Saturday, October 5, 2024
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मुनव्वर फारूकी जैसी ‘कॉमेडी कौम’ के बीच नए हिन्दू का असहिष्णु होना कितना आवश्यक है?

'कॉमेडियन कौम' का पूरा कॉन्टेंट हिन्दुओं को और उनके धर्म को इन्सान से, इंसानियत से दोयम दर्जे पर धकेलने की दिशा में होता है, यह 'डीह्यूमनाइज़िंग' है।

मेरे घर में एक बार एक छोटे-से बच्चे को बेवजह, बात-बात पर गुस्सा आने लगा था, वह चिड़चिड़ा होने लगा। कहाँ वह हंसी-मजाक करने वालों को अपनी टॉफ़ी पकड़ा देता, उनके साथ बाकी की अपेक्षा और ज़्यादा खेलता था, और कहाँ इतना ‘इनटॉलरेंट’ हो गया कि हर किसी पर बिफ़र उठता! कोई उसके साथ खेलने आए तो दहाड़ें मार-मार कर चीखने लगता।

बच्चे के इस व्यवहार से हैरान-परेशान उसके माँ-बाप उसे एक बाल मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। पता चला कि वह बच्चा ‘चाइल्ड अब्यूज़’ और ‘पीयर अब्यूज़’ का शिकार था। उसके साथ खेलने के बहाने आने वाले बच्चों में से कुत्सित मानसिकता के शिकार, गलत संस्कारों में पले-बढ़े कुछ बच्चे (और कुछ बड़े लोग भी) उसके माँ-बाप की नज़रें बचा कर उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगे थे। वो कभी उसके कान मरोड़ते, तो कभी उसे मारते थे, उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ देते थे और डराते थे।

धीरे-धीरे ऐसे ही उस बच्चे का स्वभाव बदलता चला गया। मनोवैज्ञानिक ने बताया कि यदि समय पर इस बच्चे की समस्या का पता न चलता, तो बड़ा होकर ये या तो एकदम ही भीरु और कायर बन जाता, या अति-हिंसक, असहिष्णु वयस्क बन जाता, जिसकी बर्दाश्त करने की क्षमता नगण्य नहीं अपितु एकदम शून्य होती। आज का ‘असहिष्णु’ हिन्दू समाज, आज का नया हिन्दू बारह सौ साल के अनवरत शोषण से कुपित वही वयस्क बनकर उभरा है।

कथित कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूकी के साथ जो हिंसा हुई, वह ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के हर समर्थक के लिए सैद्धांतिक तौर पर जितनी दुखद है, ईमानदारी से अपने दिल के अंदर झाँकने पर उतनी ही अवश्यम्भावी लगेगी। ‘गंगाजल’ फिल्म के साइड विलेन डीएसपी भूरेलाल की ज़ुबानी बोलें तो, “ई तो साला होना ही था।”

क्यों होना था? क्योंकि आज का हिन्दू सामाजिक रूप से पूरी तरह से टूट चुका है। वह केवल चिड़चिड़ा या डरा हुआ नहीं है, बल्कि एक अँधेरे नैराश्य के काले सागर में गोते लगा रहा है। उसके लिए ‘कानून का राज’, ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’, ‘सर्व-धर्म-समभाव’, ‘सहिष्णुता’ आदि कोरी लफ्फाज़ी उतनी ही बेमानी है, जितनी एक डूब रहे आदमी के लिए कागज़ की नाव! वह भी उस देश में, जो उसी के विज्ञान, योग, गणित, भाषाशास्त्र, नृत्य आदि को बेच कर दुनिया के इतिहास में अपनी कॉलर ऊँची करता रहा है।

फिर वही बात- क्योंकि तुम सुनते ही नहीं

यह बात हज़ार बार कही जा चुकी ज़रूर है, पर चूँकि इस देश के हुक्मरानों के कान में जूँ रेंगने का नाम ही नहीं लेती, इसलिए इसे एक करोड़ बार और दोहराए जाने की ज़रूरत है- आखिर इस देश के सारे नियम-कानून, सारे नैतिक मापदण्ड केवल हिन्दुओं के लिए ही क्यों हैं? क्यों मुस्लिमों के हजरत को अपशब्द बोलने पर कमलेश तिवारी को न्यायपालिका से लेकर अपने ऑफिस तक हर जगह खमियाजा भुगतना पड़ता है, लेकिन ‘सेक्सी दुर्गा’ फिल्म बनाने वालों के लिए वही कानून, वही समाजशास्त्र सन्नाटा अपना लेते हैं?

क्यों जिहादियों की एक भीड़ मालदा में घंटों ISIS के राज जैसा माहौल बना कर भी गोलियों का शिकार नहीं होती, लेकिन ज़ाफ़राबाद की सड़क खाली कराने के लिए धरने की बात सुनते ही दिल्ली में दंगा भड़क जाता है? क्यों लव जिहाद पर पर्दा डालते ‘एकत्वं’ का इश्तेहार बनाकर ‘सेक्युलर’ का तमगा लूटने वाली ‘तनिष्क’ की यह हिम्मत नहीं पड़ती कि एक इश्तेहार ऐसा भी दिखा दे, जहाँ एक हिन्दू लड़का किसी मुस्लिम लड़की के साथ ‘वही सब’ कर रहा है, और ‘हिन्दू फ़ासिस्टों’ को गलत साबित कर दे?

हिन्दू आखिर जाए कहाँ?

एक आम हिन्दू हर ओर तो अपने दुश्मन ही पाता है- उसकी तरफ़ से कौन खड़ा है? हिंदूवादी सरकार के राज में बंगाल और कश्मीर से लेकर राजधानी दिल्ली तक वह कट रहा है- कभी दिल्ली दंगों में अंकित शर्मा के नाम से, कभी प्रेमिका के मुस्लिम होने के अपराध में अंकित सक्सेना के नाम से। कभी कश्मीर में सतपाल निश्चल के नाम से कश्मीर का डोमिसाइल बनने पर सज़ा-ए-मौत मिलती है, कभी तमिलनाडु में रामलिंगम नाम से वह हिंदुत्व को गाली देने वाले मजहबी प्रचारकों के हाथों जिबह होता है- केरल और बंगाल में तो आत्मसम्मानी हिन्दू की शायद इंसानों में गिनती ही नहीं होती। और जानवर तो वहाँ ‘वाजिब-उल-क़त्ल’ हैं ही।

मीडिया भी इतने सब के बावजूद ‘देश में बढ़ता हिन्दू आतंकवाद’ पर घंटों के सेमिनार करता है, और कट्टरपंथियों के हाथों हिन्दुओं के कत्ल की खबर नीचे की पट्टी में ‘समुदाय विशेष’ के नाम से आती है।

यह सन्नाटा ‘ब्लैक कॉमेडी’ है

दिल्ली का चर्च बांग्लादेशी मुस्लिमों के हाथों तोड़े जाने पर हिन्दुओं को गाली देने वाली वही ‘स्टैंण्डअप कॉमेडियन’ कौम श्रीराम और भगवान सुब्रमण्यम/कार्तिकेय के मूर्तिभंजन पर मौन रहती है। हिन्दुओं के देवी-देवता, वैध परम्पराएँ भी इनके लिए ‘मैटेरियल’ तो हैं, लेकिन ‘मैटेरियल’ देने वालों के लिए इनके दिल में न ही हमदर्दी है न ही इंसानियत।

नागरिकता कानून (CAA) के ज़रिए सरकार ने जब चंद शरणार्थी, पाकिस्तानी मुस्लिमों के हाथों बलात्कार, अपहरण, लूट, बर्बरता, धर्मांतरण का शिकार होते आ रहे हिन्दुओं को मदद देने का एक कदम उठाया, तो इस ‘कॉमेडी कौम’ ने समुदाय विशेष के साथ मिलकर पूरे देश में आग लगा दी, राजधानी में सामूहिक हत्याकाण्ड के षड्यंत्र रचे और हिन्दुओं के खिलाफ एक किस्म का जिहाद छेड़ दिया गया। इस पर कलाबाजी ये, कि इस हत्याकांड का ठीकरा आँकड़ों की बाज़ीगरी के ज़रिए उसी समूह पर थोप दिया, जो इसका भुक्तभोगी था।

हिन्दू इनके लिए इंसान ही नहीं

हिन्दुओं से यह ‘कॉमेडी कौम’ और इसके अन्य साथी कितनी घृणा करते हैं, इसी का उदाहरण था AMU से निकले शरजील उस्मानी का वह ट्वीट, जिसमें वह सीएए शरणार्थियों की ही तरह इस देश में दर-दर की ठोकरें खाने वाले, 5 लाख लोगों को गँवाने वाले कश्मीरी पण्डितों को ‘पैम्पर्ड माइनोरिटी’ कहता है।

जैसा कि सोशल मीडिया में कई लोगों ने कहा, यह बोल हिन्दुओं से आसुरी वृत्ति तक की नफ़रत की पैदाइश थे। उस्मानी जैसों को ही अपना नेता मानने वाले समुदाय विशेष के समुदाय अधिसंख्य के लिए ‘काफ़िर’ तो इंसान ही नहीं है। यह ऐसा ही है, जैसे पौराणिक क्रूर दैत्यों के लिए मानव पशु-समान थे।

भूमिका ज़रूरी है

लेख में यदि आप यहाँ तक आ गए हैं तो बहुत मुमकिन है आपको लग रहा हो कि बिलावजह की लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधी जा रही है। आप सही भी हैं, और गलत भी। ‘पॉडकास्ट’ की भाषा में बोलें तो ‘यस एंड नो’।

ऊपर की बातें भूमिका अवश्य हैं, पर बिलावजह या नाहक नहीं। इसलिए नहीं क्योंकि हर बार जब हिन्दू हितों और हिन्दू समस्याओं की बात होती है तो हिन्दुओं को 1200 साल के हत्या, बलात्कार, और लूट का लेखा-जोखा देना ही पड़ता है। उसके बिना कोई हिन्दुओं को पीड़ित मानने को तैयार ही नहीं होता।

या तो विभाजन के समय एक बार हुए ‘बराबरी’*** के दंगों के आधार पर 1200 साल का हिन्दुओं का दर्द और मुस्लिमों की स्व-पोषित शिकायतों को एक समान कर दिया जाता है, या फिर पूरी बात ही घुमा कर, हिन्दुओं को अम्बानी और सत्या नडेला दिखा कर पूछा जाता है कि अगर दुनिया भर की ताकतें हिन्दू-विरोधी होतीं तो क्या ये लोग वहाँ पहुँच पाते जहाँ हैं!

हम खुद ही पुरानी बातों को छोड़ कर अभी की, वर्तमान की समस्याओं पर बात करना चाहते हैं- क्यों संविधान में केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा जायज़ है? क्यों देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी ‘अल्पसंख्यक’ की मलाई काट रही है? क्यों सचिव पद पर बैठे ब्राह्मणों की बात करना ‘प्रोग्रेसिव’ है, जबकि यकायक समुदाय विशेष की यूपीएससी में बढ़ती तादाद की ओर ध्यान आकर्षित करना साम्प्रदायिक और हेट स्पीच?

हम खुद ही मुगलों की बात छेड़ने के बजाय उनकी जगह डॉ कलाम और कवि रसखान और अय्यप्पा के मुस्लिम भक्त वावर के नाम पर पुतले और राजमार्ग करना चाहते हैं। लेकिन हमें ऐसा करने से रोकने वालों से अग्रिम पंक्ति में यही कॉमेडियन कौम है।

हवा में नहीं पनपती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

कथित कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूकी पर लौटें तो यद्यपि इसमें कोई दोराय नहीं कि उस पर हुआ हमला और उस पर हुई कार्रवाई, दोनों ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि यह ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ ऐसी नाज़ुक चीज़ है जिसके अक्षुण्ण रहने के लिए कुछ मूलभूत चीज़ें पहले आवश्यक होतीं हैं।

पहली बात यह कि इसके लिए सम्पूर्ण समाज का, और खासकर कि बहुसंख्यक तबके का उस सरकार, संविधान और व्यवस्था में विश्वास बने रहना ज़रूरी है, जो कि इस स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं। क्या कॉमेडियन कौम से लेकर न्यायपालिका, पुलिस से लेकर मीडिया और बौद्धिक वर्ग तक हमारी सामाजिक व्यवस्था का एक भी अंग दिल पर हाथ रखकर कह सकता है कि उसके यहाँ हिन्दुओं के साथ, उनके आत्मसम्मान के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं होता?

ऐसे में, हिन्दू कैसे भरोसा करे कि वह अगर मुनव्वर फ़ारूकी के साथ हाथापाई की बजाय शांतिपूर्वक उसके ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करेगा, तो उस पर न्यायोचित कार्रवाई होगी?
दूसरी चीज़, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए चाहिए, वह है इसका सदुपयोग।

लोगों को बुरी लगने वाली बातें कहने वाले की अपनी छवि ऐसी होनी चाहिए कि लोगों को यह विश्वास रहे कि यह बात दुर्भावनापूर्वक नहीं कही जा रही। मुनव्वर फ़ारूकी के ही समकालीन और हमकौम, मजहबी कॉमेडियंस में भी और कॉमेडियन कौम में भी, एक दूसरे जनाब हैं अहमद शैरिफ़!

अहमद शैरिफ़ भी हिन्दुओं के मज़े लेते हैं, हिन्दुओं के धर्म पर भी चुटकुले बनाते हैं, लेकिन उन्हें अब तक ऐसी प्रतिक्रिया नहीं झेलनी पड़ी। बल्कि उनके पेज और फ़ेसबुक प्रोफाइल पर हिन्दू ज़्यादा और उनके मजहब के लोग कम ही होते हैं। मज़ाक भी सीधे-सीधे ‘हिन्दू-मुस्लिम’ नाम लेकर होता है। क्यों? क्योंकि (कम-से-कम अब तक) अहमद शैरिफ़ के चुटकुलों में मज़हबी दुर्भावना नहीं आई है।

इसी के उलट, हिन्दू नाम वाले कुणाल कामरा से नफ़रत न करने वाला कोई भी आत्मसम्मानी हिन्दू तलाशना मुश्किल नहीं, शायद नामुमकिन है।

सम्मान ही नहीं, अपमान में भी अग्रणी रहा है हिन्दू

हिन्दू समाज हमेशा से अपमान, निंदा, और आलोचना को लेकर सहिष्णु ही नहीं, स्वागत मुद्रा में रहा है। श्रीराम के दरबार में नास्तिक, चार्वाक सत्यकाम जाबालि मंत्री ही नहीं थे बल्कि उन्हें मुनि की पदवी से भी जाना जाता है। वे वनवास से न डिगने पर उद्यत राम से कहते हैं कि वे (राम) नाहक ही उस पिता के पीछे जीवन नष्ट कर रहे हैं, जिनका अब (मृत्योपरांत) कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। राम विचलित और क्रुद्ध अवश्य होते हैं, लेकिन उन्हें दंडित नहीं करते।

शिशुपाल का वध भी श्रीकृष्ण ने इसलिए किया क्योंकि वह दूसरे राजा के यज्ञ में घुस कर अपशब्द बक रहा था और विघ्न पैदा कर रहा था, न कि महज़ इसलिए कि उसने श्रीकृष्ण का अपमान किया।

चाणक्य से लेकर भीष्म और (मृत्युशैया पर दिए गए उपदेश में) रावण तक कदाचित् हर राजनीतिक पंडित ने आलोचकों की रक्षा को राजधर्म का अंग माना है। लोकतंत्र में जनता राजा है तो यह जनता का भी उत्तरदायित्व है।

कबीरदास जी ने भी कहा है-

“निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाए
बिन पानी, बिन साबुन, निर्मल करे सुभाय”

लेकिन जैसा की ऊपर वर्णित है, बोलने वाले का अधिकार और सुनने वाले का कर्त्तव्य, बहुत नाज़ुक परिस्थितयों की पूर्ति की शर्तों पर ही आधारित होते हैं। वर्तमान कॉमेडियन कौम इस कसौटी पर न केवल खरी नहीं उतरती, बल्कि वह उसके आसपास भी नहीं फटकती।

कॉमेडियन कौम का पूरा कॉन्टेंट हिन्दुओं को, और उनके धर्म को इन्सान से, इंसानियत से दोयम दर्जे पर धकेलने की दिशा में होता है, यह ‘डीह्यूमनाइज़िंग’ है। और इतिहास से लेकर मानव स्वभाव तक के जानकार यह जानते हैं कि किसी समाज को इन्सान होने से ही वंचित करना, दोयम दर्ज़े की ओर धकेलना लोमहर्षक सामूहिक हत्याकाण्ड की दिशा में पहला कदम मात्र होता है। हिटलर, स्टॅलिन, माओ, पोल पोट सबने यही किया। आसमानी किताब भी काफ़िरों को लेकर इसी दिशा में हुक्म जारी करती है।

हिन्दू वो लोग हैं, जिनके स्वस्थ धार्मिक वाद-विवाद में ‘तुम्हारे वेद तो बिना ज़हर के साँप हैं’ भी सह्य होता है। लेकिन हम ही वे लोग भी हैं, जहाँ अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने यज्ञ में बाधा उत्पन्न करने वाले शिशुपाल को दंडित भी किया जाता है। आज हम उद्वेलित हैं क्योंकि सरकार, राजनीतिक पार्टियों, कानून की चौखट से लेकर निजी कम्पनियों के स्व-अंकुश और ‘सोशल मीडिया गाइडलाइंस’ तक, हर जगह से हमें दुत्कारा जा रहा है, ठगा गया है। घायल जानवर कभी-न-कभी भागने की राह न पाकर जान बचाने के लिए शिकारी पर ही झपट पड़ता है, यह हमें जानवरों की श्रेणी में डालने वालों को याद रखना चाहिए।

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