आम चुनाव लगभग सर पर आ चुके हैं, सभी राजनीतिक दल अपने-अपने मोर्चों पर इम्तिहान की कड़ी तैयारी में तन-मन और धन से जुटे हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा कड़ी तैयारियाँ इन दलों के मीडिया में बैठे हुए समर्थकों और विरोधियों के बीच देखने को मिल रही हैं। पुलवामा हमले के बाद से मोदी सरकार को एक ही दिन में 25 तरह राय देने वाले मीडिया गिरोह के ‘रायचंदों’ में भारी उत्साह और बढ़ोत्तरी देखने को मिली।
ख़ास बात ये रही कि उनकी राय इस बात से ज्यादा प्रभावित होती नजर नहीं आई कि इतनी गंभीर परिस्थितियों में देशहित में क्या जरुरी है, बल्कि इस बात से प्रभावित नजर आती दिखी कि पाकिस्तान को घेरने के प्रयासों में मोदी सरकार को किस तरह से कमजोर साबित किया जाए। इस बीच जिन पाक अकुपाइड पत्रकारों (Pak Occupied Patrakaar) को पाकिस्तान की ओर से एक-आध बार री-ट्वीट भी किया गया, उनकी तो करियर सेक्युरिटी भी अब बढ़ चुकी है।
इस तमाम घटना के बाद जब इन्हीं पत्रकारिता के समुदाय विशेष के लोगों से जिम्मेदारीपूर्ण नजरिया अपनाने को कहा गया तो इनके जवाब हैं-
- देश का मतलब मोदी नहीं है।
- क्या सरकार से सवाल पूछना गुनाह है?
- हम हाइपर नेशनलिज़्म की ओर बढ़ रहे हैं।
‘गाँधी परिवारिज़्म’ में लिप्त ये मीडिया गिरोह जब ‘हाइपर नेशनलिज़्म’ जैसे मुहावरों की रचना करता है तो इसकी व्याकुलता और कुंठा खुद सामने आ जाती है। इनके लिए जवाब सीधा सा है कि शायद देश-दुनिया के अन्य लोगों के ‘नेशनलिज़्म‘ की परिभाषा उनके जैसे ही गाँधी परिवार की चापलूसी मात्र तक सीमित नहीं है बल्कि भारत देश का सम्मान और गौरव है।
पुलवामा आतंकी हमले के बाद से ये बिन पेंदी का मीडिया गिरोह लगातार अपने तर्क और बयान बदलता रहा। मसलन, पुलवामा आतंकी हमले के दिन से मीडिया के इस समुदाय विशेष के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 56 इंच की सरकार कहकर लगातार अपने भक्तमंडली को उकसाती रही और उन्हें खाद-पानी देती रही। इसके बाद जब सरकार ने भारतीय सेना को आतंकवादियों के खिलाफ खुली छूट देकर आतंकवादियों को सबक सिखाने का फैसला किया तब ये ‘शान्ति और बातचीत’ से हल निकालने की बात करने लगे।
अब, जबकि विंग कमांडर अभिनन्दन भारत वापस आ चुके हैं और युद्ध के हालातों के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, ऐसे समय में ये गाँधी परिवार-परस्त मीडिया गिरोह सरकार और भारतीय सेना से एयर स्ट्राइक के सबूत माँग कर अपनी जिम्मेदारी निभाने की बात कर रही है। ये बात अलग है कि IAF लगातार इस मामले पर साक्ष्य दे रही है, फिर भी मीडिया गिरोह का क्या है, वो तो मीडिया के आतंकवादी हैं सो अपना काम करेंगे ही।
मीडिया गिरोह और देश के आदर्श लिबरल समूह की बौखलाहट साफ़ है। इसे पिछले 4 सालों में हर दूसरे दिन ये कहते हुए सुना गया है कि देश का मतलब नरेंद्र मोदी नहीं है।
बेशक उनका कहना सही है। लेकिन जिस लोकतंत्र की हत्या की बात वो अपने भक्तजनों के मनोरंजन के लिए उठाते रहते हैं, उस लोकतंत्र का मतलब गाँधी परिवार की दासता भी नहीं है। अगर ऐसा न होता तो अवार्ड वापसी से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक के मुद्दे पर एक विशेष समूह हमेशा तैयार न बैठा होता। ये वही लोग हैं जो गाँधी परिवार के पुरस्कारों और उपाधियों तले दबे हुए हैं और जरूरत पड़ने पर अपनी स्वामी-भक्ति साबित करने के लिए वर्तमान सरकार के विरोध में माहौल तैयार करना शुरू कर देता हैं।
मुझे याद नहीं आता है कि जिहादी मानसिकता से उपजे पुलवामा आतंकी हमले पर टुकड़े-टुकड़े गैंग, अवार्ड वापसी वाले स्वघोषित बुद्दिजीवी गैंग से लेकर ‘देश का मतलब मोदी नहीं’ और हाइपर नेशनलिज़्म जैसी शब्दावलियाँ रचने वाले इस झुण्ड ने एक बार भी आतंकवाद के लिए जिम्मेदार मानसिकता पर कोई बयान दिया हो। अपने ढलते करियर में रोजगार की कमी के चलते हर दिन अभिव्यक्ति छिन जाने की दुहाई देते रहने वाले नसीरुद्दीन शाह इतने दिनों तक कहाँ छुपे हैं, ये पूछा जाना चाहिए।
स्पष्ट बात है, समाज का जो वर्ग आज़ादी के इतने वर्षों बाद तक स्वेच्छा से एक गाँधी परिवार की गुलामी में जीता आ रहा है, उसे नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान गुलामी महसूस होनी स्वाभाविक है। इस मीडिया गिरोह और लिबरल गैंग ने शहीदों को शहीद का दर्जा दिए जाने का मुद्दा उठाने का बहुत सही समय चुना है। इस एक परिवार ने जो जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं ये उसी बखूबी निभाता है। जैसे, जब सरकार पाकिस्तान के खिलाफ सामरिक और कूटनीतिक तैयारियों में व्यस्त थी, तब इसे आदेश दिए गए कि बलिदानी सैनिकों की मृत्यु से लेकर आतंकवादियों की तबाही पर सबूत माँगिए और सैनिकों की पेंशन का मुद्दा उठाकर सरकार की कार्रवाई में बाधा डालिए। मोर्चे पर ऐसे आदमी को खड़ा कर दिया गया है, जिसे शायद अब जलील होने में जरा भी शर्म नहीं महसूस होती है और कॉन्ग्रेस को उसकी योग्यता पर पूरा यकीन भी है।
अगर गौर किया जाए तो कुछ वर्षों को छोड़कर आज़ादी के बाद से लगातार कॉन्ग्रेस की ही सरकार देश में रही है। कॉन्ग्रेस के लिए कभी भी परिस्थितियाँ विषम नहीं थी। उन्होंने जब जो चाहा तब उस तरह के परिवर्तन देश में किए, खास बात है कि गाँधी परिवारिज़्म के चलते उस दौरान लोकतंत्र की कभी हत्या नहीं हुई। कभी संविधान में उठा-पटक की गई तो कभी लोगों को गायब कर दिया गया। इन सबके बीच कॉन्ग्रेस सरकार कुछ जरुरी काम अगर भूलती रही तो वो थी सैनिकों की सुरक्षा, ‘शहीद’ का दर्जा (जो कि किसी भी लिहाज से तार्किक नहीं है), सेना को बुलेटप्रूफ़ जैकेट और अच्छी गुणवत्ता वाले विमान।
विपक्ष को भी शायद मोदी सरकार पर पूरा यकीन है कि जो काम उनकी पीढ़ी-पुस्तैनी वाली सरकार नहीं कर पाई, उन्हें नरेंद्र मोदी जरूर पूरा कर देगा, और वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में वो सब कर के दिखाया भी है। उन्होंने जता दिया है कि जो काम राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते कॉन्ग्रेस कभी नहीं कर पाई उसे एक चाय बेचने वाला सिर्फ 5 सालों के भीतर कर सकता है।
नरेंद्र मोदी जनता का वो नेता है जिसने 60 साल के फासले को मात्र 5 सालों में समेट लिया और वो ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि उन्होंने अपने समय और कार्यकाल का इस्तेमाल खुद को भारत रत्न देने में और चापलूस जुटाने में नहीं बल्कि समाज के सबसे निचले तबके से लेकर हर वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के हर सम्भव प्रयासों को दिशा देने में किया और मात्र 5 साल के कार्यकाल में कर दिखाया कि ‘मोदी है तो मुमिकन है’।
नरेंद्र मोदी के नाम से सर के बाल नोंच लेने वाला ये मीडिया गिरोह अगर स्वयं से पूछे कि मोदी को आखिर इतना बड़ा बनाया किसने है तो इसका जवाब वो खुद ज्यादा बेहतर तरीके से जानते होंगे। पिछले 5 सालों में सरकार के हर छोटे-बड़े घटनाक्रमों में सीधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराने की व्याकुलता में ये मीडिया गिरोह अनजाने में ही मोदी का सीना 56 इंच से ज्यादा कर चुका है। जब आपकी नजर में लोगों के शौचालय में पानी न आने से लेकर पाकिस्तान में जैश-ए-मोहम्मद पर कार्रवाई तक के लिए सीधा प्रधानमंत्री मोदी जिम्मेदार होने लगे तो आप खुद ही एक व्यक्ति को सभी शक्तियों से ऊपर मान चुके होते हैं।
‘देश का मतलब मोदी नहीं’ कहने वालों को शायद अभी तक समझना बाकी है कि लोकतन्त्र स्वयं को भारत रत्न देने में नही बल्कि समाज से जुड़े और समाज को जोड़ने वाले लोगों को पहचान देने में निहित है। गाँधी परिवारिज़्म की भक्ति में भूल गए कि लोकतंत्र की परिभाषा ‘जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन’ से बदलकर कब चुनिंदा लोगों का ‘अपने फायदे के लिए, जनता पर शासन’ में तब्दील हो गया।
लोकतन्त्र का अर्थ वह व्यवस्था है जिसमें एक पार्टी कार्यकर्ता देश का प्रधनमंत्री बन जाता है। जब हम लोकतन्त्र की बात करें तो सवा सौ करोड़ भारतीय नागरिक दिखाई दें, न कि परिवार का कोई चिरयुवा सदस्य, जो माता के गर्भ से ही प्रधानमंत्री बनने का आरक्षण लेकर आता है।
हाइपर नेशनलिज़्म जैसी संज्ञा इज़ाद करने वालों को ज्ञात रहे कि गाँधी परिवारिज़्म की विचारधारा में लिप्त लोगों का ध्येय अगर लोकतंत्र मजबूत करना होता तो स्वतंत्रता के बाद का इतिहास कुछ अलग तरह से लिखा होता, जिसमें पाकिस्तान जैसा देश हमारा पड़ोसी मुल्क नहीं होता, कश्मीर का विवाद नहीं होता।
साथ ही मीडिया गिरोह और मोदी घृणा में बहुत दूर निकल चुके भक्तजनों को यह भी स्मरण रहना चाहिए कि लोकतंत्र को सिर्फ वोट की भीड़ बना देने वाले लोग कभी भी लोकतंत्र के अगुवा नहीं हो सकते।