Monday, November 11, 2024
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दिल्ली की मीडिया के दावों जैसी नहीं कर्नाटक की हवा, क्या फिर पोल पंडितों का गणित निकलेगा कमजोर

दिल्ली की मीडिया में दूसरा बड़ा दावा कर्नाटक में करप्शन के सबसे बड़ा मुद्दा होने का किया जाता है। लेकिन प्रचार के दौरान कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि काॅन्ग्रेस चुनाव को इस मुद्दे के इर्द-गिर्द सीमित करने में सफल रही है।

रिकॉर्ड मतदान (73.19%)। जहरीला साँप से लेकर बजरंग बली की जय वाला चुनाव प्रचार। 10 एग्जिट पोल में से 4 में कॉन्ग्रेस को बहुमत। 1 में बीजेपी की सरकार। 4 में त्रिशंकु विधानसभा। 2018 के चुनाव में सबसे सटीक आकलन करने वाले का बीजेपी को बढ़त देना। सबके अपने-अपने जीत के दावे। किंगमेकर बनने की आस लिए बैठी एक पारिवारिक पार्टी (JDS)। जी, मैं बात कर रहा हूँ कर्नाटक विधानसभा चुनावों (Karnataka Assembly election, 2023) की।

13 मई 2023 की दोपहर होते-होते कर्नाटक की 224 सदस्यीय विधानसभा चुनाव की तस्वीर साफ हो जाएगी। लेकिन तमाम किंतु-परंतु के बीच कोई भी आँकड़ा अब तक उस दावे को पुख्ता नहीं कर रहा है जो कई महीने पहले से ही दिल्ली की मीडिया में तैर रही थी। यह दावा है कर्नाटक में जबर्दस्त सत्ता विरोधी लहर का। बीजेपी सरकार के कथित भ्रष्टाचार से आम लोगों में भारी नाराजगी का। प्रवीण नेट्टारू जैसों की इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा की गई हत्या के बाद से कोर वोटरों में निराशा होने का।

सत्ता विरोधी लहर का मतलब होता है विपक्ष को प्रचंड बहुमत मिलना। लेकिन एग्जिट पोल काॅन्ग्रेस के लिए ऐसा कोई अनुमान नहीं लगा रहे। एक्सिस माई इंडिया और इंडिया टुडे ने भले 10 मई की शाम को काॅन्ग्रेस को 140 सीटें मिलने तक का अनुमान लगाया था। लेकिन नतीजों से ठीक पहले इंडिया टुडे के न्यूज डायरेक्टर राहुल कंवल ने एक ट्वीट में कहा है कि 57 सीटें ऐसी हैं जो किसी भी तरफ झुक सकती हैं। इनमें 6 सीटें ऐसी हैं जिस पर बीजेपी की टक्कर काॅन्ग्रेस से न होकर जेडीएस से है। 4 सीटें तो ऐसी भी हैं जो निर्दलीय भी झटक सकते हैं। कंवल ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि 13 मई के अंतिम नतीजे इन्हीं 57 सीटों से तय होंगी। अमूमन जब सत्ता विरोधी लहर चल रही हो तो इतने बड़े पैमाने पर काँटे की टक्कर नहीं दिखती। विपक्ष को स्पष्ट तौर पर बढ़त दिखती है।

इस तथ्य को समझाने के लिए एक्सिस माई इंडिया और इंडिया टुडे के एग्जिट पोल का उदाहरण इसलिए दिया गया क्योंकि काॅन्ग्रेस के लिए सबसे बेहतर संभावना इसमें ही दिखाई गई है। दिल्ली की मीडिया में दूसरा बड़ा दावा कर्नाटक में करप्शन के सबसे बड़ा मुद्दा होने का किया जाता है। लेकिन प्रचार के दौरान कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि काॅन्ग्रेस चुनाव को इस मुद्दे के इर्द-गिर्द सीमित करने में सफल रही है। उलटे जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता गया काॅन्ग्रेस बैकफुट पर जाती दिखी। पहले उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विषधर साँप कहने पर सफाई देनी पड़ी। फिर बजरंग दल की तुलना पीएफआई से कर वह ऐसे फँसी कि उसे हर जिले में बजरंग बली का मंदिर बनाने का वादा करना पड़ा। पिछले कई चुनावों के नतीजों पर यदि गौर करेंगे तो उससे यह भी पता चलता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों और साॅफ्ट हिंदुत्व से बीजेपी को पराजित करने में काॅन्ग्रेस को कहीं भी सफलता नहीं मिली है।

तीसरा दावा दिल्ली की मीडिया में प्रवीण नेट्टारू जैसों की हत्या से बीजेपी के कोर वोटरों में निराशा को लेकर किया जाता है। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान ही हमने नेट्टारू के परिजनों के लिए बने घर की तस्वीरें भी देखी हैं। हमने उनके परिजनों के वह बयान भी सुने हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि मुश्किल वक्त में बीजेपी ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। कभी उनको अकेला महसूस नहीं होने दिया। ऐसे में यह समझ पाना मुश्किल है जिस नेतृत्व से पीड़ित परिवार ही निराश नहीं है, उनके साथ हुई घटना से कोर वोटरों के निराश होने की थ्योरी कहाँ से निकली होगी? या फिर किसी प्रोपेगेंडा के तहत दिल्ली की मीडिया में इसे प्लांट किया गया था?

जाहिर है कि बीजेपी रेस से बाहर नहीं है। न ही कर्नाटक में वह बेहद बुरा प्रदर्शन करने जा रही है। जब उसे इस राज्य में सबसे मजबूत स्थिति में माना गया था, तब भी वह साधारण बहुमत ही हासिल कर पाई थी। ऐसे में कर्नाटक से जुड़े कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी हो जाता है। 1978 तक इस राज्य में हर विधानसभा चुनाव में काॅन्ग्रेस को जीत मिली। लेकिन, 1985 के बाद किसी भी चुनाव में सत्ताधारी दल को जीत नहीं मिली। पिछले नौ चुनावों के ट्रेंड यह भी बताते हैं कि बीजेपी यदि सत्ता में रही है तो उसका वोट प्रतिशत सुधरा है। इसके ठीक उलट काॅन्ग्रेस यदि सत्ता में रही है तो उसको औसतन चार फीसदी वोटों का नुकसान झेलना पड़ा है।

अगर इन तथ्यों को ही सच मान लें तो तीन बातें तय दिखती हैं। पहला, 38 साल का ट्रेंड बताता है कि बीजेपी सत्ता में वापसी लायक सीटें हासिल नहीं कर पाएगी। अधिकतर एग्जिट पोल इसका अनुमान लगा रहे हैं। दूसरा, काॅन्ग्रेस विपक्ष में है, इसलिए उसे वोटों का नुकसान नहीं होगा। तीसरा, बीजेपी सत्ता में है तो उसके वोट बढ़ेगे। क्या 2018 के चुनावों के मुकाबले मतदान में जो एक फीसद की वृद्धि हुई है, वह बीजेपी का बढ़ा वोट है? यदि ऐसा है तो यह किसी भी पोल में नहीं दिखा है और न ही किसी पोल पंडित ने ऐसा पाया है। कर्नाटक के पिछले कुछ चुनावों के तथ्य और ट्रेंड को इस बार भी अंतिम सत्य (बीजेपी की हार) मान लें तो भी यह कहीं से नहीं दिखता कि कोई सत्ता विरोधी लहर चल रही थी। करप्शन बड़ा मुद्दा था। कोर वोटर निराश थे।

ऐसा भी नहीं है कि जिस कर्नाटक को बीजेपी के लिए ‘दक्षिण का द्वार’ कहते हैं, उसकी कठिन डगर का एहसास पार्टी को नहीं था। जनवरी 2023 के मध्य में मुझे बीजेपी के दिल्ली मुख्यालय में इसका पहली बार एहसास हुआ। बंद कमरे में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कुछ लोगों से बातचीत कर रहे थे। इस दौरान 2023 में होने वाले राज्यों के चुनाव पर बातचीत के दौरान उन्होंने माना कि कर्नाटक की सत्ता में वापसी आसान नहीं है।

संभवतः यही कारण है कि बीजेपी ने टिकट बँटवारे के दौरान सख्त फैसले लिए। बड़े पैमाने पर नए चेहरों को मौका दिया। पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार जैसे नेताओं की नाराजगी की चिंता नहीं की। कई हेविवेट के टिकट काट दिए। राज्य के अपने सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा को मोर्चे पर लगाया। एक्सिस माई इंडिया और इंडिया टुडे का एग्जिट पोल भी कहता है कि येदियुरप्पा जिस लिंगायत समुदाय से आते हैं उसका 64 फीसदी वोट बीजेपी को गया है। यानी लिंगायत समुदाय से आने वाले जगदीश शेट्टार भले बीजेपी छोड़कर काॅन्ग्रेस में चले गए हैं, पर इस समुदाय का आम वोटर बीजेपी के ही साथ है।

यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि कर्नाटक में बीजेपी के उभरने की सबसे बड़ी वजह लिंगायतों का समर्थन ही माना जाता है। हाल के समय में कर्नाटक में बीजेपी ने सबसे बुरा प्रदर्शन 2013 में तब किया जब येदियुरप्पा उससे अलग हो गए थे। जन की बात के फाउंडर प्रदीप भंडारी ने भी ऑपइंडिया से बातचीत में कहा कि लिंगायत के बीच बीजेपी का आधार पहले की तरह ही बना हुआ है। गौरतलब है कि 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों का सबसे सटीक आकलन जन की बात ने ही किया था। इस बार अपने एग्जिट पोल में उसने बीजेपी के सबसे बड़ी पार्टी होने का अनुमान लगाया है।

प्रदीप भंडारी ने इस चुनाव के दौरान भी करीब-करीब पूरे कर्नाटक की यात्रा की है। उन्होंने करीब 50 दिन इस राज्य में बिताए हैं। उनका कहना है, “बुरी से बुरी स्थिति में बीजेपी को 90 सीटें मिलनी चाहिए। यदि मैं क्लोज मार्जिन की सभी सीटों पर काॅन्ग्रेस की जीत मान लूँ तब भी वह बहुमत हासिल नहीं करने जा रही है। मेरा स्पष्ट मानना है कि नतीजों से त्रिशंकु विधानसभा की तस्वीर उभरेंगी।”

ऑपइंडिया से बातचीत में ऐसे ही नतीजों का दावा कर्नाटक में 20 दिन बिताकर लौटे यूट्यूबर पत्रकार अभिषेक तिवारी भी करते हैं। उन्होंने बताया, “मुझे कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं दिखी। बीजेपी का वोट शेयर 36 फीसदी से कम होने की भी कोई संभावना नहीं दिखती। काॅन्ग्रेस को बहुमत के लिए अपना वोट शेयर 42 फीसदी तक ले जाना होगा, जिसकी संभावना कम दिखती है। ऐसे में मुझे लगता है कि सरकार किसकी बनेगी, यह जेडीएस और निर्दलीय तय करेंगे।”

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पोल पंडित 2020 के बिहार और 2018 के राजस्थान चुनावों की तरह ही कर्नाटक चुनाव की नब्ज पकड़ने में असफल रहे हैं? ध्यान रहे कि इन दोनों चुनावों में भी सत्ता विरोधी लहर चलने का शोर वैसा ही था, जैसा अभी कर्नाटक को लेकर है। लेकिन जब अंतिम नतीजे आए तो बिहार में सत्ताधारी गठबंधन ही आगे रहा। राजस्थान में काॅन्ग्रेस साधारण बहुमत ही हासिल कर पाई। प्रदीप भंडारी का भी मानना है कि सीटों का अनुमान लगाने में ज्यादातर लोग बिहार जैसी ही गलती कर रहे हैं।

वैसे यह रात पोल पंडितों के साथ काॅन्ग्रेस के लिए भी भारी है। आखिर उनके ‘युवराज’ ने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कर्नाटक में 27 दिन जो बिताए थे। इस राज्य के 7 जिलों से जो गुजरे थे।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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