Friday, November 22, 2024
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‘पिंजरा तोड़’: वामपंथनों का गिरोह जिसकी भूमिका दिल्ली दंगों में है; ऐसे बर्बाद किया DU कैम्पस, जानिए सब कुछ

हॉस्टल के तालों को खुलवाने की मुहिम आखिर दिल्ली के दंगों में अपनी भूमिका कैसे पा जाती है? वामपंथियों ने दिल्ली विश्वविद्यालय को बर्बाद करने की योजना में 'पिंजरा तोड़' को कुछ इस तरह से फिट किया।

‘पिंजरा तोड़’ मुहिम वामपंथी नौटंकी का वही फर्जीवाड़ा थी (और है) जो कोई भी वामपंथी मुहिम होती है। कुछ लोग, जिनके पेट भरे हुए हैं, जिन्हें सामाजिक समसामयिकता और भेदभाव झेलना नहीं पड़ता, वो एक बेकार-सी बात को एवरेस्ट की दुर्गम चढ़ाई की तरह बता कर, अंग्रेजी के तमाम विशेषणों का प्रयोग कर के (जो उनकी जानकारी में है, और जो वामपंथियों की पॉकेटबुक में वर्णित हों) जनसामान्य के लिए ऐसे रखते हैं, जैसे यह न हुआ तो सृष्टि का अंत तय है।

हॉस्टल की लड़कियों द्वारा इसकी शुरुआत हुई दिल्ली विश्वविद्यालय के कैम्पस में, जहाँ आम तौर पर जेएनयू ब्रीड की सड़ी हुई ‘सर्वहारा को चूसने’ वाली पॉलिटिक्स काम नहीं करती। जी, जेएनयू में सर्वहारा का अलग तरह से शोषण होता है। यह शोषण वैचारिक है, जिससे वहाँ के वामपंथियों को एक सर्वकालिक विषय मिला रहता है, जिसकी मदद से वो सर्वहारा/गरीब/वंचित/शोषित (सारे पर्यावाची शब्द) को कोई न्याय नहीं दिलाते।

न्याय दिलाना लक्ष्य भी नहीं होता। लक्ष्य होता है इनकी बातें कर के मीडिया में थोड़ी-सी कवरेज पा लेना। उसी तर्ज पर, दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में एक चौथाई से ले कर आधी सीट तक के लिए तरसता वामपंथ, एक परजीवी की तरह नकली मुद्दे उठाते हुए चर्चा का हिस्सा बनना चाह रहा था। इसी तर्ज पर आपको रामजस में टुकड़े-टुकड़े गैंग के ‘राष्ट्रद्रोही’ उमर खालिद के भाषण वाली बात याद होगी, जब नॉर्थ कैम्पस में वामपंथियों ने रॉड, डंडे और पत्थर से हमला करते हुए दंगा किया था।

साथ ही, आपको यह बात भी याद होगी कि उसी आयोजन में ‘केरल माँगे आजादी’, ‘पंजाब माँगे आजादी’ के भी नारे लगे थे। वो एक तरह से टेस्टिंग चल रही थी कि यहाँ का पानी कैसा है। डीयू में वामपंथियों को कोई चारा नहीं देता, गाली सुनते हैं और सीट को उँगलियों पर गिनते हैं। जेएनयू का कचरा वामपंथ डीयू में, जो कि वाकई देश की एक प्रतिनिधि जनसंख्या है, अपने पर पसारना चाह रहा था लेकिन वो राजनैतिक तौर पर संभव नहीं था।

यहाँ के वामपंथी शिक्षक भी, मेरे निजी अनुभव से, ऐसे-ऐसे दोगली वैचारिक प्रवृत्ति के हैं कि हँसी आती है। इन्हें आप कैम्पस में बीड़ी और लाल चाय पीते पाएँगे, लेकिन पार्टी में मार्लबोरो और कॉफी। ये दोनों ही चीजें, हमारे समय में (2004-07) हर स्टाफ रूम में उपलब्ध होती थीं, लेकिन दोगला वामपंथ सार्वजनिक तौर पर सर्वहारा की बात करने वाले इन नौटंकीबाज शिक्षकों को सिगरेट पीने की इजाज़त नहीं देता।

ख़ैर, मोदी के पहले और दूसरे कार्यकाल से ही डीयू कैम्पस में अलग वैचारिक ‘क्रांति’ की शुरुआत हो चुकी थी और स्कूल मॉनिटरों के चुनाव में वामपंथियों के भतीजों की जीत को ‘देश के युवाओं की आवाज’ बता कर नाचने वाले लम्पटों को एक नया उद्योग मिल गया। अब शैक्षणिक संस्थानों में मोदी सरकार ने शिक्षकों की आवाजाही, उपस्थिति रजिस्टर आदि का भी काम गम्भीरता से करना शुरु कर दिया तो निकम्मे वामपंथी मास्टरों को यह बात पची नहीं।

फिर खुल कर विरोध का दौर आ गया और व्हाट्सएप के ग्रुपों में शिक्षक इन बच्चों को विष की दो-दो बूँदे हर रोज पिलाने लगे। आप देखिएगा कि डीयू के शिक्षकों ने फेसबुक पर लेखन कब से शुरु किया है। 2017-18 के बाद से कैम्पस पॉलिटिक्स के लिए ही कैम्पस चर्चा में रहा क्योंकि जेएनयू और जामिया के बच्चे अब ‘सेमिनार’ के बहाने भीड़ की शक्ल में आर्ट्स फैकल्टी से ले कर नॉर्थ कैम्पस के तमाम जगहों पर आने-जाने लगे।

अब यह बाइनरी स्थापित हो चुकी थी और वैसे विद्यार्थियों को निशाना बनाया जाने लगा जो गैर-वामपंथी थे। उनका उपहास करना, उन्हें जबरन यूनिवर्सिटी या कॉलेज की समितियों से इस्तीफा दिलवाना, मानसिक प्रताड़ना देना आदि आम हो चुका था। हाल ही में हिन्दू कॉलेज की दीपिका शर्मा चर्चा में आई थीं जब उन्होंने कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार की बरसी पर एक पत्र पढ़ना चाहा और उन्हें कैम्पस के गुंडों ने शोर मचा कर शांत करना चाहा।

आप इनके पोस्टों को, पोस्टरों को देखेंगे तो पाएँगे कि इनके पास वही चार घिसे-पिटे नारे हैं जिसमें ‘आजादी’, ‘तेरे अरमानों को’, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे’, ‘सब बुत उठवाए जाएँगे’ आदि होते हैं। इनमें इस साल का नयापन यह रहा कि इन्होंने ‘*** के ख़िलाफ़, औरतों का इंक़लाब’ खूब चलाया। ये सब भी बताता है कि वामपंथियों ने इन लड़कियों को अपना मोहरा बनाया ताकि वो हर कैम्पस में अपनी एक भीड़ तैयार रखें जो एक व्हाट्सएप मैसेज पा कर झोला उठा कर सड़क पर आ जाए।

‘पिंजरा तोड़’ की नौटंकी है क्या?

इसी सब की तर्ज पर कुछ लड़कियों ने ‘पिंजरा तोड़‘ की स्थापना की। उद्देश्य था ‘अंग्रेजी के भारी भरकम शब्दों के प्रयोग से क्रांति कर देना’। जी, उद्देश्य बिलकुल यही प्रतीत होता है क्योंकि जिन बातों को इन लड़कियों ने सबसे बड़े मुद्दे बना कर सोशल मीडिया पर, जॉन एलिया के गर्दन झटकने की गति से सत्रह गुणा तीव्रता से बालों को आवेशित रूप में लहराया है, वो सारे काम आज तक की वीरांगनाओं ने एक आवेदन लिख कर पा लिया था।

मुद्दों पर गौर कीजिए: कन्या छात्रावासों में आने-जाने की समय सीमा बदलवाने की बात, वाई-फाई लगवाने की बात, नल ठीक करने की बात, मेस के भोजन की बात… मतलब आम समस्याएँ जो एक छात्रा अपने हॉस्टल में, और एक छात्र अपने हॉस्टल में, झेलता है: समय की पाबंदी वाली बात के अलावा।

प्रश्न यह है कि हॉस्टल के गेट क्यों बंद कर लिए जाते हैं? ‘पिंजरा तोड़’ छात्राओं का कहना है कि उन्हें ‘पितृसत्ता, फासीवादी ताकतों, जहरीली मर्दानगी के जोश, हिन्दू राष्ट्र’ से आजादी चाहिए। यहाँ भी समस्या नहीं है। समस्या इस बात में है कि यही ‘पिंजरा तोड़’ कन्या समूह अपने कई फेसबुक पोस्टों में यह स्वीकारता है कि दिल्ली की सड़कें लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं हैं।

हॉस्टल के गेट किसी की आजादी को खत्म करने के लिए बंद नहीं किए जाते, बल्कि समाज की घटिया स्थिति को देखते हुए, जहाँ मर्दों का एक गिरोह हर लड़की को घूरने, छूने, मोलेस्ट करने, और बलात्कार करने की फिराक में रहता है, उनकी सुरक्षा हेतु बचाव में उठाया गया एक कदम है। लड़कियाँ हॉस्टल क्यों चुनती हैं? क्योंकि उन्हें लगता है कि बाहर किसी रेंट वाले मकान में रहने से बेहतर कैम्पस के सुरक्षित माहौल में रहना है।

अधिकतर लड़कियों के माता-पिता भी इसी कारण उन्हें हॉस्टलों में रखना चाहते हैं। आजादी की बात करना सही है, मिलनी भी चाहिए, लेकिन क्या हम अपने ही बेहूदे समाज की स्थिति को नकार दें, जहाँ घर से कॉलेज/कार्यालय पहुँचती युवती को पचास बार उसकी कमर और छाती पर किसी हरामखोर लड़के या अधेड़ का अनचाहा स्पर्श मिलता है?

आठ बजे तक हॉस्टल की गेट पर ताला लगना सुरक्षा है, स्वतंत्रता का हनन नहीं। आपको स्वतंत्रता चाहिए तो आप अपने माता-पिता से इजाजत लीजिए और हॉस्टल के बाहर रहिए। आप अपनी जिद के कारण बाकी हर उस लड़की को खतरे में नहीं डाल सकती जो यहाँ पढ़ने आई हैं न कि वामपंथ की कुत्सित राजनीति का हिस्सा बनने। सुरक्षा के विषय पर आगे और भी चर्चा होगी।

कुल मिला कर यह मुहिम सोशल मीडिया पर बेकार के मुद्दों को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना कर, सीधे ‘क्लास स्ट्रगल’ और ‘पेट्रियार्की’ से जोड़ दिया गया। इनकी नेत्रियों को देखेंगे तो आप पाएँगे कि कैसे ‘पिंजरा तोड़’ एक बाह्यावरण है, जबकि भीतर में इनकी योजना दंगे भड़काने और सड़कों पर अराजकता फैलाने को ले कर है। आगे, इनकी पूरी यात्रा पर विस्तृत चर्चा होगी कि कैसे इन्होंने कैम्पस में पढ़ाई छोड़ कर सारी बातें की हैं।

‘पिंजरा तोड़’ में पिंजरा है ही नहीं। ये वामपंथियों की एक साजिश है कि वो किसी तरह विद्यार्जन की जगहों को जेएनयू, जाधवपुर, अलीगढ़ और जामिया जैसे वैसे संस्थान बना दें जो अपनी शिक्षा के कारण नहीं, वामपंथियों की हिंसा, सेक्स, जिहाद, आतंकवाद,नक्सलवाद समेत हर वैसे मुद्दे पर चर्चा में आए जिसका छात्र जीवन से कोई वास्ता नहीं। ये हमारे हर कैम्पस को बर्बाद करना चाहते हैं, उसकी लाइब्रेरी में पत्थरबाजी, आगजनी करने वाले दंगाइयों को बिठाना चाहते हैं… युवाशक्ति को तबाह करना इनके वृहद अजेंडे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है

‘पिंजरा तोड़’: क्या था और क्या बन गया

इसी संदर्भ में एक और ध्यातव्य बात यह है कि अगर ‘पिंजरा तोड़’, जिसे बच्चियों की एक ईमानदार मुहिम ही मान लें, अपने शुरुआती बातों पर टिका रहता कि उन्हें आज़ादी चाहिए हॉस्टल से रात-बेरात निकलने या वापस आने की, तो भी हम मानते कि 18-22 साल की नवयुवतियाँ हैं, स्कूलों के यूनिफॉर्म वाले दौर से बाहर आई हैं, इन्हें अपने पंखों को विस्तार देने की, स्वयं को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता की मुहिम बनाने में सहयोग की आवश्यकता है।

लेकिन नहीं, हमारी छोटी बहनों, दोस्तों या छोटे-छोटे शहरों से आई बच्चियों को पठन-पाठन से भटका कर उन्हें वामपंथी प्रोपेगेंडा का हिस्सा बना दिया गया। यहाँ हमें ‘स्वच्छन्दता’ की आवश्यकता को भी संदर्भ में ला कर देखने की जरूरत है।

इसमें कोई दोमत नहीं कि हमारी बहनों पर अभी भी हमारा समाज भाइयों से कम ध्यान देता है। चाहे उसका भोजन हो, पढ़ाई हो, कपड़े हों या फिर सामान्य स्वतंत्रता की बातें हो, हमारी बहनें हमारे ही घरों में नकारी जाती रही हैं। कुछ जगहों पर सुधार आया है लेकिन कई समुदायों में अभी भी उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इसी कारण, जब वो एक स्कूल के तंत्र से, समाज के दबाव से बाहर आ कर दिल्ली जैसी जगह में स्वतंत्रता को अलग तरीके से महसूस करती हैं, और उन्हें कोई घाघ वामपंथन भटकाने के लिए तैयार खड़ी हो, तो संभव है कि वो ऐसे चंगुल में फँस सकती हैं।

ये वामपंथन नेत्रियाँ वो हैं जिनका पेट भरा हुआ है, जो एक अभिजात्य परिवार से ताल्लुक रखती हैं, जिनके पिता उन्हें महँगी गाड़ियों से कॉलेज भेजते हैं, जिन पर समाज का वैसा दबाव नहीं है जो प्रथम वर्ष की किसी 17 साल की उस लड़की पर होता है तो बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा जैसी जगहों से आती हैं। उन्हें लगता है कि ‘दीदी सही कहती हैं कि लड़के जब बारह बजे तक घूमते हैं, तो हमारे हॉस्टल पर ताला क्यों’।

जबकि, उन्हें पता ही नहीं कि उनकी इस दीदी ने किस-किस तरह के कांड कर रखे हैं। जेएनयू में वामपंथनों को उनके तथाकथित दोस्त कई बार विरोधी छात्र नेताओं को चुनाव से पहले छवि खराब करने के लिए मोहरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं और वो उनके कहने पर ABVP के नेताओं पर ‘सेक्सुअल मोलेस्टेशन’ का आरोप लगा देती हैं। इन्हीं वामपंथनों को उनके वामपंथी नेताओं की असलियत तब पता चलती है जब वो सर्वहारा की लड़ाई लड़ने जंगलों में पहुँचती हैं, और वहाँ वो एक सेक्स स्लेव से ज्यादा कुछ नहीं बन पातीं। ‘क्रांति में तुम्हारा यही सहयोग है’, ‘तुम्हारी देह कम्यून की प्रॉपर्टी है’ कह कर उन्हें बरगलाया जाता है।

इन दीदियों ने ‘पिंजरा तोड़’ शुरु किया था हॉस्टल की समस्याओं को ले कर और अब यह पूरी तरह से डीयू में वामपंथी प्रोपेगेंडा का महिला ब्रिगेड बन कर खड़ा हो चुका है जो हर उस विषय पर भीड़ की शक्ल ले कर पहुँच जाता है, जो वामपंथियों के वृहद अजेंडे का हिस्सा है। आप इनके फेसबुक पोस्ट्स को खँगालेंगे तो ‘पिंजरा तोड़’ की नेत्रियाँ दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों की पूरी आधारशिला रखती प्रतीत होती हैं।

मजदूर दिवस पर इन धूर्त युवतियों के पेज पर पुलिसकर्मियों से ले कर बैंक कर्मचारियों, कम्पनियों के सीईओ, ब्यूरोक्रेट्स आदि को समाज में योगदान न देने वाला बताया गया है। इनकी मूर्खता ऐसे ही समयों पर उजागर होती है जब उनके लिए एक श्रमिक पूज्य है, लेकिन वैसे एक लाख श्रमिकों के घरों को तलाने वाला पूँजीपति दुत्कार योग्य हो जाता है। इन मूढ़ाँगनाओं को कोई यह भी पूछे कि कितने समाज ऐसे हैं जो वामपंथियों के शासन में फले-फूले हैं!

इनके हर पोस्ट से आपको या तो हिन्दू-घृणा नजर आएगी या फिर ये समाज को ‘ब्राह्मण बनाम अन्य’ की तर्ज पर तोड़ने की बातें करती दिखेंगी। इनका एजेंडा साफ है कि हॉस्टल के ताले तो बस एक छलावा हैं, इनकी श्यामल आत्मा उसी रक्तपिपासु वामपंथी एजेंडे पर चल रही है जो देश के हर राज्य को अलग करने का सपना देखता है। इसलिए, ‘पिंजरा तोड़’ नक्सलियों की सम्मोहित राष्ट्रदोही सेना से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

इस उपशीर्षक के अंत में एक त्वरित दृष्टि इनके पिछले पाँच महीनों के पोस्ट पर आप दौड़ाएँगे तो आप पाएँगे कि पूरे दिसम्बर, 2019 और जनवरी, 2020 इन्होंने सीलमपुर-जाफराबाद में लोगों को भड़काया है, लोगों को बसों में ढो कर शाहीन बाग लाना, उनके इलाकों में सड़कों को ब्लॉक करने के लिए उकसाना, इनके मुहल्लों में वामपंथी शैली में पैम्फलेटबाजी करना और नारे लगाने पर केन्द्रित रहा है।

इनका मार्च इस बचाव में निकला कि इनका दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों में कोई हाथ नहीं है। फिर इन्होंने होली को ‘बहुजन लड़की’ को ‘ब्राह्मण देवता’ द्वारा जलाने की बात कह कर, इसे मोलेस्टेशन का त्यौहार बता कर हिन्दुओं के प्रति घृणा बाँटी। अप्रैल काफी चहल-पहल वाला महीना रहा इनके लिए क्योंकि इनके एजेंडे में छात्रों को हॉस्टलों से कोविड के दौर में घर भेजने की बातें थीं, दूसरे मजहब की गर्भवती महिला के बच्चे के मरने वाला फेक न्यूज था, प्रवासी मजदूरों को ले कर विचित्र सुझाव और घड़ियाली आँसू थे (ये लम्बा चला रहा है इनके पेज पर)।

इन्होंने फेक न्यूज फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जब 20 अप्रैल को इन्होंने यह लिख दिया कि लगभग 200 लोग भूख के कारण लॉकडाउन में मर गए। ऐसा कहीं, कुछ भी नहीं हुआ है। दीदियों का विशुद्ध झूठ है ये। रेंट खत्म करने की बातें, ब्राह्मणवादि पितृसत्ता, ABVP द्वारा स्त्रियों के योगदान को प्रतारित करने की मुहिम को टोकनिज्म कह कर नकारने की बातें आदि में इनका अप्रैल निकाला।

मई में इनका मुख्य फोकस दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा ली जा रही ‘ऑनलाइन परीक्षाओं’ को नकारने का रहा है जो कि अभी भी चल रहा है। हालाँकि ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि इनकी पूरी नौटंकी में आपको बंगाल, पालघर, महाराष्ट्र, दिल्ली आदि नहीं दिखेगा जो कि प्रवासी मजदूरों की समस्या के केन्द्रबिन्दु रहे हैं। यहाँ पर कन्याएँ गेम कर जाती हैं।

नारीवाद है क्या?

‘पिंजरा तोड़’ की मूल अवधारणा कहीं न कहीं नारीवाद से जुड़ी हुई है क्योंकि बार-बार इनके पोस्ट और कुकर्मों के आयोजनों में ‘हर पुरुष कुत्ता है’ या ‘पुरुषों का जहरीला पौरूष’ जैसे वाक्यांश प्रयुक्त होते रहे हैं। नारीवाद बहुत ही सामान्य सा विचार है, जहाँ हम अपने समाज में अपनी बच्चियों, नवयुवतियों, स्त्रियों आदि को वैसे ही अवसर देने की बातें करते हैं जैसे लड़कों, नवयुवकों और पुरुषों को उपलब्ध हैं।

लेकिन इन ढीठ और प्रपंची वामपंथनों का नारीवाद लड़कों को कोसने, घटिया शब्दों से गरियाने या फिर ‘हम भी खड़े हो कर लघुशंका निपटाएँगे’ जैसी हास्यास्पद बातों पर सिमटा हुआ है। इनकी पूरी मुहिम लड़की को लड़का, या स्त्री के पुरुष बना देने पर केन्द्रित है। ‘वो ये कर सकते हैं, तो हम क्यों न करें’ की जिद इन्हें सामाजिक वास्तविकताओं से दूर ले जाती हैं, और अटपटे काम करवाती हैं।

नारीवाद मेरे लिए लड़कियों को समान शिक्षा, भोजन आदि से बढ़ाते हुए उन्हें आर्थिक रूप से स्वतंत्र करना है। नारीवाद मेरे लिए ‘लड़की द्वारा हर उस काम को करना जो लड़के करते हैं’, नहीं है। क्योंकि दोनों दो तरह के होते हैं, दोनों के अपनी उपयोगिताएँ हैं। लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि उपयोगिता के नाम पर हम उन्हें चूल्हे में झोंक दें कि तुम इसी के लिए बनी हो।

नहीं, यह सामाजिक भेदभाव और पितृसत्ता का कुत्सित रूप है। अगर वो घर का काम करना चाहती है तो उसे उसकी भी आजादी मिलनी चाहिए, और अगर वो अपने लिए कोई नौकरी ढूँढती है तो उसकी भी। अलग-अलग उपयोगिता से मेरा तात्पर्य शारीरिक संदर्भ में है कि एक स्त्री ही बच्चे को जन्म दे सकती है, उसे दूध पिलाना भी उसी के द्वारा संभव है, अतः नारीवाद के नाम पर यह हल्ला करना कि वो बच्चे पैदा नहीं करेगी, बेकार की बात है।

जिसे नहीं करना, न करे। लेकिन आपने विवाह किया है, और उसमें दूसरे व्यक्ति की भी उम्मीदें आपके साथ हैं, फिर अचानक एक दिन आप यह कह दें कि आप बच्चे जनने की मशीन नहीं है। आप तलाक लीजिए और उस व्यक्ति को मुक्त कीजिए कि वो अपनी संतान की इच्छा कहीं और से पूरी करे। संतानोत्पत्ति एक प्राकृतिक कार्य है, हर जीव करता है। आप यह चुनाव वैयक्तिक स्तर पर कर सकती हैं लेकिन ‘हम बच्चे पैदा नहीं करेंगे’ की सामूहिक माँग मूर्खता है।

संक्षेप में, कहने का तात्पर्य यह है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री न सिर्फ स्वयं को एक खराब माहौल से निकाल सकती है। बल्कि अपने बच्चों का भी जीवन सँवार सकती है। इसलिए, नारीवाद का उद्देश्य लड़कियों के समान अवसर दिलाने से ले कर उन्हें स्वाबलम्बी बनाने पर होना चाहिए, न कि राह भटक कर हिन्दूघृणा और पुरुषों को कुत्ता बताने में। कुत्ता ही बताना है तो बेशक अपने परिवार से शुरु कीजिए, दूसरों के परिवार में मत झाँकिए।

वामपंथियों की पुरानी तकनीक: अंग्रेजी के बड़े शब्दों की अतिवृष्टि

Disenfranchisement of muslims, repressive state machinery, criminalisation of students, marginalised community, Hindutva state, capitalisation, human cost, rhetorical eulogising of women, patriarchal gender roles, devalue women’s labour, communal bigotry, unleash repression, most vulnerable, times of crisis, holi is marked with violence and abuse, bahujan woman, brahmin god, pop culture, celebration of sexual harassment, divisive, anti-people, human chain, revolution, social justice, protest gathering, aggressively performing puja, toxic show of masculinity, nights of struggle, educate-agitate-organise, historically denied, brute show of military power, demonstration of international consolidation of fascist forces, historically marginalised, notions of emancipation, hegemonic nationalism, status quo, infested with patriarchy, fascism, dehumanising, proletariat, historically oppressed…

ये सारे शब्द या वाक्यांश वो हैं जो आपको हर वामपंथी फेफड़े में लिए घूमता मिल जाएगा। वो खाँसेगा तो एंटी-पीपुल निकलेगा, थूक दिया तो ‘ब्रूट शो ऑफ मिलिट्री पावर एंड डिमोन्सट्रेशन ऑफ इंटरनेशनल कन्सॉलिडेशन ऑफ फासिस्ट फोर्सेस’ की फुहाड़ें जमीन पर होंगी। ये तरीका पुराना तो है लेकिन कारगर है।

स्कूल से निकले बच्चों पर जब आप ऐसे भारी शब्द फेंकेंगे तो औपनिवेशिक मानसिकता से सराबोर नववामपंथी या वोक-युवा ‘यो-यो, योर राइट’ कहते हुए गर्दन हिलाएगा कि ऐसी अंग्रेजी बोल रहा है तो सही ही होगा। जबकि ऐसी सारी बातें उस फूड ब्लॉगर की बकैती से ज्यादा कुछ नहीं जो ‘ओपन फ्लेम रोस्टेड एगप्लांट फॉर स्मोकी फ्लेवर, इन एन असॉर्टेड मिक्स ऑफ़ फाइनली चॉप्ड अनियन, गार्लिक, ग्रीन चिली विद अ टच ऑफ एक्स्ट्रा वर्जिन ऑलिव ऑयल’ लिख कर बैंगन के भर्ते की फोटो लगा देता है।

वामपंथी अपने विशुद्ध बकैती को एलिजाबेथन अंग्रेजी में ऐसे लिखते हैं कि भाई, हॉस्टल का गेट नहीं खुला न तो माया सभ्यता वाला प्रलय अभी ही आ जाना है, पूरी सृष्टि की सर्वनाश तय है। मूर्ख लोग डिक्शनरी में भी नहीं देखते कि ‘असॉर्टेड मिक्स’ के नाम पर वो बैंगन की बीजों वाला चोखा दे कर जा चुका है।

पिंजरा तोड़ की एजेंडाबाज नेत्रियाँ

19 फरवरी की एक वीडियो में नताशा नाम की एक लड़की, जो कि दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों को भड़काने के आरोप में दिल्ली पुलिस की सेवा में है, मूलतः मजहबी महिलाओं की एक भीड़ को यह बताती नजर आती है कि सरकार गाँवों के छोटे अस्पतालों को बेच देगी, फिर जितनी भी सरकारी कम्पनियाँ हैं उसको बेच देगी, बीमा कम्पनियों को बेच देगी, सरकारी संपत्ति को बेच जा रही है, रेलवे को बेचने की बात है, बैंक में जो पूँजी है उसको स्टॉक मार्केट में लगा देगी, पेंशन के पैसे को सट्टे पर लगाने वाली है यह सरकार…

इतनी बकैती के बाद उस वीडियो को आगे सुनने की इच्छा नहीं हुई क्योंकि मैं अपनी यूनिवर्सिटी की पढ़ी-लिखी लड़कियों से थोड़ी और उम्मीद रखता था। उन महिलाओं की भीड़ को नताशा यह बता रही है कि असल में जो भी गरीब लोग हैं, वो यहाँ के नागरिक नहीं हैं। आप सोचिए कि एक भीड़ जिसकी शिक्षा का स्तर कम हो, जिसे उनके घरों के पुरुषों ने ढाल बना कर ‘विरोध’ के नाम पर शिफ्टों में बिठा रखा हो, जिसमें से वही चार औरतें हर मीडिया वाले को पहले से पढ़ाया जवाब देती हैं, उन्हें आप ये बता रही हो कि गरीब लोगों के पास नागरिकता नहीं और सरकार सारी सरकारी चीजें बेच रही हैं!

ये तो बस एक उदाहरण है इनकी करतूतों का। फेसबुक के जरिए इन्होंने बार-बार फेक न्यूज फैलाया है जिससे यह साबित किया जा सके कि यहाँ तो डॉक्टर भी संवेदनहीन हैं और उन्होंने गर्भवती महिला को उसके मजहब के कारण लौटा दिया जिससे बच्चा मर गया। जबकि बात यह थी कि वह महिला एनीमिया (रक्ताल्पता) की शिकार थी और सातवीं बार गर्भवती थी, जिससे उसे बेहतर अस्पताल की जरूरत थी।

वैसे ही 200 लोगों के भूखे मरने की बातें इन्होंने लिखी और यह बताना चाहा कि सरकार मे मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। बजट के विश्लेषण में इन्होंने पहले ही भविष्य में झाँक लिया और उसे बेकार कह दिया। हालाँकि, हर बार इन्हें एक ही पार्टी की सरकार से समस्या होती है। इन्हें गैर-भाजपा सरकारों में आज तक कोई समस्या नहीं दिखी।

इन सारी बातों को देखने का बाद आपको लग जाएगा कि ‘पिंजरा तोड़’ का या उसके समर्थकों का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी भीड़ इकट्ठा करना है जो कैम्पस को बर्बाद करने में योगदान देती रहे। इनके प्रमुख उपलब्धियों में बच्चों को क्लास न जाने के लिए प्रेरित करने से ले कर हर उस मुद्दे पर कहीं इकट्ठा होने की बातें हैं जो जेएनयू में चल रहा हो, जामिया में चल रहा हो, AMU में चल रहा हो।

देवांगना और नताशा को बार-बार जामिया कॉर्डिनेशन कमिटी की मीटिंग में पाया गया है। इस पर विस्तृत चर्चा तो आगे होगी, लेकिन यहाँ यह बात देखने योग्य है कि आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय की लड़कियाँ जामिया की मुहिम का हिस्सा क्यों बन रही हैं? फिर याद आता है कि व्हाट्सएप आदि के जरिए अब भीड़ इकट्ठा करने में आसानी होती है, लेकिन उसी में से कोई प्लान लीक भी कर सकता है, तो कुछ लोगों को भीतरी कोठरी का हिस्सा बनाया जाता है।

लदीदा और आयशा जैसी जिहादनें हीरोइन बना कर दिखाई जाती हैं। कैमरा तैयार रहता है कि फुल एचडी फोटो ले ली जाए और तुरंत एक गिरोह हरकत में आ जाता है। ऐसे लोग, ऐसे ही फर्जी विरोधों का हिस्सा बन कर यूएन तक हो आते हैं। तो जाहिर है कि ‘पिंजरा तोड़’ की नेत्रियाँ भी तो अपनी जगह ढूँढेंगी, उन्हें भी तो हिस्सा बनना है इस ‘बनते हुए इतिहास’ का!

यही कारण है कि ऐसे छोटे-छोटे समूहों को बड़े-बड़े नाम दे कर लेजिटिमेसी प्रदान की गई जैसे नाटो की प्रासंगिकता खत्म होने के बाद अब जामिया कॉर्डिनेशन कमिटी और जाफराबाद एक्शन ग्रुप टाइप के व्हाट्सएप ग्रुप ही सुडानी क्रांति का निपटारा कर पाएँगे।

बाहरहाल, ऐसी नेत्रियाँ शरजील इमाम जैसे धूर्त कट्टरपंथी के हाथों की कठपुतलियाँ बनीं भीड़ों को इकट्ठा करने वाली वोलेंटियर से ज्यादा कुछ न बन पाईं। इनका काम जगह-जगह की महिलाओं को बरगलाना और उकसाना भर रह गया। इनके पूरे फेसबुक पेज पर आपको इनके वीडियो आदि से दिख जाएगा कि नेतागीरी के नाम पर ये लोग वाकई हिन्दू-विरोधी दंगों की पृष्ठभूमि में कैसे फिट बैठती हैं।

दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों में ‘पिंजरा तोड़’ का योगदान

हाल ही में दिल्ली पुलिस ने इन दोनों लड़कियों, देवांगना और नताशा, को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर भीड़ के साथ होने तथा उन्हें उकसाने के लिए गिरफ्तार किया है। खास कर 22 फरवरी की रात को, पुलिस के अनुसार, पिंजरा तोड़ के सदस्यों ने भीड़ जुटाई थी और कहा था कि वो जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर धरना दें।

हालाँकि ये सारा काम इन्होंने वहाँ की महिलाओं को समर्थन देने के नाम पर किया था लेकिन पुलिस का मानना है कि इनका हाथ और भी गहरे जाता है। उन्होंने कहा है कि ‘पिंजरा तोड़’ समूह एक बाहरी कारण हो सकता है जिसने दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों को भड़काने में एक भूमिका निभाई हो।

अगर हम सिर्फ फेसबुक पोस्टों की बात करें, जो ‘पिंजरा तोड़’ के पेज पर अभी भी उपलब्ध है, तो पता चलता है कि 26 जनवरी को सीलमपुर-जाफराबाद इलाके में इन्होंने संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया है (जो कि कोई अपराध नहीं है, यह बस उनके वहाँ होने की बात बताने के लिए है)। साथ ही, उसी दिन उन्होंने भारतीय गणतंत्र दिवस पर हर साल की तरह प्रदर्शित होने वाली झाँकी को नकारात्मक तरीके से देखते हुए लिखा कि ये तो सैन्य क्षमताओं का क्रूर प्रदर्शन है और फासीवादी ताकतों का अंतरराष्ट्रीय गठजोड़।

उसी तरह 1, 6, 16, 22, 23, और 24 फरवरी को इनके वहाँ होने के सोशल मीडिया पोस्ट्स हैं जिसमें वो उसी इलाके में हैं जहाँ अंततः दंगे भड़के। साथ ही यह भी कहना आवश्यक है कि जिस तरह से दंगे हुए और जिस तरह से उस इलाके के हर 10-15 घरों की छत पर से पेट्रोल बम, एसिड की बोतलें, गुलेल, पत्थरों और ईंटों के टुकड़ों के ढेर आदि मिले, और जानकारों के हिसाब से इसकी तैयारी में एक महीने से ज्यादा की बातें कही जा रही हैं, उसे भी इस पूरे संदर्भ में रख कर देखना चाहिए।

चाहे जाफराबाद-सीलमपुर में ही घरना पर बैठना हो, या फिर उन्हें बसों में भर कर शाहीन बाग ले जाना हो, पिंजरा तोड़ ने स्वयं ही अपने पेज के माध्यम से ये जानकारियाँ साझा की हैं।

22 और 23 फरवरी का दिन इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है जब ट्रम्प के दिल्ली आने की तैयारी चल रही थी, उसी वक्त फारूक फैजल के राजधानी स्कूल की छत, ताहिर हुसैन का घर और नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में कई घरों की छतों पर एक अलग तैयारी चल रही थी। शाहीन बाग में एक सड़क को घेर कर आवाजाही बॉद कर दी गई थी, लेकिन जाफराबाद में वैसा कुछ नहीं हुआ था।

ओवैस सुल्तान खान (Owais Sultan Khan) की एक पोस्ट के मुताबिक, पिंजरा तोड़ की लड़कियों ने वहाँ का महिलाओं को भड़काया कि वो सड़क जाम कर दें। खान ने यह भी लिखा कि वो इसके पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इन लड़कियों ने पहले भी दरियागंज में महिलाओं को विरोध में आगे कर दिया, पुलिस से लड़ गईं और फरार हो गईं, जिस कारण वहाँ की महिलाओं को पुलिस उठा कर ले गई।

इन लड़कियों के समूह को अभिजात्य वर्ग का बताते हुए ओवैस खान ने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि इनकी फंतासियों के चक्कर में सीलमपुर और ट्रांस-यमुना का इलाका काफी तनावपूर्ण स्थिति में है। ध्यान रहे कि दंगों की पूरी तैयारी इस समय हो चुकी थी और इन इलाकों में अगले दिन व्यवस्थित तरीके से आगजनी, हत्या और रक्तपात होना तय था।

22 फरवरी को भीम आर्मी ने भारत बंद बुलाया था और ‘पिंजरा तोड़’ ने भारत बंद का मतलब जाफराबाद बंद निकाला और दिल्ली के और हिस्सों को जोड़ने वाली एक मुख्य सड़क को शाहीन बाग की शैली में बंद करवा दिया। इसी समय, CAA समर्थकों ने चेतावनी दी थी कि अगर कोई शाहीन बाग की तरह उनके चलने-फिरने के अधिकारों पर हमला किया, तो वो उसका विरोध करेंगे।

आखिर विधायक अब्दुल रहमान की वीडियो अपील के बाद भी कि लोग सड़क जाम न करें, ‘पिंजरा तोड़’ ने लोगों को सड़क को क्यों ब्लॉक किया? आखिर उनका कौन सा हित सध रहा था रोड को ब्लॉक करने में? वहीं के एक लड़के इमरान का भी एक वीडियो है जो बार-बार कह रहा है फेसबुक लाइव में कि यहाँ के लड़के जज्बाती हो रहे हैं, अगर सड़क पर कुछ हो गया तो बहुत बड़ा रूप ले सकता है। क्या ये सारी बातें ‘पिंजरा तोड़’ वालों को नहीं दिख रही थीं या फिर वो मन बना कर आए थे कि शरजील इमाम के अरमानों को मंज़िल तक पहुँचाना है?

अब आप शरजील इमाम और जामिया कॉर्डिनेशन कमिटी की योजना को पुनरावलोकन कीजिए। शरजील ने यही तो कहा था कि भारत के 500 शहरों को मजहब के लोग बंद नहीं कर सकते क्या? एक शाहीन बाग ने दिखा दिया कि ‘हाँ, बंद कर सकते हैं और पुलिस कुछ नहीं कर सकती’। दूसरी बात यह थी कि ट्रम्प के आने का समय था तो शाहीन बाग की बासी खबर से किसी को कुछ खास मजा आता नहीं।

फिर तय तरीके से जाफराबाद बंद किया गया और चौकस तैयारी के साथ लोग बैठ गए। यहाँ, ये लोग बार-बार कपिल मिश्रा पर आरोप लगाते रहे कि उसने धमकी दी है, जबकि मिश्रा ने सिर्फ यह कहा कि अगर सड़क खाली नहीं हुई तो वो भी सड़क पर उतरेंगे। इसमें धमकी कहाँ है, वो किसी को समझ में नहीं आया। 23 फरवरी को ‘सेलिब्रेटिंग इन्क्लाब, की नौंटकी हुई और सड़क पर भीड़ जमा होने लगी।

पृष्ठभूमि तैयार थी, ट्रम्प के दिल्ली पहुँचने का इंतजार था। पुलिस अपनी तैयारी में थी क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति के आने पर पूरा शहर एक बखतरबंद किले में तब्दील हो जाता है। दंगाइयों को इसी मौके का इंतजार था। ‘पिजंरा तोड़’ ने 24 फरवरी को पोस्ट किया कि RSS और भाजपा के गुंडे, लाठी, सरिया और पत्थर ले कर ‘भड़काऊ’ नारेबाजी कर रहे हैं।

जबकि, जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के निकटवर्ती इलाकों में छतों पर पत्थर, एसिड की बोतलें, पेट्रोल बम और हथियार इकट्ठा हो रहे थे। समय बीता और पत्थरबाजी शुरु हुई। पुलिस ट्रम्प की सुरक्षा में बँटी हुई थी, पूरा केन्द्रीय नेतृत्व ट्रम्प की आवभगत में लगा हुआ था और सीलमपुर, मौजपुर, जाफराबाद आदि इलाके में किसी हिन्दू को उसकी बाइक पर ‘जय श्री राम’ के स्टिकर के कारण भीड़ ने लिंच कर दिया।

कहीं आइबी के अंकित शर्मा को ताहिर हुसैन की घर में खींच लिया गया और उसे चाकुओं से दो घंटे तक गोदा! 400 से ज्यादा घायल, 50 से ज्यादा मौतें, करोड़ों की सम्पत्ति का नुकसान। फिर दंगों के बाद जो हिन्दुओं की कहानियाँ सामने आईं कि उनके मंदिर पर हमला हुआ, उनकी बच्चियों के कपड़े उतार लेते थे मजहबी लड़के, समुदाय विशेष के स्कूल पर दिखावे के दो-चार खरोंच, बगल के हिन्दू के स्कूल को पूरी तरह से राख में बदल दिया… पेट्रोल पम्प पर हमला हुआ, हिन्दू की बच्ची की शादी में सिलिंडर वाले इलाके में आग लगाई गई… अनेक कहानियाँ…

ये एक प्रोजेक्ट था जो शरजील इमाम, जामिया कॉर्डिनेशन कमिटी और कई लोगों की मिलीभगत थी। इसमें जामिया के दंगे, फिर जेएनयू में वामपंथियों द्वारा की गई हिंसा जिसमें ABVP के बच्चों को बुरी तरह पीटा गया और मरणासन्न होने तक मारा गया, सब एक शृंखला की कड़ियाँ हैं। कदाचित् ऐसा हो कि कालांतर में आपको इन सारी भीड़ों में कुछ लोग हर जगह मिल जाएँ। वैसी ही एक भीड़ का संचालन ‘पिंजरा तोड़’ की नायिकाएँ भी कर रही थीं।

अब आप सोचिए कि हॉस्टल के ताले खुलवाने की बात को ले कर हुआ विरोध पचास हत्याओं के आरोप में कैसे संलिप्त पाया जाता है! क्या आपको इसमें वामपंथी हरामखोरी की बदबू नहीं आती? क्या आपको यह नहीं लगता कि राष्ट्रीय राजधानी में अलग-अलग कैम्पसों में आगजनी, हिंसा, मारपीट हो, और नॉर्थ कैम्पस में आने वाले बच्चे जिन इलाकों से आते हों, वहाँ दंगों का हो जाना सामान्य घटना तो नहीं है?

चर्चा में बने रहने की मजबूरी

दंगे भी हो गए, शाहीन बाग भी हट गया और कोरोना आ गया, लेकिन ‘पिंजरा तोड़’ को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी थी। इसलिए, अपनी संलिप्तता के बावजूद लकड़बग्घों के इस गिरोह ने दाँत निपोड़ कर झूठ बोलने से कभी संकोच नहीं किया। इन्होंने शांति की बातें भी कीं। इन्होंने ‘सामुदायिक सद्भाव के लिए शांतिसभा’ जैसी नौटंकियाँ भी बुलाईं।

ऐसी बेहूदगी तो वामपंथियों का मुख्य शृंगार है। ये तो वामपंथी विचारधारा के चेहरे पर लगे उस बड़े नथ के समान है कि आदमी चेहरा देखना छोड़ कर नथ के मोती ही गिनता रह जाता है। इन्होंने अपना कलुषित चेहरा छुपाने के लिए खूब शांतिप्रिय पोस्ट किए लेकिन अब आम आदमी जानता है कि ‘शांतिप्रिय’ और ‘शांतिदूत’ जैसे शब्दों का प्रयोग किनके लिए और किन संदर्भों में होता है।

कोरोना के समय में अपने आप को चर्चा में बनाए रखना इनके लिए आवश्यक था क्योंकि सोशल मीडिया पर ताबड़तोड़ गर्दन झुलाकर जो भुतबाइह इन्होंने किया था, उसके बाद तो कानून के हाथ तो इनके बाल सँवारने आते ही। इसी कारण इन्होंने लगातार दंगा साहित्य रचना जारी रखी और सबसे पहले मजदूरों के सबसे बड़े हिमायती बनते दिखे। गरीबों की बातें कीं, रेंट फ्री करने की बातें हुईं, हॉस्टलों में जो छात्र-छात्राएँ रह रहे थे उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा की बातें हुईं…

सारा दृश्य बड़ा मनोरम दिख रहा था। ऐसे में पहले जामिया की तथाकथित छात्रा सफूरा जरगर पकड़ी गई, फिर मीरान हैदर गए भीतर, शरजील को तो पता नहीं कितने राज्यों की पुलिस खोज रही है… और उसके बाद ‘पिंजरा तोड़’ की भी बारी आई और पुलिस इन्हें भी ले गई ताकि पता चले कि ट्रम्प के आने पर, इस वृहद तैयारी के साथ ऐसे दंगे कैसे हो गए और उसी इलाके में जहाँ ‘पिंजरा तोड़’ काफी समय से मौजूद था।

‘शांति’ शब्द और उसके रूपों का दुरुपयोग

‘पिंजरा तोड़’ लकड़बग्घा गिरोह भी वामपंथियों, जिहादियों और तमाम राष्ट्रद्रोहियों की तरह ही ‘शांति’ शब्द के शीलहरण का बराबर का भागीदार रहा है। इनके सारे ‘विरोध प्रदर्शन’ ‘शांतिपूर्ण’ होते हैं। इनके नारे ‘शांतिप्रिय’ तरीके से लगाए जाते हैं और ये हमेशा समर्थकों को ‘शांतिपूर्वक’ कार्य करने की सलाह देते हैं।

इन्होंने इस शब्द का वो हाल कर दिया है कि लोग अब आतंकवादियों के लिए ‘शांतिदूत’ का प्रयोग करते हैं। कोई जिहादी कहीं मारा जाता है तो कहा जाता है कि एक ‘शांतिप्रिय’ आदमी को सेना ने मार गिराया। जैसे पूर्व भारतीय कप्तान अनिल कुंबले जी ने अपने नाम के आगे तो स्पिनर लिखवा रखा था, लेकिन सीधी गेंदे फेंक कर इतने एलबीडब्ल्यू करवाए, कुछ वैसे ही, लेकिन नकारात्मक संदर्भ में, इन वामपंथियों ने ‘शांति’ शब्द को बाकी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए इस्तेमाल किया है।

‘पिंजरा तोड़’ ने अपने फेसबुक पर 30 जनवरी को नाबालिग लड़के द्वारा गोली चलाने की घटना पर तो पूरा साहित्य रच दिया है और बताया कि कैसे भाजपा नेता के उकसाने पर उसने गोली चलाई, लेकिन शाहरूख का नाम, ताहिस हुसैन की करतूत, फैसल फारूख की छत आदि उनकी पूरी चर्चा से गायब रही। एक भी बार इन्होंने दंगाई समुदाय से, जिन्होंने अलग-अलग जगहों पर विरोध के नाम पर तीस जानें ले लीं, उसे शांति का संदेश नहीं दिया।

इससे यही झलकता है कि ‘शांति’ शब्द इनके लिए एक माध्यम है ताकि ये अपने गिरोह की शह पर कुछ न कुछ उल्टा करते रहें लेकिन मीडिया लिट्रेचर और कार्यक्रमों में यही लिखा जाए कि ‘पिंजरा तोड़’ द्वारा किए जा रहे शांतिपूर्ण विरोध में’। इसमें आप देखेंगे तो पाएँगे कि इस नौटंकी समूह को मीडिया के किस हिस्से ने ऐसे दिखाया है जैसे वो वेस्टर्न मीडिया की मलाला या ग्रेटा थनबर्ग हो।

रवीश कुमार, ‘द वायर’, ‘स्क्रॉल’, ‘क्विंट’, NDTV आदि ने इन्हें दलाई लामा की तरह दिखाया कि यही लोग हैं तो भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द बचा हुआ है वरना… इनकी कवरेज आप देखिए इन जगहों पर चाहे वो इनके जामिया के समय के कथित विरोधों का दौर हो या फिर चार गिन पहले पुलिस के नोटिस के बाद, इन सारे वामपंथी, जिहादियों के हिमायती दंगाइयों को किसी नायक की तरह दिखाया जा रहा है और इनके नाम के आगे ‘स्टूडेंट एक्टिविस्ट’ लिखा जा रहा है!

काहे के स्टूडेंट एक्टिविस्ट? पुलिस पर पत्थर फेंकना, बसों में आग लगाना, भोली-भाली महिलाओं को अपने अजेंडे के लिए सड़क पर बिठा कर दंगों की पृष्ठभूमि तैयार करना… यही तो किया है इन लोगों ने। ‘शांति’ शब्द की ही तरह अर्बन नक्सलियों और जिहादियों को मीडिया ‘एक्टिविस्ट’ के रंग-बिरंगे जरीदार घाघरे में छुपाने की पुरजोर कोशिश करती है, लेकिन हो नहीं पाता।

ऐसे कैसे चलेगा बहन?

इनके वामपंथी एजेंडे का सच सामने आ चुका है। नॉर्थ कैम्पस में इनके लोगों ने ठीक-ठाक सफलता पाई है क्योंकि विद्यार्थी ही नहीं, शिक्षक भी इनके विषैले स्पर्शकों (टेन्टेकल्स) के दायरे में आ गए हैं। अब शिक्षक भी कैम्पस के विरोधों का हिस्सा बन रहे हैं। छात्र-छात्राओं पर सरकार विरोधी प्रदर्शनों में इकट्ठा होने का दवाब लगातार बनाया जा रहा है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के कई छात्र-छात्राओं में मुझसे बात करते हुए बताया कि कैसे वामपंथियों के साथ न होना या न्यूट्रल होना, विद्यार्थियों के पास के विकल्प में है ही नहीं। ऐसे लोगों को नीची नजरों से देखा जाता है, उन्हें उपहास का पात्र बनाया जाता है जैसे कि गैरवामपंथी होना कोई पाप हो।

‘पिंजरा तोड़’ का भांडा फूट गया है। इनके एक पोस्ट पर स्त्री-सुरक्षा की बात दिखी जहाँ पर इन्होंने इस खतरे को स्वीकारा है लेकिन कहा है कि बलात्कारियों को कड़ी सजा देना समाधान नहीं है क्योंकि सजा पाने वालों में इतने लोग इस जाति के हैं, इतने लोग ओबीसी हैं, इतने मायनोरिटी हैं, तो न्याय मिलने की और सुधार की संभावना कम हो जाती है।

अब आप तय कीजिए कि ये लड़कियाँ चाहती क्या हैं? ये जानती हैं कि दिल्ली लड़कियों के लिए असुरक्षित जगह है। ये जानती हैं कि बलात्कार और यौन हिंसा आम बातें हैं, और रात्रि में ये अपराध ज्यादा होते हैं। ये यह भी जानती हैं कि सरकार और प्रशासन को स्त्रियों की सुरक्षा के लिए कदम उठाना चाहिए।

लेकिन, इनको हॉस्टल के ताले खुले चाहिए। साथ ही, अगर तर्क के लिए ही सही, इनके साथ एक गार्ड को भेजा जाए कि अगर ये देर रात में आए, तो यही वो पहली लड़कियाँ होंगी जो चिल्लाएँगी कि उनकी निजता का हनन हो रहा है, ये कैसी सुरक्षा है कि वो जो करना चाह रही हैं वह कार्य किसी गार्ड की उपस्थिति में हो!

मतलब, स्वतंत्रता भी चाहिए, सुरक्षा भी चाहिए, ये भी पता है कि समाज में अपराध हो रहे हैं, सजा की बात हो तो जाति और अल्पसंख्यकों की गणना करने लगती हो… तुम्हें नहीं लगता कि तुम कन्फ्यूज्ड वामपंथन हो? मतलब, वामपंथन हो… कन्फ्यूज्ड तो वो बाय डेफिनिशन होते ही हैं! हें हें हें!

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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