12 जून, 2025 को अहमदाबाद में दोपहर 1:40 बजे एअर इंडिया के विमान ने उड़ान भरी। 1 ही मिनट के भीतर यह क्रैश हो गया। इस हादसे में 250+ से अधिक लोग मारे गए। विमान में मौजूद मात्र एक यात्री जीवित बचा। जैसे-जैसे हादसे की जानकारियाँ सामने आती गईं, स्थिति साफ़ होने के बजाय और भी विस्मय भरी हो गई। पता चला कि यह एअर इंडिया का 787-8 ड्रीमलाइनर विमान था। यह बोइंग कम्पनी द्वारा निर्मित है और पहली बार विमान का यह मॉडल हादसे का शिकार हुआ है।
बोइंग का नाम आते ही लोगों के दिमाग में इससे जुड़े हादसों का इतिहास घूमने लगा। बोइंग के बीते कुछ सालों में अमेरिकी सरकार के नियमों के साथ खेलने और अपने अनुसार नियम बनाने की घटनाएँ भी दिमाग में कौंधी। वर्तमान में अहमदाबाद हादसे में काल कवलित हुए ड्रीमलाइनर का ब्लैक बॉक्स अमेरिका भेजा गया है। जहाँ इसकी जाँच की जाएगी। इसके बाद ही हादसे के कारण स्पष्ट होंगे। लेकिन इससे पहले बोइंग के पुराने कारनामों पर दुनिया की बाजार एक बार और आ गई है।

1997 का मर्जर और बोइंग की धूमिल होती प्रतिष्ठा
बोइंग वर्तमान में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी एयरक्राफ्ट निर्माता कम्पनी है। बोइंग ने ही विश्व को पहला जेट यात्री विमान ‘707’ दिया था। इसकी प्रतिष्ठा विश्व की बेहतरीन इंजनियरिंग कम्पनियों में होती थी। इसने 747 जैसा पहला जंबो जेट दिया, जिसने विश्व को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई। सिर्फ यात्री विमान ही नहीं बल्कि मिलिट्री विमानों के मामले में भी बोइंग एक बेहतरीन कम्पनी बनी। इसने विशालकाय C-17 ग्लोबमास्टर जैसे विमान बनाए, जो आज भारतीय वायु सेना उपयोग करती है।
लेकिन 1997 में बोइंग और मैकडोनाल्ड डगलस मर्ज हो गईं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसी के बाद बोइंग का ‘फाल फ्रॉम ग्रेस’ यानी अर्श से फर्श पर गिरना चालू हो गया। बोइंग इसके बाद इंजीनियरिंग पर फोकस रखने वाली कम्पनी से नफे-नुकसान पर फोकस रखने वाली कम्पनी बन गई। इसका फोकस अब दुनिया को बेहतरीन तरीके से बनाए विमान देना नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा नफा कमाना हो गया। जहाँ पहले कर्मचारियों से पारदर्शी रहने को कहा जाता था, अब उन्हें गलतियाँ छुपाने को कहा जाने लगा।
इसके चलते बोइंग की प्रतिष्ठा धूमिल होती गई। वैश्विक बाजार में वह लीडर नहीं रही। एयरबस ने उसे बड़ी पटखनी दी। बोइंग की गिरती प्रतिष्ठा का अंदाजा इसी से जा सकता है कि बीते 2-3 दशक में वह कोई नया विमान मॉडल नहीं ला पाई है बल्कि पुराने पर ही प्रयोग करके काम चला रही है। इसके चलते सैकड़ों यात्रियों को जान गँवानी पड़ी है। बोइंग, अब जब क्वालिटी में फेल हुई है तो उसका फोकस अमेरिका और बाहर के देशों में नियम और नीतियों को प्रभावित करने और उनमें अपने अनुसार बदलाव करवाने पर रहा है।
अमेरिका में लॉबीइंग पर हजारों करोड़ खर्च करती है बोइंग
बोइंग एक अमेरिकी कम्पनी है और इसकी आय का बड़ा हिस्सा अमेरिकी सरकार से मिलने वाले ठेकों से आता है। बोइंग अमेरिका के लिए कई सैन्य विमान बनाती है। इसके अलावा अमेरिका के ही नियम एवं नीतियाँ बोइंग पर लागू होते हैं। यह अमेरिकी नीतियाँ कैसे उसके हित में रहें, इसके लिए वह हजारों करोड़ खर्च करती है।
अमेरिका में स्टॉक बाजार के नियामक SEC की एक रिपोर्ट कहती है कि बोइंग ने 2010-2022 के लॉबीइंग पर 20 करोड़ डॉलर (₹1700 करोड़+) से अधिक खर्च किए हैं। अकेले 2021 और 2022 में 2.6 करोड़ डॉलर (₹225 करोड़) खर्च किए हैं। SEC की ही एक रिपोर्ट बताती है कि 1998 से बोइंग ने लॉबीइंग पर 32 करोड़ डॉलर(₹2700 करोड़) से अधिक खर्च किए हैं। SEC बताती है कि बोइंग अमेरिका के भीतर लॉबीइंग पर खर्च करने के मामले में 9वें नम्बर पर है।
बोइंग इस काम में 9वें नम्बर पर तब है जब मार्केट कैप यानी हैसियत के मामले में वह अमेरिका में 70-80वें नम्बर पर है। इसका सीधा मतलब है कि बोइंग अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च लॉबीइंग के लिए करती है। बोइंग अपने अनुसार नियम तोड़ने-मरोड़ने के लिए अमेरिका की दोनों पार्टियों यानी डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन को पैसा देती है। यह खर्च, उसके लॉबीइंग पर खर्च से इतर है। एक रिपोर्ट के अनुसार, बोइंग ने वर्ष 2004-2024 के बीच 43 मिलियन डॉलर (₹3500 करोड़+) खर्च किए हैं।
बोइंग यह भी ध्यान रखती है कि वह किसी एक पार्टी को ज्यादा फेवर ना करे। रिपोर्ट्स बताती हैं कि बोइंग दोनों पार्टियों को लगभग बराबर ही फंडिंग करती है। हालाँकि, बोइंग ने बीते वर्षों में अधिक फंडिंग डेमोक्रेट्स को दी है। अमेरिका में इस प्रक्रिया को लॉबीइंग कहा जाता है। वैसे तो अमेरिका में लॉबीइंग कोई गैर-कानूनी काम नहीं है, लेकिन बोइंग की एक लॉबीइंग ने 300+ लोगों की जान ली है। यह बोइंग के इतिहास में काला धब्बा है।
जब बोइंग के लालच ने ले लीं 300 से अधिक जिंदगियाँ
बोइंग हजारों करोड़ का खर्च लॉबीइंग और पार्टियों पर करती है। बोइंग कोई समाज कल्याण संस्था नहीं है जो वह इतने पैसे फालतू में देती हो। यह सब कुछ फायदे के लिए किया जाता है। बोइंग के लालच और लॉबीइंग से बचने के चलते कुछ सालों पहले 300 से अधिक जानें गई थीं। यह कहानी चालू होती है 2010 के आसपास। कभी विश्व के एयरक्राफ्ट मार्केट पर राज करने वाली बोइंग को यूरोप से निकली कम्पनी एयरबस लगातर पटखनी दे रही थी। एयरबस की सफलता का राज उसके नए A320 नियो विमान थे।
यह बोइंग के 737 विमानों की तुलना में आधुनिक थे और कम तेल खपत करते थे। लगातार एयरलाइन्स इसके चलते एयरबस को आर्डर दे रहीं थी और बोइंग की हार हो रही थी। बोइंग ने ऐसे में एक नया विमान बनाने की सोची। लेकिन बोइंग नए विमान के डेवलपमेंट में पैसा नहीं लगाना चाहता था। ऐसे में उसने एक नया आइडिया निकाला। उसने प्लान बनाया कि 1960 के दशक में डिजाइन किए गए बोइंग 737 को ही नया रूप देना है। बोइंग ने इस नए प्लेन का नाम 737 मैक्स रखा।

बोइंग ने इसके बाद विमान के डिजाइन में कुछ बदलाव किए। विमान के विंग्स में भी बदलाव किए गए। विमान के कॉकपिट में बदलाव हुआ। इसका लैंडिंग गियर भी बदला गया। नए विमान में नए लीप-1 इंजन भी लगाए गए जो 14% अधिक तेल बचाते थे। यह इंजन पुराने इंजनों के मुकाबले बड़े थे। जहाँ पुराने इंजन 737 के विंग्स (पंख) के नीचे लगाए जाते थे तो वहीं नए इंजन बड़े होने के चलते इन्हें पंखों पर खिसका दिया गया। ऐसा ना करने पर इंजन जमीन में टकरा रहे थे।
यहीं से सारी कहानी बिगड़ गई। नए इंजन पुराने के मुकाबले अधिक भारी थे। ऐसे में इनके चलते विमान का अगला हिस्सा हवा में ज्यादा उठता था जो विमान को नियंत्रित करने के लिए एक समस्या था। बोइंग ने इसका हल निकाला और एक सिस्टम MCAS लाया। MCAS विमान के अगले हिस्से को अपने आप नीचे की तरफ दबा देता था। यह काम सेंसर के जरिए होता था। जैसे ही विमान के सेंसर को लगता कि विमान का अगला हिस्सा अधिक हवा में उठ रहा है, तुरंत ही वह उसे नीचे गिरा देता।
बोइंग का यह विमान पूरी दुनिया में हिट हुआ। इसके हजारों आर्डर मिले। लेकिन बोइंग ने इस पूरे मामले में एक बेईमानी कर ली। बोइंग ने 737 को पूरी तरह बदल दिया था। लेकिन उसने दावा किया कि इसे फिर से अमेरिकी विमान नियामक FAA से प्रमाणन लेने की जरूरत नहीं है। दरअसल, विमान के हर सिस्टम के लिए प्रमाणन लेना बड़ा खर्च होता है। इससे विमान की डिलीवरी टाइमलाइन भी बढ़ जाती। इसके अलावा नए सिस्टम्स के ऊपर पायलटों को भी ट्रेनिंग देनी पड़ती।
बोइंग ने इन सब से बचने के लिए FAA के सामने दावा किया कि यह मूलतः एक पुराना विमान ही है, ऐसे में इसके लिए अलग से प्रमाणन लेने की आवश्यकता नहीं है। उसने कानूनों के लूपहोल्स का भी फायदा उठाया। बोइंग ने पूरा नया विमान बना कर तैयार कर दिया लेकिन FAA को उसके सिस्टम्स का प्रमाणन नहीं करने दिया। यहाँ तक कि बोइंग ने अमेरिका में बड़े स्तर पर लॉबीइंग की और 2018 में एक कानून भी प्रभाव से पास करवाया।
वर्ष 2018 में अमेरिकी संसद ने बोइंग की मजबूत लॉबीइंग के बाद FAA रीऑथराइजेशन एक्ट पास किया। यह कानून अमेरिका में विमान बनाने वाली कम्पनियों को यह अधिकार देता था कि वह अपनी बनाई तकनीकों का खुद प्रमाणन कर सकें। इस कानून ने FAA की शक्तियों को सीमित कर दिया इस कानून का सीधा संबंध बोइंग के 737 मैक्स प्रोग्राम से था। अब बोइंग को खुले तौर पर अधिकार मिल गया कि वह 737 मैक्स विमानों के नए सिस्टम को बिना किसी बाहरी प्रमाणन के बेचे।
इसके बाद बोइंग ने धुआँधार तरीके से 737 मैक्स की बिक्री जारी रखी। पूरे विश्व की एयरलाइंस ने यह विमान खरीदे भी। 29 अक्टूबर, 2018 को ऐसी ही इंडोनेशिया की लायन एयर का एक विमान उड़ने के कुछ ही समय के बाद समुद्र में क्रैश हो गया। इस दुर्घटना में 189 यात्री और क्रू के लोग मारे गए। नए प्लेन का इस तरह से गिरना और क्रैश हो जाना किसी को नहीं समझ आया। इस दुर्घटना में मरने वाले पायलट भारतीय थे। वही इस विमान को उड़ा रहे थे।
इस घटना के मात्र 6 महीने के बाद ही मार्च, 2019 में इथियोपियन एयरलाइन्स का एक विमान राजधानी आदिस अबाबा से उड़ने के कुछ ही मिनटों के बाद क्रैश हो गया। इस दुर्घटना में भी 157 लोग, क्रू समेत मारे गए। इसके बाद बोइंग के ऊपर बढ़ना चालू हो गया और उसके दुनिया भर में 737 विमान जमीन पर खड़े हो गए। दोनों दुर्घटनाओं की जाँच हुई तो पता चला कि बोइंग के विमान को नीचे की तरफ दबाने वाले MCAS सेंसर की वजह से यह हादसे हुए।
सामने आया कि दोनों दुर्घटनाओं में MCAS ने विमान को नीचे की तरफ दबाना जारी रखा जबकि पायलट इस दौरान लगतार उसे उड़ाने का प्रयास करते रहे। पायलट इसमें विफल रहे और इस गड़बड़ सिस्टम ने विमान को नीचे गिरा दिया। दोनों हादसों की जाँच के बाद जब दबाव बढ़ा तो बोइंग ने माना कि उसने यह जानकारियाँ छुपाई थीं। बोइंग ने माना कि उसने पायलटों को इस नए सिस्टम के विषय में बताया ही नहीं था।
बोइंग ने इस MCAS सिस्टम को खुद ही सुरक्षित प्रमाणित किया था। बाद में यही 346 लोगों की मौत का कारण बना। 737 मैक्स की सुरक्षा जाँच FAA नहीं कर सके, इसके लिए उसने कानून पहले ही बनवा लिया था। इसके लिए उसने हजारों करोड़ खर्च किए थे और अमेरिकी संसद में लोग अपने पक्ष में किए थे। बोइंग की इस लॉबीइंग का परिणाम 346 लोगों और क्रू की मौत, हजारों प्लेन का जमीन पर खड़ा होना और एयरलाइन्स को हजारों करोड़ के घाटे के रूप में हुआ।
बोइंग की लॉबीइंग का दायरा सैन्य विमानों में भी
बोइंग, यात्री विमान बनाने के साथ ही सैन्य विमान भी बनाती है। अमेरिकी वायु सेना में एक चौथाई विमान बोइंग के बनाए ही हैं। बोइंग ने कई मौकों पर अपनी लॉबीइंग का दबाव बना कर अमेरिका में ठेके हासिल किए हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण अमेरिकी वायु सेना को हवा में विमानों में तेल भरने वाले रिफ्युलर विमानों की सप्लाई था। यह पूरी प्रतियोगिता वर्ष 2000 के आसपास चालू हुई थी। इसमें पहले बोइंग के 767 विमानों पर बने टैंकर विमान सेलेक्ट किए गए थे।

इस प्रक्रिया में बाद में भ्रष्टाचार सामने आया और बोइंग को किनारे कर दिया गया। दोबारा हुई प्रतियोगिता में एयरबस जीत गई और उसका A330 MRTT अमेरिकी वायु सेना को सप्लाई किया जाना था। हालाँकि, बोइंग ने इस पर बवाल कर दिया और लॉबीइंग चालू करके एयरबस को मिला यह ठेका रद्द करवा दिया। बाद में बोइंग का बनाया KC-46 ही अमेरिकी वायु सेना में शामिल हुआ। हालाँकि, यह पहला मौक़ा नहीं था जब बोइंग ने एयरबस की एंट्री अमेरिका में रोकी हो।
1970 के दशक में एयरबस यूरोप में सफलता के बाद अमेरिका में एंट्री लेना चाहती थी लेकिन तब भी बोइंग ने इसके खिलाफ लगातार अमेरिकी सरकार से दबाव डलवाया। एयरबस को लम्बे समय तक अमेरिकी बाजार से बाहर रखने का श्रेय बोइंग को ही है। हालाँकि, बोइंग दूसरे देशों में जाते ही अपने धन बल का इस्तेमाल करने लगती है और ठेके पाने के लिए लॉबीइंग करती है। ऐसे ही एक मामले में बोइंग ने सऊदी अरब को 37 बिलियन डॉलर (₹3 लाख करोड़+) की डील की थी।
अमेरिका और सऊदी के रिश्ते हालाँकि इसके बाद बिगड़ गए। यह विवाद अमेरिकी नागरिक और पत्रकार जमाल खशोगजी की तुर्की में हत्या से जुड़ा था। अमेरिका, लगातार सऊदी पर दबाव बना रहा था। इसके जवाब में सऊदी ने इस डील को लेकर अपना रुख बदल लिया। बोइंग इसके बाद हरकत में आई और उसने तुरंत ही यह डील बचाने के लिए अमेरिकी सरकार और सऊदी सरकार से बात करना चालू कर दिया।
अमेरिका के भीतर F/A-18 विमानों को लगातर सेवा में रखना हो या F-15EX विमानों की लॉबीइंग, हमेशा बोइंग इस दिशा में काम करती आई है।
भारत में भी लॉबीइंग की कोशिश करती रही है बोइंग
ऐसा नहीं है कि भारत बोइंग के इन लॉबीइंग की कोशिशों से अछूता है। बोइंग ने भारत के दूसरे एयरक्राफ्ट कैरियर विक्रांत के लिए विमान बेचने का काफी प्रयास किया। बोइंग इसके लिए F/A-18 विमान बेचना चाहती थी। इसके लिए बोइंग ने भारत में अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन तक दिए। हालाँकि, भारतीय नौसेना ने अपनी जरूरतों को देखते हुए फ़्रांस में बना राफेल-M विमान चुना। इसके लिए हाल ही में डील भी फाइनल हो चुकी है।
Our F/A-18 #SuperHornet demonstrates the ability to operate from @indiannavy aircraft carriers during its successful and safe launch from a ski-jump ramp. pic.twitter.com/92V14EXV9M
— Boeing India (@Boeing_In) December 21, 2020
यह अकेला ऐसा मौक़ा नहीं था। बोइंग इससे पहले F-21 विमान भी भारत को बेचने के प्रयास कर चुकी है। असल में यह F-16 लड़ाकू विमान है जो पाकिस्तानी वायु सेना उपयोग करती है। बोइंग ने भारतीय वायु सेना को यह बताने का प्रयास किया कि F-21, पकिस्तान द्वारा उपयोग किए जाने वाले F-16 विमान से एकदम अलग है। हालाँकि, वायु सेना ने इस पर अपनी कोई रूचि दिखाने से स्पष्ट तौर पर मना कर दिया।
बोइंग अहमदाबाद मामले में अब क्या रुख अपनाएगी, ये भविष्य के गर्भ में है। यदि विमान में तकनीकी खामियाँ निकली तो क्या बोइंग उन्हें स्वीकार करेगी या किसी जुगाड़ के सहारे बच निकलने का प्रयास करेगी, यह भी समय बताएगा। लेकिन उसका ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वह नैतिक मूल्यों में कोई ख़ास विश्वास नहीं रखती।