बांग्लादेश में प्रधानमंत्री शेख हसीना के तख्तापलट के बाद इस्लामी कट्टरपंथ जोरों पर है। मोहम्मद यूनुस की सरकार में कठमुल्लों को देश भर खुली छूट मिल गई है। बांग्लादेश में अब महिलाओं का निकलना दूभर हो रहा है, उन्हें खेलों में आने से रोका जा रहा है। उनके खेलों पर हमले हो रहे हैं।
ईशनिंदा क़ानून को कोर्ट के सहारे और धार दी जा रही है। इसके तहत साहित्य लिखने वालों को उठाया जा रहा है। बांग्लादेश में कट्टरपंथ का प्रभाव सिर्फ सड़कों पर ही नहीं बल्कि सत्ता में बैठने वालों पर भी है। देश के संविधान को भी बदला जाने वाला है।
कट्टरपंथ का पहला शिकार महिलाएँ
बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ का सबसे पहला शिकार महिलाएँ बनी हैं। हाल ही में बांग्लादेश में दिनाजपुर और और जॉयपुरहाट में महिलाओं के फुटबॉल मैच पर कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया। इस हमले में मदरसे के छात्र शामिल थे।
इनके हमले के चलते फुटबॉल खेलने वाली लडकियाँ भाग कर दूसरी जगह शरण लेने को मजबूर हो गईं। इन हमलावरों ने स्टेडियम में तोड़फोड़ भी की थी। मदरसे के छात्रों और बाकी मुस्लिमों का कहना था कि फुटबॉल समेत बाकी खेलों से महिलाएँ बेपर्दा होती हैं। ऐसे में उन्हें खेलने से रोका जाना चाहिए।
बेपर्दा वाली दलील कुछ-कुछ तालिबान जैसी है, तालिबान ने भी अफगानिस्तान में महिलाओं के खेलने-पढ़ने समेत बाहर निकलने पर भी प्रतिबन्ध लगा रखा है। आशंका है कि बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान का अनुसरण करेंगे।
साहित्य पर भी बंदिशें
बांग्लादेश में यह बढ़ता कट्टरपंथ सिर्फ खेलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह साहित्य तक भी जा पहुँचा है। 13 फरवरी, 2025 को बांग्लादेश में एक कवि सोहेल हसन ग़ालिब को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। ग़ालिब ने इस्लामी कट्टरपंथी संगठन ‘तौहीदी जनता’ के विरुद्ध एक कविता लिखी थी।
सोहेल हसन ग़ालिब पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने इस्लाम की ईशनिंदा की है। उनसे पुलिस ने घटों तक पूछताछ की और फिर कोर्ट ने भी उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया। कट्टरपंथ का ही शिकार ढाका में आयोजित होने वाला एक पुस्तक मेला हुआ जहाँ मदरसे के छात्रों ने एक किताब स्टाल पर हमला बोल दिया और तोड़फोड़ कर दी।
इसी पुस्तक मेले में महिलाओं के सेनेटरी पैड बेच रहे एक स्टाल को बंद करवा दिया गया। यहाँ तक कि प्रेम का त्यौहार भी वैलेंटाइन डे इस्लामी कट्टरपंथियों की वक्रदृष्टि से नहीं बचा। अपनी आलोचना से क्रुद्ध होकर कवि को गिरफ्तार करवाने वाली तौहीदी जनता के लोगों ने वैलेंटाइन डे पर फूल, गिफ्ट समेत तमाम ऐसी ही दुकानों पर हमला किया।
यह कुछ-कुछ 2008 में इस्लामाबाद के लाल मस्जिद कांड जैसा है। इस्लामाबाद की लाल मस्जिद से निकल कर कट्टरपंथी बुरका न पहनने वाली महिलाओं और दाढ़ी ना रखने वाले पुरुषों पर हमला बोलते थे। इसमें महिलाएँ तक शामिल थीं। लगता है, बांग्लादेश ही इसी राह पर चल पड़ा है।
अल्पसंख्यकों का बुरा हाल
बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ का सबसे बड़ा शिकार अल्पसंख्यक हिन्दू और बाकी समुदाय हैं। हिन्दू सबसे ज्यादा निशाने पर हैं। कई परिवार बांग्लादेश छोड़ कर भारत आ चुके हैं। बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के पतन के तीन दिन के भीतर ही 200 से अधिक हमले हिन्दू मंदिरों और दुकानों पर हमला हो गया था।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने 7 फरवरी, 2025 को संसद में एक जवाब में बताया था कि अगस्त, 2024 के बाद से बांग्लादेश में 1200 से अधिक घटनाएँ अल्पसंख्यकों पर हमले की सामने आ चुकी हैं। इनमें 150 से अधिक मंदिरों पर हमले की घटनाएँ शामिल हैं।
बांग्लादेश में कई शहरों में हिन्दू बस्तियों में आग लगाने तक की घटनाएँ सामने आ चुकी हैं। मामला सिर्फ हिन्दुओं पर हमले तक सीमित नहीं है। बांग्लादेश में जबरदस्ती हिन्दू शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों को उनके पदों से इस्तीफ़ा देने को इस्लामी कट्टरपंथी मजबूर कर रहे हैं।
कई जगह रेस्टोरेंट और ढाबों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह गोमांस बेचें। आवामी लीग की सरकार में सांसद और मंत्री रहे हिन्दू नेता भी इस प्रताड़ना के दायरे में हैं। बांग्लादेश की यूनुस सरकार इन सब पर चुप है। वह ऐसे तत्वों पर कार्रवाई करने से लगातार बचती रही है।
संविधान बदलने की तैयारी
बांग्लादेश में इस इस्लामी कट्टरपंथ को कानूनी अमलीजामा पहनाने की तैयारी है। बांग्लादेश के अटॉर्नी जनरल असदुज्ज्माँ ने बीते कुछ महीनों पहले एक सुनवाई में कोर्ट के सामने कहा था कि संविधान से सेक्युलर शब्द हटाया जाना चाहिए।
असदुज्ज्माँ ने कहा, “हम चाहते हैं कि संविधान से ‘सेक्युलर’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटा दिए जाएँ… ‘समाजवाद’ नहीं, बल्कि ‘लोकतंत्र’ राज्य की नीति का मूल सिद्धांत हो सकता है।” बांग्लादेश में सेक्युलर शब्द शेख हसीना ने संविधान में 2011 में जोड़ा था।
शेख हसीना की सत्ता हटाने में भी इस्लामी कट्टरपंथियों का बड़ा हाथ था, ऐसे में वह यूनुस के दौर में खुली छूट पा चुके हैं। बांग्लादेश में दशकों से जिस कट्टरपंथ का विरोध हो रहा था, अब वह मदरसों से बाहर आ चुका है और उसका असर सड़कों पर भी दिखने लगा है। हो सकता है आने वाले सालों में बांग्लादेश की पहचान भी बदल जाए।