क्या आप सोच सकते हैं कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी किताब पर 36 साल तक मौखिक प्रतिबंध लगा रहे, वह भी सिर्फ मुट्ठी भर कट्टरपंथियों को तुष्ट करने के लिए? भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटेनिक वर्सेज‘ के साथ ऐसा ही हुआ। साल 1988 में तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया। दरअसल, यह पुराना किस्सा तब याद आया, जब दिल्ली में एक मॉल के बाहर स्टॉल पर वही मौखिक रूप से प्रतिबंधित किताब द सैटेनिक वर्सेज दिख गई।
वैसे तो काफी दिनों से इस किताब को पढ़ने की इच्छा थी, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कथित स्वर्णकाल वाले दिनों में इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया गया। लेखक सलमान रुश्दी का भारत आना प्रायः बंद हो गया। ब्रिटेन की नागरिकता लेकर लंदन में लिखने वाले सलमान रुश्दी की किताब पर भारत के कई शहरों में दंगे हुए, दर्जनों लोग मारे गए।
साल 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट में इस किताब पर लगे प्रतिबंध को चुनौती देने वाली एक याचिका दायर की गई। मामले में अहम मोड़ तब आया, जब सरकार कोर्ट में यह साबित नहीं कर पाई कि इस किताब पर कभी प्रतिबंध भी लगा था। अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि अधिकारी अधिसूचना प्रस्तुत करने में विफल रहे हैं, इसलिए यह मान लिया जाना चाहिए कि यह मौजूद ही नहीं है।
इस किताब के खिलाफ ईरानी नेता आयातोल्लाह खोमैनी ने 14 फरवरी 1989 को एक फतवा जारी किया, जिसमें सलमान रुश्दी को जान से मारने की बात कही गई थी, लेकिन भारत लोकतांत्रित तरीके से चुने लगे नेता राजीव गाँधी आयातोल्लाह खोमैनी से 4 महीने पहले यानी 5 अक्टूबर 1988 को ही इसे मौखिक रूप से प्रतिबंधित कर चुके थे। इस मामले में राजीव सरकार आयातोल्लाह खोमैनी का मार्गदर्शक साबित हुई।
जरा सोचिए! देश में बिना किसी कानूनी प्रतिबंध के एक किताब पूरी तरह बैन रही, सिर्फ और सिर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री की इच्छा और मौखिक फरमान से। मजेदार बात तो यह है कि कोर्ट के इस फैसले के तीन साल बाद भी भारत में इस किताब की छपाई और बिक्री शुरू नहीं हुई। धन्य हो 2014 वाला आपातकाल! सप्ताह भर पहले यह किताब दिल्ली में एक मॉल के बाहर मिल गई। शुरू में मुझे भरोसा नहीं हुआ, लेकिन पूछने पर पता चला कि यह किताब ओरिजिनल है।
जरा सोचकर देखिए, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ईरानी सुप्रीम लीडर के फतवे से किताबें प्रतिबंधित होती थीं। यहाँ एक सवाल मन में यह भी उठता है कि इन 36 सालों के दौरान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले लोग कहाँ गायब रहे? क्या किसी के मन में यह सवाल नहीं आया कि ‘द सैटेनिक वर्सेज‘ को किस विभाग की ओर से, कौन से कानून के तहत प्रतिबंधित किया गया? किसी RTI एक्टिविस्ट को इस पर एक याचिका दायर करने का ख्याल क्यों नहीं आया? इन 36 सालों के दौरान मीडिया तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार का पिट्ठू बना रहा। उसने हमेशा देश को खबरों में यही बताया कि सलमान रुश्दी की किताब भारत में प्रतिबंधित है, और देश के लोग ऐसा मानते रहे। न किसी ने किताब छापने की कोशिश की, न किसी ने बेचने की। डर ऐसा था कि लोग इसे विदेशों से भी लेकर नहीं आते थे, कहीं एयरपोर्ट पर गिरफ्तार न कर लिए जाएँ। यह सब कुछ एक पूर्व प्रधानमंत्री के झूठ के चलते हुआ।
जिन लोगों को 2014 के बाद से भारत में आपातकाल नजर आ रहा है, वे क्यों नहीं बताते कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कथित स्वर्णकाल में यह पाप क्यों हुआ? यूट्यूब चैनल खोलकर अपनी दुकान चलाने वाले वरिष्ठ पत्रकार बताएँ कि उन्होंने कितनी बार सलमान रुश्दी की अभिव्यक्ति और अपने देश के पाठकों के अधिकार की चिंता की!
वैसे, असल आश्चर्य इस किताब को पढ़ने के बाद हुआ। पूरी किताब में कहीं भी ऐसी बात नजर नहीं आई, जिस पर दंगा हो सके, दर्जनों लोगों की जानें जाएँ और लेखक पर दर्जनों बार जानलेवा हमले हों।
दो मुख्य पात्रों, सलादीन चमचा और गिब्रील फरिश्ता, के इर्द-गिर्द बुनी गई इस कहानी में कुछ रूपकों का इस्तेमाल किया गया है। कुछ लोगों का दावा है कि यह रूपक इस्लाम से प्रेरित हैं। हालाँकि, मुझे ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगा। इस किताब में एक किरदार है ‘महाउंड’, जिसे पैगंबर मुहम्मद से प्रेरित बताया गया। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे उड़ने वाले किसी किरदार को हनुमान जी का चित्रण बताकर हंगामा किया जाए।
खैर, पूरी कहानी पढ़ने के बाद कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि किताब किसी पंथ या मजहब का अपमान करती है। उल्टे, यह एक शानदार कहानी साबित हुई। अगर इस किताब के साथ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ न हुई होती तो भारतीय मुस्लिम लेखक के रूप में सलमान रुश्दी देश और अपने मजहब, दोनों की शान बढ़ाते। लेकिन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के स्वर्णकाल में ऐसा न हो सका। धन्य है 2014 वाला आपातकाल, अब दिल्ली में यह किताब सड़क किनारे बिक रही है। हाँ, 2000 रुपए की इसकी कीमत अभी भी इसके मौखिक रूप से प्रतिबंधित होने का एहसास कराती है।