जर्मन महिला फ्रेड्रिन इरिन ब्रूनिंग उर्फ़ ‘सुदेवी दासी गोवर्धन’ को केंद्र सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया है। सुदेवी राधाकुंड धाम में विगत 42 वर्षों से गौसेवा कर रहीं हैं। बीमार और असहाय गायों की सेवा करने के कारण उन्हें ‘गायों की मदर टेरेसा’ भी कहा जाता है। उन्हें पद्म सम्मान मिलने का समाचार पाकर स्थानीय निवासी भी ख़ुश हुए और गौशाला पहुँच कर उन्होंने सुदेवी को माला पहनाकर सम्मानित किया। उन्हें शनिवार (मार्च 16, 2019) को राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के हाथों पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
पाँच बीघा के क्षेत्र में फैले सुरभि गौशाला का संचालन कर रही सुदेवी ने 1,500 से भी अधिक गायों को पाल रखा है, जिनकी वह लगातार देखभाल करती हैं। इन गायों में से अधिकतर बीमार, नेत्रहीन या अपाहिज हैं। इनमें से 52 गायें नेत्रहीन है जबकि 350 पैरों से अपाहिज है। उनके पैरों की नियमित मरहम-पट्टी की जाती है। सुदेवी के अनुसार, जब मंत्रालय द्वारा उन्हें पुरस्कार मिलने की जानकारी दी गई, तब उन्हें समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। फिर स्थानीय निवासियों ने उन्हें इस से अवगत कराया। ये तब की बात है, जब सरकार ने उन्हें पद्मश्री देने की घोषणा की थी।
अपने माता-पिता की इकलौती संतान फ्रेड्रिन 42 वर्ष पहले भारत भ्रमण पर आई थी। इस दौरान उन्होंने ब्रज आकर श्रीकृष्ण के भी दर्शन किए। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें अपनी तरफ ऐसा खींचा कि उन्होंने भारत में रहने की ठान ली। ब्रज में उन्होंने एक गाय भी पाल रखी थी, जिसके बीमार होने के बाद उन्होंने उसकी काफ़ी देखभाल की। इसके बाद वह जहाँ भी बीमार गाय देखती, उसकी देखभाल और सेवा में लग जाती। इसके बाद तो जैसे उन्होंने गोसेवा को ही अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने अपना पूरा जीवन ही गोसेवा को समर्पित कर दिया।
President Kovind presents Padma Shri to Ms Friederike Irina Bruning for Social Work. A social worker from Germany, she is contributing towards the welfare of cows and calves in Mathura, Uttar Pradesh pic.twitter.com/yozwAc8UB8
सुदेवी के पिता तीस वर्ष पहले तक दिल्ली स्थित जर्मन दूतावास में कार्यरत थे। इकलौती संतान होने के कारण उन्होंने पिता से मिलने वाली सारी धनराशि को गोसेवा में ही ख़र्च किया। उनकी गौशाला में गायों के लिए एक स्पेशल एम्बुलेंस भी है। अगर किसी गाय की मृत्यु निकट आ जाए और उसके बचने की कोई संभावना न रहे, तब सुदेवी उसे गंगाजल का सेवन कराती है। मरणोपरांत गायों के शरीर का अंतिम संस्कार भी पूरे विधि-विधान के साथ संपन्न किया जाता है।
सुदेवी बताती हैं कि गायों की सेवा में हर महीने ₹35 लाख तक ख़र्च होते हैं। गायों का इलाज डॉक्टरों द्वारा करवाया जाता है। सुदेवी दानदाताओं और जर्मनी से आने वाले रुपयों की मदद से इस गौशाला का संचालन कर रहीं हैं। सुरभि गौशाला में 70 से 80 कर्मचारी कार्यरत हैं। किराए की भूमि पर गौशाला चला रहीं सुदेवी को उम्मीद है कि उन्हें इस पुरस्कार के मिलने के बाद गौशाला के लिए भूमि उपलब्ध कराई जाएगी। साथ ही, उन्होंने इस बात की भी उम्मीद जताई कि अब गोसेवा के रास्ते में आने वाली अड़चनें दूर होंगी।
सुदेवी ने बताया कि अगर गौशाला के लिए उन्हें भूमि मिल जाती है तो मासिक किराए में ख़र्च हो रहे रुपयों की बचत होगी और उसका उपयोग गौसेवा में किया जाएगा। हाल ही में जब उनके वीजा की अवधि समाप्त हो गई थी तब उन्होंने मथुरा की सांसद हेमा मालिनी से लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तक के दरवाज़े खटखटाए थे। इसके बाद उन्हें वीजा मिल गया था। सुदेवी अविवाहित हैं और अभी भी एक झोपड़ी में ही रहती हैं। स्थानीय निवासियों ने उन्हें भारतीय नागरिकता देने की भी माँग की है।
लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा होने के साथ ही आचार संहिता भी लागू हो गई है। इसी के मद्देनज़र लोकसभा स्पीकर और इंदौर से बीजेपी सांसद सुमित्रा महाजन ने सरकारी गाड़ियाँ और सुरक्षाकर्मी मध्य प्रदेश सरकार को वापस लौटा दिए हैं।
Lok Sabha Speaker and Indore BJP MP Sumitra Mahajan today wrote to Madhya Pradesh CM Kamal Nath saying she is giving up on the facilities including vehicles and security personnel provided to her as part of protocol, in view of the model code of conduct pic.twitter.com/mcNm0PDboH
सुमित्रा महाजन ने इस बारे में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को एक पत्र भी लिखा है। इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि आगामी लोकसभा चुनावों के कारण 10 मार्च से पूरे देश में आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है। उन्होंने उसी दिन से इंदौर में सरकारी गाड़ियों का उपयोग करना बंद कर दिया था, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष के संवैधानिक पद पर अब भी उनके आसीन होने के कारण सुरक्षा गार्ड और पुलिस की गाड़ियाँ उनकी निजी गाड़ी के साथ चल रही हैं। इसके साथ ही उन्होंने आगे लिखा कि इंदौर जैसे शांत और सुरक्षित शहर में उन्हें प्रोटोकॉल के तहत मिलने वाली इन गाड़ियों और सुरक्षाकर्मियों की आवश्यकता नहीं है। इसलिए वो इन सभी सुविधाओं का त्याग कर रही है।
हालाँकि अभी तक इंदौर लोकसभा चुनाव के लिए निर्वाचन आयोग की तरफ से कोई आधिकारिक सूचना जारी नहीं की गई है और सुमित्रा महाजन ने ये भी कहा कि उन्हें पता है कि अभी तक ना तो उनकी उम्मीदवारी को लेकर कोई घोषणा हुई है और ना ही उन्होंने चुनाव संबंधी कोई पर्चा भरा है। बता दें कि इंदौर में 19 मई को मतदान होना है।
भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली इकाई ने मुख्य चुनाव अधिकारी (CEO) से मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मस्जिदों पर विशेष पर्यवेक्षकों को नियुक्त करने का आग्रह किया है। इसका उद्देश्य लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान मतदाताओं को मज़हबी आधारों पर प्रभावित किए जाने के प्रयास से बचाना है।
दिल्ली बीजेपी ने आम आदमी पार्टी (AAP) के नेताओं पर मज़हबी आधारों पर मतदाताओं के धुव्रीकरण का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग को पत्र लिखकर मस्जिदों में विशेष पर्यवेक्षक नियुक्त करने की अपील की।
Delhi BJP writes to Election Commission requesting it to “appoint Special Observer for the mosques especially in Muslim dominated areas so that political/religious leaders cannot spread hate among people to influence elections” pic.twitter.com/klvvuZ4lG2
दिल्ली बीजेपी ने AAP पार्टी पर आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के सदस्यों द्वारा मज़हबी आधारों पर मतदाताओं को लगातार भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है, इसमें भड़काऊ भाषण और आधारहीन बयान भी शामिल हैं, इसलिए बीजेपी को इस तरह का पत्र लिखना पड़ा। अपने पत्र में बीजेपी ने ऐसे कई उदाहरण भी दिए जिसमें बताया गया कि AAP पार्टी द्वारा जनता को बरगलाने का काम किया जा रहा है। अपने पत्र में बीजेपी ने विधायक अमानतुल्लाह ख़ान के बयान का भी उल्लेख किया।
इसके अलावा बीजेपी का यह भी कहना है कि मस्जिदों के आस-पास दिए जाने वाले भाषण से मुस्लिम जनता नेताओं की नफ़रत का शिकार हो जाते हैं। इन परिस्थितियों में नेताओं के नफ़रत भरे भाषण मतदाताओं पर ग़लत प्रभाव छोड़ सकते हैं।
ख़ासतौर पर रमजान के महीने में इसकी आशंका अधिक है कि सम्प्रदाय विशेष को भड़काने के लिए मज़हब की राजनीति का इस्तेमाल किया जाए। अपनी इस चिंता को व्यक्त करते हुए चुनाव आयोग से अनुरोध किया गया है कि जल्द ही मस्जिदों में विशेष पर्यवेक्षक की नियुक्ति करें जिससे चुनावी माहौल में धर्म के नाम पर राजनीति न हो सके साथ ही किसी पार्टी और मज़हबी नेता द्वारा चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन भी न किया जा सके।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने शनिवार को विभिन्न क्षेत्र के लोगों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया। इस दौरान जब ‘वृक्ष माता’ कहलाने वाली सालूमरदा थिमक्का पद्म श्री सम्मान लेने पहुँची तो उन्होंने राष्ट्रपति कोविंद के सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। वह बेहद भावुक क्षण था जब थिमक्का जी ने राष्ट्रपति महोदय को एक प्रकार से आशीर्वाद दे दिया।
इस वर्ष पद्म सम्मान प्राप्त करने वालों में सबसे वरिष्ठ 107 वर्षीय थिमक्का ने जिस सहजता से राष्ट्रपति कोविंद के माथे पर हाथ रखा, उससे प्रधानमंत्री और अन्य मेहमानों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। राष्ट्रपति भी खुद को रोक नहीं पाए और पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
पद्म पुरस्कारों से राष्ट्र की सबसे श्रेष्ठ और योग्य प्रतिभाओं को सम्मानित करना राष्ट्रपति के लिए प्रसन्नता का विषय होता है। लेकिन आज जब पर्यावरण की रक्षा में तत्पर, कर्नाटक की 107 वर्ष की वयोवृद्धा सालुमरदा तिम्मक्का ने आशीर्वाद देते हुए मेरे सिर पर हाथ रखा तो मेरा हृदय भर आया। pic.twitter.com/lntX2XnXRI
— President of India (@rashtrapatibhvn) 16 March 2019
सालूमरदा थिमक्का कर्नाटक की रहने वाली हैं। वह पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। हालाँकि ज्यादातर पर्यावरणविद बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लिए होते हैं लेकिन उच्च शिक्षा का अभाव कभी थिमक्का के दृढ संकल्प के आड़े नहीं आया। थिमक्का ने हल्दीलाल और कुदुर के बीच चार किलोमीटर के राजमार्ग के किनारे बरगद के 385 पेड़ों समेत 8000 से ज्यादा पेड़ लगाए हैं जिसके कारण उन्हें ‘वृक्ष माता’ की उपाधि मिली है।
भूमिहीन मजदूरों को जो ज़मीन दी गई थी वहाँ ढेर सारे पीपल के पेड़ थे। थिमक्का और उनके पति ने इन पेड़ों की टहनियों को काट कर उन्हें धरती में रोपकर पौधे उगाने शुरू किया। उन्होंने पहले वर्ष में पड़ोस के गाँव कुदूर के पास चार किलोमीटर की दूरी पर केवल 10 पौधे लगाए। दूसरे वर्ष में, उन्होंने 15 पौधे लगाए, और तीसरे वर्ष में 20, इसके बाद यह क्रम चलता रहा। पौधारोपण करने से दंपत्ति को काफी भावनात्मक सहारा मिला क्योंकि वे उन्हें अपने बच्चों की तरह पालते थे।
थिमक्का के पति चिक्कन्ना एक बांस के दोनों छोरों पर पानी के दो विशाल कंटेनर अपने कंधों पर लेकर चार किलोमीटर तक जाते थे। थिमक्का भी एक बाल्टी अपनी कमर पर और दूसरी सिर पर लाद कर ले जाती थीं। उन्होंने पौधारोपण के लिए किसी खाद का इस्तेमाल नहीं किया। बस जीवटता ही थी जिसने पौधों को पेड़ बना दिया। इन्होंने ये पौधे मानसून के दौरान ही पौधे लगाए गए थे, और बाद के मानसून के दौरान दंपत्ति गर्मियों के अंत तक सप्ताह में एक या दो बार पौधों को पानी दिया करते थे। थिमक्का कहते हैं कि पौधे अगले मानसून तक मूल रूप ले लेते थे।
थिमक्का का जन्म कर्नाटक के तुमकुरु जिले के गुब्बी तालुक में हुआ था। गरीबी की वजह से वो स्कूल नहीं जा सकीं और पारिवारिक मजबूरी की वजह से उन्हें छोटी सी उम्र से ही मजदूरी करनी पड़ी। बड़ी होने पर उनका विवाह कर्नाटक के रामनगर जिले के मगदी तालुक के हुलिकल गाँव के निवासी चिककैया से हुआ, जो कि एक मजदूर थे। शादी के बाद भी गरीबी ने थिमक्का का पीछा नहीं छोड़ा। शादी के काफी साल बाद भी जब बच्चा नहीं हुई तो वो टूट गई। वो आत्महत्या करने की सोच रही थीं। तब उनके पति ने उन्हें वृक्षारोपण की सलाह दी। जिसके बाद उन्होंने वृक्षारोपण शुरू किया। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वो सिर्फ वृक्षारोपण ही नहीं करती बल्कि इनकी देखभाल अपने बच्चे की तरह करती है।
थिमक्का के पति की 1991 में मृत्यु हो गई थी। आज थिमक्का को भारत में वृक्षारोपण से जुड़े कई कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित किया जाता है। वह अपने गांव में आयोजित होने वाले वार्षिक मेले के लिए बारिश के पानी को संग्रहित करने के लिए एक टैंक का निर्माण करने जैसी अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी शामिल रही हैं। उनका अपने पति की याद में अपने गाँव में एक अस्पताल बनाने का भी सपना है और इस उद्देश्य के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई है। साल 2016 में सालूमरदा थिमक्का को ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (BBC) द्वारा दुनिया की सबसे प्रभावशाली और प्रेरणादायक महिलाओं में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।
फिलहाल थिमक्का अपने मुँहबोले बेटे उमेश बी.एन. के साथ रह रही हैं। उमेश को भी पर्यावरण से काफी लगाव है। वो भी ‘पृथ्वी बचाओ’ अभियान के साथ ही कई नर्सरी भी चला रहे हैं और उन किसानों को पौधे भी प्रदान करते हैं, जो वृक्षारोपण के लिए इच्छुक होते हैं।
‘वृक्ष माता’ थिमक्का को अभी तक कई सारे अवॉर्ड मिल चुके हैं, लेकिन वहाँ के स्थानीय लोगों का कहना है कि थिमक्का के ऊपर इसका कोई प्रभाव नहीं दिख रहा है। वो आज भी उसी तरह से सादा जीवन जी रही हैं और लोगों के साथ उनका व्यवहार पहले की तरह ही है। इससे ये जाहिर होता है कि सच्ची उपलब्धियाँ वही हैं जो मनुष्य को और भी विनम्र बना दें। वृक्ष माता ने इसका उदाहरण राष्ट्रपति भवन में भी दे दिया।
कर्नाटक सरकार ने थिमक्का के काम को सम्मान देते हुए इसे आगे बढ़ाने का फैसला किया है। इसके लिए सरकार ने इस दिशा में कदम उठाए हैं। सरकार ने कहा कि कक्षा 1 से 10 तक की हिंदी की किताब में थिमक्का की कहानी के जरिए इनकी उपलब्धियों से बच्चों को परिचित कराया जाएगा। बच्चे इनकी कहानी से प्रेरित होंगे। वहीं कक्षा बारहवीं के राजनीति विज्ञान विषय की पुस्तक में भी एक पाठ इनके ऊपर होगा। सरकार का ये कदम बेहद सराहनीय है। इससे बच्चों के भीतर पर्यावरण के प्रति जागरूकता तो बढ़ेगी ही, साथ ही वो इस दिशा में काम करने में सक्रिय भागीदार भी बनेंगे।
ब्रज के बाद यदि कहीं की पौराणिक और परंपरागत होली प्रसिद्ध है तो वह है भगवान शिव की नगरी काशी की। धर्म और अध्यात्म की नगरी काशी में फाल्गुन शुक्ल एकादशी को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाया जाता है, जिसे आमलकी एकादशी भी कहते है। रंगभरी एकादशी होली से 5 दिन पहले आती है। ब्रज में होली का पर्व होलाष्टक से शुरू होता है। वहीं वाराणसी में यह रंग भरी एकादशी से शुरू हो जाता है। 17 मार्च को रंगभरी एकादशी से लेकर बुढ़वा मंगल तक अब हर तरफ ”होली ही होली…” नज़र आएगी बनारस में। काशी के साथ ही जहाँ-जहाँ महादेव विराजमान हैं उन सभी मंदिरों में भक्त अपने भगवान को रंग-गुलाल से सराबोर कर उत्सव के रंग में डूब जाएँगे।
महाश्मशान की नगरी काशी में अन्नपूर्णा के रूप में निवास करने वाली देवी गौरी के पहली बार काशी आगमन के साथ ही बनारस में होली का आगाज़ हो जाता है। इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिन तक चलता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के बाद पहली बार काशी पधारे थे। इस खुशी में भगवान शिव के गण रंग-गुलाल उड़ाते हुए और खुशियाँ मनाते हुए आए थे। मान्यता है कि रंगभरी एकादशी को बाबा विश्वनाथ अपने भक्तों के साथ रंग और गुलाल से होली खेलते हैं। इस दिन भोलेनाथ की नगरी रंगों से सराबोर होती है, हर भक्त रंग और गुलाल में डूबा मस्त-मगन हो जीवन-उत्सव मनाता है।
बनारस में परंपरानुसार महाशिवरात्रि को विवाह बंधन में बंधने के बाद बाबा विश्वनाथ पहली बार माँ गौरा का गौना कराने उनके नइहर यानी श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत के घर पहुँचते हैं। ससुराल पहुँचने पर बाबा विश्वनाथ का स्वागत घर की महिलाओं द्वारा मंगल गीत के साथ किया जाता है। काशी, महादेव के इस उत्सवप्रेमी मस्तमौला शहर को बस बहाना चाहिए। काशीपुराधिपति बाबा भोलेनाथ अपनी दुल्हन लेकर निकलें और उनके गण के रूप में काशीवासी उल्लासित न हों ऐसा कैसे संभव है। बाबा भोले के भक्त बाबा विश्वनाथ से आशीर्वाद लेकर रंग-गुलाल की होली खेलते, नाचते-गाते-झूमते गौने की बारात में निकलते हैं।
रंगभरी एकादशी पर भगवान शिव के पूरे परिवार की चल प्रतिमाएँ विश्वनाथ मंदिर में लाई जाती हैं और बाबा विश्वनाथ मंगल वाद्ययंत्रों की मधुर ध्वनि के बीच नगर भ्रमण पर निकलकर भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।
बात काशी की हो, माँ गौरी के गौने की हो और उनके अनन्य प्रेमी शिव के विवाह की बात छूट जाए ये कैसे हो सकता है। तो थोड़ी चर्चा शिव विवाह की भी कर लेते हैं।
महाशिवरात्रि पर शिव और पार्वती का विवाह बहुत ही भव्य तरीके से हो रहा था। कहते हैं, इससे पहले ऐसी शादी कभी नहीं हुई थी। उनकी शादी में एक से बढ़कर एक अतरंगी लोग शामिल हुए। देवताओं के साथ ही असुर भी वहाँ पहुँचे। शिव पशुपति भी हैं, मतलब सभी जीवों के देवता भी हैं, तो कहा जाता है सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े और अन्य जीव भी उनकी शादी में बाराती बने। यहाँ तक कि भूत-पिशाच, अपंग और विक्षिप्त लोग भी उनके विवाह में मेहमान बन कर पहुँचे।
यह एक शाही शादी थी। एक राजकुमारी की शादी हो रही थी। इसलिए विवाह समारोह से पहले एक अहम समारोह का आयोजन होना था। वर-वधू दोनों की वंशावली घोषित की जानी थी। एक राजा के लिए उसकी वंशावली सबसे अहम चीज होती है, जो उसके जीवन का गौरव होता है। ऐसे में पार्वती की वंशावली का बखान खूब धूमधाम से किया जाने लगा। यह कुछ देर तक चलता रहा और आखिरकार जब उन्होंने अपने वंश के गौरव का बखान खत्म किया, तो वे उस ओर मुड़े, जिधर वर के रूप में महादेव शिव बैठे हुए थे।
सभी अतिथि इंतजार करने लगे कि वर की ओर से कोई उठकर शिव के वंश के गौरव के बारे में बोलेगा मगर किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। वधू का परिवार ताज्जुब करने लगा, ‘क्या उनके खानदान में कोई ऐसा नहीं है जो खड़े होकर उनके वंश की महानता के बारे में बता सके?’ मगर वाकई कोई नहीं था। वर के माता-पिता, रिश्तेदार या परिवार से कोई वहाँ नहीं आया था क्योंकि उनके परिवार में कोई था ही नहीं। वह सिर्फ अपने साथियों, गणों के साथ ही आए जो विकृत जीवों की तरह दिखते थे।
फिर पार्वती के पिता पर्वत राज हिमालय ने शिव से अनुरोध किया, “कृपया अपने वंश के बारे में कुछ बताइए।” शिव कहीं शून्य में देखते हुए चुपचाप बैठे रहे। वह न तो दुल्हन की ओर देख रहे थे, न ही शादी को लेकर उनमें कोई उत्साह नजर आ रहा था। वह बस अपने गणों से घिरे हुए बैठे रहे और शून्य में घूरते रहे। वधू पक्ष के लोग बार-बार उनसे यह सवाल पूछते रहे क्योंकि कोई भी अपनी बेटी की शादी ऐसे आदमी से नहीं करना चाहेगा, जिसके वंश का अता-पता न हो। उन्हें जल्दी थी क्योंकि शादी के लिए शुभ मुहूर्त तेजी से निकला जा रहा था। मगर शिव मौन रहे।
कहा जाता है, समाज के लोग, कुलीन राजा-महाराजा और पंडित बहुत घृणा से शिव की ओर देखने लगे और तुरंत फुसफुसाहट शुरू हो गई, “इसका वंश क्या है? यह बोल क्यों नहीं रहा है? हो सकता है कि इसका परिवार किसी नीच जाति का हो और इसे अपने वंश के बारे में बताने में शर्म आ रही हो।”
फिर नारद मुनि, जो उस सभा में मौजूद थे, ने यह सब तमाशा देखकर अपनी वीणा उठाई और उसकी एक ही तार खींचते रहे। वह लगातार एक ही धुन बजाते रहे- टोइंग टोइंग टोइंग। इससे खीझकर पार्वती के पिता पर्वत राज अपना आपा खो बैठे, ‘यह क्या बकवास है? हम वर की वंशावली के बारे में सुनना चाहते हैं मगर वह कुछ बोल नहीं रहा। क्या मैं अपनी बेटी की शादी ऐसे आदमी से कर दूँ? और आप यह खिझाने वाला शोर क्यों कर रहे हैं? क्या यह कोई जवाब है?’ नारद ने जवाब दिया, “वर के माता-पिता नहीं हैं।” राजा ने पूछा, “क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वह अपने माता-पिता के बारे में नहीं जानता?”
“नहीं, इनके माता-पिता ही नहीं हैं। इनकी कोई विरासत नहीं है। इनका कोई गोत्र नहीं है। इसके पास कुछ नहीं है। इनके पास अपने खुद के अलावा कुछ नहीं है।” पूरी सभा चकरा गई। पर्वत राज ने कहा, “हम ऐसे लोगों को जानते हैं जो अपने पिता या माता के बारे में नहीं जानते। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो सकती है। मगर हर कोई किसी न किसी से जन्मा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी का कोई पिता या माँ ही न हो।” नारद ने जवाब दिया, “क्योंकि यह स्वयंभू हैं। इन्होंने खुद की रचना की है। इनके न तो पिता हैं न माता। इनका न कोई वंश है, न परिवार। यह किसी परंपरा से ताल्लुक नहीं रखते और न ही इनके पास कोई राज्य है। इनका न तो कोई गोत्र है, और न कोई नक्षत्र। न कोई भाग्यशाली तारा इनकी रक्षा करता है। यह इन सब चीजों से परे हैं। यह एक योगी हैं और इन्होंने सारे अस्तित्व को अपना एक हिस्सा बना लिया है। इनके लिए सिर्फ एक वंश है- ध्वनि। आदि, शून्य प्रकृति जब अस्तित्व में आई, तो अस्तित्व में आने वाली पहली चीज थी- ध्वनि। इनकी पहली अभिव्यक्ति एक ध्वनि के रूप में है। ये सबसे पहले एक ध्वनि के रूप में प्रकट हुए। उसके पहले ये कुछ नहीं थे। यही वजह है कि मैं यह तार खींच रहा हूँ।”
महादेव शिव के बारे में ऐसी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। जो शिव के उस रूप का बोध कराती हैं जो कहता है, “शिव अर्थात वह जो नहीं है।” जो सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान हैं, ये अलग बात है कि महादेव रसरीति से अत्यंत सुलभ साधारण भोलेनाथ हो जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है, प्रेमदेवता जिसको छू लेता है, वह कुछ-का-कुछ हो जाता है। अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो जाता है और सर्वज्ञ अल्पज्ञ हो जाता है। अल्पशक्तिमान सर्वशक्तिमान हो जाता है, सर्वशक्तिमान का भी महाविनाश हो जाता है।
जिस नगरी के कर्ता-धर्ता स्वयं महादेव शिव हों उसकी बात ही क्या! काशी तो शिव के ताल पर नृत्य करती है। ये भी कहा जाता है कि प्रेम के स्पर्श से कुछ-का-कुछ हो जाता है। प्रेमरंग में रंगे हुए प्रेमी के लिए सम्पूर्ण संसार ही प्रेमास्पद प्रियतम हो जाता है। शिव अपने प्रेम की पराकाष्ठा की वजह से ही महादेव हुए, कल्याण के हर रंग के उन्नायक हुए। यह जो रंगभरी एकादशी है, इसमें भी रंग क्या है? जिसके द्वारा जगत रंगों से सराबोर हो उठता है- ‘उड़त गुलाल लाल भये अम्बर’ अर्थात् गुलाल के उड़ने से आकाश लाल हो गया। आकाश इस सारे भौतिक प्रपंच का उपलक्षण है और काशी भौतिकता से आध्यात्म की यात्रा का महामार्ग।
काशी प्राचीन काल से उत्सवधर्मिता और आध्यात्म की अलख जगाए हुए है, जब भी जीवन में खुशियों के रंग कम होने लगे तो आइए काशी, जहाँ मरघट पर भी जीवन का उत्सव नज़र आएगा। जहाँ मृत्यु अंत नहीं बल्कि नए जीवन का प्रस्थान बिन्दु है। मोक्ष का मार्ग है। रंगभरी एकादशी से काशी जीवन की सादगी में रंग और उमंग के साथ ही फक्कड़पने में भी मस्ती-उल्लास-आनन्द का सन्देश देती है।
शुक्रवार (15 मार्च, 2019) को न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर के 2 प्रार्थना स्थलों में एक बंदूकधारी ने अंधाधुंध गोलीबारी कर करीब 49 लोगों की हत्या कर दी। इस घटना से सारी दुनिया को गहरा दुःख पहुँचा है, जो स्वभाविक है। इस मामले की जाँच पड़ताल से पता चलता है कि बंदूकधारी ने यह हमला किसी उग्रवादी संगठन के बहकावे में आकर, जल्दबाजी में या मानसिक रोग की वजह से नहीं किया है।
ये बात जानकार हैरानी होती है कि ब्रेनटेन टैरेंट नाम के इस आरोपित ने अपना एक 74 पेज का घोषणापत्र जारी किया था, जिसमें उसने अपनी सोच, उद्देश्य व हमले के कारण लिखे थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, वह करीब 2 साल से हमले की तैयारी कर रहा था। हमले वाले स्थलों को उसने 3 महीने पहले ही चुन लिया था, और 24 घंटे पहले ही सोशल मीडिया के माध्यम से धमकी भी दी थी।
हमले के वक्त आरोपित ब्रेनटेन टैरेंट ने लगातार 17 मिनट तक वीडियो का लाइव टेलीकास्ट भी किया। हमले के पीछे उसने कई कारणों को जिम्मेदार बताया है। यह कारण जानना इसलिए भी जरूरी है, ताकि वैश्विक शांति के लिए दहशतगर्दी की जड़ को पहचानकर और समझकर, उसका समाधान किया जा सके, जिससे कि भविष्य में ऐसे किसी नृशंस कार्य व हिंसा द्वारा मानवता को शर्मसार करने वाली अप्रिय घटना से बचा जा सके। हालाँकि, यह एक दिवास्वप्न मात्र है।
हमलावर ने अपने घोषणापत्र में सबसे पहले बेतहाशा बढ़ रहे शरणार्थियों का विरोध किया है, वह कहता है, “मुस्लिम शरणार्थी हमारी भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं। यह भूमि श्वेतों की है।” हमलावर ने चिंता जताई है कि शरणार्थी अधिक प्रजनन करके पश्चिमी देशों की धार्मिक जनसांख्यिकी को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। वह शरणार्थियों पर पश्चिम देशों की संस्कृति व शांति भंग करने का आरोप लगाता है।
हमलावर पूरे इतिहास में यूरोपीय भूमि में विदेशी आक्रमणकारियों के कारण हुई हजारों मौतों का बदला लेने की बात कहता है। साथ ही इस्लामिक आक्रान्ताओं पर यूरोप के लाखों लोगों को गुलाम/दास बनाने का भी आरोप लगाता है।
आरोपित ब्रेनटेन टैरेंट यूरोप में हुए जिहादी हमलों में हुई मौतों का जिक्र करता है। गौरतलब है कि शरणार्थियों को शरण देने के बाद से यूरोप में आतंकी घटनाओं में अत्यधिक वृद्धि दर्ज की गई है, जिसमें 2017 का स्टॉकहोम हमला भी शामिल है।
वह ‘एब्बा एकरलैंड’ नाम की एक 12 साल की मूक-बधिर बच्ची जिसकी अप्रैल 2017 के स्टॉकहोम आतंकी हमले में मृत्यु हो गई थी, की बात करता है। गौरतलब है कि स्टॉकहोम हमला रख्मत नाम के एक शरणार्थी ने इस्लामिक स्टेट आतंकी संगठन के समर्थन में किया था।
वह ऐसे राजनेताओं को खुद के देश के लोगों का शत्रु बताता है जो शरणार्थी समर्थक हैं, इसलिए वो उन्हें भी आतंकी संगठनों के खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए संदेश देने की बात करता है। वह कहता है कि शून्यवाद, सुखवाद, व्यक्तिवाद व स्वार्थ ने पश्चिमी विचारों पर नियंत्रण कर लिया है, वह इसे नष्ट करना चाहता है।
हमलावर इस कृत्य द्वारा नाटो (NATO ) के सदस्य राष्ट्रों, यूरोप के देशों व तुर्की के बीच दरार डालना चाहता था, जिससे नाटो से तुर्की को निकाल दिया जाए और वह फिर से एकजुट होकर यूरोपीय सेना में बदल जाए। दरअसल नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) एक अंतर्राष्ट्रीय राज्यसंघ है, जिसमें कुल 29 देश हैं। इनमें 2 देश संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के, 26 देश यूरोप के हैं व एक देश तुर्की है। संधि की अनुसार, इसमें से किसी भी देश पर हमला सभी देशों पर हमला माना जाता है। इनमें से तुर्की एकमात्र इस्लामिक देश है, जिस पर नाटो संधियों के उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं। जैसे वर्ष 2003 में ईराक में आतंकवाद के खिलाफ सेना भेजने से इंकार करना आदि। ऐसे कारणों व सीरिया समस्या के बाद से पश्चिमी देशों में तुर्की को इस्लामिक पक्षपाती देश के रूप में देखा जाने लगा है।
इसके अलावा हमलावर ने ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फिनलैंड, जर्मनी व अन्य पश्चिमी देशों में अप्रवासी, शरणार्थियों आदि द्वारा किए गए महिलाओं के बलात्कार व बाल यौनशोषण के करीब 20 लिंक देते हुए बदला लेने की बात कही है।
हमलावर ने अपना एक चिन्ह भी जारी किया है, जिसमें उसने 8 उद्देश्य रखे हैं
पृथ्वी के पर्यावरण की रक्षा
जिम्मेदार मार्केट
व्यसन मुक्त समाज
कानून एवं व्यवस्था
जातीय स्वराज्य
संस्कृति और परंपरा की रक्षा
कामगारों के अधिकार
साम्राज्यवाद का विरोध
इसके अतिरिक्त भी हमलावर ने कई बातें कहीं हैं, जो उग्र, संगीन, हिंसा समर्थक व विवादित होने के कारण प्रकाशित नहीं किए जा सकते हैं। इस हमले से आज सारा विश्व दुखी महसूस कर रहा है। कानून हाथ में लेकर निर्दोष व्यक्तियों की हत्या करना एक सभ्य समाज में कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए बदले की भावना से भरे इस भटके हुए हमलावर की जितनी कड़ी से कड़ी निंदा की जाए कम है। इस समय हमें वैश्विक शांति के लिए एक समाज, एक शांतिप्रिय विश्व के रूप में एकजुट होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के एक निर्णय के विरुद्ध अपनी याचिका को सुनवाई हेतु सूचीबद्ध किया है। 27 मार्च को सर्वोच्च न्यायलय की संविधान बेंच के समक्ष प्रस्तुत होने वाले मामलों की फेहरिस्त में एक ऐसा भी मामला आया है जिसमें माननीय उच्चतम न्यायलय स्वयं याची है, और यह याचिका दिल्ली उच्च न्यायलय द्वारा दिए गए एक निर्णय के विरुद्ध है। मामला सुप्रीम कोर्ट और सीजेआइ के सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने या ना आने का है।
क्या है मामला
जनवरी, 2010 में दिए गए 88 पन्नों के अपने निर्णय में तीन जजों की दिल्ली हाई कोर्ट बेंच ने एकल बेंच के एक निर्णय को बरकरार रखा गया था। उक्त निर्णय में दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच इस निष्कर्ष पर पहुँची थी कि सुप्रीम कोर्ट व सीजेआइ को याचिकाकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल को सुप्रीम कोर्ट की कार्यशैली व प्रशासन को लेकर माँगी गई सूचना उपलब्ध करानी होगी।
दिल्ली हाईकोर्ट की तीन जजों- चीफ़ जस्टिस एपी शाह, जस्टिस विक्रमजीत सेन, व जस्टिस एस मुरलीधर की बेंच ने सिंगल बेंच के उस निर्णय को बरकरार रखा था जिसमें उसने केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्देश के खिलाफ़ आपत्ति जताती याचिका को खारिज कर दिया था।
2010 में दायर इस याचिका को 2016 में संविधान बेंच को भेजे जाने का निर्णय सुप्रीम कोर्ट की तीन-सदस्यीय पीठ ने किया था। संयोग से आज के सीजेआइ रंजन गोगोई उस समय उस तीन-सदस्यीय पीठ के भी अध्यक्ष थे।
सवालों की फेहरिस्त
उपरोक्त निर्णय के अलावा संविधान बेंच को निम्नलिखित विषयों पर निर्णय लेना है:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत के लिए क्या माँगी गई सूचना को दिए जाने से रोकना आवश्यक है? क्या इस सूचना का माँगा जाना न्यायपालिका में हस्तक्षेप कहा जा सकता है?
क्या माँगी गई सूचना को इस आधार पर रोका जा सकता है कि इससे न्यायपालिका के निर्णयों में भरोसे की कमी आएगी, व संवैधानिक पधाधिकारियों के मुक्त और स्पष्ट राय देने में कठिनाई होगी, जबकि यह प्रभावी मंत्रणा और सही निर्णय लिए जाने के लिए परमावश्यक है?
क्या माँगी गई सूचना, सूचना के अधिकार कानून के Section 8(i)(j) के अंतर्गत दिए गए अपवादों में शामिल है?
जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ इस समय असली मजे ‘भक्त’ ही ले रहे हैं, क्योंकि वे मोदी के पीछे भेड़ की तरह हाँके हुए चले जा रहे हैं, किसी किस्म का लोड ही नहीं है, मोदी अगर उनको अंधे कुएँ में भी कूदा देंगे, तो वे कूद जाएँगे।
लेकिन जिनको मजे नहीं आ रहे, खट्टी डकारें आ रही हैं और शुगर बढ़ा हुआ है, उनमें केवल महागठबंधन के नेता ही नहीं बल्कि फेसबुक के ‘दलित चिन्तक’ भी शामिल हैं। क्योंकि उनको यह तो पता है कि मोदी का विरोध करना है, लेकिन चुनावों की घोषणा के बाद भी यह नहीं पता कि समर्थन किसका करना है। मायावती का, राहुल गाँधी का, लालू यादव का, ममता बनर्जी का, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव का या बाबा आंबेडकर के संविधान को बचाने निकले दलितों के नए एंग्री यंग मैन भीम आर्मी के चंद्रशेखर का?
इसलिए उनकी वॉल पर अगर कभी विचरने जाओ तो वे इन दिनों ‘संविधान/लोकतंत्र खत्म हो जाएगा’ से लेकर मनुवाद और ब्राह्मणवाद आ जाएगा तक का रोना रोते हुए और आपस में एक-दूसरे को सांत्वना देते हुए मिल जाएँगे। और इस हाल से कहीं डिप्रेशन में न चलें जाएँ, तो उससे बचने के लिए आपस में एक-दूसरे से मसखरी भी कर लेते हैं, जो कि दलित चिंतकों के पार्ट पर बहुत अचंभित करने वाली बात है, क्योंकि दलित चिन्तन की शुरुआत ही सवर्णों को गाली देने से, और सवर्ण बन जाने के हथकंडों से होती है। इसलिए इस दौरान यह लोग सामान्य मनुष्य न रहकर नीले झंडे के तले बौद्धिक फिदायीन बन जाते हैं, जिनके लिए हँसी-मजाक करना लगभग निषेध होता है। लेकिन दलितों के हितों की बात करने वाले नकारा नेताओं ने इनको इस हश्र तक पहुँचा दिया है।
बहरहाल, इन दिनों जबकि मोदी जी 2019 के फाइनल के लिए 7 लोक कल्याण मार्ग के भीतर नेट प्रैक्टिस कर रहे हैं, तब मायावती जी आलरेडी फुल फॉर्म में आ चुकी हैं। रोज उनके नए-नए करतब और बयान सामने आते रहते हैं, जिनमें से एक यह भी है कि वे अब कॉन्ग्रेस को फूटी आँख देखना भी पसंद नहीं करेंगी, अर्थात वे चुनावों में और चुनावों के बाद भी कांग्रेस से किसी भी प्रकार का वास्ता नहीं रखेंगी, जबकि उन्होंने अमेठी और रायबरेली सीट कांग्रेस के लिए छोड़ रखी है, जो अखिलेश यादव के अनुसार महागठबंधन में कांग्रेस की हिस्सेदारी का टोकन है, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने अपने दो विधायकों के साथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस की अल्पमत सरकार को समर्थन भी दिया हुआ है।
कुछ दिनों पहले उन्होंने लखनऊ में अपनी हवेली पर लालू जी के कनिष्ठ पुत्र तेजस्वी यादव को बुलवाया था, उनसे अपने पैर छुआने का फोटो सेशन करवाया और कुछ दिनों बाद यह घोषणा कर दी कि वे बिहार में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेंगी। उनकी धुआँधार लप्पेबाजी यहीं नहीं रुक रही है, बल्कि खबर यह भी है कि वे अप्रैल के पहले सप्ताह में अखिलेश यादव के साथ मैनपुरी सीट पर महागठबंधन के प्रत्याशी का प्रचार करने के लिए भी जा रही हैं, प्रत्याशी बोले तो तो साक्षात ‘मुलायम सिंह यादव’।
‘निष्पक्ष’ लोग मोदी पर जो अलग-अलग वैरायटी के आरोप लगाते हैं, उसमें से एक यह भी है कि मोदी नफरत फैलाने वाला और विभाजनकारी नेता है, लेकिन 2019 में जिस प्रकार के राजनीतिक समीकरण ‘मोदी’ की वजह से बने हैं, जहाँ मायावती; मुलायम सिंह का प्रचार कर रही हैं, केजरीवाल; कांग्रेस से गठबंधन के लिए 10 जनपथ के आगे लगभग कटोरा लिए खड़े हैं, वामपंथी; बिना शर्त ममता बनर्जी को समर्थन देने के लिए राजी हो गए हैं, उमर अब्दुल्ला; महबूबा मुफ्ती के ट्वीट को रीट्वीट कर रहे हैं, राहुल गाँधी; सीडी सम्राट हार्दिक पटेल के साथ गलबहियाँ कर रहे हैं तब मोदी को विभाजनकारी कहने वाले लोगों को भींगा हुआ जूता सीधे अपने मुँह पर मार लेना चाहिए। बल्कि मैं तो मानता हूँ कि समाज में इतना प्रेम, दया, सौहार्द, करुणा फ़ैलाने वाला नेता ज्ञात और लिखित इतिहास में कोई पैदा ही नहीं हुआ है।
बहरहाल, मैं फिर से मेरी फेवरेट नेता मायावती जी की ओर लौटता हूँ, तो सुश्री मायावती जी मैनपुरी के चुनावी मंच से उस नेता का प्रचार करेंगी, जो मायावती के गठबंधन सहयोगी अखिलेश यादव का बाप है, मायावती जी मैनपुरी के लोगों से उस नेता को जिताने की अपील करेंगी, जिसने उत्तर प्रदेश में खड़े खम्भों को जिता दिया है, वे उस नेता को जिताने के लिए कहेंगी, जिनके न समझ में आने वाले भाषणों से भी इम्प्रेस होकर यूपी की जनता ने दर्जनों सांसद दिल्ली भेजे हैं, और वे उस नेता को जिताने के लिए अपील करेंगी, जो पहले ही देश के लोगों से मोदी को जिताने के लिए अपील कर चुका है।
इतने भी पर भी सोचिये उस एक संभावित दृश्य को जब मैनपुरी के चुनावी मंच से पहले अखिलेश यादव खड़े होकर नेताजी के लिए वोट माँगेगे, फिर मायावती जी जनता से कहेंगी कि वे आज जो कुछ भी हैं, नेताजी की वजह से ही हैं, अगर आज नेताजी न होते तो अखिलेश जी भी न होते और तब हम गठबंधन किससे करते।
और अंत में आदरणीय मुलायम सिंह जी खड़े होकर, उपस्थित जनसमूह से कहेंगे कि “हमाए लला अखिलेश आज बहुत अच्छे बोले और भेन मायावती तो सुषमा स्वराज के बाद देश की दूसरी सबसे ग़जब की वक्ता हैं हीं, इसलिए उनकी बातेंऊँ सारी सही हैं, लेकिन एक सही बात आज हमहूँ कहि दे रहे हैं, चाहें तो लिख कें ले लेओ कि दुनिया इतें की वितें हे जाय, आवेगो तो मोदीअई”
कश्मीर में सेना की उपस्थिति को लेकर ट्विटर पर तीखी बहस देखने को मिली। हुआ यूँ कि स्वघोषित ‘मानवाधिकार रक्षक’ खुर्रम परवेज़ ने सेना की उपस्थिति भर को अपने बच्चों के लिए भय का सबब बता दिया। जवाब में जानी-मानी दक्षिणपंथी ब्लॉगर और कश्मीर के अल्पसंख्यक डोगरा हिन्दू समुदाय से ताल्लुक रखने वालीं सोनम महाजन ने पलटवार किया। उन्होंने कहा कि अहसानफरामोशों और आतंकवादियों के समर्थकों द्वारा आपके घर पर कब्ज़ा कर लिया जाना और आपका खुद शरणार्थी शिविर में सड़ना (और भी) हृदय-विदारक है। यह (भी) ह्रदय-विदारक है जब आपका बच्चा आपसे पूछे कि क्या वह बिना पत्थरबाज़ों के हमले के डर के अपने घर लौट पाएगा।
सोनम महाजन का इशारा कश्मीरी पण्डितों के लगभग तीस साल पुराने नरसंहार की ओर था, जिसके बाद कश्मीर के लगभग सभी हिन्दुओं और सिखों को जान बचाने के लिए घाटी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था।
क्या था खुर्रम का ट्वीट और क्या मिला जवाब
It is heartbreaking to answer your child when on the way to his school you get stuck in the road blockade for army convoy to pass & your child asks, will this ever change in Kashmir?
It’s heartbreaking to rot in a refugee camp while having your own house which has now been occupied by ungrateful terror-agents who you once fed. It’s heartbreaking when your child asks you if he can ever go back to Kashmir without having his head hit with a stone. It really is. https://t.co/rbs7y3eIZ6
इसे सीधे-सीधे ओछापन तो नहीं कह सकते पर यह दुर्भाग्यपूर्ण अवश्य है कि खुर्रम परवेज़ अपने बेटे का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के तौर पर कर रहे हैं। अगर आप अपनी राजनीति में अपने परिवार का इस्तेमाल ढाल के तौर पर करेंगे तो आप अपने विरोधियों को उस ढाल पर प्रहार करने के लिए दोष नहीं दे सकते।
और अगर उन्हें किसी को अपने बेटे के ‘डर’ के लिए दोष देना ही है तो उन कश्मीरी दहशतगर्दों को दें जो इसी ताक में बैठे हैं कि यहाँ कश्मीर आज़ाद हो, वहाँ हिन्दुओं का या तो जबरन धर्मांतरण कर दिया जाए या क़त्ल कर दिया जाए। अपने बेटे के ‘डर’ का किसी को दोष देना ही है तो उन सैयद अली गिलानी को दें जो खुल कर यह कहते हैं कि कश्मीर उनके और उनके प्यारे कश्मीरियों के लिए राजनीतिक नहीं, मज़हबी मुद्दा है।
और अगर उन्हें इन ताकतों के खिलाफ़ मुँह खोलने में अपने बेटे की ‘mob-lynching’ हो जाने का डर है तो ज़रा जा के उसी सेना से एक बार सुरक्षा की गुहार लगाएँ। भारतीय सेना के ‘काफ़िर’ वीर सदियों से अपनी जान की कुर्बानी दे कर भी शरणार्थी को अभय प्रदान करते आए हैं।
भारत देश अभी आतंकवाद की घटना से उबरा नहीं था कि न्यूजीलैंड में भी एक वीभत्स नरसंहार की घटना सामने आई है, जिसमें एक बन्दूकधारी ने लगभग 50 लोगों को मार दिया। न्यूजीलैंड के शहर क्राइस्टचर्च की मस्जिद में किए गए हमले में इस 28 वर्षीय आरोपित का नाम है, ब्रेनटेन टैरेंट! लेकिन अचानक से यह हास्य की घटना में क्यों तब्दील हो गई?
यह घटना तब तक एक सामान्य घटना थी, जब तक भारत में बैठे मीडिया गिरोह के गिद्धों को ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री ने उनके मतलब की ‘जानकारी’ नहीं उपलब्ध करवाई थी। यह ‘जानकारी’ थी इस घटना के बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन द्वारा की गई कड़ी निंदा! उन्होंने ब्रेनटेन टैरेंट नाम के उस आरोपित को ‘दक्षिणपंथी आतंकवादी’ बताकर तुरंत हमारे मीडिया गिरोह में बैठे भेड़ियों के लिए काम आसान कर दिया।
पेशे से पत्रकार किन्तु दिमाग से ‘न्यूट्रल’ सागरिका घोष और बरखा दत्त ने फ़ौरन इस लाइन को बेचकर सस्ती लोकप्रियता जुटाना शुरू कर दिया। लेकिन ‘येन केन प्रकारेण’ लोकप्रियता जुटाने की इस कला में वो अक्सर भूल जाती हैं कि वो वास्तविक मुद्दे और समस्या से एक बार फिर लोगों का ध्यान भटका चुके हैं।
जो पत्रकार पुलवामा आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार जिहाद की मानसिकता को कभी जिहाद नहीं बोल पाए हैं, वो अगर इस प्रकार की घटना को तुरंत किसी ‘पंथ’ से जोड़ दें और इसे आतंकवाद घोषित करने के लिए क्रान्ति छेड़ देते हैं, तो समझ आता है कि यह सिर्फ और सिर्फ किसी विचारधारा के प्रति कुंठा के कारण ही ऐसा करते हैं। लेकिन फिर सवाल यह भी है कि अगर किसी विचारधारा के प्रति कुंठा आपको ऐसा करने पर मजबूर करती है, तो इस तरह से 49 मुस्लिमों को मारकर वीडियो बनाने वाले व्यक्ति को आप किस प्रकार से दोषी ठहरा पाएँगे?
इस घटना को दक्षिणपंथी आतंकवाद ठहराने पर प्रतिक्रिया होना भी स्वाभाविक है और वो लोग जिनके खिलाफ ऐसे मीडिया गिरोह के गिद्ध जहर भरकर बैठे हुए हैं, उन्होंने भी अपनी राय रखनी शुरू कर दी है।
दक्षिणपंथी विचारधारा को आतंकवाद से जोड़ने की हड़बड़ी कुछ लोगों में इतनी रहती है कि वो भूल जाते हैं कि ये उनकी हरकतों का ही नतीजा ही है कि लोग न्यूजीलैंड की इस घटना पर लिखना शुरू करते हैं – ‘Just for a change, it was not a Muslim person this time।’ यानि, यह चौंकाने वाली बात है कि आतंकवाद शब्द चर्चा में है और इसमें मजहब विशेष का योगदान नहीं है।
इतना ही नहीं, भारतीय मीडिया के समुदाय विशेष की इस नीच हरकत के जवाब में कुछ लोगों ने लिखा है, “न्यूज़ीलैंड में अभी एक मस्ज़िद पर हमला हुआ। फ़ॉर आ रिफ्रेशिंग चेंज, हमलावर शांतिदूत नहीं था। हमलावर न्यूज़ीलैंड का एक आम क्रिस्चियन नागरिक था। जिसे सजा देकर उसका भविष्य खराब नहीं किया जाना चाहिए, हो सकता है वो किसी हेडमास्टर का बेटा हो।” कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने एक कदम आगे जा कर इन्हीं पत्रकारिता के कलंकों पर कटाक्ष करते हुए लिखा है, “Just wondering, no one from our neutral Media Giroh has tweeted yet – “सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या।” ऐसा प्रश्न शायद इसलिए किया गया है क्योंकि पत्रकारिता से जुड़े कुछ लोगों ने पुलवामा आतंकी हमले को कॉन्सपिरेसी थ्योरी की सारी हदें पार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव जीतने की साजिश बताया था।
दक्षिणपंथी अगर चाहें तो तख्तियाँ पकड़कर यूट्यूब पर उसे वायरल कर ब्रेनटेन टैरेंट को भटका हुआ नौजवान साबित करने का अभियान चला सकते हैं। या उसे निर्दोष साबित करने और क्षमायाचना के लिए इंटरनेट पर ऑनलाइन पिटीशन भी साइन करवा सकते हैं। लेकिन उन्हें आतंकवाद को आतंकवाद कहना आता है, ना कि गोदी मीडिया की तरह आतंकवादियों को विक्टिम कार्ड जैसे खिलौने देकर उन्हें समर्पण के बजाए गौरवान्वित महसूस करवाते हैं।
खुद को अन्य लोगों से ज्यादा सभ्य और पढ़ा-लिखा बताने वाला यह मीडिया गिरोह जब आतकंवाद को दक्षिणपंथ से जोड़ने का प्रपंच रचता है तो प्रतिक्रिया में लोग उन्हीं की भाषा में जवाब देकर अपना विरोध जताते हैं। इसके बाद यदि यही लोग न्यूजीलैंड में हुई 49 लोगों की मौत की खबर पर सोशल मीडिया पर जाकर ‘HAHA’ और ‘दिल’ बनाकर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, तो ये सब मात्र आपके द्वारा उन्हें लगातार लज्जित किए जाने के प्रयासों पर प्रतिक्रिया मात्र है और आपने इस पर शिकायत करने का अधिकार खो दिया है।
आतंकवादी बुरहान वानी के प्रति उसके नाम की वजह से सहानुभूति रखकर उसे एक हेडमास्टर का बेटा बताने वाली बरखा दत्त कल से एक क्रांतिकारी अभियान पर हैं। बरखा दत्त किसी भी शर्त पर चाहती हैं कि आरोपित ब्रेनटेन टैरेंट को आतंकवादी घोषित किया जाए। यह दोहरा नजरिया ही इन लोगों को पत्रकार नहीं बल्कि सामाजिक ट्रॉल की उपाधि देता है और दक्षिणपंथी इन्हें पत्रकारिता का आतंकवाद कहने से नहीं हिचकिचाते हैं।
49 लोगों की हत्या पर HAHA करने वालों को एक बार सोचना चाहिए कि उनकी प्रतिक्रिया करने का तरीका तार्किक नहीं है। सवाल कीजिए तो जवाब मिलता है कि पुलवामा में जिहाद के नाम पर घटी आतंकवादी घटना पर भारतीय बलिदानी सैनिकों की मृत्यु की खबर पर ऐसे लोगों ने इसी प्रकार की अतार्किक प्रतिक्रिया दी थी, जिनके नाम में उनका मजहब नहीं ढूँढा जाना चाहिए। उनका मानना है कि यदि वो इस मीडिया गिरोह के लाडले हैं तो फिर ये लाडले बनने का अधिकार दक्षिणपंथियों को भी अवश्य मिलना चाहिए।
वास्तव में, यदि देखा जाए तो पुलवामा आतंकवादी घटना के बाद पाकिस्तान जैसे देश भी भारत को शान्ति और मानवता का पाठ पढ़ाते नजर आ रहे थे। इसमें इसी पत्रकारिता के समुदाय विशेष ने काफी चरमसुख की प्राप्ति की थी। लेकिन नरेंद्र मोदी और भारतीय सेना को पाकिस्तान को सबक सिखाने का दृढ़ निश्चय लेता देख इमरान खान की हाँ में हाँ मिलाने और उसकी तारीफ करने वाला यह पत्रकारिता का धूर्त गिरोह यह भूल जाना चाहता है कि यही वो शांतिदूतों का देश पाकिस्तान है, जो लगातार हमारे देश में आतंकवाद को प्रोत्साहन देता रहा है। ये वही शांतिदूत हैं जो पिछले कई दशकों से भारत देश को लगातार खून और आतंकवाद का तोहफा देते आए हैं।
क्या है आतंकवाद की जड़
अब यदि भारत देश की सहिष्णुता की तुलना करें तो हम देखेंगे कि कल न्यूजीलैंड में हुई इस घटना के आरोपित ब्रेनटेन टैरेंट ने एक मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) जारी कर लिखा था, “न्यूज़ीलैंड की डेमोग्राफी तेज़ी से बदल रही है, बाहर से इस्लामिक लोग तेज़ी से अंदर आ रहे हैं और अपने आप को मल्टीप्लाई कर रहे हैं, उसे रोको।”
अगर देखा जाए तो ब्रेनटेन टैरेंट का मुद्दा बहुत सरल था, सारी उथल-पुथल के बीच उसे भी सुना जाना चाहिए। वो एक हिंसक मानसिकता के द्वारा पीड़ित व्यक्ति था, जिसका मकसद समाज और अपनी सरकार को एक सन्देश देना था। बेशक ब्रेनटेन मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति था, लेकिन उसके अंदर ये घृणा मात्र एक दिन में नहीं उपजी थी। यह निरंतर हुई कुछ घटनाओं का ही परिणाम था, जिसने उसे इतना बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर किया।
आरोपित ब्रेनटेन ने 49 लोगों को मार गिराने के पीछे कारण देते हुए इबा (Ebba) का जिक्र किया और कहा कि ऐसा कर के उसने Ebba का बदला लिया है। Ebba गूँगी-बहरी बच्ची थी, जो स्कूल से लौटते समय एक चोर की गाड़ी का शिकार हुई थी। यह हादसा 7 अप्रैल 2017 के दिन स्टॉकहॉम में हुई थी। Ebba स्कूल से आ रही थी और एक वैन ने Ebba को कुचल दिया। वैन चलाने वाला एक मुस्लिम शरणार्थी था। उस समय कल की घटना का आरोपित ब्रेनटेन यूरोप भ्रमण पर था और इस घटना ने उसके मन मष्तिष्क पर गहरा आघात पहुँचाया था। ब्रेनटेन ने अपने घोषणापत्र में लिखा है कि इस्लाम को अन्य धर्म पसन्द नहीं हैं और इस्लाम को जो शरण देता है, इस्लाम उसे भी अपना शिकार बनाने से नहीं चुकता है। इस प्रकार यह क्रिया पर प्रतिक्रिया का उदाहरण है। लेकिन मानवता को ताक पर इस तरह के घृणित कदम सिर्फ कोई पीड़ित मानसिकता का ही व्यक्ति कर सकता है और इस मानसिकता का कोई धर्म नहीं होता है।
साधन की पवित्रता
महात्मा गाँधी हमेशा साधन की पवित्रता पर बल देते थे। हिंसा और आतंकवाद किसी भी तरह से साधन और समाधान नहीं माने जा सकते हैं। इसी तरह से अपनी मानसिकता को ऊँचा साबित करने के लिए अन्य किसी मानसिकता को नीचा बताने का निरंतर प्रयास भी एक पवित्र साधन नहीं हो सकता है। अब आतंकवादियों के आतंकवाद की तुलना भारतीय मीडिया गिरोह के पत्रकारों से कर के देखिए। ये भी सिर्फ दूसरी मानसिकता और विचारधारा से ही संघर्षरत नजर आते हैं, जिस कारण इसे ‘पत्रकारिता का आतंकवाद’ कहा जाना चाहिए। इसी संघर्ष में हमारे देश का यह मीडिया गिरोह हर मुद्दे की प्रासंगिकता को नष्ट कर देता है, उसकी गंभीरता को हास्य का विषय बना देता है।
हमें अपनी वर्तमान स्थिति से बहुत ऊपर उठने की जरूरत है। आतंकवाद को समाधान समझना सिर्फ पीड़ित मानसिकता का स्वर है। इसे ‘पंथ’ और ‘वाद’ में बाँटकर हम इससे ‘इम्यून’ नहीं हो सकते। इस तरह की घटनाओं का शिकार कोई भी व्यक्ति हो सकता है, इसलिए मृतकों के शवों पर अपनी घृणित विचारधारा की दुकान चलाना और दूसरे को नीचा दिखाना ना ही सागरिका घोष को शोभा देता है और ना ही सोशल मीडिया यूज़र्स को! यह समझना जरुरी है कि आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष सामूहिक संघर्ष होना चाहिए। हम सबका प्रयास आतंकवाद का धर्म और पंथ तलाशना नहीं बल्कि ‘लेफ्ट-राइट-मुस्लिम-ईसाई’ छोड़कर आतंकवाद को जड़ से मिटाना होना चाहिए।