“जैसे हम अपनी माँ को नहीं छोड़ सकते हैं, वैसे ही हम अपनी मातृभाषा को नहीं छोड़ सकते”
साल 2022 में ये बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के एक एपिसोड में कही थी। उस वक्त उन्होंने देश की जनता से अपील की थी कि हर कोई अपनी मातृभाषा बोले और उस पर गर्व भी करे। ये केवल प्रधानमंत्री का एक कथन मात्र नहीं था बल्कि उनकी एक कोशिश थी ताकि वो हर भाषा को सम्मान दिला सकें।
अब जब बतौर प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को 11 साल हो चुके हैं। ऐसे में हमें उन कार्यों पर भी गौर करना चाहिए जो उनकी नेतृत्व वाली सरकार ने स्थानीय भाषाओं और बोलियों के संरक्षण/संवर्धन, विकास को लेकर किया है।
आगे बढ़ने से पहले बता दें कि ये मुद्दा इसलिए भी अहम है क्योंकि भाषा ऐसा टॉपिक रहा है जिसको 1952 की जनगणना के बाद नेहरू ने भी तवज्जो नहीं दी थी। वहीं जब इंदिरा गाँधी सरकार आई तो उन्होंने भी भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा अन्याय किया था जिसे कभी नहीं भूला जा सकता। उनकी सरकार ने 1971 की जनगणना के बाद उन भाषाओं के अस्तित्व को ही नकार दिया जिसे बोलने वालों की संख्या 10000 से कम थी। उन्होंने ऐसी भाषा को ‘अन्य भाषाओं’ की श्रेणी में रखा।
तो, ऐसे संघर्षों के साथ जिस देश में भाषा का इतिहास रहा हो, वहाँ तब में और अब में तुलना करना इतना भी मुश्किल नहीं है।
2014 से पहले क्षेत्रीय भाषाओं को सरकार का इतना समर्थन प्राप्त नहीं था, बोलियों को इतना महत्व नहीं दिया जाता था। मगर, मोदी सरकार आने के बाद ये तस्वीर बदली। जितना महत्व अंग्रेजी को दिया गया, उतना ही हिंदी को भी और जितना सम्मान संस्कृत को मिला, उतना ही पंजाबी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, उड़िया को भी।
11 साल पहले भारतीय भाषाएँ जो चुनौतियों को सामने कर रही थीं वो धीरे-धीरे खत्म होने लगीं। भाषाओं के मानकीकरण पर काम होने लगा। बोलियों को महत्व दिया जाने लगा। नौकरियों के अवसर बढ़ने लगे।
टेक्स्ट किताबों का अनुवाद उन लोकल लैंग्वेज में भी होने लगा जिन्हें कोई पूछता नहीं था। जो भाषाई विवाद इस बीच हुए भी उन्हें मोदी सरकार ने सूझ-बूझ से सुलझाया और इस पूरे परिदृश्य को बदलने में उन्हें सिर्फ मौखिक मेहनत नहीं लगी बल्कि हर पल इस के लिए काम हुआ।
साल 2021 में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक हुई। इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पाँच और भाषाओं को शास्त्रीय भाषाओं के दर्जे से सुशोभित किया गया। इस फैसले के साथ ही भारत पहला ऐसा देश बना जहाँ 11 भाषाएँ क्लासिकल लैंग्वेज के तौर पर जानी जाती हैं। इतना ही नहीं सरकार ने, जो अकादमिक स्तर पर भाषा का प्रचार करके उसे बच्चे-बच्चे तक पहुँचाने का कार्य किया, वह उल्लेखनीय है।
इस दिशा में केवल प्राइमरी से लेकर 12 वीं तक की पढ़ाई को नहीं…इंजीनियरिंग, मेडिकल की पढ़ाई का कंटेंट भी भारतीय भाषाओं में आना शुरू हुआ। इस तरह युवाओं से लेकर बच्चे-बच्चे तक मातृभाषा पहुँचने लगी।
‘हिंदी शब्दसिंधु’ जैसी डिजिटल डिक्शनरी तैयार की गई जिसमें हिंदी-अंग्रेजी शब्दों के हर संदर्भ में मायने बताए गए। इसमें अलग-अलग क्षेत्र की शब्दावलियों को जोड़ा गया। हर लोकोक्ति- मुहावरे का अर्थ बताया गया और हर वो प्रयास किए गए जिससे लोगों के उनके सर्च के हिसाब से सहज नतीजे मिल सकें।
हाल की बात करें तो 2024 में भी हिंदी दिवस के मौके पर भारतीय भाषा अनुभाग की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य ही यही है ताकि क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व सरकारी काम-काज में कभी खत्म न हो।
जैसे इसके लिए यूनिवर्सल ट्रांसलेशन सिस्टम तैयार हुआ है। इसके लिए C-DAC और भारतीय भाषा अनुभाग ने मिलकर काम किया ताकि इस तंत्र के जरिए केंद्र और राज्य के बीच आधिकारिक बातचीत बिन किसी भाषा विवाद के हो सके और साथ ही क्षेत्रीय भाषा का भी प्रचार हो सके।
कंठस्थ 3.0 और बहुभाषी जैसे बहुभाषीय अनुवाद सॉफ्टवेयर तैयार किए गए जिनके जरिए हिंदी और अन्य 15 भाषाओं के बीच की दूरियाँ सिमटीं। इसके अलावा ‘प्रोजेक्ट अस्मिता’ लाया गया जिसका उद्देश्य ही 5 सालों में 22000 किताबों को भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना है।
BJP ने किया स्थानीय भाषाओं का प्रचार, युवाओं में बढ़ा मातृभाषा के लिए प्यार
गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार में हमेशा से लोकल भाषाओं को महत्व देने का चलन रहा है। मोदी सरकार से पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब बोदी, डोगरी, मैथिली और संथाली जैसी क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान मिला था। इसके बाद 2014 में प्रधानमंत्री मोदी बने और ओडिया, मराठी, पाली, प्राकृत, असमी, बंगाली भाषा को भी शास्त्रीय भाषाओं का दर्जा मिला।
इसके अलावा मोदी सरकार ने संस्कृत भाषा, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और उड़िया जैसी भाषाओं के लिए विशेष शैक्षणिक संस्थान खोले, जिनके लिए ऐसा नहीं हुआ उनके लिए अलग से विशेष कोर्स शुरू करवाए गए।
आपको जानकर ये भी हैरानी होगी कि पिछले एक दशक में इन भाषाओं को उठाने के लिए मोदी सरकार की ओर से 130 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। इनमें सबसे ज्यादा तमिल के लिए 100 करोड़ रुपए दिए गए। तेलुगु और कन्नड़ को 11-12 करोड़ दिए गए। मलयालम और उड़िया को करीबन 16 करोड़… वहीं संस्कृत के प्रचार के लिए उसकी यूनिवर्सिटी के जरिए 2017 से 2022 के बीच में अब तक 1074 करोड़ दिए गए हैं।
इसी तरह राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिए भी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषाओं के उत्थान पर काम हो रहा है। पढ़ाने के लिए तरीके बदले जा रहे हैं। कविता-कहानियों के जरिए बच्चों को इनसे जोड़ा जा रहा है। जो लोग पहले क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई को कमजोरी मानते थे उन्हें अब नई नीतियों से बल मिला है कि वो भी लोकल लैंग्वेज में पढ़कर बाहरी दुनिया में उतने ही योग्य हैं जितना अंग्रेजी-हिंदी पढ़ने वाला। इस नई नीति ने जनजातीय भाषाओं को संरक्षित करने का काम किया है।
तकनीकी कोर्स हों या वोकेशनल कोर्स… सबको क्षेत्रीय भाषाओं में लाने के प्रयास हो रहे हैं ताकि स्थानीय बोलने वाला भी उनसे ज्ञान अर्जित कर सकें। सरकार ने 200 PM E-एजुकेशन चैनल भी खोले हैं ताकि हर भाषा का व्यक्ति वहाँ से जैसा कंटेंट जिस भाषा में चाहता है ले सके। इसी प्रकार दीक्षा प्लेटफॉर्म है जो 366370 से ज्यादा ई-कंटेंट 133 भाषाओं में उपलब्ध करवाता है इनमें 126 भारतीय हैं जबकि 7 विदेशी। अनुवादिनी ऐप आज मौजूद है जो 11 भाषाओं का अनुवाद उपलब्ध करवाता है।
इतना ही नहीं ये मोदी सरकार के प्रयास का ही परिणाम है कि अब JEE, NEET, CUET जैसी प्रतियोगिता परीक्षाएँ तक 13 क्षेत्रीय भाषाओं में आयोजित करवाई जाती हैं। सरकारी जॉब के लिए परीक्षाएँ 15 भाषाओं में होती हैं। तमिल-तेलुगु में लिखे साहित्यों को हिंदी भाषी भी पढ़ते हैं। महर्षि अगस्त्य के लिखी सामग्री पर, तमिल साहित्य में दिए उनके योगदान पर चर्चा होती है। काशी-तमिल, काशी-तेलुगु, काशी सौराष्ट्र संगमम जैसे पहलों से भारत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और विविध भाषाओं की केवल देश में नहीं विदेशों में भी चर्चा होती है और देश अपनी विविधताओं पर गर्व कर पाता है।