वो यह मानने लगे कि ‘अल्लाह के अलावा भी कोई है जिसे वो पूजनीय मानता है’। दूसरी बात, साम्प्रदायिक मानने के लिए किसी भी बात में नकारात्मकता आवश्यक है, वहाँ शाब्दिक या और तरह की हिंसा होनी चाहिए, मंशा होनी चाहिए नीचा दिखाने की।
मुझे नहीं लगता कि ‘भारत माता की जय’ बोलते हुए कोई किसी को नीचा दिखाना चाहता है, या किसी भी प्रकार के हिंसक भाव रखता है। लेकिन, उसके उलट एक राजनैतिक कानून के विरोध में, जब हिन्दुओं से आजादी, हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी, फक हिन्दुत्व आदि के साथ-साथ, उसी समय-काल में, उन्हीं परिस्थितियों में, उसी संदर्भ में जब ‘नारा ए तकबीर अल्लाहु अकबर’ गूँजता है, तो वो विशुद्ध मजहबी उन्माद है क्योंकि ये नारा तुम सिर्फ शक्ति प्रदर्शन और एक दूसरे धर्म को नीचा दिखाने के लिए लगा रहे होते हो। तुम ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ कहो, कोई समस्या नहीं, लेकिन ये सिर्फ मजहबी जमावड़े में बोलो, राजनैतिक में घुसाओगे तो हमें याद आएगा कि तुम्हारा लक्ष्य तो गजवा-ए-हिन्द और ख़िलाफ़त तक का है।
सेकुलर होने का ढोंग, मुस्लिम होना और मुस्लिम होने का घमंड करना
इन लोगों की ही तरह दसियों मुस्लिम ऐसे मिलेंगे आपको जो बिना इस कानून को पढ़े, बिना ये जाने कि NRC के ड्राफ्ट तक अभी बाहर नहीं आया है, इन दंगाइयों को अपनी सहमति ये कह कर दे रहे हैं कि मुस्लिमों के अस्तित्व पर संकट आ गया है। सामने से पूछे जाने पर ये बार-बार यह भी कह रहे हैं कि आम लोगों को सरकार समझाने में असफल रही है, जबकि सत्य यह है कि सरकार हर संभव कोशिश कर रही है, लेकिन यही लोग आम लोगों में डर भरते जा रहे हैं।
मुनव्वर राणा की, राहत इंदौरी की, इरफान हबीब की, शेहला रशीद की, आरफा खानम की और उन हजारों दंगाई मुस्लिमों की समस्या CAA या NRC नहीं है। इनकी समस्या यह है कि इनके भीतर का घमंड, एक विशेष होने का भाव जो पिछली सरकारों ने इनमें गहरे भर दिया था, वो अचानक से छिन-सा गया है। वो, जिनके मजहब के लोगों के आतंकी होने पर, 22 साल की न्यायिक प्रक्रिया के बाद भी, रात के दो बजे सुप्रीम कोर्ट खुलवा लिए जाते थे, उनकी बात की अब कोई वैल्यू नहीं रही।
वो जो यह चिल्लाते थे कि ‘तुम कितने अफ़ज़ल मारोगे, हर घर से अफ़ज़ल निगलेगा’, आज दंगा करने के बाद योगी सरकार को अपने समुदाय द्वारा किए गए नुकसान की भरपाई के लिए पैसे लौटा रहे हैं। वो, जो मजहब की आड़ में भारत का झंडा, राष्ट्रीय गीत और जय बोलने से कतराते थे, आज, भले ही दंगा करने और आग लगाने के लिए ही सही, भीड़ में तिरंगा लिए घूम रहे हैं। इनके घमंड के गुब्बारे में जो हवा भरी जाती रही थी, उसमें इस सरकार ने पहले तो हवा भरना बंद किया, और दूसरे चरण में पिन मारना भी शुरू कर दिया है, तो फटे गुब्बारे से कुछ आवाज तो आएगी ही।
वो, जो सोचते थे कि कश्मीर से पंडितों के भगा देने के बाद, कश्मीर को अलग देश बना लेंगे और उसी चक्कर में कश्मीर को नक्शे पर भी न पहचान सकने वाले मुस्लिम भी खुश हो जाते थे, आज परेशान हैं कि कश्मीर में अब भारत का संविधान लागू है, और उसका झंडा भी तिरंगा है। वो, जो सोचते थे कि संविधान से ऊपर कोई मजहबी पर्सनल लॉ बोर्ड है, तीन तलाक के ग़ैर क़ानूनी करार दे दिए जाने से इसे मजहब पर हुए हमले के रूप में देख रहे हैं।
वो, जिन्होंने सोचा था कि इरफान हबीब जैसा चिरकुट उपन्यासकार, अपने चेलों को कोर्ट में भेज कर, भारत को यह समझा देगा कि भारत का इतिहास मुस्लिम आतंकवादी बाबर के आने के बाद से ही शुरू होता है, वो राम मंदिर के गगनचुम्बी शिखरध्वज को कैसे देख पाएँगे? वो, जो सोचते हैं कि बौद्धों को हथियार उठाने पर मजबूर कर देने वाले आतंकी रोहिंग्या और बांग्लादेश से भारत में घुसे घुसपैठियों को भारत में इसलिए जगह मिल जानी चाहिए क्योंकि वो उनके उम्माह का हिस्सा हैं, उनके हकूक हैं, उन्हें भारतीय नागरिकों के रजिस्टर बनने से तो समस्या होनी ही है।
इसीलिए, केंचुली उतार कर ये पूरा विरोध अब ‘हम बनाम वो’ का हो गया है। इस पूरे विरोध का लहजा ‘मुस्लिम बनाम काफिर’ का हो चुका है। वो खुल कर कह रहे हैं कि ‘गलियों में निकलने का वक्त आ गया है’, वो चिल्ला कर जामिया की गलियों में कह रहे हैं कि उन्हें ‘हिन्दुओं से आज़ादी’ चाहिए। वो दिन के उजाले में दीवारों पर हमें ‘कैलाश जाओ’ लिख कर बता रहे हैं। वो एक राजनैतिक प्रदर्शन में हजारों की भीड़ जुटाते हैं और पूछते हैं कि ‘तेरा मेरा रिश्ता क्या’, और आवाज आती है ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’। वो ख़िलाफ़त 2.0 के ख्वाब AMU की दीवारों पर लिख रहे हैं और हिन्दुत्व, यानी हिन्दुओं से जुड़ी हर बात, विचार, पूजा, व्यक्ति, ग्रंथ आदि की कब्र खोदने की बातें कर रहे हैं।
और हिन्दू आज भी पॉलिटिकली करेक्ट होना चाह रहा है। वो ये मान रहा है कि ये लोग भटके हुए, गुमराह लोग हैं, इनके नारों का कोई मतलब नहीं, ये तो बस ऐसे ही है। ये लड़ाई अब खुले में सुनाई पड़ रही है। अब दिख रहा है कि इनका लक्ष्य कोई कानून या संविधान नहीं, इनकी आँखें शिथिल हो कर ‘गजवा-ए-हिन्द’ का आस देख रही है, और दाहिने-बाएँ इन्हें कुछ नहीं दिख रहा। ये नारे सीढ़ियाँ हैं, ये वो चरण है प्रयोग का जहाँ देखा जा रहा है कि पूरे भारत का मुस्लिम बाहर आ सकता है क्या?
अभी आँकने का मौका है कि जब महत्वपूर्ण जगहों पर बैठे मुस्लिम, एक पहचान पा चुके मुस्लिम, वैसे मुस्लिम जो वैचारिक स्तर पर नेतृत्व दे सकते हैं, उनके खुल कर बाहर आने पर कितने मुस्लिम उनकी बातें मानेंगे। इसीलिए, आज पढ़ा-लिखा, कॉलेज जाता मुस्लिम भी NRC के आए बिना ही कह रहा है कि उसके कागज तो बाढ़ में बह गए, 90 साल की बुजुर्ग असमा कह रही है कि दसवीं फेल मोदी अपने सात पुश्तों के नाम गिनाए। जब आम आदमी गृहमंत्री की अपील को सीधे कह दे कि वो तो झूठ बोल रहा है, एक चुनी हुई सरकार के सासंदों द्वारा पारित कानून को यह कह कर नकार दे कि सासंद तो बस 300 ही हैं, हम तो हजारों में हैं, तब आप समझ जाइए रंग उतरा ही नहीं, रंग दिखाया जा रहा है कि पहचानो, हम कौन हैं!
मजहबी नारे, इतिहास के आतंकियों के शासक होने के दिन, और हिन्दुओं से घृणा की बातें खुल कर हो रही हैं। बाकी का काम मीडिया गिरोह सक्रिय हो कर कर ही रहा है जहाँ बीस दिन की नवजात बच्ची को विरोध-प्रदर्शन की नायिका के रूप में भुनाया जा रहा है। अचानक से भीम-मीम में इसलिए दरार पड़ती दिख रही है कि भीम वालों को मजहबी नारे अनुचित लगते हैं। अब भीम सोच रहा है कि मीम वाले तो उनको पागल बना रहे हैं, इनका एजेंडा तो कुछ और ही है। बाकी का काम इस उम्मीद ने कर दिया जहाँ शेहला रशीद कहती है कि अगर तुम हमारे साथ हो तो आरक्षण में हमें भी हिस्सा दे दो!
भीम वाला आज भी जोगेंद्र नाथ मंडल को नहीं जानता कि मीम के झंडाबरदारों ने उनका क्या हश्र किया था। भीम वालों की लड़ाई राजनैतिक है, वो अपने हक के लिए बार-बार उठते रहे हैं। उनकी लड़ाई शोषण से है, बराबरी की है, और अब अचानक से उनसे कहा जा रहा कि ‘बोलो भाई तेरा मेरा रिश्ता क्या’, और भीम वाला सोच में पड़ जाता है कि ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ कैसे बोल दे!
आप भी इस मजहबी उन्माद को समझिए। आप भी यह समझिए कि सेकुलर होने का मतलब मुस्लिमों के लिए अलग है, हिन्दुओं के लिए अलग। एक सेकुलरिज्म की आड़ में आपके देवी-देवता का उपहास करता है, और आप हैं कि ईद की सेवइयाँ खाने के लिए पागल हुए जा रहे हैं। हिन्दुओं के लिए सेकुलर होने का मतलब है ‘सहना’। इसलिए, वो आज भी इन मजहबी उन्मादियों को आग लगाता देख रहा है और यह मान कर चल रहा है कि ये आग उसके घर तक नहीं पहुँचेगी।
यही हिन्दू यह भूल जाता है कि उसके ‘जय श्री राम’ नारे को आतंकी नारा बना कर एक महीने में कम से कम दस बार झूठ बोला गया ताकि उसके धर्म को बदनाम किया जा सके। यही हिन्दू यह भूल जाता है कि उसके दसियों भाइयों को कट्टरपंथियों की भीड़ ने लिंच किया है। हिन्दू यह भी भूल जाता है कि सैकड़ों साल पहले भी उसके मंदिर तोड़े जाते थे, आज भी हौज काजी समेत कई जगहों पर वही हो रहा है। हिन्दुओं को यह भी याद नहीं कि उनके काँवड़ यात्रा पर इस साल सावन के महीने में कितने जगहों पर पत्थरबाजी हुई है।
कट्टरपंथियों के बीच की हस्तियाँ अब मुस्लिम बन कर ही सामने आ रही हैं। उनके लिए इस्लाम ही एकमात्र पहचान है। उन्हें राजनैतिक विरोध प्रदर्शन में ‘नारा ए तकबीर’ और ‘हिन्दुओं से आजादी’ कहने में कोई समस्या नहीं दिख रही। मैं चाहता हूँ कि हिन्दू इस बात को बस दूर से देखे, दिमाग में बिठाए और अकेले में जा कर सोचे कि ये ‘सेकुलर’ शब्द जो है, उसका मतलब आखिर होता क्या है।