देश और दुनिया में ऐसे लोग कम ही मिलेंगे जो कह सकें कि 2020 उनके लिए बेहतर था। इस बीच कुछ लोग ऐसे थे, जिन्होंने जटिल वर्ष को जटिलतम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे लोग जो सुर्ख़ियों में बने रहे लेकिन अच्छी वजहों से नहीं बल्कि नकारात्मक वजहों से। जिनकी बातें-हरकतें ‘क्या देखना है’ से ज़्यादा इसका सबूत थीं कि ‘क्या नहीं देखना है’। 2020 की सूची में ऐसे तमाम नाम हैं, जिन्हें भूला नहीं जाना चाहिए, अगर आप भूले हैं तो हम उनका ज़िक्र एक बार फिर कर देते हैं।
‘नॉटी’ बयानवीर संजय राउत
महाराष्ट्र की राजनीति का एक ऐसा नाम जो अपने ‘नॉटी’ बयानों की वजह से पूरे देश की चर्चा का कारण बन गया। संजय राउत और बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत के बीच जुबानी जंग छिड़ी, जिसके बाद शिवसेना के वरिष्ठ नेता ने अभिनेत्री को ‘हरामखोर’ कह दिया था। हालाँकि इसके ठीक बाद उन्होंने विचित्र स्पष्टीकरण जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा कि हरामखोर का मतलब नॉटी होता है।
इतना ही नहीं, शिवाजी की दुहाई देकर कहने लगे कि वह महिलाओं का सम्मान करते हैं। इसके अलावा भी संजय राउत ने साल भर में ऐसे कई बयान दिए जो सुर्खियाँ बने, चाहे वह महाराष्ट्र में घुसने की धमकी देना हो या कंगना रनौत के दफ्तर पर हुई बीएमसी की तोड़फोड़ के बाद बयानबाजी। शिवसेना नेता ने ख़बरों में रहने का सिलसिला जारी रखा। हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय ने उनकी पत्नी को 4355 करोड़ के घोटाला मामले में समन भेजा है, इसके बाद से ही ‘नॉटी’ टिप्पणीकार की बयानबाजी जारी है।
असदुद्दीन ओवैसी मतलब अल्पसंख्यकों का मसीहा (वामपंथी मीडिया का हीरो)
यह ऐसा नाम है, जो पिछले कई सालों से इस सूची (जहरीलों की) में था और आने वाले कई सालों तक इस सूची में बना रहने वाला है। ऐसा चेहरा जिसे वामपंथी मीडिया अल्पसंख्यकों का परम हितैषी साबित करने में जुटा हुआ है, बिना ये समझे कि असदुद्दीन ओवैसी के बयानों का भारतीय राजनीति और आम जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ता है। कुछ समय पहले ही ओवैसी ने भाजपा की सत्ता में मौजूदगी का श्रेय कॉन्ग्रेस को देते हुए, कॉन्ग्रेस के नेतृत्व को नपुंसक घोषित किया था।
इसी तरह बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार के वक्त ओवैसी ने कहा था, “असदुद्दीन ओवैसी बिहार का तो नहीं है, मगर ये पूरा भारत असदुद्ददीन ओवैसी के बाप की मिल्कियत है।” राम मंदिर निर्माण के भूमि पूजन के दौरान भी ओवैसी ने बराबर जहर उगला था। ट्वीट करते हुए ओवैसी ने लिखा था, “बाबरी मस्जिद थी, है और रहेगी। इशांअल्लाह।” ओवैसी की पार्टी के नेता भी उनके ही नक़्शे कदम पर चलते हैं, बिहार विधानसभा चुनावों में एआईएमआईएम के टिकट पर चुनाव जीत कर आने वाले विधायक अख्तरुल इमान ने कहा था कि वह हिन्दुस्तान की शपथ नहीं लेंगे।
हमेशा की तरह ‘रवीश कुमार’
इस नाम के इर्द गिर्द जितना लिखा जाए, उतना कम। मीडिया जगत का ऐसा नाम, जिसने पिछले कई सालों की तरह इस साल भी भ्रमित ख़बरों के कई हवाई फ़ायर किए। कुछ समय पहले ही ‘अप्रिय’ रवीश कुमार ने कृषि सुधार क़ानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन को शांतिपूर्ण बताया था, जबकि इस आंदोलन के कारण न जाने कितने JIO टावर अपनी ‘जान गँवा’ चुके हैं। हाल ही में वामपंथी प्रोपेगेंडा पोर्टल द कारवाँ’ और कॉन्ग्रेस नेता जयराम रमेश ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल के बेटे विवेक डोभाल के बेटे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के मामले में माफ़ी माँगी थी। मिथ्या प्रचार में कुशल कथित पत्रकार रवीश कुमार ने भी इस मामले में द कारवाँ के कंधे पर बंदूक रख दावों की गोलियाँ दागते हुए बड़े शब्दों में डी कंपनी लिखा था। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रपंची पत्रकार रवीश कुमार अपनी इस बात के लिए कब माफ़ी माँगने वाले हैं।
बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम वाले दिन भी प्रोपेगेंडा परस्त रवीश कुमार का दोहरा चरित्र सामने आया था। जब रुझानों में महागठबंधन को बढ़त मिलती हुई नज़र आ रही थी तब रवीश कुमार जम कर ‘हें हें हें हें’ कर रहे थे। कुछ समय बीतने के बाद जैसे ही रुझान भाजपा के पक्ष में आए तब रवीश कुमार के चेहरे पर नाचती पनौती देखने लायक थी। ऐसे ही रवीश कुमार की बातों में दोहरानापन नज़र आया था, जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों की मतगणना जारी थी। कोरोना के केरल मॉडल पर भी रवीश कुमार ने शुरुआत में पूरी क्षमता से महिमामंडन किया था लेकिन उनकी तारीफ़ केरल के लिए इतनी ‘लकी’ साबित हुई कि कोरोना की वजह से वहाँ पर धारा 144 लगानी पड़ गई। इसी साल ‘सेक्युलर’ पत्रकारिता के शिरोमणि ने फ़र्ज़ी ख़बरों की हैट्रिक भी लगाई थी।
अपने ही शो पर ज़लील होने वाले ‘पत्रकार’ राजदीप
मीडिया के झूठ और फ़रेब की बात हो और राजदीप देसाई की बात न हो… तो पूरा विमर्श अधूरा ही लगेगा। कुछ दिनों पहले ही केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने राजदीप को नेशनल टीवी पर फटकार लगाई थी। किसान आंदोलन से जुड़े राजदीप के सवाल (जो आठवीं बार अलग तरीके से पूछा गया था) का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री ने कहा, “क्या आप झूठों के प्रवक्ता हैं।” राजदीप सरदेसाई द्वारा किए जाने वाले साक्षात्कार भी ऐसे ही होते हैं (आदत से मजबूर श्रेणी)।
इनके एक साक्षात्कार में प्रशांत भूषण और शांति भूषण ने कश्मीर के मुद्दे पर कहा था कि वहाँ जनमत संग्रह होना चाहिए और अन्ना हजारे RSS की साज़िश का परिणाम हैं। अक्सर दोषियों और अपराधियों के हित में झंडा बुलंद करने वाले राजदीप ने डॉ कफील को निर्दोष साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भी राजदीप सरदेसाई को उनके ही कार्यक्रम में ज़लील किया था। इसके अलावा भी इस साल कई मुद्दों पर उनका मीडिया ट्रायल और सर्टिफिकेट वितरण धड़ल्ले से जारी था।
तिरंगे और देश का अपमान करने वाली महबूबा
इस साल पीडीपी मुखिया ने ऐसे कई बयान दिए, जो उन्हें सुर्ख़ियों में बनाए रखने के लिए पर्याप्त थे। जम्मू कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लिए जाने यानी अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद महबूबा मुफ़्ती समेत कई नेताओं को हिरासत में लिया गया था। जिन्हें पूरे 14 महीने और 1 हफ़्ते बाद रिहा किया गया। रिहाई के ठीक बाद मुफ़्ती ने बयान दिया, “जो हमसे छीन लिया गया, उसे वापस लेना होगा।”
महबूबा मुफ़्ती ने भारतीय झंडे का अपमान करते हुए कहा था कि जब तक उन्हें पुराना झंडा (कश्मीर का झंडा) नहीं मिल जाता है, तब तक वह दूसरा झंडा (तिरंगा) नहीं उठाएँगी। मज़े की बात है कि उनकी जहरीली बयानबाजी के ठीक बाद उनकी पार्टी के 3 नेताओं से इस्तीफ़ा दे दिया था। हाल ही में उनका नाम रोशनी ज़मीन घोटाले में भी सामने आया है, जिसे तत्कालीन राज्य (जम्मू कश्मीर) का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा है।
परमादरणीय जाकिर नाइक
कुछ लोगों ने इस कदर जहर बो रखा है कि वह आने वाले कई सालों तक काटा जाए, फिर भी ख़त्म नहीं होगा। क्रिसमस के मौके पर जाकिर नाइक का एक पुराना वीडियो खूब चर्चा में रहा, जिसमें वह क्रिसमस त्यौहार मनाने पर जहर उगल रहा था। वीडियो में जाकिर नाइक एक मुस्लिम नौजवान से कहता है, “मैरी क्रिसमस मनाना हराम है और ऐसा करने पर तुम जहन्नुम में जाओगे। जाकिर नाइक ने कथित तौर पर इस्लाम में परिवर्तित हिन्दू युवती को ज्ञान दिया था। ज्ञान देते हुए जाकिर नाइक ने कहा कि उसे गैर मुस्लिम से शादी करने की कोई ज़रूरत नहीं है जब तक वह इस्लाम कबूल नहीं कर लेता है (बाकी 72 हूरों वाला दिव्य तर्क है ही)।
कुछ समय पहले एक पाकिस्तानी ने इस्लामाबाद में श्रीकृष्ण मंदिर बनाने का ऐलान किया था, इस मुद्दे पर भी इस्लामपरस्त जाकिर नाइक ने जहर उगला था। उसका कहना था, “अगर कोई इस्लामी देश मंदिर या चर्च बनाने के लिए रुपए देता है, तो वह हराम माना जाएगा।” हाल ही में पता चला था कि भारत में आतंकी हमलों को अंजाम देने के लिए मलेशिया से 2 लाख डॉलर (1.47 करोड़ रुपए) की फंडिंग की गई थी। इन आतंकी हमलों के लेनदेन के तार जाकिर नाइक सहित कई आतंकी संगठनों से भी जुड़े हुए थे।
के के छी छी, का का छी छी
देश का एक राज्य जो पिछले कुछ समय से राजनीतिक हत्याओं और राजनीतिक हिंसा गढ़ बन चुका है और इस राज्य का मुखिया कौन? ममता बनर्जी! इसका एक मतलब साफ़ है, जितनी बार इन घटनाओं का ज़िक्र होगा, उतनी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री का नाम सामने आएगा। हैरानी की बात है कि प्रदेश की मुख्यमंत्री होने के नाते वह ऐसी घटनाओं पर कार्रवाई तो दूर बल्कि निंदा करती तक नहीं नज़र आती हैं।
यह साल ममता बनर्जी और उनकी पार्टी दोनों के लिए ही सही नहीं था क्योंकि अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके पहले ही पार्टी के कई नेता बग़ावत पर उतरे और कुछ ने पार्टी का दामन छोड़ दिया। केंद्र सरकार की योजनाओं को प्रदेश में लागू नहीं करने से लेकर योजनाओं के लाभ से आम जनता को वंचित रखने तक, ममता बनर्जी का साल ऐसी ही राजनीतिक गलतियों के बीच बीता है।
बुजुर्ग (गहलोत) बनाम नौजवान (पायलट)
राजस्थान कॉन्ग्रेस के इन दो बड़े चेहरों के बीच लंबे समय तक चली राजनीतिक कलह ने जम कर सुर्खियाँ बटोरी थीं। अनुशासनात्मक कार्रवाई की दलील देकर जैसे ही सचिन पायलट को बर्खास्त किया गया, वैसे ही प्रदेश कॉन्ग्रेस दो हिस्सों में बँट गई। फिर शुरू हुआ राजनीतिक बयानबाजी का दौर। अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को साजिशकर्ता घोषित करते हुए कहा था, “अंग्रेज़ी बोलने और हैंडसम होने से कुछ नहीं होता है।”
गहलोत कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं, इतने से मन कैसे भरता तो उन्होंने दूसरे बयान में कहा, “मैं बैगन और सब्जी बेचने नहीं आया हूँ, सीएम हूँ, अपना काम करने आया हूँ।” सचिन पायलट भले इस बीच बयानबाजी का हिस्सा नहीं बने हों पर उनके गुट के विधायकों ने गहलोत सरकार की परेशानियाँ बढ़ाने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। हालाँकि एक मौक़ा ऐसा भी आया था, जब सचिन पायलट ने अपने ट्विटर बायो से ‘कॉन्ग्रेस’ हटा लिया था। दो दिग्गज नेताओं के बीच लंबे समय तक चले इस विवाद ने राजस्थान में कॉन्ग्रेस की जड़ें हिला कर रख दी थीं। खैर क्या पता अभी तक हिली हुई ही हों!
‘हिन्दू-विरोधी’ तनिष्क
किसी के लिए भी कल्पना करना मुश्किल होता कि चेहरों के बीच एक ब्रांड भी सुर्ख़ियों की वजह बन सकता है। 2020 में एक नहीं बल्कि दो-दो मौके आए, जब तनिष्क समूह के बनाए विज्ञापनों ने जम कर विवाद खड़ा किया। एक विज्ञापन दीवाली पर था लेकिन अफ़सोस दीवाली के विज्ञापन में उससे जुड़ी कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही थी। मोमबत्ती, रंगोली, मिठाई, पूजा की थाली… ऐसा कुछ भी विज्ञापन में नहीं दिखा था, जो दिखा वह पटाखे नहीं जलाने पर दिया गया ज्ञान था। कुछ ही देर में विज्ञापन का विरोध शुरू हो गया और नतीजा यह निकला कि तनिष्क ने विज्ञापन हटा लिया। इसके पहले तनिष्क ने जो ‘सेक्युलर’ विज्ञापन बनाया, उससे शायद ही कोई अपरिचित हो।
इसमें गर्भवती हिन्दू महिला की मुस्लिम परिवार में गोदभराई की रस्म दिखाई गई थी। वीडियो में दिखाया गया था कि गहनों से लदी हुई एक महिला गोदभराई की रस्म के लिए तैयार हो रही है। ‘तनिष्क ज्वेलरी’ के इस वीडियो में जिस जोड़े को दिखाया गया था, वो इंटरफेथ कपल होता है, अर्थात पति-पत्नी अलग-अलग धर्म के होते हैं। मुस्लिम परिवार को एकदम ‘सहिष्णु’ दिखाने का प्रयास किया गया था (बाकी सच्चाई आप जानते ही हैं)। इस वीडियो का भी इतना विरोध हुआ कि तनिष्क को अच्छी भली फजीहत के बाद विज्ञापन हटाना पड़ा। इससे बड़ी दलील और क्या सकती है कि कि अगर विज्ञापन सही होता या सही मंशा से बनाई गई होती तो उसे हटाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती।
लिबरल्स की नई ख़ुराक ‘दिलजीत दोसांझ’
लिबरल्स के पास अक्सर चेहरों का अकाल होता है, यही वजह है कि जो भी एक्शन में नज़र आया, उसे लिबरल गैंग झट से लपक लेता है। किसान आंदोलन की आड़ लेकर किसानों को भड़काने वाले लोगों की सूची में दिलजीत का नाम नया था या यूँ कहें प्रोपेगेंडा प्रचार जारी रखने की उम्मीद की किरण। इतनी महीन और उन्मादी ज़िम्मेदारी को दिलजीत ने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ निभाया भी।
पहले कंगना रनौत के साथ ट्विटर पर दो-दो हाथ करके (गाली खाकर) ट्रैफिक कमाया। इसके बाद प्रदर्शन करने वालों किसानों के साथ मज़बूती से खड़े होने का दिखावा किया। आखिर इसे दिखावा ही क्यों कहा जाना चाहिए? तो पूछिए कि कुछ दिन प्रदर्शन स्थल पर बैठने के बाद कहाँ गए पिंड के मशहूर गायक। अंत में कुछ ऐसी ख़बरें भी सामने आई थीं, जिसमें दिलजीत और किसान आंदोलन के तार खालिस्तानियों से जुड़े होने का दावा किया गया था।