Saturday, July 12, 2025
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हवाई जहाज, मिर्च और तलवों पर मोमबत्तियाँ: जिन छात्रों के आज हितैषी बनते हैं राहुल गाँधी, उन्हीं को इमरजेंसी में बर्बरता से दबा रही थी कॉन्ग्रेस

आज छात्रों के समर्थन की बात करने वाले राहुल गाँधी भूल जाते हैं कि उनकी दादी ने आपातकाल में छात्रों पर लाठियाँ चलवाईं, हजारों को कैद किया और कई की जान ले ली। छात्रों को उस दौरान हवा में लटका कर मारा जाता था।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 50 साल पहले, 12 जून 1975 को एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला दिया जिसने देश की राजनीति की दिशा बदल दी। जज जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को 1971 के लोकसभा चुनाव में चुनावी गड़बड़ी का दोषी पाया। इसके चलते उनकी रायबरेली सीट से निर्वाचन रद्द कर दिया गया। उन्हें छह साल तक कोई भी राजनीतिक पद संभालने से भी रोक दिया गया।

यह केस राज नारायण ने दायर किया था, जो 1971 में इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनाव हार गए थे। अदालत के फैसले के बावजूद इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा नहीं दिया। इसके बाद, सिर्फ 13 दिन बाद, उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लगाने के लिए मना लिया।

यह आपातकाल 25 जून 1975 को लगाया गया और इससे देश में लोकतंत्र, प्रेस की आज़ादी और नागरिक अधिकारों पर गहरा असर पड़ा।

राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद (फोटो साभार : मनोरमा ऑनलाइन)

देश में 25 जून 1975 को राष्ट्रीय आपातकाल (Emergency) लगाया गया, जो मार्च 1977 तक चला। इस दौरान भारत में लोकतंत्र लगभग खत्म कर दिया गया और एक तानाशाही शासन की शुरुआत हुई।

इंदिरा गाँधी की सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया, मीडिया की आजादी छीन ली, लोगों के मौलिक अधिकारों को रौंदा, मानवाधिकारों का उल्लंघन किया और आम नागरिकों को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और हत्या तक की गई।

इस दौर में संविधान को भी कमजोर किया गया। हालाँकि, आपातकाल का हर पहलू चौंकाने वाला था, लेकिन खासकर छात्रों पर किए गए अत्याचार बेहद निंदनीय थे। युवा लड़के-लड़कियों को, जिनका जीवन शिक्षा और भविष्य बनाने पर केंद्रित होना चाहिए था, उन्हें सरकारी तंत्र का निशाना बनाया गया।

इंदिरा गाँधी, जिन्हें उनके समर्थक ‘आयरन लेडी’ कहते थे, ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया और देश को डर और दमन के माहौल में धकेल दिया।

हालाँकि कई लोग इंदिरा गाँधी के खिलाफ खड़े हुए, लेकिन उन्हें एक ऐसे शासन का सामना करना पड़ा जिसने भारत के इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ दिया। इस दौर में व्यक्तिगत आजादी और संस्थाओं की स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए और मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई।

कॉन्ग्रेस पार्टी, खासकर गाँधी परिवार का इतिहास रहा है कि उन्होंने असहमति की आवाजों को दबाया है। जब भी कलाकारों या छात्रों ने कॉन्ग्रेस या गाँधी परिवार के खिलाफ बोलने की कोशिश की, उन्हें परेशानी, धमकी या सजा झेलनी पड़ी।

आज राहुल गाँधी खुद को छात्रों का समर्थक बताने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह बस एक दिखावा है, ताकि वे सत्ता तक पहुँच सकें। असल में, वे अपनी दादी इंदिरा गाँधी से अलग नहीं हैं, जिनके नेतृत्व में आपातकाल के दौरान छात्रों को प्रताड़ित किया गया और कई की जान तक चली गई। यह तानाशाही सोच आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।

राहुल गाँधी ने आज तक कभी भी अपनी दादी इंदिरा गाँधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान छात्रों पर हुए दमन पर कुछ नहीं कहा है। इससे साफ होता है कि उन्हें छात्रों की भलाई की असली चिंता नहीं है। वे छात्रों का इस्तेमाल सिर्फ अपने राजनीतिक फायदे के लिए करते हैं, खासकर भाजपा पर हमला करने के लिए।

दिलचस्प बात यह है कि वे भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी छात्रों से मिलते हैं और उन्हें सरकार की ‘गलत’ नीतियों के बारे में बताते हैं। लेकिन इन बैठकों में कभी भी कॉन्ग्रेस के खुद के इतिहास, खासकर आपातकाल के समय किए गए अत्याचारों का जिक्र नहीं करते। राहुल गाँधी कोशिश करते हैं कि कॉन्ग्रेस को छात्रों के हितैषी और भाजपा को उनके विरोधी के रूप में दिखाया जाए।

उन्होंने ‘भगवाकरण’ और भाषा की राजनीति जैसे मुद्दों को बढ़ावा देकर छात्रों को भड़काने की कोशिश की है। लेकिन जब बात आपातकाल के दौरान छात्रों पर हुए अत्याचार की आती है जैसे गिरफ्तारी, प्रताड़ना और यहाँ तक कि मौत तो राहुल गाँधी पूरी तरह चुप रहते हैं।

NEP को राहुल गाँधी ने बनाया हथियार

राहुल गाँधी ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP) को बिना छात्रों और शिक्षकों की राय लिए 2021 में लागू कर दिया। उनका कहना था कि यह नीति एक खास विचारधारा फैलाने और भारतीय समाज को सांप्रदायिक बनाने के मकसद से इस्तेमाल की जा रही है।

तिरुनेलवेली (तमिलनाडु) में सेंट जेवियर्स कॉलेज में प्रोफेसरों से बातचीत करते हुए राहुल ने कहा, “शिक्षा प्रणाली छात्रों और शिक्षकों के लिए होती है, इसलिए कोई भी नई नीति उनके साथ चर्चा करके ही बननी चाहिए। लेकिन अफसोस, ऐसा नहीं हुआ।”

उन्होंने यह भी कहा कि नई नीति में एक ही संस्थान के पास बहुत ज्यादा अधिकार दे दिए गए हैं, जिससे शिक्षा व्यवस्था को नुकसान हो सकता है। हालांकि उन्होंने माना कि यह नीति कुछ मामलों में लचीली है, लेकिन उनका आरोप था कि इसका असली मकसद समाज में एक खास सोच थोपना और सांप्रदायिकता फैलाना है।

सांसद राहुल गाँधी ने कहा कि वे नहीं मानते कि शिक्षा सिर्फ अमीर लोगों के लिए होनी चाहिए। उन्होंने वादा किया कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आती है, तो वे छात्रवृत्तियों को बढ़ावा देंगे ताकि सभी छात्रों को पढ़ाई का मौका मिले।

एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि धर्म को पूरी तरह से शिक्षा या चर्चा से हटाना सही नहीं है। सभी धर्मों को शामिल किया जाना चाहिए और जब तक विचार शांति से, बिना नफरत और गुस्से के सामने रखे जा रहे हैं, तब तक कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन समस्या तब होती है जब किसी को सिर्फ इसलिए चुप कराया जाता है क्योंकि वह किसी खास धर्म से है।

राहुल गाँधी ने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि वह खुद को हिंदू धर्म का प्रतिनिधि बताती है, लेकिन जिन विचारों को वे बढ़ावा देते हैं, उनका असल धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा, “कहीं भी नहीं लिखा है कि लोगों का अपमान करें या उन्हें मारें।”

हालाँकि, उनके ये बयान भाजपा और केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए अक्सर बहुसंख्यक धर्म और उसके मानने वालों का अपमान करने की आदत जैसे लगते हैं।

इस साल मार्च में कॉन्ग्रेस के एक पदाधिकारी ने जंतर-मंतर पर भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (NSUI) के विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्रों को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि “एक संगठन भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने की कोशिश कर रहा है, और वह संगठन RSS है। अगर शिक्षा व्यवस्था इनके हाथों में चली गई, तो देश और नौकरियाँ दोनों खतरे में पड़ जाएँगी।”

यह विरोध प्रदर्शन UGC के नए मसौदा नियमों, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020, और पेपर लीक जैसी घटनाओं के खिलाफ था। कॉन्ग्रेस नेता ने आरोप लगाया कि सरकार देश के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को भी RSS के नियंत्रण में देना चाहती है।

उन्होंने यह भी दावा किया कि RSS अपने चुने हुए लोगों को देशभर के विश्वविद्यालयों में कुलपति बनवा रही है, ताकि शिक्षा संस्थानों पर पूरा नियंत्रण किया जा सके। राहुल गाँधी ने हाल ही में एक भाषण में कहा, “कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने कुंभ मेले की बात की, जो अच्छी बात है, लेकिन मैं चाहता था कि वे बेरोजगारी पर भी बोलते। आपकी सरकार ने देश के युवाओं को बेरोजगार कर दिया है, और इस पर भी बात होनी चाहिए।”

उन्होंने यह भी कहा कि वह छात्रों के साथ हैं और आरएसएस, अडानी और अंबानी पर निशाना साधते हुए बोले, “हम सब एकजुट हैं और मिलकर लड़ेंगे।” राहुल गाँधी और उनके राजनीतिक गठबंधन की ये पुरानी आदत रही है कि वे भाजपा की आलोचना करने के लिए बार-बार आरएसएस और हिंदुत्व की विचारधारा को निशाना बनाते हैं। चाहे तथ्य कुछ भी कहें।

वहीं मोदी सरकार ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), जिसमें तीन भाषा वाला फॉर्मूला भी शामिल है, छात्रों और शिक्षकों की सहमति से ही लागू की जाएगी।

फिर भी, राहुल गाँधी अपने बयानों में बार-बार आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके पास आरएसएस के खिलाफ अपने दावों को साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं होता। उनका प्रचार अधिकतर आरोपों और नकारात्मक भावना पर आधारित होता है, न कि तथ्यों पर।

राहुल गाँधी ने NEET परीक्षा को लेकर छात्रों को भड़काने की कोशिश की

रायबरेली के सांसद ने पिछले साल लोकसभा में कहा था कि मेडिकल की प्रवेश परीक्षा NEET (नीट) अमीर छात्रों के लिए बनाई गई है। उन्होंने इसे एक ‘पेशेवर परीक्षा’ की बजाय ‘व्यावसायिक परीक्षा’ कहा, यानी यह पैसे वालों के लिए ज्यादा फायदेमंद है।

उन्होंने कहा कि नीट की तैयारी में छात्र कई साल लगा देते हैं, उनके परिवार उन्हें आर्थिक और भावनात्मक रूप से समर्थन देते हैं। लेकिन अब छात्रों का भरोसा इस परीक्षा से उठ गया है। उन्होंने बताया कि कई नीट छात्रों से मिलने पर यह साफ हुआ कि वे मानते हैं कि यह परीक्षा सिर्फ अमीर लोगों के लिए बनी है, ताकि उनके लिए सिस्टम में आसानी हो जाए। उनका मानना है कि यह परीक्षा गरीब और मेधावी छात्रों की मदद करने के लिए नहीं बनाई गई है।

राहुल गाँधी ने पहले एक वीडियो जारी कर NEET और दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं के उम्मीदवारों को संबोधित किया था। उन्होंने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वह संसद में पेपर लीक जैसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा से बच रही है।

राहुल ने कहा, “हम चर्चा इसलिए चाहते थे ताकि इस समस्या का हल निकाला जा सके, लेकिन यह साफ है कि सरकार ऐसा नहीं चाहती। मुझे लगा कि यह निर्देश सीधे प्रधानमंत्री से आया था।”

उन्होंने आगे कहा, “यह दुख की बात है कि देश के प्रधानमंत्री, जिन्हें इस मुद्दे पर चर्चा की अगुवाई करनी चाहिए और जनता को यह बताना चाहिए कि वे क्या कदम उठाएंगे, वे बहस से ही बचते हैं। हमारा मकसद सरकार से लड़ना नहीं है, हम बस अपनी बात रखना चाहते हैं।”

राहुल गाँधी ने कहा, “मैंने संसद में इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की, लेकिन मुझे बोलने नहीं दिया गया। यह साफ है कि यह एक बड़ी प्रणालीगत समस्या है और इसमें बहुत भ्रष्टाचार है। हम इसे ऐसे नहीं चलने दे सकते।” उन्होंने दोहराया कि पेपर लीक हुआ था और हर कोई इसे जानता है।

उन्होंने पहले प्रधानमंत्री मोदी पर भी हमला किया था और कहा था कि उनके नए कार्यकाल के शुरू होने से पहले ही NEET-UG  मेडिकल प्रवेश परीक्षा में अनियमितताओं ने 24 लाख से अधिक छात्रों की उम्मीदें खत्म कर दीं।

राहुल ने कहा कि उनकी पार्टी ने अपने चुनावी वादे में कानून बनाकर छात्रों को पेपर लीक जैसी समस्याओं से आजादी दिलाने का वादा किया था।

कॉन्ग्रेस नेता ने कहा कि एक ही परीक्षा केंद्र से 6 छात्रों ने सबसे अधिक अंक हासिल किए हैं, जो असामान्य है। साथ ही, कई छात्रों को ऐसे अंक मिले हैं जो तकनीकी रूप से मुमकिन नहीं हैं। इसके बावजूद सरकार पेपर लीक की बात को लगातार नकार रही है।

उन्होंने देश के सभी छात्रों को भरोसा दिलाया कि वे संसद में उनकी आवाज बनेंगे और उनके भविष्य से जुड़े मुद्दों को मजबूती से उठाएंगे। उन्होंने कहा कि युवाओं ने कॉन्ग्रेस गठबंधन पर भरोसा जताया है, जो उनकी आवाज दबने नहीं देगा।

उल्लेखनीय रूप से, नेशनल टेस्टिंग एजेंसी ने किसी भी विसंगति से इनकार किया तथा कहा कि बेहतर अंकों के पीछे कुछ कारक एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किए गए संशोधन तथा परीक्षा में देरी से आने वाले छात्रों को दिए गए अनुग्रह अंक थे।

पेपर लीक एक गंभीर समस्या है, जिस पर सख्त कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन इसे हल करने के बजाय, राहुल गाँधी इस मुद्दे का इस्तेमाल राजनीतिक फायदा उठाने के लिए कर रहे हैं। इससे साफ दिखता है कि इन मामलों को उठाने के पीछे उनकी असली मंशा छात्रों की मदद करना नहीं, बल्कि राजनीति करना है।

राहुल गाँधी के अघोषित DUSU दौरे से विवाद

कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी अक्सर अलग-अलग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्रों से मिलते हैं और अपनी पार्टी को छात्रों के हितों की रक्षा करने वाली पार्टी के रूप में पेश करते हैं। साथ ही वे भाजपा सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं, यह कहते हुए कि ये छात्रों के लिए नुकसानदायक हैं।

हाल ही में ऐसा ही एक मामला दिल्ली में हुआ, जिसने काफी विवाद खड़ा कर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) कार्यालय में राहुल गांधी के अचानक दौरे पर छात्र प्रतिनिधियों और विश्वविद्यालय प्रशासन ने आपत्ति जताई।

विश्वविद्यालय के बयान के मुताबिक, राहुल गाँधी ने DUSU कार्यालय में एक घंटे से भी ज्यादा समय बिताया और इस दौरान सुरक्षा गार्डों ने पूरे इलाके को घेर रखा था। इस अचानक हुई मुलाकात पर विरोध दर्ज किया गया क्योंकि यह बिना किसी पूर्व सूचना के हुई थी।

चौंकाने वाली बात यह है कि राहुल गाँधी ने अब अपनी विवादास्पद जाति-आधारित राजनीति को विश्वविद्यालयों तक भी फैला दिया है। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी से बार-बार चुनावी हार के बाद, यह कॉन्ग्रेस की राजनीति की मुख्य रणनीति बनती दिख रही है।

राहुल गाँधी ने कथित रूप से अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के छात्रों से कहा कि वे डॉ बी आर अंबेडकर की सोच से प्रेरणा लें और एक निष्पक्ष व समावेशी शैक्षणिक माहौल बनाने में हिस्सा लें। उन्होंने अंबेडकर के तीन शब्दों का जिक्र किया “शिक्षित हो, आंदोलन करो और संगठित हो।”

एनएसयूआई नेता और डूसू अध्यक्ष रौनक खत्री ने बताया कि छात्रों ने जाति आधारित भेदभाव, फैकल्टी पदों पर वंचित समुदायों की कमी और बड़ी कंपनियों में नौकरियों से बाहर किए जाने को लेकर अपनी चिंता जताई।

हालाँकि, दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने राहुल गाँधी के इस अचानक दौरे की निंदा की। यह दूसरी बार था जब उन्होंने बिना किसी पूर्व सूचना के कैंपस का दौरा किया।

विश्वविद्यालय की प्रॉक्टर रजनी अब्बी ने एक नोटिस जारी कर बताया कि DUSU सचिव को उनके ही कार्यालय में जाने नहीं दिया गया। एनएसयूआई के छात्रों ने उन्हें अंदर जाने से रोका। सचिव का कमरा अंदर से बंद था और वहाँ मौजूद कुछ छात्रों को एनएसयूआई सदस्यों ने परेशान किया। प्रशासन ने कहा कि इस घटना में शामिल छात्रों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।

राहुल गाँधी अक्सर यह दिखाते हैं कि वे छात्रों, खासकर समाज के कमजोर वर्गों से आने वाले छात्रों के लिए बहुत चिंतित हैं। वे सरकार पर हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। लेकिन हकीकत यह है कि वे अक्सर अपने कहे पर खरे नहीं उतरते जैसा कि हाल की दिल्ली विश्वविद्यालय (DUSU) की घटना से साफ दिखा, जहाँ उनकी पार्टी से जुड़े छात्रों पर दूसरों को परेशान करने का आरोप लगा, लेकिन राहुल ने इस पर कुछ नहीं कहा।

उनकी छात्रों के प्रति चिंता अक्सर केवल राजनीतिक फायदे तक ही सीमित लगती है। अगर वे सच में चिंतित होते, तो अपनी पार्टी के लोगों द्वारा किए गए गलत व्यवहार की भी आलोचना करते।

 जब वे चुनावी राज्य बिहार में 10 जून, 2025 को एक विश्वविद्यालय के हॉस्टल गए, तो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी। उन्होंने कहा कि दलित, आदिवासी (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) और अल्पसंख्यक समुदायों के 90% छात्र बहुत खराब हालत में हॉस्टल में रह रहे हैं और उनकी पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप में भी देरी हो रही है।

राहुल गाँधी ने लिखा, “मैं आपसे दो अहम मुद्दों को हल करने की अपील करता हूँ, क्योंकि ये कमजोर वर्गों के छात्रों की शिक्षा में रुकावट बन रहे हैं।”

हालाँकि, उनके बयान से साफ लगता है कि बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर उन्होंने ये बातें कहीं। वे एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं, जो हर मौके को राजनीतिक फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल करना जानते हैं। लेकिन असली बात यह है कि लोग अब उनकी असलियत समझने लगे हैं और सिर्फ वादों पर उन्हें वोट नहीं देते।

आपताकाल में छात्रों को दी गई थीं प्रताड़नाएँ

ऊपर दिए गए उदाहरण सिर्फ कुछ ही हैं जो यह दिखाते हैं कि राहुल गाँधी बार-बार शिक्षा और छात्रों से जुड़े मुद्दों को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे अक्सर भाजपा को दोषी ठहराते हैं, लेकिन खुद अपनी पार्टी की गलतियों को नजरअंदाज करते हैं।

राहुल गाँधी कभी यह स्वीकार नहीं करते कि आपातकाल के दौरान कॉन्ग्रेस सरकार ने छात्रों को प्रताड़ना दी थी। यह दौर भारत के इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है। उस समय ‘मीसा’ (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) का दुरुपयोग करके कई छात्रों और विरोधियों को जेल में डाल दिया गया था।

विडंबना यह है कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव, जो अब कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन में हैं, उन्होंने खुद उस दौर की यातनाएँ झेली थीं। उन्होंने अपने उस अनुभव की याद में अपनी सबसे बड़ी बेटी का नाम ही ‘मीसा’ रख दिया।

यह सब दिखाता है कि राहुल गाँधी राजनीतिक लाभ के लिए छात्रों की बात तो करते हैं, लेकिन इतिहास की सच्चाइयों से अक्सर आँखें चुरा लेते हैं।

कासु ब्रह्मानंद रेड्डी (बीच में), गृह मंत्री जिन्होंने आंतरिक आपातकाल लगाने के लिए राष्ट्रपति की सहमति मांगने वाले पत्र पर हस्ताक्षर किए। (फोटो साभार : मनोरमा ऑनलाइन)

आपातकाल के दौरान, लोगों को बिना किसी ठोस कारण के, सिर्फ संदेह या झूठे आरोपों के आधार पर हिरासत में लिया गया। छात्रों और युवाओं को चुप कराने की कोशिश की गई, लेकिन ये चीजें उनके लिए अस्वीकार्य थीं। सरकार का विरोध करने वाले छात्र नेताओं को जेल में डाल दिया गया, जबकि सिर्फ उन्हीं को छोड़ दिया गया जो कॉन्ग्रेस का समर्थन करते थे।

युवाओं ने इंदिरा गाँधी सरकार के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन उनका विरोध बेरहमी से कुचला गया। कई छात्रों को झूठे आरोपों में फँसा उनको प्रताड़ित किया गया। इससे उनके परिवार भी प्रभावित हुए।

केरल के कालीकट में 1 मार्च 1976 को क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र पी राजन को पुलिस ने बिना किसी पुख्ता आरोप के गिरफ्तार किया। अगले दिन 2 मार्च को, कक्कायम पुलिस कैंप में उन्हें बेरहमी से पीटा गया, जिससे उनकी मौत हो गई। पुलिस ने उन्हें लोहे और लकड़ी के रोलर्स से लगातार यातना दी थी।

इस बात को केरल हाई कोर्ट के जजों की एक पीठ के सामने सरकार के अधिकारियों, जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री के करुणाकरण भी शामिल थे, उन्होंने स्वीकार किया। यह सच्चाई राजन के पिता टी वी ईचारा वारियर की ओर से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की सुनवाई में सामने आई।

राजन का शव कभी नहीं मिला। उसके पिता ने अकेले संघर्ष करके यह सच्चाई सामने लाई कि उनका बेटा पुलिस हिरासत में मारा गया था। एक और छात्र नेता, राजवर्धन, को भी इतनी बेरहमी से पीटा गया कि वह बेहोश हो गया और खून की उल्टी करने लगा, फिर भी उसे कोई इलाज नहीं मिला। ये सभी घटनाएँ दिखाती हैं कि आपातकाल के दौरान छात्रों के साथ कितना अन्याय और अत्याचार हुआ।

छात्रों पर ‘हवाई जहाज’ तकनीक से हमला

लोगों के मुताबिक, आपातकाल के दौरान कर्नाटक में पुलिस द्वारा यातना देने का एक ‘पसंदीदा’ तरीका था जिसे ‘हवाई जहाज’ कहा जाता था। इसमें पीड़ित के हाथों को उसकी पीठ के पीछे बांध दिया जाता था, फिर उसे रस्सी और पुली की मदद से जमीन से कई फीट ऊपर हवा में लटका दिया जाता था। इस हालत में उसका पूरा शरीर हवा में झूलता था और वह बेहद दर्दनाक स्थिति में होता था।

आपातकाल के दौरान छात्रों के साथ जो हुआ, वह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय माना जाता है। देश भर में कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्रों को केवल विरोध करने या सवाल उठाने के लिए बेरहमी से यातनाएं दी गई।

बेलगाम कॉलेज के छात्रों को ‘हवाई जहाज’ तकनीक से छत से लटका दिया गया और थर्ड-डिग्री टॉर्चर किया गया, जिससे वे दर्द के मारे बेहोश हो गए। हुबली में तीन छात्र नेताओं पुट्टू स्वामी, पद्मनाभ हरिहर और श्रीकांत देसाई को भी इसी तरह की बर्बरता का सामना करना पड़ा। मैसूर में छात्र नेता रवि को गिरफ्तार कर बुरी तरह पीटा गया और उसे भी हवा में लटका कर प्रताड़ित किया गया।

मैंगलोर के केनरा कॉलेज में 12 नवंबर 1975 को छात्र उदय शंकर को बिना किसी वारंट के पुलिस ने हिरासत में लिया और पुलिस अधीक्षक की मौजूदगी में बुरी तरह मारा-पीटा गया। उसे खाना नहीं दिया गया और तीन बार ‘हवाई जहाज’ तकनीक से यातनाएँ दी गई।

बेंगलुरु के छात्र श्रीकांत, शिमोगा के छात्रों और दिल्ली विश्वविद्यालय के कई छात्रों पर भी यही अत्याचार दोहराए गए। DU के छात्र नेता हेमंत कुमार विश्नोई को पिकनिक के दौरान पकड़कर उल्टा लटकाया गया, जलती मोमबत्तियाँ तलवों पर रखी गई और उसकी नाक व मलाशय पर मिर्च पाउडर लगाया गया। इसके बावजूद उसने झूठा कबूलनामा देने से इनकार कर दिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र महावीर सिंह को इतनी यातना दी गई कि उसकी त्वचा ने उसके कपड़ों पर प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। शिव कुमार शर्मा को मिर्च पाउडर में साँस लेने पर मजबूर किया गया और डंडे, जूते और राइफल की बट से पीटा गया।

छात्र नेता अश्विनी कुमार को जमीन पर लिटाकर पुलिसकर्मी उसकी छाती पर भारी जूते पहनकर नाचने लगे। 26 जून 1975 को एक ही दिन में दिल्ली विश्वविद्यालय के 200 से ज्यादा शिक्षकों को हिरासत में लिया गया।

जेएनयू के छात्र 23 जून 1976 के दिन जसबीर सिंह को भी पुलिस ने बुरी तरह प्रताड़ित किया। उसे जंजीरों से कुर्सियों के बीच बांधकर लटकाया गया, पीटा गया और धमकाया गया कि अगर वह मर गया, तो उसकी लाश यमुना नदी में फेंक दी जाएगी।

वह खून की उल्टी करने लगा, लेकिन उसकी यातनाएं कई दिनों तक जारी रहीं। इन सब घटनाओं से यह साफ है कि आपातकाल के दौरान छात्रों को न केवल उनकी आवाज दबाने के लिए निशाना बनाया गया, बल्कि उन पर अमानवीय अत्याचार भी किए गए।

अश्विनी चौबे भी हुए थे शिकार

आपातकाल की घोषणा से एक साल पहले, अश्विनी कुमार चौबे, जो आज एक केंद्रीय मंत्री हैं, को सरकारी दमन का सामना करना पड़ा था। उस समय बिहार में अब्दुल गफूर की सरकार थी।

उन्हें इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वे पटना विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की इकाई के प्रमुख थे। उन्होंने भ्रष्टाचार और खराब शासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उनके इस सक्रिय योगदान के कारण ही उन्हें राजनीतिक रूप से परेशान किया गया।

अश्विनी कुमार चौबे (फोटो साभार : ज़ी न्यूज़)

आपातकाल की घोषणा से एक साल पहले, 1974 में  अश्विनी कुमार चौबे जो आज केंद्रीय मंत्री हैं  उनको बिहार सरकार ने निशाना बनाया। उस समय वे पटना विश्वविद्यालय में आरएसएस इकाई के प्रमुख थे और जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। उन्होंने अब्दुल गफूर और तत्कालीन वित्त मंत्री दरोगा राय पर चीनी मिलों में हुए घोटालों को उजागर किया। इसके बाद सरकार ने बदले की भावना से उन्हें प्रताड़ित किया।

चौबे 12 जून 1974 को गिरफ्तार कर डीआईआर (भारत की रक्षा अधिनियम) के तहत जेल भेजा गया। पटना के बाहर फुलवारीशरीफ जेल में उन्हें बहुत ही बेरहमी से यातना दी गई। उन्हें गर्म तवे पर लिटाया गया, लोहे की छड़ों से जलाया गया और लाठियों से पीटा गया। पुलिस ने उन्हें अंधा करने की कोशिश भी की। फिर उन्हें बोरे में लपेटकर फेंक दिया गया।

चार दिन बाद वे अस्पताल में होश में आए, तब तक उनके शरीर में गंभीर घाव थे और उनकी किडनी खराब हो चुकी थी। इसके बावजूद, उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) के तहत जेल भेजा गया।

जब वे 12 जुलाई 1975 को छुपकर अपनी बीएससी ऑनर्स की परीक्षा देने पटना साइंस कॉलेज पहुँचे, तब फिर गिरफ़्तार कर आरा जेल भेज दिया गया। बाद में उन्हें बिना खाना-पानी दिए बक्सर जेल ले जाया गया, जहाँ उन्हें मानसिक रोगियों के वार्ड के पास एक गंदी, बदबूदार और मच्छरों से भरी कोठरी में रखा गया।

वहाँ उन्होंने पाँच महीने बिताए, जिससे उनकी हालत बेहद खराब हो गई।

आख़िरकार, उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में शिफ्ट किया गया, जहाँ उन्होंने आपातकाल समाप्त होने तक अगले 11 महीने पुलिस की निगरानी में बिताए। यह पूरी कहानी दिखाती है कि कैसे सरकार ने एक युवा छात्र नेता पर बेरहमी से ज़ुल्म किया, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने सच्चाई के लिए आवाज उठाई थी।

जेपी आंदोलन के दौरान छात्रों पर कॉन्ग्रेस सरकार का अत्याचार

गुजरात में कॉन्ग्रेस सरकार को नव निर्माण आंदोलन के कारण सत्ता से हटना पड़ा। इस आंदोलन के दौरान पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल किया, जिससे 326 छात्र गिरफ्तार हुए।

इसके बाद यह आंदोलन और तेज हो गया। जनसंघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP), समाजवादी पार्टी की समाजवादी युवजन सभा (SYS), लोक दल जैसे राजनीतिक छात्र संगठन भी इस आंदोलन से जुड़ गए। बाद में यह आंदोलन जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व वाले आंदोलन का हिस्सा बन गया।

जयप्रकाश नारायण आंदोलन (फोटो साभार : द हिंदू)

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की छात्र शाखा, अखिल भारतीय छात्र संघ (एआईएसएफ) भी आंदोलन में शामिल हो गई थी। 1973 में विपक्षी दलों ने देशभर में हड़ताल की अपील की।

उसी साल 17 अगस्त को भोपाल (मध्य प्रदेश) में पुलिस ने आंदोलन कर रहे छात्रों पर कार्रवाई की, जिसमें 8 छात्रों की मौत हो गई। रैना जाँच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मध्य प्रदेश की कॉन्ग्रेस सरकार की कार्रवाई जरूरत से ज्यादा थी और उन्होंने मामले को सही तरीके से नहीं संभाला।

इसके बाद, 18 फरवरी 1974 को पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ ने एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें पूरे बिहार से छात्र नेता शामिल हुए। वहाँ ‘बिहार छात्र संघर्ष समिति’ (BCSS) का गठन किया गया।

लालू प्रसाद यादव को इसका अध्यक्ष चुना गया और सुशील कुमार मोदी, नरेंद्र सिंह, वशिष्ठ नारायण सिंह, चंद्रदेव प्रसाद वर्मा, मोहम्मद शहाबुद्दीन और रामविलास पासवान जैसे युवा नेता भी इसके मुख्य सदस्य बने। उनकी मुख्य माँगें छात्रावास में भोजन की व्यवस्था और बेहतर शिक्षा थीं।

आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण। (फोटो साभार: नॉलेज लॉ)

छात्रों ने बिहार विधानसभा 18 मार्च 1974 में घेराव किया। यह जयप्रकाश नारायण आंदोलन का एक अहम मोड़ था। इस दौरान पुलिस की गोलीबारी में तीन छात्रों की मौत हो गई। इसके बाद पूरे बिहार में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए और लोग मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को हटाने की माँग करने लगे। 12 अप्रैल को फिर से पुलिस फायरिंग हुई, जिसमें आठ और छात्रों की जान गई। इसके बाद जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन को और तेज कर दिया। वे लोकतंत्र में सुधार की माँग कर रहे थे।

आपातकाल की भयावहता

पाकिस्तान 1971 में मिली जीत की चमक धीरे-धीरे फीकी पड़ गई। इसके बाद जब 1975 में आपातकाल लगा, तो इंदिरा गाँधी की सरकार की सख्ती और दमन सभी ने महसूस की।

आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों समेत करीब दस लाख लोगों को MISA (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट)  के तहत बिना कोई आरोप या मुकदमा चलाए 18 महीने तक जेल में बंद रखा गया।

इस कानून के जरिए सरकार ने लोगों के मौलिक अधिकारों और आज़ादी को छीन लिया, जो भारतीय संविधान द्वारा सुरक्षित किए गए थे।

आपातकाल (फोटो साभार : नो लॉ)

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार, 21 महीने के आपातकाल के दौरान भारत में करीब 1,40,000 लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के गिरफ्तार किया गया। इनमें विपक्षी नेता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और आम नागरिक शामिल थे। कॉन्ग्रेस सरकार के इस दमन से मधु दंडवते, श्याम नंदन मिश्रा, लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बड़े नेता भी नहीं बच सके।

इस दौरान जबरन नसबंदी अभियान भी चलाया गया। एक साल में 62 लाख पुरुषों की नसबंदी करवाई गई, जो नाज़ी शासन के नसबंदी आंकड़ों से 15 गुना ज्यादा थी। इसके अलावा, एक विमान का अपहरण भी हुआ, और इस पर संसद में सरकार ने शर्मनाक तरीके से सफाई दी।

आज के समय में राहुल गाँधी भी कई बार छात्रों के मुद्दों को भाजपा के खिलाफ राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि, उन पर भी तानाशाही सोच अपनाने के आरोप लगते हैं।

उदाहरण के लिए, 2011 में एक छात्र को सिर्फ राहुल गाँधी का मज़ाक उड़ाने पर गिरफ्तार कर लिया गया। वहीं दूसरी ओर, उन्होंने जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वाले उमर खालिद जैसे छात्रों का समर्थन किया। बाद में उमर खालिद को दिल्ली 2020 के दंगों का मास्टरमाइंड माना गया, जिसमें कॉन्ग्रेस से जुड़े लोग भी शामिल थे।

इससे साफ है कि जैसे इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आपातकाल के दौरान छात्रों और विरोधियों को दबाया, वैसे ही राहुल गाँधी भी राजनीति के हिसाब से कभी छात्रों का समर्थन करते हैं और कभी उन्हें निशाना बनाते हैं।

आज की सरकार पर राहुल गाँधी जो आरोप लगाते हैं, वे उस दौर की तुलना में बेहद मामूली हैं, जब लोगों को लोकतंत्र बचाने के लिए अपनी आजादी, करियर और यहाँ तक कि जान तक गंवानी पड़ी थी। भारतीय लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी की तानाशाही में हुआ था, जब संविधान और नागरिक अधिकारों को कुचल दिया गया था।

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