Monday, September 30, 2024
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होली का उपहार: UP के 18 लाख कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ते में 3% की बढ़ोतरी, होगा नकद भुगतान

योगी सरकार ने राज्य के कर्मचारियों को होली का उपहार दे दिया है। राज्य सरकार ने कर्मचारियों को मिलने वाले महंगाई भत्ते में बढ़ोतरी का ऐलान किया है। सबसे खुशी की बात यह है कि महंगाई भत्ता 9 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत कर इसका भुगतान नकद करने का निर्देश दिया गया है।

महंगाई भत्ते में यह बढ़ोतरी 1 जनवरी 2019 से लागू हो गई है। राज्य के करीब 18 लाख सरकारी कर्मचारियों को इस फैसले से फायदा होगा। वित्त विभाग के अपर मुख्य सचिव संजीव मित्तल ने इस बारे में आदेश जारी कर दिया है। आदेश के अनुसार जनवरी और फरवरी का बढ़ा हुआ भत्ता 31 मार्च से पहले नकद देना है। जबकि मार्च का भत्ता अप्रैल में (मार्च के वेतन के साथ) दिया जाएगा।

आपको बता दें कि आचार संहिता लागू होने से पहले ही महंगाई भत्ता 9 प्रतिशत से बढ़ा कर 12 प्रतिशत कराने का आदेश पास करा लिया गया था। लेकिन इसे जारी करने के लिए योगी सरकार को चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ी। चुनाव आयोग से अनुमति मिलने के बाद बुधवार को इसे जारी कर दिया गया।

एन राव US में बनीं संघीय न्यायाधीश: शपथ ग्रहण में खुद ट्रंप हुए शामिल, अमेरिका में बढ़ी भारतीयों की धाक

अमेरिका में भारतीयों की धाक बढ़ती जा रही है। अमेरिका में भारतीय मूल की प्रख्यात वकील नेओमी जहाँगीर राव (45 वर्षीय) ने ‘डिस्ट्रिक ऑफ कोलंबिया सर्किट कोर्ट ऑफ अपील्स’ के अमेरिकी सर्किट जज के रूप में शपथ ग्रहण लिया। बता दें कि नेओमी ने विवादों से घिरे ब्रेट केवनॉग का स्थान लिया है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश क्लेरेंस थॉमस ने मंगलवार को व्हाइट हाउस के रूजवेल्ट रूम में राव को शपथ दिलाई।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए। बता दें कि भारत के पारसी डॉक्टर जेरीन राव और जहाँगीर नरिओशांग राव के घर डेट्रॉयट में जन्मीं नेओमी राव, श्रीनिवासन के बाद दूसरी भारतीय अमेरिकी हैं, जो अमेरिका के शक्तिशाली अदालत का हिस्सा बनीं हैं। इस अदालत से अधिक शक्तिशाली केवल अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ही है।

लड़के-लड़कियों को एक साथ फ्रेशर पार्टी, गैर इस्लामी बता मुस्लिम छात्र ने की प्रोफेसर की हत्या

पाकिस्तान में एक छात्र ने अपने प्रोफेसर की हत्या कर दी। प्रोफ़ेसर साहब का गुनाह बस इतना था कि उन्होंने लड़के-लड़कियों को एक साथ फ्रेशर पार्टी की इजाज़त दे दी। यह बहावलपुर के सादिक एगर्टन कॉलेज की घटना है। आज ही 21 मार्च को पार्टी का आयोजन होना था। लड़के और लड़कियों की एक साथ पार्टी को गुनाहे अज़ीम समझ लिया छात्र खतीब हुसैन ने। खतीब ने पार्टी को गैर इस्लामी भी बताया। और इसी बात पर प्रोफेसर खालिद हमीद से बहस हो गई थी।

20 मार्च को जब प्रोफेसर साहब कॉलेज जा रहे थे, तो खतीब ने उन पर चाकुओं से हमला कर दिया। उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया पर बचाया नहीं जा सका। आरोपित छात्र को गिरफ्तार कर लिया गया है।

पुलिस में दर्ज शिकायत के मुताबिक, छात्र इस बात के खिलाफ था कि लड़के-लड़कियों की एक साथ पार्टी हो। वह इस तरह के कार्यक्रम को गैर इस्लामी मानता है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस को आरोपित ने बताया, “इस तरह की पार्टी इस्लामी शिक्षा के खिलाफ है। मैंने उनको ऐसा नहीं करने की चेतावनी दी थी।”

बता दें कि हमला करने के बाद छात्र खतीब चिल्लाने लगा कि मैंने उसे मार दिया है, मैंने उसे बताया था कि ख़वातीन और मर्द का एक साथ कार्यक्रम में शामिल होना इस्लाम के खिलाफ है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान के शैक्षिक संस्थानों में इस तरह के कार्यक्रम आम हैं लेकिन वहाँ छात्राओं पर काफी पाबंदी है। हाल ही में पंजाब की एक यूनिवर्सिटी ने ड्रेस कोड का सर्कुलर जारी किया था। उस सर्कुलर के माध्यम से छात्राओं को टॉप, जींस, बगैर आस्तीन वाली कमीज और टाइट पैंट पहनने पर रोक लगा दी गई थी। यहाँ तक कि कई सरकारी यूनिवर्सिटी में लड़के-लड़कियों के साथ बैठने पर भी रोक है। उनके बीच बातचीत की भी अनुमति नहीं है।

कोहिनूर धारण करने वाला सिख सम्राट जिसकी होली से लाहौर में आते थे रंगीन तूफ़ान, अंग्रेज भी थे कायल

जिन्होंने भारत का इतिहास पढ़ा है, उनके सामने एक न एक बार सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह का नाम आया ही होगा। और होली के बारे में कौन नहीं जानता? रंग-अबीर का यह त्यौहार अब भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी फ़ैल चुका है। यहाँ हम भारतीय एवं सिख इतिहास के एक ऐसे अध्याय की तरफ ले जाना चाह रहे हैं, जो दोनों के ही स्वर्णिम युग की याद दिलाता है। महाराजा रणजीत सिंह कोहिनूर धारण किया करते थे। कई हिन्दू, तुर्क और मुस्लिम राजाओं से होते हुए इतिहास के उस काल में कोहिनूर हीरा रणजीत सिंह के पास पहुँचा और क्यों नहीं? रणजीत सिंह की शोभा कोहिनूर से नहीं थी बल्कि कोहिनूर उनके मस्तक पर चढ़ कर इतराया करता था। उनके निधन के बाद धोखेबाज़ अंग्रेजों ने कोहिनूर को जब्त कर लिया और ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उसे अपने कब्ज़े में ले लिया।

लाहौर के महल में सबसे भव्य तरीके से मनाए जाने वाले त्योहारों में होली भी शामिल था। होली की तैयारी काफ़ी दिनों पहले से शुरू हो जाया करती थी। उस होली का स्तर कितना भव्य हुआ करता था और उसका ऐश्वर्य और वैभव इतना विशाल था कि रंगों और गुलालों के 300 से भी अधिक टीले खड़े कर दिए जाते थे। होली के दिन इन सबका प्रयोग किया जाता था। शाह बिलावल के बगीचे में महाराजा को होली मनाना अच्छा लगता था। ये उनके पसंददीदा स्थलों में से एक था। बाग में बड़े-बड़े टेंट लगाए जाते थे, इन टेंट्स को काफ़ी अच्छे से सजाया जाता था और दोनों तरफ से सैनिकों से सुसज्जित रखा जाता था। उस दिन बाग की शोभा देखते ही बनती थी। रणजीत सिंह अंग्रेज अधिकारी सर हेनरी के टकले पर गुलाल मल दिया करते थे।

इस होली में महाराजा रणजीत सिंह के दरबारीगण, परिवार के लोग, अंग्रेज, स्थानीय जनता सहित बाहर से आए अतिथि भी होली खेला करते थे। 22 मार्च 1837 में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर-इन-चीफ सर हेनरी फेम ने भी इस होली समारोह में शिरकत की, जिसके बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोग महाराजा रणजीत सिंह की होली के कायल हो गए। उस दिन माहौल कुछ ऐसा हुआ करता था कि पूरा लाहौर रंगों से लाल हो जाया करता था। कहते हैं कि हवा में गुलाल और गुलाबजल का ऐसा सम्मिश्रण घुला होता था कि उस समय रंगीन तूफ़ान आया करते थे। ये सिख सम्राट का ही वैभव था कि उन्होंने सिर्फ़ अंग्रेज अधिकारीयों को ही नहीं रंगा बल्कि प्रकृति के हर एक आयाम को भी रंगीन बना दिया। वातावरण को बदल देने की क्षमता थी महायोद्धा रणजीत सिंह में!

शाहजहाँ द्वारा बनवाए गए लाहौर के किले को लेकर भले ही पाकिस्तान आज इतराता हो लेकिन उस किले की शानो-शौकत महाराजा रणजीत सिंह की देन है। उन्होंने किले के ऊपर कुछ और नए स्ट्रक्चर भी बनवाए। शाह बुर्ज ब्लॉक में स्थित शीश महल ही वह स्थान था, जो महाराजा का सबसे फेवरिट जगह हुआ करता था। शीश महल के ऊपर निर्माण करा कर वे वहाँ पर कोहिनूर हीरा रखा करते थे। जहाँ सालों भर भव्यता और त्यौहार का मौसम रहता था, सोचिए वहाँ होली के समय क्या स्थिति होती होगी? महाराजा ने उस किले को अपने अधिकार में लेने के बाद उसमे राधा-कृष्णा की एक पेंटिंग करवाई। वहाँ की दीवारों पर करवाई गई इस पेंटिंग को महाराजा के दरबारी पेंटरों ने ही बनाया था। कला के भी शौक़ीन थे वो, और धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करने में सबसे अग्रणी।

और आपको पता है कि उस पेंटिंग में क्या था? उस पेंटिंग में श्रीकृष्ण और गोपियाँ आपस में होली खेल रहे थे। पेंटिंग में भी रंग और रंगों के त्यौहार का ऐसा समावेश। होली के प्रति महाराजा के प्रेम को इस पेंटिंग को देख कर ही समझा जा सकता है। महाराजा की मृत्यु के बाद भी होली की भव्यता कम नहीं हुई। कहा जाता है कि उस समय भी इस पर एक लाख रुपए के क़रीब ख़र्च हुआ करते थे। महाराजा की मृत्यु के बाद अंग्रेज लोग को भी अवसर दिखने लगा। सत्ता पाने की लालच में उन्होंने लाहौर को अशांत कर डाला। यह रणजीत सिंह का ही प्रभाव था कि होली का ये भव्य आयोजन लाहौर पार कर जम्मू-कश्मीर पहुँचा। उस समय वहाँ ऐसे हालात नहीं थे। रणजीत सिंह का ऐसा प्रभाव था कि कश्मीरी प्यार से होली खेलते और एक-दूसरे पर रंगों की बौछाड़ किया करते थे।

राधा कृष्णा की होली वाली पेंटिंग

20वीं सदी में सिखों के बीच होला मोहल्ला त्यौहार का अच्छा-ख़ासा प्रचलन था, जो कि होली का ही एक रूप है। अंतरराष्ट्रीय लेखकों द्वारा दक्षिण भारत के इतिहास पर लिखी गई एक पुस्तक से पता चलता है कि उस दिन सिख सैनिकों के बीच तरह-तरह की प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं, जैसे कि घुड़सवारी, पहलवानी, धनुर्विद्या इत्यादि। तीन दिन तक चलने वाले इस त्यौहार में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह संगीत और कवी सम्मेलनों का आयोजन करवाया करते थे। कई सारे खेल, गायकी प्रतियोगिता इत्यादि को गुरु काफ़ी बढ़-चढ़ कर बढ़ावा दिया करते थे। पुस्तक में वर्णन है कि आनंदपुर साहिब से शुरू होने वाले इस त्यौहार के दौरान क्या मित्र और क्या अपरिचित, सभी आपस में होली खेला करते थे।

इसका बहुत बड़ा महत्व है। सिखों के इतिहास पर लिखी गई एक अन्य पुस्तक के अनुसार, अगर हम गुरु गोविन्द सिंह की होली को समझें तो पता चलता है कि यह आज भी प्रासंगिक है। एक तरफ जहाँ युद्धकला की प्रतियोगिताएँ होती थीं तो दूसरी तरफ खेल सम्बंधित प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि व्यक्ति को अपने शरीर पर तो ध्यान देना ही चाहिए, साथ ही किसी भी प्रकार के आक्रमण के प्रतिघात के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए। यही बात किसी राष्ट्र को लेकर भी लागू होती है। इसके अलावा शांति का सन्देश देने और शांति को बढ़ावा देने के लिए कवि सम्मलेन और गायिकी जैसी प्रतियोगिताओं का सहारा लिया जाता था। शक्ति प्रदर्शन और शांति सिख गुरुओं के काल में एक ही सिक्के के दो पहलू थे, जो आज भी प्रासंगिक है।

शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद अंग्रेज हावी हो गए। 21 वर्ष की उम्र में ही पंजाब के महाराजा बने रणजीत सिंह शाह महमूद और दोस्त मोहम्मद ख़ान जैसे अफ़ग़ान शासकों को उनकी जगह दिखाई। काबुल नदी के किनारे उन्होंने पश्तूनों के शासक युसूफजई को नाकों चने चबवाया। उनकी शासकीय क्षमता और युद्धकला के आगे उनका होली समारोह कहीं छिप जाया करता था, जिसे हमने आज उभारने की कोशिश की है। तो ये थी महाराजा रणजीत सिंह की होली!

भाजपा कार्यकर्ता बनाम गुण्डे, गुर्गे, गुलाम और वंशदास

भारत में केवल भाजपा ही वह एकमात्र राजनीतिक दल है, जिसमें ‘कार्यकर्ता’ होते हैं, वरना जितनी भी अन्य राजनीतिक पार्टियाँ हैं, वहाँ कार्यकर्ताओं के स्थान पर सिर्फ गुण्डे, गुर्गे, गुलाम और वंशदास ही होते हैं।

इसकी वजह है कि भाजपा एक ‘विचार’ आधारित पार्टी है। वह विचार है भारत भूमि को ‘माँ’ मानने का, वह विचार है ‘हिंदुत्व’ का, वह विचार है ‘राष्ट्रवाद’ का, वह विचार है ‘सनातन’ का, वह विचार है ‘विश्व बंधुत्व’ और ‘जगत कल्याण’ का।

लेकिन इसके बरक्स आप कॉन्ग्रेस से लेकर सपा, बसपा, राजद, जदयू, बीजद, टीडीपी, द्रमुक, तृणमूल, अन्नाद्रमुक, आम आदमी पार्टी और यहाँ तक कि वाम दलों को भी देख लीजिए; इन दलों में आपको कार्यकर्ता के नाम पर एक परिवार, व्यक्ति और स्वार्थ विशेष को साधने के लिए जुटे हुए लोग ही मिलेंगे।

देश, समाज और राष्ट्र से इनको कोई मतलब नहीं हैं, इनकी महफ़िलों में ऐसी कोई बातें भी नहीं होती हैं। इनको नहीं मतलब है कि सूरत बदले, इनकी पुरजोर कोशिश है कि हंगामा होना चाहिए। हंगामा हो धर्म, जाति, वर्ग की राजनीति करने के लिए, हंगामा हो ठेकेदारी, टेंडर और सरकारी सम्पत्ति में लूट-खसोट के लिए।

वरना आप इनमें से किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता बल्कि उनके मुखिया से पूछ लीजिये कि क्या मतलब है उनकी पार्टी के नाम का और क्या उद्देश्य है उनकी राजनीति का?

क्या राहुल गाँधी और उनकी बहनजी बता सकती हैं, कि कॉन्ग्रेस पार्टी क्यों है इस देश में? यह कैसी पार्टी और कैसा विचार है, जो 70 साल से एक ही परिवार के इर्द-गिर्द घूम रहा है? जब यह परिवार संकट में होता है, तो यह पार्टी भी संकट में आ जाती है? और, जब यह परिवार सत्ता में आ जाता है, तो पार्टी की भी मौज हो जाती है?

क्या अखिलेश यादव बता सकेंगे कि समाजवाद क्या है? इस समाजवाद के तहत वे किस प्रकार के समाज की स्थापना करना चाहते हैं? यह कैसा समाजवाद है कि नगर पालिका से लेकर के प्रदेश के मुख्यमंत्री तक के सभी पद और संसाधन एक ही परिवार और जाति के लिए रिजर्व रहते हैं?

आप पूछ सकेंगे सुश्री मायावती से कि वे किस बहुजन की राजनीति करती हैं? हज़ारों-हजार करोड़ रुपए खुद और अपने चुनाव चिह्न की मूर्तियों पर बहाकर, अतिशय विलासिता और वैभव पूर्ण जीवन जीकर वे किस बहुजन का भला कर रही हैं, जहाँ छापे में उनके पूर्व निजी सचिव के यहाँ से 50 लाख रुपए का पैन बरामद होता है तो सोचिये कि वह कौन सा ‘विचार’ है जो देश की सत्ता और संसाधनों का ऐसा निर्मम दोहन कर सकता है?

बीजू जनता दल, जिसकी स्थापना ही एक नेता के नाम से कर दी गई और जिसकी बागडोर फिर उस नेता के पुत्र नवीन पटनायक ने संभाल ली, अब चूँकि उनके बाद उनका कोई वंश नहीं है, तो यह ‘विचारहीन’ दल भी खत्म हो जाएगा।

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कॉन्ग्रेस, जिसकी शुरुआत राज्य से वामपंथियों के कुशासन के खात्मे के लिए हुई थी, वह पार्टी विचार के नाम पर एक कोढ़ और कलंक बन चुकी हैं, जहाँ ‘ममता पूजा’ की हाइट देखिए कि बीते दिनों जब ममता की पार्टी में नम्बर दो उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी का जन्मदिन था, तो तृणमूल के सभी सांसद दिल्ली में संसद सत्र को बीच में छोड़कर कोलकाता अपनी अटेंडेंस लगाने के लिए पहुँच गए थे।

ऐसी ही एक पार्टी का रजिस्ट्रेशन शरद पवार साहब ने भी करवाया हुआ है, जिसका नाम उन्होंने ‘राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी’ रखा है, लेकिन यहाँ भी सिर्फ एक ही विचार और उद्देश्य है, ‘परिवारवाद’ और ‘मिल-बाँटकर’ लूटो। बेटी, भाई, भतीजा, भतीजे के भी बच्चों को सेटल करना, इनका घोषणा पत्र है।

यही हाल महाराष्ट्र में दूसरी क्षेत्रीय पार्टी शिवसेना का है, जो राजनीति हिंदुत्व और मंदिर की करते हैं लेकिन अगर सत्ता में उनको अपना हिस्सा नहीं मिले तो वे हिंदुत्व का भी बाजा बजाने से परहेज नहीं करते, और यही वजह रही कि बीते पाँच सालों में जिस प्रकार से भाजपा पर शिवसेना ने हमले किए, वे मुख्य विपक्षी दल कॉन्ग्रेस से किसी भी मायने में कम नहीं थे।

अंत में औकात अनुसार जिक्र वामपंथियों का भी। जहाँ इनकी पार्टी को इस बात के लिए क्रेडिट तो देना पड़ेगा, कि ये लोग व्यक्ति पूजा से परहेज करते हैं, पर जहाँ तक कार्यकर्ता का सवाल है, तो उनका यहाँ इनका कोई काम ही नहीं है, बल्कि यहाँ अर्बन नक्सल होते हैं। बाकी क्षेत्रीय दलों के साथ यह सकारात्मक पक्ष है कि वे जो भी लूट-मार करेंगे, देश में ही करेंगे और देश में समर्पित भी कर देंगे, लेकिन वामपंथियों के साथ यह विडम्बना है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह कार्ल मार्क्स, लेनिन और माओ नामक विदेशियों की प्रेरणा से, उनका ही साम्राज्य स्थापित करने के लिए करते हैं।

इसलिए अगर आप भारत में रह रहे हैं, भारतीयता में यकीन रखते हैं तो ‘भारतीय जनता पार्टी’ को लेकर सोचिये। जहाँ भारत पहले है, जनता बाद में और पार्टी सबसे अंत में। अगर हम संघ को ही इसका उद्गम स्थल मान लें, तो सोचिये वह कौन-सी व्यक्ति पूजा और परिवार पूजा है, जिसकी वजह से संघ, जनसंघ से होते हुए आज भाजपा तक का न केवल अस्तित्व कायम है, बल्कि आज वह दल अपनी दम पर देश की सत्ता चला रहा है।

वह क्या कारण है कि इन बीते लगभग सौ सालों में दुनिया में अनेकों धुरंधर लोग और उनके विचार दफ़न हो गए लेकिन 1925 का राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, भारत और सनातन और विश्व बंधुत्व का विचार जस का तस कायम है?

संघ और भाजपा में शीर्ष पदों और ओहदों पर विराज चुके और विराजित लोगों के बारे में सोचिए कि वे वंशवाद की वजह से वहाँ पहुँचे या फिर एक विचार में अपनी आस्था, सेवा और समर्पण से? आप सोच कर भी नहीं सोच पाएँगे कि अमित शाह के बाद भाजपा का अध्यक्ष कौन बनेगा, मोदी के बाद भाजपा का पीएम कौन होगा या फिर यही देख लीजिये कि अटल जी और आडवानी जी की विरासत को कौन आगे बढ़ा रहा है?

लेकिन जब यही सवाल हम कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल, राजद, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, टीडीपी, जेडीएस, पीडीपी जैसे दलों के बारे में सोचते हैं, तो हमें दिमाग ही नहीं लगाना पड़ता है कि आगे क्या होगा। इसलिए मैं मानता हूँ और फिर से कह रहा हूँ, कि भाजपा में लोग गलत हो सकते हैं, लेकिन भाजपा गलत नहीं हो सकती, क्योंकि यह गलत उद्देश्य के लिए स्थापित ही नहीं हुई है। इसलिए भाजपा एक ‘विचार’ के तौर पर हमेशा ‘पवित्र’ और ‘प्रासंगिक’ रहने वाली है।

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कॉन्ग्रेस का RSS ज्ञान ‘किसी ने कहा है’ से शुरू होकर लड़कियों के निकर पर ख़त्म होता है

कॉन्ग्रेस का RSS प्रेम आजकल फिर उफान पर आने लगा है। जैसे-जैसे आम चुनावों की तारीख नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे गाँधी परिवार से लेकर कॉन्ग्रेस के परिवार-परस्त बड़े नेता भी RSS को केंद्र बनाकर अपनी स्वामीभक्ति साबित करने में जुट चुकी है। जमीन घोटालों में हर दूसरे दिन ED ऑफिस का चक्कर काट रहे रॉबर्ट वाड्रा के साले राहुल गाँधी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) की फंडिंग के बारे में अपने विचार दिए हैं, जिसका वीडियो उनको हटाना भी पड़ा है।

वैसे तो किसी भी विषय पर राहुल गाँधी के ज्ञान का नमूना वो स्वयं ही समय-समय पर देते रहते हैं, लेकिन आज आरएसएस के बारे में उनका ज्ञान इस बात से शुरू हुआ है, “किसी ने कहा है कि उनके हजारों संस्थान हैं।” हवा में तीर चलाने में राहुल गाँधी अब पारंगत हो चुके हैं। आज के समय में कॉन्ग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि उनके सबसे वरिष्ठ और ‘कद्दावर पार्टी अध्यक्ष’ का NDA सरकार को घेरने के लिए सबसे बड़े सबूत फोटोशॉप्ड तस्वीरें और ”किसी ने कहा है” होते हैं।

पहली बात यह है कि राफेल की तरह ही यह बात भी उन्हें ‘किसी से’ पता चली है, उसको खुद इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। इसके बाद भी ये चिरयुवा पार्टी अध्यक्ष अपना अमूल्य, गुप्त ज्ञान देने से रुकता नहीं है। पहला सवाल तो राहुल गाँधी से यही है कि उनकी RSS के बारे में जानकारी कितनी है? क्या उनकी जानकारी बस यहीं तक सीमित है कि आरएसएस में महिलाओं को कोई स्थान नही दिया जाता है, या फिर ये कि उन्होंने किसी लड़की को संघ की शाखा मे शॉर्ट्स पहने नहीं देखा? क्या ये जानकारी भी उनके जैसे ही किसी बुद्धिजीवी ने उन्हें दी है?

अनुभव के सामने आँकड़ों पर बात करना अतार्किक रहता है। मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ, जो मुझे कुछ समय आरएसएस की शाखा में जाने और शिशु मन्दिर, विद्या मन्दिर में अपने अध्ययन के समय प्राप्त हुआ। आरएसएस में मैंने कभी धर्म, जाति जैसे शब्द नहीं सुने, जैसा कि कॉन्ग्रेस नेता और कुछ प्रायोजित बुद्धिजीवी अक्सर कहते सुने जा सकते हैं। मैं और मेरे जैसी कई लड़कियाँ शाखा में समान रूप से गई हैं और हमें उन शाखाओं में कभी भी कुछ ऐसा सुनने या देखने को नहीं मिला जो साम्प्रदायिक सौहार्द से अलग हो।

राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस के पास जो सूचनाएँ आती हैं वो शायद किसी दूसरी आकाशगंगा में बैठे फैक्ट चेक रिपोर्टर्स हैं, जो उन्हें बेहतर महसूस करवाने के लिए उन्हीं की भाषा में 2 शब्द एक्स्ट्रा जोड़कर उन्हें पेश करते हैं।अक्सर इन प्रायोजित सुचना के स्रोतों और मीडिया गिरोहों द्वारा आरएसएस पर धार्मिक प्रचार का आरोप लगाया जाता है, लेकिन इसके क्या आधार हैं ये उन्हें खुद मालुम नहीं है।

क्या आरएसएस को हर दिन निशाना बनाना और उसे साम्प्रदायिक संगठन सिर्फ इसलिए माना जाना चाहिए क्योंकि वह ‘नमस्ते सदावत्सले मातृभूमि’ के उद्घोष करता है? हैरानी की बात है कि आज ही उत्तर प्रदेश में एक सरकारी स्कूल को मदरसे में परिवर्तित किए जाने की सूचना आई है, कभी खबर आती है कि कोई शांतिदूत अध्यापक, जिसके नाम और करतबों में उसका मजहब नहीं ढूँढा जाना चाहिए, बच्चों को अपने धर्मविशेष के अनुसार व्यहार करने के लिए मजबूर करता है।

क्या कभी संघ द्वारा संचालित किसी स्कूल से जबरन धार्मिक आचरण व्यवहार में लाने या साम्प्रदायिक शिक्षा के बढ़ावे जैसी कोई शिकायत मिली हैं? संघ कभी भी, किसी को भी बाध्य नहीं करता है, और यह मैं इसलिए कह सकती हूँ क्योंकि मैंने अपने साथ ही मुस्लिम, सिख लोगों को देखा है, जो संघ के कार्यकर्ताओं के रूप मे अपनी धार्मिक मान्यताओं का अनुसरण करते हैं। मैंने कभी किसी मुस्लिम बच्चे को संघ द्वारा संचालित विद्यालयों में वन्देमातरम गाने के लिए बाध्य करते नहीं देखा है।

कॉन्ग्रेस पार्टी संघ की शिक्षा प्रणाली पर सवाल करती रही है कि वहाँ पर इतिहास को बदल कर पढ़ाया जाता है और BJP की सरकार बनने के बाद उसी शिक्षा को देश में फैलाया जा रहा है। मैं इस बात पर सहमत भी हूँ, इसलिए कि आरएसएस के विद्यालय इतिहास के योद्धाओं यानि शिवाजी, महाराणा प्रताप, विक्रमादित्य, छत्रसाल जैसे शूरवीरों को नायक मानकर इतिहास पड़ते हैं ना कि बर्बर आक्रांता, आतताई मुगलों की स्तुति करते इतिहास को, और कॉन्ग्रेस की आपत्ति शायद सिर्फ इसी एक बात से रही है।

संघ ने देशभक्ति, अपने गौरवपूर्ण इतिहास को जानने की दिशा दी है और यह दिशा निरन्तर बनी रहे, इससे किसको आपत्ति हो सकती है। भारत का सत्य भारत ही है, इसके स्मारक, इसकी धरोहरें और बाहर से आए लुटेरे और उनका महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे वीरों द्वारा दमन ही इसकी वास्तविकता हैं। लेकिन प्रश्न ये है कि कॉन्ग्रेस इस धरोहर पर गौरवान्वित क्यों नहीं महसूस करती है। कॉन्ग्रेस और इसके प्रायोजित बुद्दिजीवी क्यों नहीं सहयोग करते हैं आरएसएस के साथ मिलकर भारत को सामाजिक रूप से जाति, धर्म से रहित बनाने का?

लेकिन कॉन्ग्रेस ऐसा कभी नहीं करेगी। कारण हमेशा की ही तरह स्पष्ट है, कॉन्ग्रेस भारतीय लोकतंत्र के पंथनिरपेक्ष, समाजवादी समाज की समुदाय विशेष की पार्टी है जो इस समुदाय विशेष को वर्षों से अशिक्षित और साधनविहीन रखकर उसके वोट के बल पर सत्ता में बनी रही और अभी भी ऐसा ही चाहती है।

चुनाव का समय आते ही सभी पार्टियाँ अपनी अच्छाइयाँ और दूसरी पार्टी की बुराईयाँ, दोनों का हल्ल्ला काटने लगती हैं। हर पार्टी किसी भी तरह से सत्ता पाना चाहती है और उसके लिए कोशिश करती है। इस अभियान में हम वोटर के रूप में अपना फर्ज निभाते हुए ‘ये अच्छा, ये ज्यादा अच्छा’ के निर्णय में न चाहते हुए भी जुड़ जाते हैं।

बात जब प्रधानमंत्री पद की आती है तो वर्तमान परिदृश्य में दो मुख्य पार्टियों, कॉन्ग्रेस और भाजपा, के उम्मीदवारों पर आकर रुकती है। भाजपा के बारे में बात समझी जा सकती है लेकिन सबसे पुरानी पार्टी कॉन्ग्रेस के पास राहुल गाँधी के अतिरिक्त कोई चेहरा क्यों नही है क्या इस बात का जवाब भी उसे आरएसएस से पूछना चाहिए? ये सवाल इसलिए है कि वह भारत देश के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं, “अभी समझने की कोशिश कर रहा हूँ।”

राहुल गाँधी जनसभाओं में कहते हैं, “15 मिनट बोलने दो।” और जब कहने की बारी होती है, तब वो अपनी सरकार की योजनाओं का नाम तक ठीक से नहीं ले पाते हैं। जिस राफेल डील का जिक्र वो बार-बार करते हैं , उसकी कीमत को वह हर जनसभा में लगभग ‘पिछत्तिस’ बार अलग-अलग बताते हैं। NRC पर वह रोहिंग्याओं का पक्ष लेते हैं, तो उनके अनुसार नक्सली ‘बुद्धिजीवी’ हो जाते हैं। डोकलाम पर सरकार को कोसते तो खूब हैं, पर जब पूछा जाता है कि चलिए आपकी इस पर क्या नीति रहेगी? तो जवाब होता है, “मुझे इस विषय की अधिक जानकारी नहीं है।”

पार्टी के युवराज राहुल गाँधी कुछ कह देते हैं, और पूरी पार्टी का नेतृत्व दिग्विजय सिंह से लेकर कपिल सिब्बल तक उनके बचाव में अपना सब समय और पूरी ऊर्जा झोंक देते हैं। आरएसएस पर कॉन्सपिरेसी गढ़ने और नरेंद्र मोदी को फ़ासिस्ट घोषित करने के बजाए कॉन्ग्रेस पार्टी क्यों नहीं इस बात के लिए समय निकालती है कि किसी ऐसे योग्य व्यक्ति को आगे किया जाए, जो सही मायनों में सबसे पुरानी पार्टी को आगे बढ़ाए? यदि परिवार की यह पार्टी और इसके भक्त लोग ‘गाँधी’ मोह को छोड़ सकें, तो अधिक उम्मीद है कि कॉन्ग्रेस वाकई कुछ बेहतर कर पाए। वरना कॉन्ग्रेस का मुद्दा सिर्फ बयानों पर बचाव तक ही सीमित हो जाएगा और संसद में बोलने का समय और कम होता जाएगा।

असीमानंद समझौता केस में बरी, ‘भगवा आतंक’ चिल्लाने वालों के लिए तमाचा

18 फरवरी, 2007 को समझौता एक्सप्रेस में हुए इस धमाके में 68 लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें मुख्यतः पाकिस्तानी नागरिक थे। तत्कालीन यूपीए सरकार और जाँच एजेंसियों ने इसके लिए ‘हिन्दू आतंकवादियों’ को दोषी ठहराते हुए उन पर यह धमाका करने का आरोप लगाया था। एनआइए की विशेष अदालत ने स्वामी असीमानंद समेत चारों आरोपियों को इस केस में बरी कर दिया है।

‘कोई दम नहीं ‘मंदिर का बदला’ थ्योरी में’

2011 से इस मामले की जाँच कर रही राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआइए) ने अदालत में यह आरोप लगाया कि गुजरात के अक्षरधाम, जम्मू के रघुनाथ, एवं वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में हुए आतंकी हमलों का बदला लेने के लिए आरोपियों लोकेश शर्मा, कमल चौहान, व राजिंदर चौधरी ने समझौता एक्सप्रेस में इस धमाके को अंजाम दिया। स्वामी असीमानंद पर इस धमाके में शामिल व्यक्तियों को साजिश हेतु आवश्यक सामग्री मुहैया कराने (logistical support) का आरोप था।

पर एनआइए कोर्ट के जज जगदीप सिंह के फैसले के अनुसार उन्हें यह थ्योरी और जाँच एजेंसी द्वारा पेश सबूत इतने ठोस नहीं लगे कि उनके आधार पर आरोपियों को दोषी करार दिया जा सके। उन्होंने एक पाकिस्तानी महिला द्वारा पाकिस्तानी गवाहों को पेश करने की याचिका को भी मेरिट के आधार पर खारिज कर दिया।

इस मामले के मास्टरमाइंड के तौर पर प्रचारित आरएसएस सदस्य सुनील जोशी की 2007 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उस मामले को भी इसी भगवा आतंकवाद नैरेटिव से जोड़ कर देखा गया था। जाँच एजेंसियों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत 8 लोगों को इस मामले में भी आरोपी बनाया था पर बाद में उनके खिलाफ भी एनआइए दोषी साबित करने लायक सबूत पेश करने में नाकाम साबित हुई

जज के सामने पति ने किया पत्नी पर चाकू से वार, 10 साल से चल रही थी तलाक के लिए सुनवाई

मद्रास में उच्च न्यायलय के भीतर कल मंगलवार (मार्च 19, 2019) को सुरक्षा को लेकर एक बड़ी चूक का मामला सामने आया है। जहाँ पति ने अपनी पत्नी पर कोर्ट में ही चाकू से वार किए। मीडिया खबरों के अनुसार यह घटना एक फैमिली कोर्ट में सुनवाई के दौरान हुई।

हालाँकि, इस घटना के बाद वकीलों ने आरोपी को पकड़कर उसकी पिटाई की। पुलिस के मुताबिक सरवनन और वरालक्ष्मी नामक दंपत्ति अदालत में लंबित वैवाहिक विवाद की सुनवाई में हिस्सा लेने वहाँ पहुँचे थे। इसी बीच दोनों के बीच कहा-सुनी हुई और आदमी ने चाकू निकाला और जज के सामने ही अपनी पत्नी पर वार कर दिया।

इस घटना के तुरंत बाद वरालक्ष्मी को स्थानीय सरकारी अस्पताल ले जाया गया। जहाँ अब उनकी हालत को स्थिर बताया जा रहा है। लेकिन फिर भी ऐसे में सवाल उठता है कि अदालत परिसर में आखिरकार व्यक्ति चाकू लेकर घुसा कैसे, क्योंकि वहाँ प्रवेश से पहले तलाशी ली जाती है।

वैसे इस घटना को सुरक्षा में चूक का मामला बताया जा रहा है, लेकिन सोचने वाली बात है कि जिस दंपत्ति के बीच में विवाद का स्तर इस हद तक पहुँच जाता हो, वहाँ इनके बीच तलाक के मामले पर 2009 से लेकर अब तक सुनवाई चल रही है।

‘ज्यादा गर्मी लग रही है तो मेरी गोद मे बैठ जाओ’, UBER ड्राइवर ने की महिला पैसेंजर से बदतमीजी

महिला पैसेंजर से बद्तमीजी करने के कारण एक बार फिर से उबर कैब सर्विस सुर्खियों का हिस्सा बन गई है। घटना मंगलवार (मार्च 19, 2019) दिल्ली की है जब महिला पैसंजर ने ड्राइवर से गाड़ी में एसी चलाने को कहा और बदले में ड्राइवर ने उससे बेहूदा जवाब दिया।

अमृता दास नाम की इस लड़की ने अपनी आप बीती को ट्विटर पर साझा किया है और साथ ही ड्राइवर के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की माँग की है।

अमृता के मुताबिक उन्होंने ड्राइवर से गाड़ी का एसी चलाने को कहा, लेकिन ड्राइवर ने तुरंत मना कर दिया। अमृता के विरोध पर वो बोला कि अगर ज्यादा गर्मी लग रही है तो मेरी गोद में बैठ जाओ।

इस ट्रिप शुरू होने से खत्म होने तक वह ड्राइवर बार-बार उन्हें गाड़ी से उतरने के लिए जबरदस्ती करता रहा। उनका कहना है कि जब उनके साथ यह वाकया हुआ तब अमृता अपने पति के साथ थीं।

अमृता के इस ट्वीट पर उबर कंपनी ने जवाब दिया है कि ऐसी जानकारी मिलने से काफ़ी दुख हुआ, उनकी टीम से मेल के ज़रिए अमृता को जवाब भेज दिया है और कहा कि अगर वह कुछ जानना चाहती हैं तो रिप्लाई करें। उबर के प्रवक्ता का कहना है कि इस मामले में जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए उनके प्लैटफॉर्म पर कोई जगह नहीं है। साथ ही बताया कि जाँच पूरी होने तक आरोपी ड्राइवर को अपने ऐप सिस्टम से हटा दिया गया है।

वो कॉन्ग्रेसी, जिसने इंदिरा को सिखाया था ‘No मने No’ का मतलब और नेहरू को संसद में दिया था करारा जवाब

भाजपा नेता मनोहर पर्रिकर के निधन के साथ ही भारतीय राजनीति में मौजूद उसूलों, सेवा भाव और कर्तव्यपरायणता पर एक बार फिर जमकर चर्चा हुई। वास्तव में आज के समय में ऐसा कोई व्यक्ति विरल ही मिलता है, जिसे अपने कार्य के प्रति ईमानदारी और समर्पण के कारण विपक्ष भी सम्मान देता हो। वर्तमान राजनीति में उत्तराखंड के डॉ. भक्तदर्शन एक मिसाल हैं और जब-जब सियासत में उसूलों की बातें होती हैं, तो लगातार 4 बार लोकसभा चुनाव जीतने के बावजूद मात्र 59 की उम्र में राजनीति से संन्यास लेने वाले कॉन्ग्रेस नेता भक्तदर्शन का जिक्र करना आवश्यक हो जाता है।

राजनीति आरोप-प्रत्यारोप का पर्याय बन चुकी है, और दुर्भाग्यवश हमने हाल ही में वो काला दिन भी देखा, जब अजातशत्रु कहे जाने वाले भारतरत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी पर सत्ता की कुंठा में विवेक शून्य हो चुकी कॉन्ग्रेस पार्टी ने जमकर आरोप लगाए और इस काम के लिए उन्होंने जो दिन चुना, वो था अटल जी के निर्वाण का!

डॉ. भक्तदर्शन सिंह

सियासत में ऐसा ही एक बड़ा नाम है, 50 से 60 के दशक में आजाद भारत की प्रथम लोकसभा में गढ़वाल (उत्तराखंड) का प्रतिनिधित्व करने वाले, राजनीति के पुरोधा एवं साहित्यकार डॉ. भक्तदर्शन सिंह का। भक्तदर्शन सिंह उत्तराखंड राज्य की राजनीति का बहुत बड़ा चेहरा थे। आजादी के बाद वर्ष 1951 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में भक्तदर्शन गढ़वाल सीट से कॉन्ग्रेस के टिकट पर पहली बार सांसद चुने गए थे।

‘राजदर्शन’ नाम में गुलामी की बू भाँपकर खुद अपना नाम रखा था भक्तदर्शन

भक्तदर्शन का जन्म 12 फरवरी 1912 को गोपाल सिंह रावत के घर हुआ था। उत्तराखंड में उनका मूल गाँव था, भौराड़, पट्टी साँबली, पौड़ी गढ़वाल। ब्रिटिश उपनिवेश के समय सम्राट जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण वर्ष में पैदा होने के कारण उनके पिता ने उनका नाम ‘राजदर्शन’ रखा था, परन्तु राजनीतिक चेतना विकसित होने के बाद जब उन्हें अपने नाम से गुलामी की बू आने लगी, तो उन्होंने अपना नाम राजदर्शन से बदलकर ‘भक्तदर्शन’ कर लिया था।

1929 में डॉ. भक्तदर्शन कॉन्ग्रेस के अधिवेशन में बने थे स्वयंसेवक

प्रारम्भिक शिक्षा के बाद भक्तदर्शन ने डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून से इंटरमीडिएट किया और विश्व भारती (शान्ति निकेतन) से कला स्नातक व 1937 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर परीक्षाएँ पास कीं। शिक्षा प्राप्त करते हुए ही उनका सम्पर्क गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि से हुआ। वर्ष 1929 में ही डॉ. भक्तदर्शन लाहौर में हुए कॉन्ग्रेस के अधिवेशन में स्वयंसेवक बने। 1930 में नमक आंदोलन के दौरान उन्होंने प्रथम बार जेल यात्रा की। इसके बाद वे 1941, 1942 व 1944, 1947 तक कई बार जेल गए।

डॉ. भक्तदर्शन और खादी प्रेम

18 फरवरी 1931 को शिवरात्रि के दिन भक्तदर्शन का विवाह जब सावित्री जी से हुआ था, तब उनकी जिद के कारण सभी बारातियों ने खादी वस्त्र पहने थे। उन्होंने न वर के रूप में पारम्परिक मुकुट धारण किया और न ही शादी में कोई भेंट स्वीकार की। देशभक्ति का जुनून उन पर इतना था कि शादी के अगले दिवस ही वे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए चल दिए, इसी दौरान संगलाकोटी में ओजस्वी भाषण देने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। यदि भक्तदर्शन आज के समय में ऐसा करते तो कॉन्ग्रेस द्वारा दिहाड़ी रोजगार पर रखे गए सस्ते कॉमेडियन और मीडिया गिरोह उन्हें ‘हायपर नेशनलिज़्म’ और ‘देशभक्त’ कहकर चुटकुले जरूर बनाते।

इसके बाद भक्तदर्शन ने ‘गढ़देश’ के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया। ‘कर्मभूमि’ पत्रिका लैंसडौन में वो 1939 से 1949 तक सम्पादक रहे। प्रयाग से प्रकाशित ‘दैनिक भारत’ के लिए काम करने के कारण उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वे कुशल लेखक थे। उनकी लेखन शैली व सुलझे विचारों का पाठकों पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। भक्तदर्शन 1945 में गढ़वाल में कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक निधि और आजाद हिन्द फौज के सैनिकों हेतु निर्मित कोष के संयोजक रहे। उन्होंने प्रयत्न कर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह पेंशन व अन्य सुविधाएँ दिलवाई थीं।

भक्तदर्शन बन चुके थे गढ़वाल सीट पर कॉन्ग्रेस की जीत का पर्याय

आजादी के बाद 1951 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में भक्तदर्शन गढ़वाल सीट से कॉन्ग्रेस के टिकट पर पहली बार सांसद चुने गए, जिसमें उन्होंने 68.81% मत प्राप्त कर शानदार जीत दर्ज की। वर्ष 1951-52 में उन्होंने लोकसभा में गढ़वाल सीट का प्रतिनिधित्व किया। उस समय गढ़वाल सीट में मुरादाबाद तक का क्षेत्र शामिल था, इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और कुल 4 बार इस सीट पर जीत दर्ज की। 1957, 1962, 1967 के लोकसभा चुनाव में भक्तदर्शन बार-बार चुनाव जीतते गए।

भक्तदर्शन के रूप में गढ़वाल लोकसभा सीट कॉन्ग्रेस की जीत का पर्याय बन चुकी थी। वह भक्तदर्शन की राजनीति का स्वर्णिम दौर था। देश की राजनीति में उनका तगड़ा दखल था। नेहरू कैबिनेट में वे केंद्रीय शिक्षा मंत्री तक रह चुके थे। केन्द्रीय शिक्षामंत्री के रूप में उन्होंने केन्द्रीय विद्यालयों की स्थापना करवाई और केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पहले अध्यक्ष रहे। अपने व्यक्तित्व के कारण वर्ष 1963 से 1971 तक वे जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री व इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों के सदस्य रहे।

हिंदी भाषा प्रेम के कारण जवाहरलाल नेहरू को किया था ‘ट्रॉल’

गाँधी जी के हिन्दी के प्रति प्रेम और उन्हीं के विचारों से प्रेरित होकर भक्तदर्शन ने केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना कराई थी। दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उनका अद्वितीय योगदान रहा। वे ओजस्वी वक्ता थे और इतना सुन्दर बोलते थे कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। संसद में वे हिन्दी में ही भाषण देते थे और प्रश्नों का उत्तर भी हिन्दी में ही देते थे। एक बार जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. भक्तदर्शन को टोका तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक टालते हुए जवाब दिया, “मैं आपके आदेश का जरूर पालन करता, परन्तु मुझे हिन्दी में बोलना उतना ही अच्छा लगता है, जितना अन्य विद्वानों को अंग्रेजी में।”

प्रियंका गाँधी की ‘दादी’ को कह दिया था, “No मने No”

इंदिरा गाँधी का रुतबा और छवि ऐसी थी कि बड़े-बड़े नेता भी उनसे आँख मिलाकर बात करने में घबराते थे। लेकिन वो पहाड़ी ही क्या, जो अपनी ‘चौड़ाई’ में न रहे। 1971 में भक्तदर्शन ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने का विचार किया। इस पर इंदिरा गाँधी चाहती थीं कि भक्तदर्शन लोकसभा चुनाव लड़ें और उनको संन्यास लेने से मना किया क्योंकि इस समय भक्तदर्शन अपने राजनीतिक करियर के शीर्ष पर थे। अपने सिद्धान्तों के धुनी भक्तदर्शन ने इंदिरा गाँधी को यह कह कर एक ही बार में मना कर दिया कि उनकी उम्र अब सक्रिय राजनीति में रहने की नहीं रह गई है। उनका मानना था कि नए लोगों को राजनीति में मौका दिया जाना चाहिए।

भक्तदर्शन ने 1971 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा। जब भक्तदर्शन का सक्रिय राजनीति से मोहभंग हुआ तो उनकी आयु मात्र 59 वर्ष थी। वे उन दुर्लभ राजनेताओं में थे, जिन्होंने उच्च पद पर रह कर स्वेच्छा से राजनीति छोड़ी। जीवन पर्यन्त, एक लम्बे समय तक राजनीति के शीर्ष पर रहने के बावजूद वे बेदाग निकल आए।

आज की राजनीति में नए लोगों को मौका देने की बातें तो खूब होती हैं, लेकिन इन पर अमल करने वाले कम ही उदाहरण मिलते हैं। लेकिन भक्तदर्शन ने इंदिरा गाँधी से जो कहा, उसे जीवन भर निभाया। एक बार सक्रिय राजनीति से मुँह फेरा, तो फिर उस ओर झाँका तक नहीं।

प्रेरणाशील व्यक्ति अपने साधन और मार्ग तलाश लेता है। राजनीति से संन्यास लेने के पश्चात् उन्होंने अपना सारा जीवन शिक्षा व साहित्य की सेवा में लगा दिया। वे एक लोकप्रिय जनप्रतिनिधि थे। जिस किसी पद पर भी वे रहे, उन्होंने निष्ठा व ईमानदारी से कार्य किया। महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व का प्रभाव उनके जीवन के हर भाग में आया, वे सादा जीवन और उच्च विचार के जीवन्त उदाहरण बने रहे। बड़े से बड़ा पद प्राप्त होने पर भी अभिमान और लोभ उन्हें छू न सका। वे ईमानदारी से सोचते थे, ईमानदारी से काम करते थे। निधन के समय भी डॉ. दर्शन किराए के मकान में रह रहे थे। आजीवन किसी दबाव पर अपनी सत्यनिष्ठा छोड़ने को वे कभी तैयार नहीं हुए।

1972 से 1977 तक भक्तदर्शन खादी बोर्ड के उपाध्यक्ष रहे और 1972 से 1977 तक कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आसीन रहे। 1988-90 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे और दक्षिण भारत के अनेक हिन्दी विद्वानों को उन्होंने सम्मानित करवाया। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की पुस्तकों का अनुवाद करवाया और उनके प्रकाशन में सहायता की।

डॉ. भक्तदर्शन ने अनेक उपयोगी ग्रंथ लिखे और सम्पादित किए। इनमें श्रीदेव सुमन स्मृति ग्रंथ (श्रीदेव सुमन ने टिहरी में प्रजा मंडल आंदोलन द्वारा जनता को ब्रिटिश सरकार के एहसानों में दबी राजशाही के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी), गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ (दो भाग), कलाविद मुकुन्दी लाल बैरिस्टर, अमर सिंह रावत एवं उनके आविष्कार तथा स्वामी रामतीर्थ पर आलेख प्रमुख हैं। इसीलिए डॉ. भक्तदर्शन को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था। 79 वर्ष की उम्र में अप्रैल 30, 1991 को देहरादून में डॉ. भक्तदर्शन का निधन हो गया।

वर्तमान समय में जरूरी है उन हस्तियों को याद किया जाना, जिन्होंने समाज में उदाहरण पेश किए कि यदि व्यक्ति अपने कार्य के प्रति समर्पित, लग्नशील और ईमानदार है तो वह निडर होकर परिस्थितियों का सामना कर समाज के लिए मिसाल बन जाता है।