चुनाव का मौसम है। लोकसभा चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान हो चुका है और बहुत हद तक कई पार्टियों द्वारा अपने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की जा चुकी है। ऐसे में दल बदल से लेकर बाग़ी तेवर अपनाने तक नेतागण कई हथकंडे आज़मा रहे हैं। कभी कोई नेता अपने समर्थकों सहित पल भर में दूसरी पार्टी में शामिल हो जा रहा है तो कोई अपनी ही पार्टी के ख़िलाफ़ बयान दे रहा है। लेकिन कॉन्ग्रेस के एक विधायक ने कुछ अलग ही तरीका अपनाया। औरंगाबाद से टिकट की आस लिए कॉन्ग्रेस विधायक अब्दुल सत्तार पर पार्टी ने भरोसा नहीं जताया और सुभाष झंबाद को टिकट दे दिया। इस से नाराज़ विधायक ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर जो किया, उस से कॉन्ग्रेस के अन्य नेता भी एक पल के लिए चौंक गए।
नाराज़ कॉन्ग्रेस विधायक अब्दुल सत्तार ने अपने समर्थकों की मदद से कॉन्ग्रेस दफ़्तर की साड़ी कुर्सियाँ ही उठवा लीं। उन्होंने कॉन्ग्रेस कार्यालय से 300 के क़रीब कुर्सियों को गायब करा दिया। सिलोद से विधायक अब्दुल पार्टी पहले ही छोड़ चुके हैं। कुर्सियाँ उठवाने के पीछे कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इस पर उनका मालिकाना हक़ है और चूँकि वे पार्ट छोड़ चुके हैं, तो उन्होंने अपनी कुर्सियाँ ले लीं। उन्होंने कहा, “हाँ, ये कुर्सियाँ मेरी थीं और मैंने कॉन्ग्रेस की बैठकों के लिए इन्हें उपलब्ध कराया था। अब मैंने पार्टी छोड़ दी है और इसलिए अपनी कुर्सियाँ भी ले ली हैं। जिन्हें टिकट मिला है, वे व्यवस्था करें।” विधायक के इस रवैये के कारण कॉन्ग्रेस की बैठक राकांपा के दफ़्तर में हुई।
कॉन्ग्रेस के लोकसभा प्रत्याशी झंबाद ने कहा कि सत्तार को जरूरत होगी, इसलिए कुर्सियाँ ले गए हैं। उन्होंने कहा कि वो लोग निराश नहीं हैं। सुभाष झंबाद ने बताया कि अब्दुल अभी भी कॉन्ग्रेस में हैं क्योंकि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया है। बाद में सत्तार ने कहा कि उन्हें अब कॉन्ग्रेस ने लोकसभा टिकट देने का आश्वासन दिया है। सत्तार ने कहा कि कॉन्ग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण ने उन्हें औरंगाबाद या जलना से टिकट देने की बात कही है। उन्होंने कहा कि जब से उन्होंने कॉन्ग्रेस छोड़ने की घोषणा की है, तभी से पार्टी के आला नेता उनसे संपर्क में हैं और उन्हें टिकट ऑफर कर रहे हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण ही पार्टी आलाकमान पर दबाव बढ़ाने के लिए अब्दुल सत्तार से ये उलटी-सीधी हरकतें करवा रहे हैं। इसे चव्हाण और राज्य में कॉन्ग्रेस प्रभारी मुकुल वासनिक के बीच के द्वन्द से जोड़ा जा रहा है। विश्लेषकों का मानना है कि चव्हाण ने अब्दुल से इस्तीफा दिलाकर कॉन्ग्रेस आलाकमान को साफ़ कर दिया है कि उम्मीदवारों के चयन में उनकी भूमिका प्रमुख होनी चाहिए। विधायक अब्दुल को पूर्व मुख्यमंत्री चव्हाण का क़रीबी माना जाता है। उन्होंने भाजपा नेताओं से बातचीत भी शुरू कर दी थी और कहा था कि दिल्ली में बैठे कॉन्ग्रेस के नेता चव्हाण का सम्मान नहीं कर रहे।
‘द हिन्दू’ के सूत्रों का मानना है कि विधायक अब्दुल ख़ुद को टिकट न मिलने की स्थिति में शिवसेना नेता चंद्रकांत को हराने के लिए कन्नड़ से विधायक हर्षवर्धन जाधव को टिकट दिलवाना चाहते थे। जाधव प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रावसाहिब दान्वे के दामाद हैं। अब्दुल जाधव को टिकट दिलवा कर रावसाहिब को मराठवाड़ा में चित करने का सपना पाल रहे थे। इसके अलावा अब्दुल ने जलना में रावसाहिब को नीचा दिखाने के लिए उनके प्रतिद्वंदी माने जाने वाले शिवसेना नेता अर्जुन खोटकर को कॉन्ग्रेस में शामिल करने का भी प्रयास किया था लेकिन वो विफल हो गए। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने रावसाहिब और खोटकर के बीच सुलह करा दी।
दो नाबालिग हिन्दू लड़कियों के अपहरण और इस्लामिक धर्मान्तरण का मामला अभी थमा भी नहीं था कि पाकिस्तान स्थित सिंध से एक और हिन्दू लड़की के अपहरण का मामला सामने आया है। सिंध सूचना विभाग द्वारा जारी बयान के अनुसार, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री हरिराम किशोरी ने 16 वर्ष की एक हिन्दू लड़की के अपहरण मामले में संज्ञान लिया है। उक्त लड़की के अपहरण का समाचार सोशल मीडिया पर तेज़ी से फ़ैल रहा था, जिसके बाद मंत्री ने संज्ञान लिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री एक तरफ तो ‘नया पाकिस्तान’ में सभी धर्मों के साथ सामान व्यवहार का दावा करते हैं, वहीं दूसरी तरफ हिन्दू लड़कियों पर अत्याचार होते जा रहे हैं और सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही।
जब भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने दो हिन्दू लड़कियों का अपहरण, जबरन शादी और इस्लामिक धर्मान्तरण के मुद्दे पर पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायोग से रिपोर्ट माँगी, तो पाकिस्तान के सूचना मंत्री फवाद ख़ान चौधरी बिफर पड़े और उन्होंने सुषमा को ट्रोल करने की कोशिश की। अंततः सुषमा स्वराज की कड़ी प्रतिक्रिया के बाद उन्हें मुँह की खानी पड़ी। इधर सिंध में अब मेघवार समुदाय की लड़की के अपहरण का मामला सामने आया है। घटना बाड़ीं जिला स्थित टांडो बाघों गाँव का है। पीड़िता के पिता ने ज़िले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) सरदार हसन नियाज़ी से मामला दर्ज कर दोषियों पर कार्रवाई करने की गुहार लगाई है।
After unleashing terror in the region Pak has now let loose tyranny against what remains of minorities in Pakistan.Rather than lecturing the world how responsible Pakistan is @ImranKhanPTI should stop this daily repression. Charity indeed begins at home https://t.co/Dx66KnlNN3
हालाँकि, अभी तक अपहरण का सही समय नहीं पता चल पाया है लेकिन मंत्री हरिराम ने मामला दर्ज करने के साथ-साथ पीड़िता के परिवार को सुरक्षा मुहैया कराने के भी निर्देश दिए हैं। इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए मंत्री हरिराम किशोरी ने कहा:
“सिंध में बाल विवाह निषेध कानून के तहत नाबालिग लड़कियों के विवाह पर पाबंदी है। 18 साल से कम उम्र की लड़की से शादी करना आपराधिक कृत्य है। क़ानून का सिंध में कड़ाई से पालन किया जा रहा है। हमारी सरकार नाबालिग हिंदू लड़कियों की सुरक्षा के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है। सिंध सरकार अल्पसंख्यक संरक्षण आयोग बनाने की तैयारी में है और इसके मसौदे को मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले मंजूरी दी है।”
बता दें कि अपहरण का पहला वाला मामला सिंध के घोटकी ज़िले से आया था। सुषमा स्वराज द्वारा मुद्दे को उठाए जाने के बाद एक मौलवी सहित 7 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। गिरफ़्तार हुए लोगों में से एक निक़ाह कराने वाला अधिकारी भी शामिल है। शनिवर (मार्च 23, 2019) को इस मामले के 2 अलग-अलग वीडियो के वायरल होने के बाद पाकिस्तान सरकार हरकत में आई थी। स्थानीय अदालत ने लड़कियों को सुरक्षा मुहैया कराने के भी निर्देश दिए हैं।
Muslims kidnapped his two daughters & forcibly converted them to Islam. The distraught Hindu father in Sindh, Pakistan is inconsolable in grief as he has no one turn to & realizes his girls r gone forever like so many other Hindu girls in Islamic Pakistan pic.twitter.com/Ze7qnMvuRu
हालाँकि स्थानीय मेघवाल समुदाय के नेता शिव लाल ने पाकिस्तान सरकार व अधिकारियों द्वारा कही गई बातों को बस ज़बानी जमा-ख़र्च बताया था। स्थानीय दाहरकी पुलिस थाने के आगे नाराज़ मेघवाल समुदाय के लोगों ने धरना प्रदर्शन भी किया। अपने हाथ में बैनर लिए इन लोगों की नाराज़गी इस बात को लेकर थी कि 7 दिन बीत जाने के बावजूद उन लड़कियों को बरामद नहीं किया जा सका है।
दिल्ली के पहाड़गंज से एक चौंकाने वाला मामला सामने आया है। यहाँ विशेष समुदाय के लोगों द्वारा एक नाबालिग छात्रा के साथ रेप किया गया। आरोपितों ने 17 वर्षीय छात्रा को एक होटल में ले जाकर उसके साथ गैंगरेप किया। छात्रा की शिकायत पर पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए पोक्सो (Protection of Children from Sexual Offences) एक्ट और सामूहिक दुष्कर्म का मामला दर्ज कर लिया है। बता दें कि पोक्सो एक्ट 2012 के मई महीने में संसद से पास किया गया था। पुलिस ने एक आरोपित अफ़रोज़ को गिरफ़्तार कर लिया है जबकि दूसरे आरोपित एहतेशाम की तलाश जारी है।
पुलिस के अनुसार, पीड़िता 11वीं कक्षा की छात्रा है, जो हरिनगर के सरकारी स्कूल में पढ़ती है। अफ़रोज़ इसी इलाक़े में परिवार के साथ रह रही पीड़िता का पड़ोसी है। छात्रा के अनुसार, गत वर्ष सितम्बर में अफ़रोज़ उसे बहाने से पहाड़गंज स्थित एक होटल में ले गया। होटल का नाम किंग कैस्टल बताया जा रहा है। जब वो वहाँ पहुँची, तो अफ़रोज़ का दोस्त एहतेशाम वहाँ पहले से ही मौजूद था। दोनों ने नाबालिग को पहले तो जान से मारने की धमकी दी, उसके बाद उसके साथ रेप किया।
इतना ही नहीं, आरोपितों ने हैवानियत की हदें पार करते हुए इस कुकृत्य का वीडियो भी रिकॉर्ड कर लिया। इसके बाद आरोपितों ने छात्रा को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। वो छात्रा को गैंगरेप वाला वीडियो वायरल करने की धमकी देने लगे। वीडियो सार्वजनकि करने की धमकी देकर आरोपितों ने नोएडा में छात्रा का फिर से रेप किया। इसके बाद पीड़िता ने परिजनों को सारी बातें बताई। परेशान किशोरी ने 16 मार्च को पहाड़गंज थाने में शिकायत दर्ज कराई, जिसके पाद पुलिस सक्रिय हुई।
पुलिस ने किशोरी का मेडिकल कराया और उसके बाद मामला दर्ज कर कार्रवाई शुरू की। शिकायत दर्ज होने के बाद दोनों ही आरोपित फ़रार थे। इसमें से एक को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया, जिसका नाम अफ़रोज़ है। एहतेशाम अभी भी फ़रार है और पुलिस उसकी तलाश कर रही है।
राजस्थान के सूरतगढ़ में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी अपनी ही रौ में बह गए। और बहे भी ऐसे कि एक-के-बाद-एक करते-करते 10 झूठ एक ही रैली में बोल आए।
1. कॉन्ग्रेस की ‘विचारधारा’
राहुल गाँधी दावा करते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव ‘विचारधारा’ की लड़ाई हैं, और इस लड़ाई में वह और कॉन्ग्रेस ही भारत के एकलौते तारक-उद्धारक हैं। वह भाजपा (जो कि 1980 में बनी ही थी) पर 1947 में विभाजन के समय भारत के विभाजन का समर्थन करने का आरोप लगाते हैं, और अपनी पार्टी को एकता, प्रेम, और भाईचारे का समर्थक बताते हैं।
पर सच्चाई इसके उलट है। कॉन्ग्रेस वही पार्टी है जिसने ‘हिन्दू आतंकवाद’ का शिगूफा छेड़ा और भारत की छवि बर्बाद की। राहुल गाँधी खुद अमेरिकी राजदूत से एक शाखा लगा कर व्यायाम-देशभक्ति सिखाने और बाढ़ में स्वयंसेवक भेजने वाले आरएसएस को आतंकी अल-कायदा से खतरनाक संगठन बता आए थे। साधुओं को जेल भेजने और मोदी को सत्ताच्युत करने की अपील पाकिस्तान में करने वाली भी यही पार्टी है।
हिन्दुओं को जाति से लेकर भाषा तक हर तरीके से बाँटना और समुदाय विशेष को एकजुट कर, तुष्टीकरण कर, वोटबैंक बनाना ही कॉन्ग्रेस की नीति है।
2. ‘मोदी ने मनरेगा बर्बाद कर दिया’
राहुल गाँधी के अनुसार मोदी ने मनरेगा और अन्य जनकल्याण योजनाओं को राजनीतिक विद्वेष के चलते बर्बाद कर दिया। यह दावा भी यथार्थ के विपरीत है। राजग सरकार ने न केवल मनरेगा में न केवल आमूलचूल सुधार किए, ताकि लाभार्थियों तक इसके लाभ सीधे पहुँचें, बल्कि इसके लिए बजट आवंटन भी सर्वकालिक उच्चतम स्तर ₹60,000 करोड़ मोदी सरकार के इस वर्ष के अंतरिम बजट में हुआ है।
3. ‘HAL के मिग-21 से बालाकोट पर हमला’
राफेल का मुद्दा नाहक उठाने में राहुल गाँधी को सरकारी विमान-निर्माण कम्पनी HAL से अत्याधिक प्रेम हो गया है। रैली में उन्होंने दावा किया कि HAL के बनाए मिग-21 विमानों से ही बालाकोट पर हमला हुआ था। जबकि बालाकोट पर बमबारी मिराज-2000 लड़ाकू जेटों से की गई थी। इसे बनाने वाली वही दसाँ है जिससे कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राफेल बनाने को लेकर खफा हैं। वहीं HAL के काम-काज पर संसद की वह समिति सवाल खड़े कर चुकी है जिसके मुखिया कॉन्ग्रेस के लोकसभा दल के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे हैं।
4. ‘राफेल…’
राफेल का भूत राहुल गाँधी के फिर से चिपट गया। बीच में ऐसा लगा था कि जब ऑपइंडिया ने राफेल की डील असफल होने में उनका निजी आर्थिक हित दिखा दिया तो राफेल वाला भूत शायद उतर गया हो, पर इस रैली में वह फिर इसी भूत से पीड़ित नज़र आए।
राफेल की संप्रग सरकार के समय कीमत और शर्तों से लेकर दसाँ द्वारा अनिल अम्बानी के चयन की प्रक्रिया तक वह हर पहलू पर झूठ बोलते पकड़े गए हैं। यहाँ तक कि वह कभी यह दावा करते थे कि पूर्व रक्षा मंत्री पार्रिकर ने उनके कान में घोटाले की बात कबूली, तो कभी पत्रकार एन राम के फोटोशॉप किए गएरक्षा मंत्रालय के नोट से दोबारा उन्हीं पार्रिकर को उनके अंतिम दिनों में घेरने की कोशिश करते।
5. ‘मोदी ने अम्बानी को ₹30,000 करोड़ दिए’
राहुल गाँधी कभी यह साफ-साफ नहीं बता पाए कि आखिर मोदी ने अम्बानी को कितने का ‘गलत फायदा’ पहुँचाया। वह कभी ₹1 लाख करोड़ कहते हैं, कभी ₹1 लाख 30 हजार करोड़, कभी 1 लाख उड़ा कर केवल ₹30 हजार करोड़।
जबकि सच्चाई यह है कि ऑफसेट का पूरा कॉन्ट्रैक्ट ही ₹29,000 करोड़ का है जिसमें दसाँ के अलावा MBDA, Thales और Safran नामक तीन और कम्पनियों की भी देनदारी बनती है।
6. ‘अमीरों का कर्जा माफ़ किया’
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष यह भी अक्सर कहते हैं कि मोदी ने अमीरों का कर्जा कर दिया। पर कितने का किया, यह संख्या भी चुनाव पास आने के साथ बढ़ती रहती है। 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान यह आँकड़ा ₹20,000 करोड़ था, जो आज ₹3.5 लाख करोड़ हो गया।
एक बार फिर अगर हम सच्चाई के आईने को देखें तो अमीरों का कर्जा माफ करना तो दूर, मोदी सरकार ने ₹9,000 करोड़ न चुकाने पर विजय माल्या की ₹13,000 करोड़ की संपत्ति जब्त कर ली, और Insolvency and Bankruptcy Code के जरिए 2 साल में ₹3 लाख करोड़ की वसूली कर्ज लेकर न चुकाने वाले बड़े लेनदारों से की।
राजस्थान में ही, जहाँ राहुल गाँधी बोल रहे थे, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कर्ज माफी न कर पाने का ठीकरा भाजपा के सर फोड़ दिया। वहीं कर्नाटक में कर्ज-माफी के बाद भी किसानों को कर्ज चुकाने का नोटिस थमाया जाना जारी है। ₹44,000 करोड़ की कर्ज माफी का दावा करने वाली कर्नाटक की संप्रग सरकार केवल 800 लाभार्थी प्रस्तुत कर पाई।
8. ‘विजय माल्या से मिले अरुण जेटली’
राहुल गाँधी वित्त मंत्री अरुण जेटली पर आरोप लगाते हैं कि शराब व विमान कारोबारी ने विदेश फरार होने के पूर्व जेटली से ‘मुलाकात’ की थी। जेटली यह साफ कर चुके हैं कि माल्या ने राज्यसभा सदस्यता का दुरुपयोग कर उनसे बात करने का प्रयास भर किया था, पर उन्होंने बात करने से साफ मना कर दिया था।
फिर राहुल गाँधी एक कॉन्ग्रेस नेता को ‘चश्मदीद’ बना के ले आए कि जेटली-माल्या में 20 मिनट बात हुई थी। पर अरुण जेटली के उस दिन के शिड्यूल में ऐसी बातचीत ही नामुमकिन निकली।
इसके अलावा यह भी सवाल लाजमी है कि मोदी या जेटली की अगर माल्या से कोई साठ-गाँठ होती तो क्या आज माल्या को प्रत्यर्पण और कर्ज की लगभग डेढ़गुणा संपत्ति का जब्त होना झेलना पड़ता?
9. ‘मोदी ने आलोक वर्मा को हटाया’
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष ने यह भी दावा किया कि सुप्रीम कोर्ट से अपनी नियुक्ति जीत कर आए सीबीआई प्रमुख अलोक वर्मा को मोदी ने गलत तरीके से हटा दिया। यहाँ भी सच्चाई कुछ और है। आलोक वर्मा की अदालती जीत प्रक्रियागत मुद्दा थी– सुप्रीम कोर्ट ने उनके हटाए जाने के फैसले पर टिप्पणी न करते हुए केवल यह पाया था कि उन्हें हटाने के लिए न्यायोचित प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ था। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक उन्हें हटाने का अधिकार केवल उन्हें नियुक्त करने वाली उस समिति का था जिसके सदस्य मुख्य न्यायाधीश, पीएम, और लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता थे।
आलोक वर्मा को अंत में इसी समिति के बहुमत के निर्णय से पदमुक्त किया गया।
10. ‘जय शाह को मोदी ने पैसा दिया’
राहुल गाँधी ने मृतप्राय ‘जय शाह मुद्दे’ को फिर उछाल यह जताने की कोशिश की कि मोदी ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह को गलत तरीके से पैसा दे कर उनके ₹50,000 के व्यापार को ₹80 करोड़ महीने का बना दिया था। इस आरोप का ऑपइंडिया विस्तृत रूप से खण्डन अपने पोर्टल पर छाप चुका है।
आखिर में
राहुल गाँधी की चुनावी रणनीति साफ है- मीडिया के समुदाय विशेष की मदद से फर्जी ख़बरें फैलाते रहना, और जनता को बेहोश रखने के लिए ‘₹12,000 महीना’ जैसी हवा-हवाई स्कीमों का चूरन हवा में उड़ाते रहना। पर उनकी इस नीति को कितनी सफलता मिलेगी, यह वक्त ही तय करेगा।
किसी सभ्यता की सामाजिक न्याय व्यवस्था वह गुलदस्ता होती है जिसका प्रत्येक फूल उसी समाज में घटित दुर्घटनाओं, संस्मरणों, आध्यात्मिक चिंतन, सामाजिक चेतना एवं उसके सतत प्रवाह का फल है। मानव चेतना और बुद्धि का स्वभाव होता है कि वह सत्य के पक्षधर हैं। यह प्राकृतिक है, क्योंकि न्याय प्रकृति का ही मूल गुण है।बुद्धिजीवी इसे “Nature balances its act” की क्रिया से निरूपित कर देते है। हमे ज्ञात है भिन्न-भिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ – यूनानी, चीनी, आयुर्वेद, मिस्री – आदि वहाँ की सभ्यता एवं उसी आधार पर जन्मी चिंतन प्रक्रिया का ही प्रारूप है। इसी के आधार पर हम कह सकते हैं कि सभ्यताओं के विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उद्यम व उपक्रम भी भिन्न होते हैं। भारतीय सभ्यता इसका एक मूल उदाहरण है, जहाँ यदि रोजमर्रा की घरेलू क्रियाओं पर ध्यान दें तो पता चलेगा की यहाँ क्रिया-कलापों और संज्ञाओं का सूक्ष्म वर्गीकरण उपस्थित है। जैसे भारतीय सभ्यता ही घी और मक्खन का अंतर करती है। यह एक बहुत सूक्ष्म परख है जो प्राचीन भारतीय जीवन के अन्य क्षेत्रों जैसे खेती, शिक्षा, चिकित्सा, राज्यव्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि में खोजी जा सकती है।
मक्खन से घी बन जाने की यात्रा जटिल है परन्तु घी की आवश्यकता इस सभ्यता को क्यों पडी? संसार की अन्य सभ्यताएँ भी मक्खन में संतुष्ट थी। घी भारतवासियों की परंपरा का अभिन्न अंग है। जन्म, भोजन, यज्ञ , चिकित्सा और अंतिम क्रियाएँ घी की आहुती से पूर्ण होती हैं, इसके वैज्ञानिक कारण हैं। पश्चिमी सभ्यता रुचिकर भारतीय परम्पराओं का अंगीकरण कर रही है। योग हो या शुद्ध शाकाहारी भोजन परंपरा, उनका सन्दर्भ भारतीय ही है फिर चाहे वे उसका वरण कैथोलिक छतरी में करते हों। विश्व की आवश्यकता ने उसे वैश्विक गाँव बनाया है और गाँव में आवश्यकता अनुसार सहायता और सहभागिता का चलन ही उसे स्थिर रख पाता है। अतः किसका सामान किसके पास है यह तो पता होना चाहिए अन्यथा विवाद होगा।
विद्वान इसी विवाद को ‘Clash of Civilizations’ की संज्ञा देते हैं। अब सभ्यताओं की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे अपने सामान की सूची तैयार करें जो पूर्ण रूप से सत्यापित हो, प्रयोगिक हो और सर्वमान्य भी हो। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘Intellectual Property Rights‘ इसी विवाद को ध्यान में रखते हुए प्रतिपादित किए गए हैं। भारतीय सभ्यता ने एक सहस्त्राब्दी की लम्बी ग़ुलामी के दौर से वापसी की है। यह स्वाभाविक है कि अब उसे अपने अस्तित्व की कसौटी से गुजरना है, अपनी खोयी हुई गरिमा को पुनः स्थापित करना है। अब यह अति आवश्यक हो जाता है की स्वतंत्र भारत में हम अपनी स्वदेशी व्यवस्थाओं से कुरीतियों और अव्यवस्था को विस्थापित कर दें। यह तभी संभव है जब स्वदेशी व्यवस्थाओं पर पुनः शोध प्रारम्भ हो और उन्हें प्रयोग में लेकर सत्यापित तथा स्थापित किया जाए।
गत वर्षों में भारत सरकार ने एक निर्णय किया था कि देश में यह मूल्यांकन किया जाए कि कितना सोना किस व्यक्ति के अधिकार में है, ज्ञात हो जाए और इसके बाद उसे चलन में लाया जाए। यह देश की आर्थिक उन्नति में लाभदायक सिद्ध हो सकता था, निहित भ्रष्टाचार पर चोट हो सकती थी परन्तु ‘Standard Reference Material’ के तौर पर उच्च गुणवत्ता का सोना ही उपलब्ध नहीं था जो की भारतीय मानकों पर आधारित हो और स्वदेशी भी हो। इतनी महीन समस्याओं के समाधान के लिए भी हमारे वैज्ञानिक संस्थान पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं हो पा रहे हैं।
इसका कारण खोजने के लिए शोधार्थियों को कुछ नीचा देखना पड़ सकता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि हम आलसी या मंद बुद्धि हो गए हैं बल्कि हम कुछ दिशाहीन हैं। इस पथभ्रष्टता के पीछे विफल हो चुकी नीतियों का भारत जैसे विकासशील देश में लागू हो जाना है। जो हमे दिन प्रतिदिन अंधी दौड़ में लगा रही है जिसके अगुवा सफल और विकसित देश हैं। इन्ही विकसित देशों की विफल वैज्ञानिक, सामाजिक, नैतिक, न्यायिक, नीतियों के आगे हम अपनी स्वदेशी व्यवस्थाओं को बौना कर रहे हैं।
हमे चाहिए कि हम अच्छे से अच्छे शोध के माध्यम से इन्ही स्वदेशी व्यवस्थाओं को उन्नत करें, नीतियाँ उन्नत करें। इस कार्य के लिए सरकारों की सुदृढ़ इच्छाशक्ति अति आवश्यक है जहाँ ये समझा जाए की स्वदेशी शोध का क्या महत्त्व है और उसकी क्या आवश्यकताएँ हैं। हमारी न्याय व्यवस्था भी इसी स्वदेशी शोध से उत्पन्न सन्दर्भों के आभाव में विदेशी सन्दर्भों पर भरोसा कर न्याय एवं सुझाव देती है। फिर चाहे वो न्याय भारतीय परम्पराओं को अस्वस्थ कर दे। यही मुख्य वजहों में से एक है कि भारतीयता, पाश्चात्य सभ्यता का लिबास ओढ़ रही है। सरकारों की कमज़ोर इच्छाशक्ति, शोध की दिशाहीनता, शोधार्थियों की पराधीन मानसिकता इस उन्नति में मुख्य रूप से बाधक हैं। इनमें से कुछ समस्याएँ हमारे परिवेश और वातावरण के कारण होती हैं जो अस्थायी और उपचार योग्य हैं।
एक वीभत्स और भयानक समस्या भी हैं जिसे ‘अज्ञात के भय‘ की संज्ञा दी जा सकती है। यह समस्या शिक्षाविदों की ‘सामंतवादी मानसिकता की जड़ता’ के कारण है। जिसमें एक खास शिक्षण क्षेत्र के प्राध्यापक या शोधकर्ता स्वयं को उस क्षेत्र का क्षेत्रपाल समझने लगते हैं और किसी भी नवीनता का पुरजोर विरोध करते हैं। समयानुकूल परिवर्तन के प्रति जड़ रवैया रखते हैं। यह तबका सदैव व्यवस्थाओं और सरकारों के प्रति शिकायतपूर्ण, निंदात्मक रहा करता है। अपनी जन्मभूमि और पहचान पर शर्मिन्दा रहता है। अपनी पात्रता के औज़ार से रोज़ नई परिभाषाएँ गढ़कर सामाजिक एकता और देश की सम्प्रभुता को चुनौती देता है। निकट इतिहास में कॉन्ग्रेस सरकार में देश के प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह जी को परमाणु समझौते पर इसी गिरोह ने झुकाया था।
भारत में रक्षा समझौता हो या कोई सामाजिक, आर्थिक, नीति यह गिरोह उसे समस्या बनाकर प्रस्तुत करने में महारथी है। यह परम्परा तब और आगे चली जाती है जब इसी गिरोह के हाथों नई पीढ़ी का चयन यथास्थिति बनाए रखने की दिशा में किया जाता है। नई नीतियाँ जो इस परंपरा के लिए मुफीद न हो, इस गिरोह को पीड़ा देती हैं। अतः इस मानसिकता से निजात पाने के लिए दृढ संकल्प, सकारात्मक इच्छाशक्ति और कड़ी मेहनत की आवश्यकता है।
अभी 25 मार्च 2019 को एक घटना सामने आयी जिसमें केरल विश्वविद्यालय के अंग्रेजी संस्थान की प्रोफेसर डॉ मीणा. टी. पिल्लई, जो कि अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य अध्ययन बोर्ड की सदस्य भी हैं, ने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। डॉ पिल्लई ने विश्वविद्यालय के द्वारा सभी विभागाध्यक्षों को जारी उस सर्कुलर के विरोध में पद त्याग दिया जिसमे लिखा था- “All the Heads of the Department are hereby directed to convene the meeting of faculties and to prepare a shelf of projects to be taken for research study pertaining to their subject considering national priorities. The student can opt from the shelf of projects.”
यह सर्कुलर मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उस सुझाव पर जारी हुआ जिसमें यह अनुशंसा की गयी की पीएचडी का रुझान उन शीर्षकों की ओर जाए जो राष्ट्रहित में हैं। अब यदि सरकार को समस्या समझ में आई है तो यह गिरोह समस्या बन रहा है। इसे राष्ट्र खतरे में लगने लगा है क्योंकि इनकी राष्ट्रीयता निर्धारण की स्वयंभू प्रभुसत्ता को चुनौती मिल रही है। इन क्षेत्रपालों का शासन क्षेत्र संकट में है। क्या कारण है कि देश के अन्य संस्थानों जिनमें “Institute of Eminence” भी निहित हैं, ने इस अनुशंसा पर हो रही शुरूआती राजनीति पर अब तक कोई अपेक्षित स्वभाविक प्रतिक्रिया नहीं दी? अगर यह एक गलत मंशा है तो? जबकि इन्हीं संस्थानों के प्रोफेसर वैश्विक पटल पर एक पहचान रखते हैं।
इस खास तरह के गिरोह के शोध कार्य का तुलनात्मक अध्ययन मानकों के आधार पर जैसे “एच इंडेक्स”, “साइटेशन”, “Peer Reviewed Journals” किया जाए तो पता चलेगा कि सभी प्रकाशित पत्रों में कितने राष्ट्रहित में है, कितने साधनवाही हैं या सिर्फ ऐसी समस्याओं का प्रतिपादन है जो इस समाज के बीच वैमनस्य और भेद को जन्म दे रही है। उपरोक्त मानकों की बात तो दूर की कौड़ी है। इतना हल्ला क्यों मचाया है भाई? क्योंकि बात यह है कि सर्कुलर में ‘नेशनल इंट्रेस्ट’ शब्द ही क्यों सम्मिलित किया गया है? इस गिरोह की मनोदशा क्या है? ये कौन लोग हैं जो इस बात को झुठलाना चाहते हैं कि राष्ट्रहित का चिंतन किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में और वामपंथी व्यवस्था में भी जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार का परम कर्तव्य होता है।
जिन्हें “राष्ट्रहित” शब्द से ही परहेज़ हो उनके विषय में क्या समझा जाना चाहिए? यहाँ अंग्रेजी के “बोर्ड ऑफ़ स्टडीज” के मेंबर के रूप में इनकी उपयुक्तता बनती थी? यह पाठक स्वयं निर्धारित करें। ये भी साफ़ है कि डॉ पिल्लई ने नौकरी से इस्तीफ़ा नहीं दिया। ये वैसा ही है जहाँ “अवार्ड वापसी गिरोह” पुरस्कार की राशि डकार कर मोमेंटो ही वापस करता है और दबाव बनाता है। यह उनकी अपनी निजी स्वतंत्रता भी हो सकती है कि वो ऐसा कर रही हैं परन्तु विषय गंभीर हो जाता है जब शशि थरूर और राहुल गाँधी जैसे राजनेता इसका समर्थन कर रहे हैं, ट्वीट और रीट्वीट कर रहे हैं।
पूर्व में ही गढ़ी जा चुकी इस राजनैतिक पृष्ठभूमि में डॉ पिल्लई केवल बलि का बकरा ही साबित होने वाली हैं। या यूँ कहा जा सकता हैं ऐसा उन्होंने स्वयं के लिए चुना हैं। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बौने लोग रातों रात कीर्तिमान बनाकर प्रस्तुत होते हैं। इनके बौनेपन की ये प्रमाणिकता होती है की ये नतीज़न कुछ न कर पाने में पारंगत हैं। वो एक हिंदी की कहावत है – वही ढाक के तीन पात, न चौथा लगे, न पाँचवे की आस। निकट भविष्य में भारतीय शिक्षाविद जगत में षड्यंत्रजनित भारी भूचाल का अंदेशा है। इस गिरोह का सर्वोत्तम गुण है कि जो नीति देश हित में हो ये उसके खिलाफ जान की बाज़ी लगाता है। इसकी शिनाख्त आवश्यक है अतः देश का शोधार्थी अपने कर्त्तव्य और राष्ट्रिय चरित्र का वहन करे।
‘दास कपिताल’ और कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखकर धर्म को अफीम बताने वाले कार्ल मार्क्स आज कैसा महसूस करते, जब वो देखते कि वर्तमान क्रांतिजीव कम्युनिस्ट खुद मार्क्सवाद और वामपंथ को एक कट्टर धर्म के रूप में ग्रहण कर चुके हैं और ऐसा कर के उनसे माफ़ी भी नहीं माँग रहे हैं।
आज के वामपंथी को अगर ध्यान से दो मिनट देखें, तो वो सर से पाँव तक विचारों में नहीं बल्कि घृणा में लिप्त नजर आता है। उसके शरीर में उतनी अस्थियाँ नहीं, जितनी उसके भीतर निराशा समाई हुई है। यह ऐसी निराशा है, जिसके बारे में वामपंथ के प्रणेता तक विचार नहीं कर सके थे। इन्होंने पूर्वज आर्यों और अनार्यों की थ्योरी में सारा समय खपाया है। आर्यों को विदेशी सिद्ध करने में ही अपनी सारी बौद्धिक शक्ति झोंक दी है। ऐसा करते करते आज वामपंथ अपनी आखिरी साँसें गिन चुका है और अब जो यहाँ-वहाँ क्रांतियों की ‘चॉइस’ रखने वाले क्रांति के चितेरों में नजर आती है, वो सिर्फ दम तोड़ते वामपंथ की छटपटाहट मात्र है।
धरना प्रदर्शन के लिए किराए पर उपलब्ध आज का बौद्धिक दरिद्र कम्युनिस्ट असल मुद्दों से नहीं बल्कि घृणा से उपजने वाली विचारधारा पर तंदुरुस्त हो रहा है। आप देखिए कि यह सुबह नाश्ते में ब्राह्मणवाद को गाली देता है, सोते वक़्त पितृसत्ता को गाली देता है और उसके बाद ही स्वस्थ महसूस कर पाता है। क्या क्रांतिजीव के सुबह से शाम तक के दैनिक क्रियाकलाप के बीच में वामपंथ के मुद्दे के लिए कहीं जगह बचती भी है? या असल सवाल शायद तब ये होना चाहिए कि क्या वामपंथ में वाकई में कोई मुद्दा रह भी गया है?
मुद्दों के अभाव में अपना अस्तित्व बचाए रखना कम्युनिस्ट्स का सबसे बड़ा चैलेंज बनकर उभरा है। इसलिए अब जो वामपंथ के नाम पर सुनाई और दिखाई देता है वो सिर्फ वामपंथ का ‘हाइब्रिड वर्जन’ है। यह वामपंथ भी ‘ऑड’ और ‘इवन डेज़’ के कॉन्सेप्ट पर काम करने लगा है। इस ऑड-इवन फॉर्मूला का सबसे ताजा मामला उभरा है, वो है मुस्लिम समुदाय की किराए पर धरना-प्रदर्शन करने वाली वामपंथी JNU दुराग्रही शेहला राशिद!
2018 में सिंगर सीनिड ओ कोनोर के इस्लाम अपनाने पर जमकर उनका स्वागत करने वाली कम्युनिस्ट और ऑन डिमांड नास्तिक, शेहला राशिद अब अल्लाह के नाम पर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने से पहले वामपंथियों से माफ़ी माँगेगी?
क्या JNU की ऑन डिमांड कम्युनिस्ट शेहला राशिद आज ये स्वीकार करेंगी कि खुद को राजनीति के लिए आस्तिक बताने के उनके बयान ने अपने घोषणापत्र, यानि मेनिफेस्टो में धर्म को वामपंथ की परिधि से बाहर करने वाले कार्ल मार्क्स की आत्मा को ठेस लगाई है? जय श्री राम कहने वाले आस्तिक हिन्दुओं और वन्देमातरम के नारे लगाने वाले देशभक्तों को हेय दृष्टि से देखने वाला क्रांतिजीव कम्युनिस्ट, क्या अल्हम्दुलिल्लाह कहने वाली शेहला को अब स्वीकार करेगा? सवाल और भी हैं। आत्मचिंतन जैसे शब्दों का अभाव ऐतिहासिक कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में आज भी बना हुआ है। कम्युनिस्ट शायद इसीलिए ऐतिहासिक गलतियाँ करते आए हैं और करते रहेंगे।
JNU के इस ताजा फ्रीलांस प्रोटेस्टर यानि शेहला राशिद की कार्य प्रणाली को समझना एक पेचीदा मसला बन चुका है। इसे समझना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि ये अक्सर अपने प्रोपेगैंडा की चॉइस के कारण किए गए सस्ते प्रचार अभियानों की वजह से सफलतापूर्वक राष्ट्रीय सनसनी भी बनकर उभरी है। देखा जाए तो राजनीतिक हालातों के बीच यह कम्युनिस्ट ‘जिओ-टैगिंग’ आधारित प्रणाली पर काम करती है। यानि, जब तक ये क्रांतिजीव JNU जैसे संस्थान में फ़्रीलांस और ‘आजाद’ प्रोटेस्टर के रूप में पहचानी जाती है, तब तक ये वामपंथी स्वरुप में रहती है, लेकिन जैसे ही इसके अक्षांश और देशांतर बदलते हैं, ये भूल जाती हैं कि धर्म जैसी चीजों को वामपंथ नकारता है, यही JNU की फ़्रीलांस प्रोटेस्टर शेहला रशीद के साथ भी होता दिख रहा है। ये JNU में रहते वक़्त ‘अकेली, आवारा और आजाद’ है, लेकिन जम्मू कश्मीर पहुँचते ही हिजाब और बुर्क़े में नजर आती हैं।
शेहला राशिद ने हाल ही में ‘समाज सेवक’ शाह फैज़ल की पार्टी ‘जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट’ में अपना दाखिला ले लिया है। फिर भी यदि उनसे उम्मीद की जा रही है कि वो अपने ईश्वर/अल्लाह का नाम ना लें, तो यह सरासर शेहला की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर कुठाराघात करने जैसा होगा। जिस तरह से उन्होंने इस पार्टी को जॉइन करने के कुछ ही दिन के भीतर वामपंथ की ‘एथीस्ट’ (नास्तिक) विचारधारा से फ़ौरन नकारा है, उससे तो यही साबित होता है कि शेहला राशिद के भीतर एक शातिर नेता बनने की पूरी क़ाबिलियत है।
लेकिन खुद को आस्तिक यानी पारलौकिक सत्ता में विश्वास जताने वाला बताकर शेहला राशिद ने JNU और ‘टाइप-JNU’ जैसे कई युवाओं के दिल को गहरा आघात लगाया है और उनके सपनों पर खुलकर लात मारी है। ये आघात ज्यादातर ऐसे युवाओं को लगा है, जिनके भविष्य में राजनीति में जाने के बहुत ज्यादा चांसेज़ और स्कोप नहीं हैं और जो सिर्फ क्रांति की रोजी-रोटी और जीवन पर्यन्त सत्ता का सताया ‘एज़ फ्रीलांस प्रोटेस्टर’ कार्यरत रहकर जीवन यापन का स्वप्न पाले बैठे थे। ऐसे ‘आम वामपंथियों’ को कोई सत्ता का सताया हुआ शाह फैज़ल भी अपनी पार्टी जॉइन करने का निमंत्रण नहीं देने वाला है, वो ये बात खूब जानते हैं।
हालाँकि, शेहला राशीद द्वारा दिया गया हृदयाघात वामपंथी युवा के जीवन की पहली ऐसी घटना नहीं है। इसी तरह का ‘सिमिलर’ हृदयाघात आखिरी बार अभागे कम्युनिस्ट्स को उनके नए नवेले राजकुमार कन्हैया ने स्वयं को भूमिहार बताकर दिया था। इसके बाद चारा घोटाले से ‘लेस’ लालू के पाँव छू कर ‘फासिस्ट’ सरकार से बदला लेने का संकल्प लेने वाले कन्हैया कुमार ने नव-वामपंथियों के लिए वामपंथ की नई लकीर खिंच डाली थी। अभागे नव-क्रांतिजीव ने तब तक अपने फेसबुक अकाउंट से ठीक से मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म के पोस्ट भी पूरे नहीं पढ़े थे, ना ही नव-क्रांतिजीव के तब तक दूध के दाँत टूटे थे। लेकिन वो वापमंथी ही क्या जिसकी पूँछ सीधी हो जाए, उसे तो बस क्रांति से मतलब है।
शेहला रशिद द्वारा खुद को आस्तिक बताए जाने के बाद नव-क्रांतिजीव इस ‘हाइब्रिड वामपंथ‘ अवतार से आशावान महसूस कर रहा है। वो चाहता है कि कार्ल मार्क्स आज दुबारा धरती पर अवतार लेकर एक पन्ना और जोड़ दे, जिसमें लिखा हो कि राजनीति का स्वप्न देखने वाले वामपंथियों के लिए देश, काल और वातावरण के अनुसार ऑन डिमांड आस्तिक बनना स्वीकार्य होगा।
मार्क्सवाद खालिस अर्थशास्त्र से पैदा होकर एक अलग धर्म बनकर तैयार हुआ है। ये कूप-मंडूक कम्युनिस्ट मार्क्सवादी किसी कट्टरपंथी मजहबी से भी ज्यादा उच्चकोटि के कट्टरपंथी हैं। खुद को विचारों का पुरुष सूक्त (पुरुषसूक्त, ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह) मानने वाले वामपंथ की यह वैचारिक मृत्यु दयनीय है। वामपंथ खुद को तार्किक बताता फिरता है, उसने अन्धविश्वास से अपने हर संबंध को हमेशा नकारा है। लेकिन आज देखने को मिलता है कि आज क्रांतिजीव को वाद-विवाद, तर्क, अर्थशास्त्र, विज्ञान कुछ नहीं चाहिए, उसे अगर कुछ चाहिए तो सिर्फ क्रांति! यही क्रांति इसका धर्म है, यही कट्टरता ही इसका स्वभाव है और मौकापरस्ती ही इसका ‘-इज़्म’ है।
आज नहीं तो कल किसी भी उग्र, हिंसक विचार का अंत सुनिश्चित है। वामपंथ का महज कुछ सदियों में अस्त हो जाना किंचित भी अस्वाभाविक और गैर प्राकृतिक नहीं है। शेहला राशिद के गिरगिट-ओ-लॉजी से आज कट्टर वामपंथी स्वयं को कोड़े मार रहा है। वो इसलिए स्वयं को कोड़े मार रहा है क्योंकि मार्क्स की दृष्टि में ईसाइयत का ईश्वर भी अंधविश्वास था। मार्क्स का मानना था कि अंधविश्वास से ठगी और शोषण होता है और इसी संदर्भ में उसने ईश्वर को अफीम कहा था।
किसी विचार के बजाए घृणा और नफरत से जन्मे ‘-वादों’ का दुखद वर्तमान यह है कि स्वयं को सही साबित करने के लिए हर दूसरे शब्द के बाद ‘JNU जैसे संस्थान’ का हवाला देने वाले कुतर्की कम्युनिस्ट अपनी भारत विरोधी टिप्पणियों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देते हैं। लेकिन दूसरे पक्ष के सही और संवैधानिक तथ्य को भी ‘लोकतंत्र की हत्या’ और ‘थोपा जाना’ बताते हैं। इन्हें देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम चुनाव जीतने का हथकंडा लगता है। इन्हें देशभक्ति अस्वाभाविक और मूर्खों का आचरण नजर आता है, राष्ट्रगान गाना असहिष्णुता लगता है। नव-कम्युनिस्ट का मानना है कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की निष्ठा अपरिहार्य होना ‘हायपर नेशनलिज़्म’ है।
इस वर्तमान क्रांतिजीव की हालिया गतिविधियों के तार अगर एक सिरे से जोड़ते हुए देखा जाए, तो पता चलता है कि ये कोई विद्यार्थी या नेता या समाजवादी नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ एक शहरों में रहने वाला अनपढ़, कूप-मण्डूक, गतानुगतिक है, जिसे किसी भी हाल में क्रांति की तलाश थी और समय आने पर उसने अपनी क्रांति को परिभाषित भी कर डाला है, जिसका उदाहरण ऑन डिमांड आस्तिकता वाले लोग हैं। इनको ही ध्यान में रखते हुए हरिशंकर परसाई जी कह गए थे कि “तुम क्रांतिकारी नहीं, बल्कि तुम एक बुर्जुआ बौड़म हो”
चाहे राजनीतिक परिदृश्य कुछ भी हों, क्रांतिजीवों के विषय चाहे नरेंद्र मोदी से लेकर पितृसत्ता तक ही क्यों न घूमते रहें, कुछ सवाल वामपंथियों से हमेशा किए जाते रहने चाहिए; मसलन, कम्युनिस्ट गाँधी का विरोध क्यों करते रहे? क्रांति के नाम पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस का समर्थन क्यों नहीं किया गया? उन्हें 1857 को स्वाधीनता संग्राम मानने में समस्या क्यों होती है? नरेंद्र मोदी के ‘फासिज़्म’ और इंदिरा गाँधी के आपातकाल में क्या समानताएँ हैं?
वर्चस्व की इस उग्र विचारधारा का इतिहास ये है कि भारतीय कम्युनिस्ट समाजवाद को हमेशा से ही अपना पेटेंट मानते आए हैं। ऐसा भी समय आया जब 1934 में उन्होंने कॉन्ग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को ‘सोशल फासिस्ट’ बताया। भूत, भविष्य और वर्तमान के इन सभी उदाहरणों से वामपंथ का कलेक्टिव निष्कर्ष यही निकलता है कि उनकी हाँ में हाँ का स्वर रखने वाला ही क्रांतिकारी कहलाए जाने के योग्य होगा और यदि उसी समकालीन परिदृश्य में जो उसी के सामान नया विचार और तथ्य रखे, वह फासिस्ट!
फासिस्ट शब्द पिछले कुछ वर्षों में खूब भुनाया गया है। JNU से लेकर मीडिया गिरोहों के जरिए फासिस्ट शब्द को प्रमुख और प्रिय गाली का दर्जा दिया गया। इन्हीं ‘हाँ में हाँ’ ना मिलाने वाले समीकरणों के अंतर्गत मोदी सरकार को भी समय समय पर फासिस्ट घोषित किया जाता रहा है, और राष्ट्रवाद और देशभक्ति की बात करने वालों को मूर्ख कहा जाने लगा। यह प्रदर्शनकारी वामपंथी दूसरे की प्रतिक्रिया और दूसरे की अभिव्यक्ति से घबराता क्यों है?
इसी तरह समय बीतता गया और एक दिन अल्हम्दुलिल्लाह स्वर ‘हर हर महादेव’ और ‘जय श्री राम’ उद्घोषों पर भारी पड़ गया, क्योंकि अल्हम्दुलिल्लाह का स्वर JNU के मतावलम्बियों के श्रीमुख से निकला है। उम्मीद जताई जा सकती है कि शेहला राशिद के धार्मिक और राजनीतिक ट्वीट्स के बाद अब हिन्दुओं का खुद को आस्तिक बताना उन्हें साम्प्रदायिकता नहीं ठहराएगा। उम्मीद है कि अब जय श्री राम का नारा हिन्दुओं को ‘सभ्य वामपंथियों’ की नजरों में घृणित नहीं बनाएगा।
राहुल गाँधी जब आईना देखते होंगे तो भ्रम में पड़ जाते होंगे कि उनके जिन डिम्पलों की दीवानी आम जनता और चरमसुख पाते बुद्धिजीवी हैं, उनकी संख्या कितनी है। उनकी गिनती और गणित पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। ये बात और है कि आदमी ख़ुमारी में हो तो बहुत कुछ याद न रहे, सर दर्द करता हो, दोस्तों से नींबू उधार माँगा जा रहा हो, और जो बोला जा रहा हो, वो एक उदास चेहरे के साथ बोला जाता हो, लेकिन क्यूट चेहरे के साथ कोई राफेल का दाम ₹1600 से ₹1600 करोड़ तक ले जाए, तो लगता है कि गलती कहीं और है।
राहुल गाँधी पैदाइशी नेता हैं, जिनकी कुंडली में बहुत कुछ लिखा हुआ है। शायद यही कारण है कि वो कुछ भी बोलकर निकल लेते हैं, और कॉन्ग्रेस का खड़ाऊँ सर पर लेकर घूमने वाले चाटुकार नेता-प्रवक्ता-पूर्व मंत्री आदि उनकी मूर्खता को जस्टिफाय करने के लिए प्रेस कॉन्फ़्रेंस करते हैं। राफेल पर उन्होंने इतनी बार ग़लतियाँ की कि अब वो स्वयं ही इस पर चर्चा नहीं करते। वैसे, ऑपइंडिया ने उनकी राफेल डील के पीछे पड़ने की असली वजह बता दी थी, तभी से वो शांत पड़ गए थे।
इंदिरा गाँधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का जादुई नारा दिया था और सत्ता में आ गई थीं। फिर कॉन्ग्रेस ने लगातार देश के एक बड़े तबके को वित्तीय व्यवस्था से जानबूझकर दूर रखा, ताकि उनकी माँ-सास-दादी के इस कालजयी नारे को उनकी याद में ज़िंदा रखा जा सके। फिर लगातार कॉन्ग्रेस ने ग़रीबों को गरीब रखा।
आजकल, कॉन्ग्रेस के बाकी मोहरे पिट जाने के बाद चिरयुवा अध्यक्ष को ग़रीबों की याद फिर से आई है। और जब याद आई है, तो प्रेस को बुलाकर कुछ भी बोलकर राहुल गाँधी चले आए। राहुल गाँधी ने कह दिया कि अगर उनकी सरकार बनी तो वो देश के सबसे ज़्यादा ग़रीब 20% परिवारों को ₹72,000/वर्ष की आमदनी सुनिश्चित करेंगे। सुनने में ये बात लाजवाब लगती है, लेकिन इंदिरा-राजीव-मनमोहन के 30-35 सालों के कार्यकाल के बाद भी भारत में कितने लोग गरीब हैं, ये सुनकर आपके होश उड़ जाएँगे। उस पर चर्चा थोड़ी देर में।
राहुल ने जब यह बोल दिया, और फिर कैलकुलेटर लेकर चिदम्बरम सरीखे जानकार लोग बैठे तो पता चला कि आलू से सोना भी बनने लगे, हर खेत में फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाकर, उसकी छतों पर भी खेती की जाए, फिर भी इतना पैसा पैदा करना नामुमकिन हो जाएगा। पैसा पैदा ही करना होगा क्योंकि सब्सिडी समेत कई जन-कल्याणकारी योजनाओं के कारण भारत का फिस्कल डेफिसिट लगभग तीन प्रतिशत रहता ही है। जिसका सीधे शब्दों में अर्थ है कि भारत कमाता सौ रुपए हैं, और ख़र्च ₹103 करता है। इसके ऊपर अगर और फ्री पैसे बाँटने की बात की जाए, तो उसका दबाव और बढ़ेगा।
इस सूचना के साथ यह भी बताया गया कि ये एक ‘टॉप अप’ सुविधा होगी जहाँ परिवारों की आमदनी ₹72,000/वर्ष करने की कोशिश होगी। इसका मतलब है कि अगर आपकी आमदनी प्रतिवर्ष 50,000 है, तो आपको ऊपर से ₹22,000 मिलेगा। इसके बाद कॉन्ग्रेस के डेटा एनालिटिक्स डिपार्टमेंट के प्रवीण चक्रवर्ती ने बताया कि ये टॉप अप नहीं है, नीचे के 20% परिवारों को इतना पैसा मिलेगा ही। प्रवक्ता रणदीप सूरजेवाला ने भी यही बात कही, और कहते-कहते यह भी कह गए कि यह महिलाओं के खाते में जाएगा।
मालिक कुछ बोलकर निकल लिए, कर्मचारी अलग बोल रहे हैं, चाटुकार उसमें नई बात जोड़ रहे हैं। ये सब तो कॉन्ग्रेस में होता रहता है। लेकिन, ये जो बीस प्रतिशत की बात हुई है, वो किस आधार पर हुई, ये किसी को नहीं पता। जब आप भारत के आँकड़े देखेंगे तो ये ₹12,000/महीने की आय वाले दायरे में कितनी बड़ी जनसंख्या आती है, यह जानकर आपका माइंड इज़ इक्वल टू ब्लोन हो जाएगा। मने, दिमाग ब्रस्ट कर जाएगा।
वर्ल्ड इनिक्वालिटी डेटाबेस के आँकड़ों के अनुसार भारत में चालीस प्रतिशत जनसंख्या ₹4,000/महीने से कम कमाती है। इसके बाद, अगर माननीय राहुल गाँधी के ₹12,000/महीने की बात की जाए तो भारत की नब्बे प्रतिशत, जी 90%, जनसंख्या उससे कम कमाती है। यह आँकड़ा व्यक्तिगत आय की बात करता है, और हर परिवार से दो लोगों को भी कमाता हुआ माना जाए फिर भी ये जनसंख्या राहुल गाँधी के दायरे से बाहर ही रहेगा।
परिवारों की भी बात की जाए तो एक बहुत बड़ा हिस्सा ₹6,000/महीने से कम कमाता है, इसलिए यह कहना कि इस 20% परिवारों को पैसे देने की स्कीम के बाद कोई भी परिवार उससे कम आय वाला नहीं रहेगा, बेतुका लगता है।
कॉन्ग्रेस ने एक बार फिर ‘आशा’ बेचने की कोशिश की है क्योंकि हाल ही में खत्म हुए चुनावों में ‘कर्ज माफ़ी योजना’ की बात एक वोट लाने वाली योजना की तरह फलित होती दिखी। इसलिए, इस तरह की बात कहकर एक डिबेट शुरु करना कॉन्ग्रेस की नई रणनीति हो सकती है।
लेकिन यहाँ बात वही है कि पहले कॉन्ग्रेस स्वयं ही इस भ्रम से बाहर निकले कि वो लोग कहना क्या चाहते हैं, और करना क्या चाहते हैं। भारत में ऐसा कोई आँकड़ा इकट्ठा करने की संस्था या तकनीक नहीं है जिससे उन पाँच करोड़ परिवारों का पता लगाया जा सके। सैंपल आधारित सर्वे या जनगणना से आय के बारे में सही डेटा नहीं मिलता।
हमारे पास जो आँकड़े होते हैं, वो ऑर्गेनाइज्ड सेक्टर के हैं। जो एक व्यवस्थित तरीके से काम करते हैं, और जिनकी आमदनी का पता कम्पनियों के माध्यम से चल सकता है, उन्हीं की जानकारी सरकार को मिलती है। जबकि सत्य यह है कि मज़दूरों, छोटे किसानों, या भयंकर गरीबी झेल रहे परिवारों की स्थिति का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता।
वर्ल्ड बैंक के आँकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 58% जनसंख्या ₹7,000/महीने से कम पर गुज़ारा कर रही है। फ़ोर्ब्स में एडम इन्स्टिट्यूट लंदन के फेलो टिम वोरस्टॉल की (जून 2015) एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 18 करोड़ परिवार ऐसे हैं जिनमें ‘प्राइम अर्नर’ (जिसकी आय पर परिवार आश्रित है) की मासिक आय ₹5,000 से कम है। अगर हम ऐसे परिवारों के सदस्यों की संख्या औसतन पाँच भी रखें, और कमाने वालों में एक और भी जोड़ दें, तो भी यह आँकड़ा राहुल गाँधी के आँकड़े से बहुत दूर नजर आता है।
कॉन्ग्रेस ने यह भी कहा है कि भारत में 22% लोग गरीब हैं, जिनकी गरीबी उनकी सरकार दूर कर देगी। इस आँकड़े और ₹72,000/वर्ष के आँकड़े में कोई सामंजस्य नहीं है।
खैर, हमेशा की तरह कॉन्ग्रेस ने कुछ कहा ही है, इसे ज़मीनी स्तर पर लाया कैसे जाएगा, इस पर कोई विचार नहीं रखा गया। कहते-कहते यह भी कह दिया कि इसमें राज्यों की भी हिस्सेदारी होगी। मतलब, ये सिर्फ योजना बना देंगे, राज्य कितना प्रतिशत पैसा देगा, ये पैसा कहाँ से आएगा, इस पैसे का उपयोग किस मद में होगा, क्या सब्सिडी हटाई जाएगी, क्या लोक कल्याण से जुड़ी योजनाओं से पैसे काटे जाएँगे, इन सब पर तमाम ट्वीट और प्रेस कॉन्फ़्रेंस के बाद भी कोई क्लैरिटी नहीं है।
अगर अभी की सरकार की बात करें तो सरकार प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष, कुल ₹1,06,800 रुपए कई सब्सिडी वाली स्कीम के ज़रिए ख़र्च करती है। फिर, अगर कॉन्ग्रेस का गणित देखें तो यह समझ में आता है कि इन्होंने बस शिगूफ़ा छोड़ा है, जोड़-घटाव न इनके अध्यक्ष के वश की बात है, न पार्टी की।
प्रेस कॉन्फ़्रेंस ही जब की गई तो वहाँ इसकी पूरी रूपरेखा पर बात की जाती, जहाँ यह समझाया जाता कि भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति के हिसाब से, अगर मई में इन्हें सत्ता मिल जाती है, तो ये पैसा कहाँ से लाएँगे, ऐसे परिवारों की पहचान किस आधार पर करेंगे, कौन सी संस्था आँकड़े लाएगी, कौन-से स्कीम खत्म किए जाएँगे, कहाँ टैक्स बढ़ाया जाएगा, फिस्कल डेफिसिट का टार्गेट क्या होगा…
लेकिन जो पार्टी अपनी बातें और भविष्य की रूपरेखा बताने की जगह अपने पाँच साल सत्ता को कोसने, नए घोटाले गढ़ने, सांप्रदायिक आग लगाने, लोगों को ग़लतबयानी से भरमाने, अपने आप को हिन्दुवादी घोषित करने आदि में झोंक रखा हो, वह पार्टी लोगों को समझाने के लिए गणित और विवेक का प्रयोग कैसे करेगी। उनके लिए तो लोगों को इसी तरह की आसमानी बातें करके बहलाने और झुनझुना पकड़ाने के और कुछ बचा भी नहीं है।
इसलिए, जब मालिक पिछत्तीस बार भी कलाकारी करके निकल जाता है, तो भी गुर्गे सैंपत्तीसवीं बार डैमेज कंट्रोल में तो जुटेंगे ही। इसी कलाकारी को डिफ़ेंड करने की प्रक्रिया को कूल डूडों के शब्दकोश में बीसी कहा गया है।
चुनाव के नज़दीक आते ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो जाता है और इस मामले में कॉन्ग्रेस के नेता काफी सक्रिय रहते हैं। आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही किसी नेता के भाषण को तोड़-मरोड़कर पेश करना भी इन्हें बखूबी आता है। विपक्षी को नीचा दिखाने की कला में इन्हें महारत हासिल होती है।
इन्हीं में से एक हैं कॉन्ग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला, जिन्होंने बीजेपी के वरिष्ठ नेता कलराज मिश्र का एक वीडियो ट्वीट करते हुए दावा किया कि वो जनता को गोली मारने की धमकी दे रहे हैं। सुरजेवाला ने अपने ट्वीटर पर लिखा- भाजपा की हिंसक मानसिकता का ताज़ा नमूना, कलराज मिश्र जी ने फरीदाबाद सांसद के विरोध में नारे लगाने वालों को धमकी भरे लहजे में कहा, “अगर यह उनका प्रदेश होता तो इस तरह गड़बड़ करने वालों को वह स्टेज से उतरकर गोली मार देते। क्या ये है भाजपा का संदेश- सवाल पूछो तो गोली खाओ!
भाजपा की हिंसक मानसिकता का ताज़ा नमूना-
कलराज मिश्र जी ने फरीदाबाद सांसद के विरोध में नारे लगाने वालों को धमकी भरे लहजे में कहा-
“अगर यह उनका प्रदेश होता तो इस तरह गड़बड़ करने वालों को वह स्टेज से उतरकर गोली मार देते”
— Randeep Singh Surjewala (@rssurjewala) 24 March 2019
सुरजेवाला का ये ट्वीट काफी तेजी से वायरल हुआ और कलराज मिश्र ने खुद इस ट्वीट का खंडन करते हुए जवाब दिया। उन्होंने वीडियो के साथ ट्वीट करते हुए लिखा, “कॉन्ग्रेस का जनता को मूर्ख बनाने का ताज़ा नमूना। सुरजेवाला जी ऐसी ओछी हरकत आपको शोभा नहीं देती, जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य निभाएँ और जनता को बेवकूफ बनाना बंद करें। सुनिए क्या कहा था, “अगर मेरा प्रदेश होता तो मैं नीचे उतर के वहीं बात करता।”
कांग्रेस का जनता को मूर्ख बनाने का ताज़ा नमूना
सूरजेवाला जी ऐसी ओछी हरकत आपको शोभा नही देती,जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य निभाएं और जनता को बेवकूफ बनाना बंद करें@rssurjewala सुनिये क्या कहा था
— चौकीदार कलराज मिश्र (Kalraj Mishra) (@KalrajMishra) 24 March 2019
ये है असली सच
बता दें कि कलराज मिश्र के भाषण का असली वीडियो उनके फेसबुक पेज पर उपलब्ध है। हमने जब उस वीडियो को गौर से सुना, तो पाया कि कलराज मिश्र ने तो गोली मारने की बात की ही नहीं है, बल्कि उन्होंने तो कहा- “अगर ये हमारा प्रदेश होता तो मैं नीचे उतरकर वहीं बात करता।”
असली वीडियो को देखने के बाद ये बात साफ है कि सुरजेवाला ने कलराज मिश्र के भाषण के वीडियो को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए भाजपा की छवि को खराब करने की कोशिश की है। हम आपको बताते हैं कि कलराज मिश्र के भाषण को किस तरह से तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया और क्या है इसके पीछे का पूरा सच? दरअसल, फरीदाबाद में रविवार (मार्च 24, 2019) को भाजपा की ‘विजय संकल्प रैली’ में हरियाणा लोकसभा के प्रभारी कलराज मिश्र और फरीदाबाद के सांसद कृष्ण पाल गुर्जर ने हिस्सा लिया था। इस दौरान कृष्ण पाल गुर्जर का भारी विरोध हुआ, जिससे कलराज मिश्र काफी नाराज हो गए थे और उन्होंने कहा कि इस तरह से हंगामा ना करें। जिन्हें हंगामा करना है, उनसे प्रार्थना है कि वो यहाँ से चले जाएँ। अगर ये उनका प्रदेश होता तो वो नीचे उतरकर वहीं पर बात करते।
सुरजेवाला ने वीडियो के इसी भाग को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए फेक वीडियो शेयर किया। मगर अब ये उन पर भारी पड़ सकता है। उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। बता दें कि, बीजेपी के आईटी सेल के पदाधिकारियों ने कलराज मिश्र के बयान को तोड़-मरोड़ कर वायरल करने पर सुरजेवाला के खिलाफ एआईआर दर्ज करने की माँग की है। उन्होंने इसे कॉन्ग्रेस पार्टी और सुरजेवाला की सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने व दंगा भड़काने की साजिश बताया है। पुलिस ने इस घटना को गंभीरता से लेते हुए कार्रवाई करने का आश्वासन भी दिया है।
सोमवार (मार्च 25, 2019) को हैदराबाद में शकील अंसारी नाम के सरकारी वकील को एंटी करप्शन ब्यूरो ने रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया। जिसके बाद उस अधिकारी ने सबूतों को मिटाने के लिए रुपयों को पहले फाड़ा और फिर रुपयों के टुकड़ों को टॉयलट में फ्लश करने की कोशिश की।
अंसारी शादनगर शहर में जूनियर फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट (जेएफसीएम) अदालत में काम करते हैं। उन्होंने प्रभाकर रेड्डी नाम के शख्स से एक केस में प्रभाकर की माँ का नाम शामिल नहीं करने के लिए ₹ 8,000 की माँग की थी। जिसके बाद रेड्डी ने भ्रष्टाचार रोधी एजेंसी (एसीबी) के पास इसकी शिकायत दर्ज कराई, और फिर अधिकारी को रंगे हाथों पकड़ने के लिए जाल बिछाया।
In a weird incident, an assistant public protector in Hyderabad tore currency notes, threw them in bathroom and flushed them out.@hydcitypolicehttps://t.co/faH4tARFQz
सोमवार को जब अपने हैदराबाद के बशीरबाग स्थित घर पर अंसारी रेड्डी से रिश्वत ले रहे था तभी एसीबी की टीम वहाँ पर पहुँच गई। अंसारी को जैसे ही इसकी जानकारी लगी उन्होंने रुपयों को फाड़ना शुरु कर दिया और टॉयलट में फ्लश कर दिया। लेकिन एसीबी के अधिकारियों ने किसी तरह सबूतों को सहेजा और अंसारी को गिरफ्तार किया।
Telangana Officer Tears, Flushes Notes After Being Caught Taking Bribe https://t.co/qnYaYsjXeO Caught taking a bribe, a law officer in Telangana tore the currency notes and flushed them down the toilet in an attempt to wipe out evidence.https://t.co/kYhCd6oT11
आरोपित को एसीबी की विशेष अदालत में पेश किया गया और बाद में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। बता दें कि पिछले हफ्ते, ब्यूरो ने कडथल के एक मंडल राजस्व निरीक्षक सहित पाँच लोगों को आधिकारिक तौर पर ₹20,000 की रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया।
इसके अलावा पिछले महिने भी एसीबी ने एक मंडल राजस्व निरीक्षक को राज्य की कल्याण लक्ष्मी योजना के तहत एक आवेदन को आगे बढ़ाने के लिए ₹5,000 की रिश्वत लेने के आरोप में पकड़ा था।
आगामी वित्त वर्ष की शुरुआत से ही आयकर विभाग की निगाह आप पर और कड़ी होने वाली है। अब आयकर विभाग केवल आपके बैंक खातों और आपके द्वारा दाखिल किए गए रिटर्न तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि उसकी नज़र आपकी ज़िन्दगी के हर उस पहलू पर होगी जिससे आपके टैक्स चुराने का सुराग मिल सके।
इसके लिए आयकर विभाग ‘प्रोजेक्ट इनसाइट’ नामक एक टैक्स-ट्रैकर का इस्तेमाल करेगा, जिसे कई सालों की मेहनत और ₹1,000 करोड़ की लागत से तैयार किया गया है। ‘बिग डेटा’ तकनीकी पर आधारित यह ट्रैकर कर-दाताओं के बारे में जानकारी निकालने के कई अपारंपरिक स्रोतों का भी इस्तेमाल करेगा। इसमें आपकी रिलेशनशिप और सोशल मीडिया अकाउंटों की जानकारी भी शामिल हैं।
15 मार्च को ही मिल गई थी हरी झण्डी
मीडिया में आ रही विभिन्न ख़बरों के अनुसार आयकर विभाग ने अधिकारियों को 15 मार्च को ही इसके प्रयोग के लिए जरूरी अनुमति दे दी है।
इस सॉफ्टवेयर के डेटाबेस में टैक्स देने वालों के साथ-साथ न देने वालों को भी शामिल किया जाएगा ताकि टैक्स दायरे में आने से ही बच रहे लोगों को भी लपेटे में लिया जा सके। सॉफ्टवेयर में हर व्यक्ति की प्रोफाइल को कई हिस्सों में बाँटा जाएगा- एक हिस्सा, मसलन पूरी तरह केवल जानकारियों का होगा जैसे कि नाम, पैन संख्या, पता, हस्ताक्षर, टैक्स रिटर्न्स इत्यादि। इसे मास्टर प्रोफाइल कहा जाएगा। एक दूसरा हिस्सा बिज़नेस इंटेलिजेंस हब का होगा, जहाँ उनकी सभी जानकारियों का विश्लेषण कर यह पता लगाने का प्रयास किया जाएगा कि कहीं वे टैक्स तो नहीं चुरा रहे हैं।
यानि यदि आप अपनी आय नून-रोटी खाने वाली दिखाते हैं और आपका इन्स्टाग्राम ताज होटल में खाते हुए सेल्फियों से भरा पड़ा है तो संभव है कि इनकम टैक्स वाले आपके घर का एक-आध चक्कर मारने में रुचि दिखाने लगें।
नोटबंदी वाले घपलेबाजों पर भी कसेगा शिकंजा
सरकार इस डेटाबेस और सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल उन लोगों पर भी नकेल कसने में करेगी जिन्होंने नोटबंदी के समय अपने पैसे किसी और के खाते में जमा कराए थे। किसी के भी खाते में, किसी भी समय एकाएक संदेहास्पद जमा या निकासी का भी पता कर लिया जाएगा। इसके लिए सरकार ने प्रोजेक्ट इनसाइट को मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में भी युक्त करने का प्रबंध किया है।
विशिष्ट क्लब में शामिल होगा भारत
इस कदम से भारत ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, कनाडा जैसे उन चुनिन्दा देशों की फेहरिस्त में शामिल हो जाएगा जो आयकर चोरों को पकड़ने के लिए बिग डेटा तकनीकी का प्रयोग कर रहे हैं। इससे ऐसे कई केसों के पकड़ में आने की उम्मीद है जो बिना उत्कृष्ट तकनीकी के कर चोरी कर बच निकलने में सफल होते थे।