मोदी सरकार की केन्द्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति ने हाल ही में जातिगत जनगणना को मंजूरी दी। देश भर में जातिवार आँकड़े नई जनगणना के साथ ही जुटाए जाएँगे। विपक्ष ने इसे जहाँ अपने दबाव का असर बताया तो वहीं मोदी सरकार ने स्पष्ट किया कि कॉन्ग्रेस और INDI गठबंधन लगातार इस मामले पर धोखा करते आए हैं। यह जातिवार आँकड़े कब सामने आएँगे, यह सभी स्पष्ट नहीं हुआ है। सरकार ने भी अगली जनगणना की समयसीमा को लेकर कोई समयसीमा तय नहीं की है।
जातिगत जनगणना बीते कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में चर्चित शब्द रहा है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राजद और राष्ट्रीय स्तर पर कॉन्ग्रेस ने इसको लेकर खूब हल्ला किया है। जातिगत जनगणना का यह नया प्रयास कब होगा, यह स्पष्ट नहीं है लेकिन इसके साथ ही देश की पहली जातिगत जनगणना की चर्चा भी हो रही है। इसे 1931 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत करवाया गया था। 1931 में हुई इस जनगणना में कई ऐसी जानकारियाँ सामने आई थीं, जिनकी लगभग 90 वर्षों बाद भी भारतीय राजनीति में प्रासंगिकता है।
क्यों करवाई थी अंग्रेजों ने जातिगत जनगणना?
मोदी सरकार ने बताया है कि उसने यह जनगणना का फैसला इसलिए लिया है ताकि समाज आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत रहे और देश की प्रगति बिना किसी अवरोध के जारी रहे।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भले ही यह जातिगत जनगणना इसलिए करवाई जा रही हो ताकि देश में समाजिक रूप से पिछड़े लोगों के विषय में जाना जा सके, लेकिन अंग्रेजों के यह जातिगत जनगणना करवाने के पीछे कुछ और कारण थे।
अंग्रेज भारत पर शासन बनाए रखने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाते थे। जातिगत जनगणना भी इसी का एक हिस्सा था। जातिगत जनगणना से अंग्रेजों को जानना चाहते थे कि किस इलाके में कौन सा जातीय समूह मजबूत है और उनके लिए समस्या बन सकता है। इसके अलावा वह उस समय देश में चल रहे जातीय आंदोलनों को भी कमजोर करना चाहते थे, क्योंकि यह आंदोलन कभी-कभार जातीय आधार से उठकर अंग्रेजों से आजादी के विरोध का प्रतीक बन जाते थे।
जातिगत जनगणना के समय भारत के जनगणना आयुक्त रहे JH हट्टन ने 1931 की रिपोर्ट में भी इन प्रदर्शनों और आंदोलनों के विषय में लिखा है। अंग्रजों के जातिगत जनगणना करवाने का एक और कारण यह था कि तब ब्रिटिश आर्मी में भर्ती बड़े स्तर पर जाति आधारित होती थी। ब्रिटिश आर्मी में जाट रेजिमेंट, महार रेजिमेंट, राजपूत रेजिमेंट समेत कई जाति आधारित रेजिमेंट थीं। कई जातियों को अंग्रेज ‘मार्शल रेस’ (लड़ाका कौमें) कहते थे।
ऐसे में देशव्यापी आँकड़े जान कर अंग्रेज अपनी सेना भी उसी हिसाब से मजबूत करना चाहते थे। जाति आधारित जनगणना से उन्हें स्पष्ट होता कि किन जातियों को बड़ी संख्या में भर्ती किया जा सकता है। इन सबके अलावा आँकड़ों का एक फायदा अंग्रेजों को अपना प्रशासनिक ढाँचा मजबूत करने में था। कई ऐसी जातियाँ थीं, जो ब्रिटिश शासन के दौरान बड़ी संख्या में सरकारी सेवा में थीं। इन सबके विषय में भी अंग्रेजों ने जानकारी जुटाई गई थी।
क्या निकले थे परिणाम?
अंग्रेजों द्वारा करवाई यह जातिगत जनगणना काफी मुश्किलों भरी थी। रिपोर्ट में हट्टन में बताया है कि कहीं लोग जाति गलत बताते हैं तो कहीं वह 10 वर्ष के भीतर अपनी जाति बदल लेते हैं। इसके अलावा रिपोर्ट में बताया गया है कि कई लोग अपने घर की गिनती भी नहीं करवाना चाहते थे।
इस जनगणना से सामने आया कि तब भारत (आज के स्वरुप जैसा) की आबादी लगभग 27 करोड़ थी। इसके भीतर अलग-अलग जातियों की संख्या बताई गई थी। रिपोर्ट से सामने आया था कि तब देश में एक जाति के तौर पर सबसे बड़ी संख्या ब्राह्मणों की है।
रिपोर्ट में बताया गया था कि 1931 के अनुसार, देश में 1.5 करोड़ से अधिक ब्राह्मण आबादी थी। रिपोर्ट बताती है कि तब बंगाल में 14 लाख से अधिक ब्राह्मण जबकि ओडिशा और बिहार में लगभग 9 लाख ब्राह्मण थे। इसके अलावा बॉम्बे राज्य में 11 लाख से अधिक ब्राह्मण थे। मद्रास में भी ब्राह्मण 14 लाख 73 हजार ब्राह्मण थे।
जाटवों को इस जातिगत जनगणना में दूसरा सबसे बड़ा समूह बताया गया था। उनकी संख्या 1.2 करोड़ जबकि राजपूतों को तीसरा सबसे बड़ा समूह बताते हुए उनकी जनसंख्या 81 लाख बताई गई थी। इसके अलावा अहीर, तेली, ग्वाला , कायस्थ और कुम्हार जैसी जातियों की संख्या भी बड़ी संख्या में थी इनकी आबादी 30 लाख से अधिक बताई थी।
इस जनगणना में सामने आया था कि देश में 4000+ जातियाँ हैं। हालाँकि, यह जातियाँ बाद में बढ़ती चली गईं। इसी रिपोर्ट में और भी कठिनाइयाँ सामने आई थीं। जाति को लेकर तब भी समाज में कई समस्याएँ थी, जो इस रिपोर्ट के लिए आँकड़े जुटाने वालों ने इकट्ठा की थी।
आजादी के बाद भी राजनीति को करती रही प्रभावित
1931 में हुई यह जातिगत जनगणना आने वाले दशकों तक भारतीय राजनीति को प्रभावित करती रही। इसमें बताया गया था कि देश में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की आबादी 52% है। इसी के आधार पर आगे ‘पिछड़े पावें 100 में 60’ जैसी राजनीति चालू हुई। यही राजनीति आगे चल कर मंडल-कमंडल की राजनीति में भी बदली।
इसी के आधार पर मंडल आयोग का गठन किया गया था। मंडल आयोग के आधार पर ही विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने आरक्षण में उन जातियों को शामिल करने का फैसला लिया, जो पहले इनमें नहीं आती थी। इससे पहले केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण मिला करता था।
VP सिंह की सरकार ने इसमें OBC को आरक्षण दिया। मंडल आयोग का देश में कड़ा विरोध भी हुआ था। 1990 के बाद से जाति आधारित राजनीति में भी तेजी आई। इसके पीछे भी बड़ा कारण यही मंडल आयोग था और मंडल आयोग का आधार अंग्रेजों की बनाई यह रिपोर्ट थी।
इस घटना के 30 वर्ष बीतने के बाद एक बार फिर से जाति की राजनीति ने जोर पकड़ लिया है। विपक्षी पार्टियों के ने जाति जनगणना को लेकर सरकार को घेरा, लेकिन मोदी सरकार के इस फैसले के बाद अब उनके हाथ से एक बड़ा मुद्दा भी निकल गया है।
नई जनगणना कब होगी, अभी यह स्पष्ट नहीं है लेकिन यह जरूर साफ़ है कि यह जाति की राजनीति तभी तक है जब तक इसका हौव्वा खड़ा किया गया है। चाहे कर्नाटक हो या बिहार, जाति आधारित सर्वे आने के बाद उस पर कोई बात नहीं होती।
क्योंकि 1990 के बाद से कुछ ही जातियों को आरक्षण का अधिक लाभ मिला है, अगर दोबारा से इसे वर्गीकृत किया गया तो उन्हें ही सबसे अधिक नुकसान होगा। ऐसे में INDI गठबंधन के दल इसे केवल मुद्दा बनाते हैं, आगे के एक्शन प्लान को लेकर कुछ नहीं बनाते।