Wednesday, June 25, 2025
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मनोरमा यादव, नीलम यादव, ब्रजेश यादव… सारे सुनाते हैं कथा, सुनते हैं ब्राह्मण भी: इटावा की घटना में ‘जाति’ खोजने और टूट पड़ने की यह प्रवृत्ति सनातन के लिए भी खतरनाक

सनातन परंपरा में कथावाचन की कोई जातिगत सीमा नहीं। मोरारी बापू, मनोरमा यादव जैसे गैर-ब्राह्मण कथावाचक इसका उदाहरण हैं। फिर भी मामला राजनीतिक रंग ले चुका है।

उत्तर प्रदेश के इटावा की एक घटना ने सामाजिक और राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। यह मामला एक कथावाचक मुकुट मणि और उसके सहयोगियों के साथ हुई मारपीट, जातीय विवाद और छेड़छाड़ के आरोपों से शुरू हुआ, जो अब ब्राह्मण बनाम ओबीसी-दलित की तर्ज पर एक सामाजिक-राजनीतिक रंग ले चुका है। इस पूरे प्रकरण में कई आयाम हैं – जातिगत संवेदनशीलता, सोशल मीडिया पर त्वरित प्रतिक्रियाएँ और कथावाचक की शुचिता जैसे गंभीर मुद्दे।

इस लेख में हम इस मामले को विस्तार से समझेंगे। साथ ही यह भी देखेंगे कि सनातन परंपरा में कथावाचन को लेकर कोई जातिगत बाध्यता नहीं रही है। हम उन कथावाचकों के उदाहरण भी देंगे जो गैर-ब्राह्मण हैं। हम आपको इस मामले के जबरदस्त तरीके से वायरल होने के पीछे की वजह भी बताएँगे कि कैसे कुछ लोग बिना पूरा सच जाने ब्राह्मणों को निशाना बनाकर अपनी राजनीति चमकाने में लग जाते हैं।

इटावा का दांदरपुर से जुड़ा क्या है पूरा मामला

इटावा के बकेवर थाना क्षेत्र के दांदरपुर गाँव में 21 जून 2025 को श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन हुआ था। कथावाचक मुकुट मणि और उनके सहयोगी संत सिंह व्यास को एक ब्राह्मण परिवार ने कथा के लिए बुलाया था। आयोजक परिवार की महिला रेनू तिवारी और उनके पति जय प्रकाश तिवारी ने आरोप लगाया कि कथावाचक ने कथा के दौरान और बाद में अभद्र व्यवहार किया।

पीड़ित रेनू का दावा है कि कथावाचक ने कलश यात्रा के दौरान उनका हाथ गलत नियत से पकड़ा और जब इसका विरोध किया गया तो धमकी दी कि वे समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के रिश्तेदार हैं।

इसके बाद मामला और गंभीर हो गया जब यह सामने आया कि कथावाचक ने अपनी जाति छिपाई थी। उनके पास दो आधार कार्ड मिले, जिनमें से एक में वे खुद को ब्राह्मण (अग्निहोत्री) बता रहे थे। ग्रामीणों को उनकी वास्तविक जाति (यादव) का पता चलने पर विवाद बढ़ा और 22 जून की रात कुछ लोगों ने कथावाचकों के साथ मारपीट की, उनकी चोटी काटी और नाक रगड़वाने की घटना हुई। इस मामले में चार लोगों को गिरफ्तार किया गया और बकेवर थाने में दो नामजद और 50 अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ।

इस घटना ने स्थानीय स्तर पर सामाजिक तनाव पैदा कर दिया। ब्राह्मण महासभा ने इसे ब्राह्मणों के खिलाफ साजिश बताते हुए कथावाचकों पर कार्रवाई की माँग की, जबकि समाजवादी पार्टी और यादव महासभा ने इसे ब्राह्मणों द्वारा ओबीसी-दलित समुदाय के उत्पीड़न के रूप में पेश किया। सोशल मीडिया पर भी इस मामले ने तूल पकड़ा और कई लोगों ने बिना पूरा सच जाने ब्राह्मणों को निशाना बनाना शुरू कर दिया।

सनातन परंपरा में कथावाचक के साथ कोई जातिगत बंधन नहीं

सनातन धर्म में कथावाचन और भक्ति का कोई जातिगत बंधन नहीं रहा है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण महाभारत की ‘व्याध गीता’ है। इस कथा में एक शिकारी (व्याध) जो निम्न माने जाने वाले समुदाय से था, वो एक ब्राह्मण को कर्म और धर्म का उपदेश देता है। यह उपदेश भगवद्गीता जितना ही महत्वपूर्ण माना जाता है। सनातन परंपरा में ज्ञान, भक्ति और कथावाचन के लिए जाति कभी आड़े नहीं आई।

आधुनिक समय में भी कई गैर-ब्राह्मण कथावाचक हैं, जो समाज में सम्मानित हैं और जिनकी कथाओं में लाखों लोग शामिल होते हैं। इसे कुछ उदाहरणों से भी समझ सकते हैं –

मोरारी बापू: गुजरात के प्रसिद्ध कथावाचक मोरारी बापू बनिया समुदाय से हैं। उनकी रामचरितमानस की कथाएँ देश-विदेश में लाखों लोगों द्वारा सुनी जाती हैं। उनके भक्तों में हर वर्ग के लोग शामिल हैं और उनकी सादगी और विद्वता की कोई जातिगत सीमा नहीं है।

आचार्या मनोरमा सिंह यादव: उत्तर प्रदेश की यह कथावाचक श्रीमद्भागवत महापुराण और रामकथा कहती हैं। उनकी कथाओं के यूट्यूब वीडियो को लाखों लोग देखते हैं। यादव समुदाय से होने के बावजूद उन्हें हर वर्ग का सम्मान प्राप्त है।

नीलम यादव शास्त्री: यह भी एक लोकप्रिय कथावाचक हैं, जिनके भजन और कथाएँ विशेष रूप से महिलाओं के बीच लोकप्रिय हैं। उनकी कथाओं में भारी भीड़ होती है और वे भी गैर-ब्राह्मण हैं।

हेमराज सिंह यादव: कॉमेडी और भक्ति का अनूठा मिश्रण करने वाले इस कथावाचक के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल रहते हैं। उनकी कथाओं में भी हर वर्ग के लोग शामिल होते हैं। इसी तरह से मंजेश सिंह यादव भी मशहूर कथावाचक हैं।

डॉ. ब्रजेश यादव: बरेली के सर्जन डॉक्टर ब्रजेश यादव कथा वाचन के साथ-साथ रामचरितमानस की प्रतियाँ बाँटते हैं। वो नवजात शिशुओं के कानों में ‘रामभक्त बनना’ का संदेश देते हैं।

हनुमान प्रसाद पोद्दार: गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरितमानस की टीका इन्हीं की है, जो आज विश्व में सबसे अधिक पढ़ी जाती है। वे भी गैर-ब्राह्मण थे। हनुमान प्रसाद पोद्दार सनातन के रक्षक, प्रचारक थे, जिनकी वजह से सनातन संस्कृति आज विश्व के कोने कोने में है। उन्होंने सनातन विरोधियों चाहे वो जवाहरलाल नेहरू जैसे देश के ब्राह्मण प्रधानमंत्री ही क्यों न रहे हों, उन पर भी निशाना साधा और वो कभी सनातन की लड़ाई से पीछे नहीं हटे। हनुमान प्रसाद पोद्दार कभी कथावाचक नहीं रहे, बल्कि वो सनातन के रक्षक, प्रचारक और अग्रदूत थे।

ये उदाहरण साबित करते हैं कि सनातन परंपरा में कथावाचन का कोई जातिगत आधार नहीं है। गाँवों में भी अधिकांश मंदिरों के पुजारी गैर-ब्राह्मण समुदायों से हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुजारियों की कमी के कारण कोई भी व्यक्ति, जिसे धर्म में आस्था हो, मंदिर में पूजा-अर्चना कर सकता है। फिर भी कुछ लोग हर घटना को ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण के चश्मे से देखते हैं और सामाजिक तनाव को बढ़ावा देते हैं।

इटावा मामले को लेकर अखिलेश यादव की राजनीति

इटावा का यह मामला जल्द ही राजनीतिक रंग लेने लगा। समाजवादी पार्टी के नेताओं विशेष रूप से अखिलेश यादव ने इसे ब्राह्मणों द्वारा ओबीसी-दलित उत्पीड़न के रूप में पेश किया। सपा के जिलाध्यक्ष प्रदीप शाक्य ने ब्राह्मण महासभा के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि अगर कथावाचकों के खिलाफ कोई आपत्ति थी, तो पहले शिकायत क्यों नहीं की गई। दूसरी ओर ब्राह्मण महासभा के अध्यक्ष अरुण दुबे ने इसे ब्राह्मणों के खिलाफ साजिश करार दिया और कथावाचकों पर कार्रवाई की माँग की।

सोशल मीडिया पर भी इस मामले ने तूल पकड़ा। कुछ लोगों ने बिना पूरा सच जाने वीडियो और पोस्ट के जरिए ब्राह्मणों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। 10-15 मिनट में बनाए गए वीडियो और पोस्ट वायरल हो गए, जिनमें ब्राह्मणों को जातिवादी और उत्पीड़क बताया गया। यह प्रवृत्ति गंभीर है, क्योंकि यह न केवल सामाजिक तनाव को बढ़ाती है बल्कि सनातन परंपरा की एकता को भी कमजोर करती है।

ओडिशा का उदाहरण – गलत प्रचार और सवर्णों को निशाना बनाने का एक और नमूना

इटावा का मामला अकेला नहीं है। हाल ही में ओडिशा के रायगढ़ जिले के बैगानगोडा गाँव में एक अनुसूचित जनजाति (ST) परिवार के 40 सदस्यों का ‘शुद्धिकरण’ हुआ, क्योंकि उनकी एक युवती ने अनुसूचित जाति (SC) के लड़के से शादी कर ली थी। गाँव की पंचायत ने परिवार को सिर मुंडवाने और पशु बलि देने का आदेश दिया। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और कुछ लोगों ने इसे ‘मनुवादी वर्चस्व’ और ‘सवर्णों द्वारा उत्पीड़न’ बताकर ब्राह्मणों और सवर्णों पर हमला बोला।

हालाँकि, बाद में यह सामने आया कि यह अनुष्ठान परिवार ने अपनी मर्जी से जनजातीय परंपराओं के अनुसार किया था और इसमें किसी सवर्ण समुदाय की कोई भूमिका नहीं थी। फिर भी सोशल मीडिया पर कुछ हैंडल्स जैसे ‘ट्राइबल आर्मी’ व अन्य ने इसे सवर्णों और बीजेपी-आरएसएस के खिलाफ प्रचारित किया।

ऐसा ही अन्य हैंडल्स ने भी किया।

कुछ मीडिया पोर्टल जैसे ललनटॉप ने अपने हेडलाइन से लोगों को भ्रमित करने की कोशिश की।

यह घटना इस बात का उदाहरण है कि कैसे बिना तथ्यों की जाँच किए सवर्णों और खास तौर पर ब्राह्मणों को निशाना बनाया जाता है।

क्यों बनते हैं ब्राह्मण आसान निशाना?

ब्राह्मण समुदाय को बार-बार निशाना बनाए जाने के पीछे कई कारण हैं। पहला, ब्राह्मणों को सामाजिक और धार्मिक परंपराओं का प्रतीक माना जाता है, जिसके कारण कुछ लोग उन्हें “मनुवादी” या ‘जातिवादी’ बताकर आसानी से निशाना बना लेते हैं। दूसरा, ब्राह्मण समुदाय आमतौर पर ऐसी घटनाओं पर पलटवार नहीं करता या ‘पीड़ित’ की भूमिका में नहीं आता, जिससे कुछ लोग इसे उनकी कमजोरी मान लेते हैं। तीसरा – राजनीतिक दल और सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ लोग ऐसी घटनाओं को अपने निहित स्वार्थों के लिए भुनाते हैं।

इटावा मामले में समाजवादी पार्टी ने इसे हिंदुओं को तोड़ने और ब्राह्मणों को बदनाम करने का मौका बना लिया। अखिलेश यादव जैसे नेताओं ने बिना पूरा सच जाने इसे सामाजिक भेदभाव का रंग दे दिया। सोशल मीडिया पर भी कुछ लोग तुरंत वीडियो बनाकर ब्राह्मणों को कोसने लगे, बिना यह समझे कि कथावाचक ने खुद गलत व्यवहार किया था और अपनी जाति छिपाई थी।

कथावाचक की शुचिता और सामाजिक अपेक्षाएँ

कथावाचक का स्थान समाज में बहुत ऊँचा होता है। उनसे शुचिता, नैतिकता और सादगी की अपेक्षा की जाती है। इटावा मामले में कथावाचक मुकुट मणि पर छेड़छाड़ और धमकी देने जैसे गंभीर आरोप लगे हैं। इसके अलावा उनके पास फर्जी आधार कार्ड भी मिले। सोशल मीडिया पर तो दावा किया जा रहा है कि पहले आरोपित बौद्ध कथाएँ सुनाता था और फिर भागवत कथा करने लगा। इस तरह की उसकी पिछली गतिविधियों ने भी संदेह पैदा किया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या कथावाचक की शुचिता पर सवाल उठाना गलत है? और अगर कथावाचक गलत करता है तो क्या उसे उसकी जाति के आधार पर बचाव करना चाहिए?

सनातन परंपरा में कथावाचक का धर्म और आचरण सर्वोपरि होता है, न कि उसकी जाति। अगर कोई कथावाचक गलत करता है, तो उसकी आलोचना होनी चाहिए, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो। लेकिन इसे पूरे समुदाय पर हमला करने का मौका बनाना गलत है। इटावा मामले में कुछ लोगों ने इसे ब्राह्मणों के खिलाफ हथियार बनाया, जो न केवल अनुचित है बल्कि सामाजिक एकता के लिए भी हानिकारक है।

सच को समझने की जरूरत

इटावा का दांदरपुर मामला एक जटिल सामाजिक और कानूनी मुद्दा है, जिसमें मारपीट, छेड़छाड़, और जातिगत विवाद जैसे कई पहलू शामिल हैं। पुलिस ने इस मामले में चार लोगों को गिरफ्तार किया है, और एसएसपी ने दोनों पक्षों की बात सुनकर निष्पक्ष जाँच का आश्वासन दिया है। लेकिन इस मामले को ब्राह्मण बनाम ओबीसी-दलित के रूप में पेश करना और सोशल मीडिया पर त्वरित प्रतिक्रियाएँ देना सामाजिक तनाव को बढ़ाने का काम कर रहा है।

सनातन परंपरा में कथावाचन और भक्ति की कोई जातिगत सीमा नहीं है। मोरारी बापू, मनोरमा सिंह यादव, नीलम यादव और हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे गैर-ब्राह्मण विद्वानों-कथावाचकों ने यह साबित किया है कि भक्ति और ज्ञान का आधार आचरण और श्रद्धा है, न कि जाति। फिर भी कुछ लोग हर घटना को ब्राह्मणों के खिलाफ प्रचार करने का मौका बना लेते हैं, जो न केवल गलत है बल्कि हिंदू समाज की एकता को भी कमजोर करता है।

इस मामले में कानून को अपना काम करना चाहिए। मारपीट और छेड़छाड़ जैसे गंभीर आरोपों की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए और दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही समाज को भी यह समझना होगा कि बिना पूरा सच जाने त्वरित प्रतिक्रियाएँ देना और किसी एक समुदाय को निशाना बनाना न केवल अनुचित है, बल्कि खतरनाक भी है। हमें ऐसी राजनीति और प्रचार से बचना होगा जो समाज को बाँटने का काम करती है।

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श्रवण शुक्ल
श्रवण शुक्ल
I am Shravan Kumar Shukla, known as ePatrakaar, a multimedia journalist deeply passionate about digital media. Since 2010, I’ve been actively engaged in journalism, working across diverse platforms including agencies, news channels, and print publications. My understanding of social media strengthens my ability to thrive in the digital space. Above all, ground reporting is closest to my heart and remains my preferred way of working. explore ground reporting digital journalism trends more personal tone.

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