Wednesday, October 2, 2024
Home Blog Page 5383

‘इस्लामोफोबिया’ और मल्टीकल्चरलिज़्म के मुखौटे के पीछे छिपी कड़वी सच्चाई है न्यूज़ीलैंड का नरसंहार

आज न्यूज़ीलैंड में एक व्यक्ति ने क्राइस्टचर्च नगर में स्थित मस्जिद में गोलीबारी कर बेरहमी से लगभग 50 लोगों की जान ले ली। चारों तरफ इस कृत्य की निंदा हो रही है। न्यूज़ीलैंड की क्रिकेट टीम ने बांग्लादेश के साथ मैच रद कर दिया। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने तो मारे गए लोगों के सम्मान में राष्ट्रीय ध्वज तक झुका दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान सहित तमाम मुस्लिम देशों ने मारे गए लोगों के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट की है। इमरान खान ने तुरंत ‘आतंकवाद का कोई रिलिजन नहीं होता’ वाला जुमला पलट कर फेंका। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआँ ने क्राइस्टचर्च में हुए इस कत्लेआम को ‘इस्लामोफोबिया’ करार दिया।  

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बयान स्वयं न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री की तरफ से आया है। प्रधानमंत्री जसिन्डा एर्डर्न ने कहा कि यह न्यूज़ीलैंड के इतिहास में काला दिन है। एर्डर्न ने घटना की प्राथमिक जाँच पूरी होने से पहले ही अपने ट्वीट में यह बयान दिया, “मरने वालों में अधिकतर बाहर से आकर बसे हुए (माइग्रेंट समुदाय) लोग होंगे, न्यूज़ीलैंड जिनका घर है और वे हमारे अपने हैं।”

जिस व्यक्ति ने क्राइस्ट चर्च में लगभग पचास लोगों को मार दिया उसने एक मैनिफेस्टो जारी कर इस हमले की जिम्मेदारी ली और कारण भी बताया। आरोपित के अनुसार उसने न्यूज़ीलैंड में बाहर से आने वाले इमिग्रेंट्स (मुस्लिम समुदाय) को इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वह अपनी मातृभूमि को उनसे आज़ाद करवाना चाहता था। वह चाहता था कि ‘यूरोपीय भूमि’ (ऐसे स्थान जहाँ यूरोपीय सभ्यता के लोग रहते हैं) पर इमिग्रेंट्स की संख्या में कटौती की जाए। मस्जिद जैसी जगह पर इतने बड़े स्तर पर हुए कत्लेआम की जितनी भर्त्सना की जाए उतनी कम है। पुलिस ने जिन तीन लोगों को गिरफ्तार किया है उन्हें दंड भी मिलेगा। लेकिन इस घटना के और भी आयाम हैं जिनपर चिंतन आवश्यक है।

विकसित देशों में इमीग्रेशन आज एक बड़ी समस्या बन चुका है। किसी देश में बाहर से आकर बसने वाले अपने साथ अपनी संस्कृति, खानपान, भाषा, पहनावा, उपासना पद्धति और रहन सहन का हर वो तरीका लेकर आते हैं जो उस देश से भिन्न होता है जहाँ वे जाते हैं। संख्याबल बढ़ने पर उस समुदाय विशेष के लोग उस स्थान की डेमोग्राफी और संस्कृति बदलने की क्षमता रखते हैं। यह धीमा लेकिन बेहद प्रभावशाली तरीका है किसी स्थान पर अपनी सामुदायिक विशिष्टता की जड़ें जमाने का।

यह भी सर्वविदित है कि इस्लाम जहाँ भी गया वहाँ तलवार के बल पर सत्ता कायम की। लेकिन एक सभ्य समाज में हम किसी समुदाय के पुरखों के कुकर्मों की सज़ा आज जीवित लोगों को नहीं दे सकते यह भी स्थापित सत्य है। लेकिन इस सवाल पर भी सोचने की आवश्यकता है कि जिस प्रकार यूरोपीय सभ्यता के लोग ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में आकर बसे और वहाँ की आदिम जनजातियों को समाप्त कर दिया, क्या वही कृत्य आज स्वीकार्य होगा?

इस्लामी आक्रमण के कई उदाहरण हमारे सामने हैं। चाहे ईरान का पारसी समुदाय हो या बंगाली, बलोची, सिंधी, दरदी, बल्ती और मूलतः हिन्दू कश्मीरी अस्मिताएँ- ये सब एक इस्लामी स्टेट बनाने की ज़िद की भेंट चढ़ गए। आज भारत के पूर्वोत्तर में स्थित असम में बांग्लादेशियों की घुसपैठ का मामला उठता है तो कोर्ट में तर्क दिया जाता है कि बांग्लादेशियों का इतनी बड़ी संख्या में आगमन असम की सदियों पुरानी वनवासी जनजातियों के अस्तित्व पर खतरा है। म्यांमार में स्वभावतः शांत रहने वाले बौद्ध लोगों ने रोहिंग्यों के विरुद्ध हथियार उठा लिए हैं क्योंकि वे उनकी अस्मिता पर संकट बन गए हैं।

आज डेमोग्राफी चेंज किसी देश पर मंडराता सबसे बड़ा खतरा है। लेकिन यह दुःखद है कि यूरोपीय देश और पश्चिमी सभ्यता इस खतरे को देखकर भी आँखें मूँदे हुए हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि क्राइस्ट चर्च में नरसंहार करने वाले को तुरंत ‘आतंकवादी’ घोषित कर दिया गया जबकि उसने एक आपराधिक कृत्य किया था। मुस्लिम देशों के राजनेता अपराध और आतंकवाद में अंतर करना ही भूल गए।

नए ग्लोबल ऑर्डर को स्थापित करने में जो सबसे महत्वपूर्ण विचार है वह यह है कि अब समस्याएँ किसी एक देश की न होकर वैश्विक हैं और पूरा विश्व उनके समाधान में योगदान देगा। इसकी आड़ में लिबरल विचारों को हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी का परिणाम है कि सच और झूठ में अंतर समझ में नहीं आता। सही और गलत का भेद धुंधला हो चला है।

यह एक नए प्रकार का शिष्टाचार युक्त रेसिज़्म है जिसमें प्रत्येक सभ्यता में अच्छाई जबरन खोजी जाती है। और जिसे वह न दिखाई दे उसे परले दर्ज़े का मूर्ख और फासीवादी मान लिया जाता है। सभी मनुष्य अच्छे हैं, किसी में कोई भेदभाव नहीं और सभी रिलिजन शांति का संदेश देते हैं- इस लिबरल रेसिज़्म के आदर्श वाक्य हैं। इन आदर्श वाक्यों पर चलने वाले वस्तुतः द्वितीय विश्व युद्ध के समय यहूदियों पर हुए अत्याचारों से उपजे अपराधबोध से इस कदर ग्रसित हैं कि उन्हें आतंकवाद और अपराध में अंतर समझ में ही नहीं आता।

इस्लामोफोबिया नामक बीमारी तो बता दी गई लेकिन इसका कारण नहीं बता पाए। आतंकवाद का रिलिजन नहीं होता यह स्थापित कर दिया गया लेकिन रिलिजन ही कई बार आतंकवादी मनोवृत्ति का उद्गम स्थल क्यों होता है इसकी पड़ताल नहीं की गई। यह बड़ी विचित्र वैश्विक व्यवस्था बनाई जा रही है जिसके घटकों का ओर-छोर पता नहीं चलता।

मल्टीकल्चरलिज़्म अर्थात मिलावटी संस्कृति इस व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन दुर्भाग्य से इसके सिद्धांत केवल सहिष्णु समुदाय के लोगों पर ही लागू होते हैं। मुस्लिम किसी दूसरे देश में जाकर बसें तो उस देश के लोगों पर मल्टीकल्चरलिज़्म लागू होगा लेकिन कोई सऊदी अरब या पाकिस्तान जाकर रहने लगे तो उसपर वही सिद्धांत लागू नहीं होते।

डगलस मरे अपनी पुस्तक The Strange Death of Europe में लिखते हैं कि सन 2012 की जनगणना के अनुसार लंदन के मात्र 44.9% निवासियों ने ही स्वयं को ‘white British’ कहा। आश्चर्य है कि जिस ब्रिटेन ने कभी हिटलर जैसे फासीवादी के सामने घुटने नहीं टेके थे आज वह पाकिस्तानी नागरिकों को सहर्ष गले लगाता है। समूचा यूरोप अपनी डेमोग्राफी बदलने के प्रति सचेत नहीं है।

जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने 2010 में लगभग पचास हज़ार शरणार्थियों को आने दिया था। पाँच वर्षों बाद यह संख्या डेढ़ करोड़ तक पहुँच गई। इसके बाद जर्मनी और बाकी यूरोपीय देशों में इस्लाम को न मानने वालों के खिलाफ हिंसक वारदातों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। काफिरों के विरुद्ध स्वतः हिंसा करने वाले ‘लोन वुल्फ’ अर्थात बिना किसी संगठन से जुड़े हुए आतंकी पहचाने गए।

मल्टीकल्चरलिज़्म और इस्लामोफोबिया के मुखौटे के पीछे की सच्चाई यही है कि कोई वैश्विक राजनेता सच स्वीकार नहीं करना चाहता। कोई यह खुलकर नहीं कहता कि इस्लामी देशों को अपने नागरिकों को खुद संभालना चाहिए। उन्हें नौकरी और सामाजिक सुरक्षा देने का जिम्मा किसी दूसरे देश ने नहीं ले रखा है। आयलान कुर्दी के नाम पर जिस ‘विक्टिमहुड’ को बड़ी चतुराई से बेचा गया था अब वह बर्दाश्त के बाहर हो चुका है। आज न्यूज़ीलैंड में एक साधारण नागरिक ने बंदूक उठाई और अपराध किया। उसे उसकी करनी की सज़ा मिलेगी लेकिन जो क्षोभ जनमानस के भीतर गहरा गया है वह विप्लव बन कर एक दिन उठेगा और सभ्यताओं के संघर्ष का कथन सत्य सिद्ध हो जाएगा।   

कॉन्ग्रेस ने 60 साल तक लुटेरों को शरण दी, BJP ने सिर्फ 66 मामलों से ही वसूले ₹80,000 करोड़

इस लेख का उद्देश्य एनडीए सरकार द्वारा न्याय देने और लेनदारों (creditors) को बकाया राशि वसूलने के लिए शुरू की गई, नई दिवाला और दिवालियापन कानून, 2016 (new Insolvency and Bankruptcy Code, 2016) की दक्षता का मूल्यांकन है। अब तक ऐसी कई दिवालिया कंपनियों ने कॉन्ग्रेस शासन के दौरान बने उलझाऊ कानून की शरण लेकर खुद को बचाते आ रहे थे।

इनसॉल्वेंसी रेजोल्युशन प्रक्रिया में कॉन्ग्रेस के समय के शामिल कानून

  • बीमार औद्योगिक कंपनी अधिनियम, 1985 (The Sick Industrial Companies Act, 1985)
  • वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण और सुरक्षा हित अधिनियम, 2002 का प्रवर्तन (The Securitisation and Reconstruction of Financial Assets and Enforcement of Security Interest Act, 2002)
  • बैंक और वित्तीय संस्थान अधिनियम, 1993 के कारण ऋण की वसूली (The Recovery of Debt Due to Banks and Financial Institutions Act, 1993)
  • कंपनी अधिनियम, 2013 (The Companies Act, 2013

कई कानूनी रास्ते और एक थकाऊ लम्बी कोर्ट प्रणाली के कारण भारत गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों का एक बड़ा ढेर बन चुका है। बैंकरप्सी कोड भारत में क्रेडिट को अधिक आसानी से प्रवाहित करने और अपने दावों के त्वरित निपटान के लिए निवेशकों में विश्वास पैदा करने का प्रयास है। कोड कॉरपोरेट संस्थाओं और व्यक्तियों के दिवालिया होने से संबंधित मौजूदा कानूनों को एकल कानून में समेकित करता है।

इस कानून ने लेनदारों (creditors) के वैधानिक अधिकारों के प्रवर्तन से संबंधित कानून को एकीकृत किया है और लेनदारों के अधिकारों को समाप्त किए बिना एक देनदार (debtor) कंपनी को अपने ऋण को बनाए रखने के लिए पुनर्जीवित किया जा सकता है।

इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड: – NDA Vs UPA

कॉन्ग्रेस ने कमर्शियल इन्सॉल्वेंसी को सुलझाने की जो पुरातन व्यवस्था की विरासत छोड़ी थी, उसके तहत कंपनी अधिनियम में कंपनी को बंद करने का प्रावधान था यदि वह अपने ऋण का भुगतान करने में असमर्थ थी। इसके अतिरिक्त, कॉन्ग्रेस सरकार ने बीमार कंपनियों के पुनर्वास के लिए 1980 के दशक में SICA लागू किया था। यह उन कंपनियों पर लागू होता है जिनकी निवल संपत्ति (Net Worth) नकारात्मक हो गई है।

यह कानून पूरी तरह से विफल साबित हुआ। यद्यपि यह कानून पुनर्वास के लिए बनाया गया था, लेकिन कई बीमार कंपनियों को लेनदारों के खिलाफ एक सुरक्षात्मक लोहे ढाल की तरह उपयोग किया गया। ऋण वसूली न्यायाधिकरण बैंकों को सभी बकाया राशि की वसूली के लिए सक्षम बनाने के लिए बनाया गया था। लेकिन ये भी कर्ज वसूलने के लिए अत्यधिक कुशल तंत्र साबित नहीं हुए हैं। गैर-कॉरपोरेट इनसॉल्वेंसी के लिए प्रांतीय इन्सॉल्वेंसी एक्ट लागू था। यह सभी कानून अप्रभावी था और उपयोग न होने के कारण भी अपनी उपयोगिता खो चुके थे।

अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने SARFAESI कानून बनाया था जो पहले के कानून से काफी बेहतर साबित हुआ था। वर्ष 2000 में, एनपीए ने दोहरे अंको के साथ  उछाल भरी थी। SARFESI कानून और RBI द्वारा विवेकपूर्ण ब्याज दर प्रबंधन दोनों की वजह से NPA को नीचे लाने में मदद मिली।

इसके बाद, 2008 और 2014 के बीच, बैंकों ने अंधाधुंध उधार दिए। इससे एनपीए का प्रतिशत बहुत ज़्यादा बढ़ गया, जो आरबीआई के एसेट क्वालिटी रिव्यू द्वारा उजागर किया गया था। इस पर एनडीए सरकार द्वारा शीघ्र कार्रवाई की गई। एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की गई, जिसने 2015 में आईबीसी की सिफारिश करते हुए अपनी रिपोर्ट सबमिट की।

इसके बाद, एक विधेयक लोकसभा में पेश किया गया और संसद की संयुक्त समिति को रेफर किया गया। संसदीय समिति ने इस विधेयक पर अपने सुझाव दिए और विधेयक में कुछ बदलावों की सिफारिश करते हुए एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। IBC को मई 2016 में संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया गया था। यह आर्थिक विधायी परिवर्तन संसद द्वारा किया गया था।

तुरंत, एनसीएलटी का गठन किया गया, इनसॉल्वेंसी बैंकरप्सी बोर्ड ऑफ इंडिया की स्थापना की गई और नियमों को तैयार किया गया। 2016 के अंत तक कॉर्पोरेट इंसॉल्वेंसी के मामले एनसीएलटी द्वारा देखे जा रहे थे।

IBC प्रक्रिया के माध्यम से शुरुआत बेहद संतोषजनक रही है। इसने ऋणी-लेनदार संबंध को बदल दिया है। लेनदार अब देनदार का पीछा नहीं करता है। एनसीएलटी के गठन और आईबीसी के कार्यान्वयन पर इसकी कार्यक्षमता ने कानून में सुधार की आवश्यकता की तरफ ध्यान आकर्षित किया था। तब से दो विधायी हस्तक्षेप हुए हैं।

अब एनसीएलटी उच्च विश्वसनीयता का एक विश्वसनीय मंच बन गया है। जो कंपनियों को इंसॉल्वेंसी की तरफ ले जाते हैं, उन्हें ही प्रबंधन से बाहर निकाल दिया जाता है। नए प्रबंधन का चयन एक ईमानदार और पारदर्शी प्रक्रिया के तहत होती है। जिसमें कोई राजनीतिक या सरकारी हस्तक्षेप नहीं हुआ हो।

दिवालिया कंपनियों में डूबे धन की वसूली तीन तरीकों से हुई

सबसे पहले, धारा 29 (ए) की शुरुआत के बाद कंपनियां रेड लाइन को पार नहीं करने के लिए भुगतान कर रही हैं. साथ  ही इसे एनसीएलटी को रेफर कर दिया जाता है। नतीजतन, बैंकों को संभावित देनदारों से धन प्राप्त होना शुरू हो जाता है जो डिफ़ॉल्टर घोषित होने से बचने के लिए भुगतान करते हैं। बकाएदारों को भी पता है कि एक बार जब वे IBC में आ गए तो वे निश्चित रूप से धारा 29 (A) के कारण प्रबंधन से बाहर हो जाएँगे।

दूसरे, एक बार लेनदार की एक याचिका एनसीएलटी के समक्ष दायर कर दी जाती है, तो देनदार पहले स्तर पर ही भुगतान करना शुरू कर देते हैं ताकि दिवालिया होने की घोषणा न हो।

तीसरा, कई बड़े दिवालिया मामलों को पहले ही हल कर लिया गया है और कई हल होने के करीब हैं। जिनका निराकरण नहीं किया जा सकता है वे परिसमापन (liquidation) की ओर अग्रसर हैं और बैंकों को परिसमापन मूल्य प्राप्त हो रहा है।

अब तक

  • 1322 मामले एनसीएलटी द्वारा लिए गए हैं
  • प्रवेश से पहले (pre-admission stage) के चरण में 4452 मामलों का निस्तारण किया गया है
  • 66 को स्थगन (adjudication) के बाद सुलझा लिया गया है
  • परिसमापन (liquidation) के लिए 260 मामलों को आदेश दिया गया है
  • अभी तक 66 रिज़ॉल्यूशन के मामलों में, लेनदारों द्वारा लगभग 80,000 करोड़ रुपए की वसूली हो चुकी है

एनसीएलटी डेटाबेस के अनुसार, पूर्व प्रवेश स्तर पर निपटाए गए 4452 मामलों में, जाहिर तौर पर तय की गई राशि लगभग 2.02 लाख करोड़ रुपए थी। भूषण पावर एंड स्टील लिमिटेड और एस्सार स्टील इंडिया लिमिटेड जैसे बड़े 12 मामलों में से कुछ रिज़ॉल्यूशन के उन्नत चरणों में हैं और इस वित्तीय वर्ष में हल होने की संभावना है, जिसमें लगभग 70,000 करोड़ रुपए प्राप्त होने की उम्मीद है।

मार्च 2019 तक, कई रेजॉल्युशन प्रस्ताव सॉल्व होने के करीब हैं। अंतिम चरणों में 1.80 लाख करोड़ रुपए रिकवरी की उम्मीद है। 52,000 करोड़ रुपए एस्सार स्टील लिमिटेड से और भूषण पावर एंड स्टील लिमिटेड से 18,000 करोड़ रुपए रिकवरी की उम्मीद है। अन्य तनावग्रस्त कंपनियों में मोनेट इस्पात, एमटेक ऑटो और रूचि सोया शामिल हैं।

एनपीए के मानक खातों में रूपांतरण में वृद्धि और एनपीए श्रेणी में आने वाले नए खातों में गिरावट, ऋण और उधार व्यवहार में एक निश्चित सुधार दिखाती है।

Insolvency and Bankruptcy code: आगे क्या

यह स्पष्ट है कि भारत सरकार भारत में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बेहतर बनाने के अपने उद्देश्य में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। विधायिका, RBI, SEBI और न्यायपालिका ने एक एकीकृत मोर्चा प्रस्तुत किया है, जो भारत में अब तक अभूतपूर्व है। किसी भी तरह की स्पष्ट खामियों को जल्द से जल्द सुलझाया जा रहा है और कानून तेजी से विकसित हो रहा है।

इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड, 2016 के कार्यान्वयन को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इन चुनौतियों का प्रभावी संशोधनों के साथ सामना किया गया है। IBC एक सराहनीय कार्य कर रहा है, और उन सभी अधिकारियों को उचित श्रेय दिए जाने की आवश्यकता है जिन्होंने इस कानून को लागू करने के लिए लगन से काम किया है।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, कि, 2019 में, भारत ने पहले ही दुनिया भर में खुदरा निवेश के लिए शीर्ष 30 विकासशील देशों में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है और भारत में इन्सॉल्वेंसी रेजॉल्युशन एक अधिक सुव्यवस्थित, समेकित और शीघ्रतापूर्ण समाधान के रूप में उभरा है। यह देखने की जरूरत है कि क्या इन उपायों का इस्तेमाल बैंकिंग प्रणाली पर तनावग्रस्त परिसंपत्तियों (stressed assets) के बोझ को कम करने के लिए किया जा सकता है और क्या भारत इन्सॉल्वेंसी रेजॉल्युशन के मामले में अन्य विकसित राष्ट्रों के समकक्ष आ सकता है।

धैर्य रॉय के मूल अंग्रेजी लेख का अनुवाद रवि अग्रहरि ने किया है।

गुजरात कॉन्ग्रेस ने पाटीदार नेता के सेक्स टेप की तस्वीरों से किया ‘हार्दिक’ स्वागत

कॉन्ग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष, राहुल गाँधी तो लगभग नियमित रूप से किसी न किसी ग़फ़लत के शिकार तो होते ही हैं, लेकिन एक नए मामले में गुजरात प्रदेश कॉन्ग्रेस कमेटी ने अपने अध्यक्ष के नक़्शे-कदम पर चलते हुए पार्टी के नए नेता हार्दिक पटेल का स्वागत बिलकुल अलग अंदाज में किया।

कुछ दिनों पहले ही, हार्दिक पटेल, जो गुजरात में पाटीदार आंदोलन के दौरान उपद्रव करने के लिए प्रसिद्ध हुए और दंगों के लिए दोषी पाए गए, आधिकारिक तौर पर अपने अध्यक्ष राहुल गाँधी की उपस्थिति में कॉन्ग्रेस में शामिल हो गए। हालाँकि, गुजरात कॉन्ग्रेस प्रदेश समिति की वेबसाइट ने पटेल के लिए एक अतरंगी स्वागत की योजना बनाई थी।

गुजरात की कॉन्ग्रेस प्रदेश कमेटी की वेबसाइट ने हार्दिक पटेल का स्वागत उनकी उस तस्वीर के साथ किया जो कुछ महीनों पहले वायरल हुए उनके एक सेक्स वीडियो से उठाया हुआ प्रतीत हो रहा है।

ख़ैर, गुजरात कॉन्ग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट का अपनी पार्टी कॉन्ग्रेस की ही मिटटी पलीद करने का भी एक दिलचस्प इतिहास है। जानकारी के लिए बता दें इससे पहले, उन्होंने कॉन्ग्रेस को ठगों की पार्टी कहा था और कहा कि पार्टी ने 70 साल तक भारत को लूटा। सच गलती से ही सही लेकिन बाहर आ गया था।

अगर इसी तरह से कॉन्ग्रेस में शामिल हुए नए नेताओं को बधाई दी जाती रही, तो अब कोई यह अनुमान लगा ही सकता है कि कॉन्ग्रेस के अधिकांश नेता अब डूबते जहाज से क्यों कूद कर किनारा ढूँढ रहे हैं।

यूपी में बसपा के 15 नेता हुए BJP में शामिल

लोकसभा चुनाव की तारीख़ों का ऐलान हो चुका है। तारीख़ों के ऐलान के साथ ही सियासी हलचल और भी अधिक तेज हो गई है। एक तरफ जहाँ बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी गठबंधन अधिक से अधिक वोट हासिल करने के लिए गणित लगा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ, शुरुआत में ही पार्टी को एक बड़ा झटका लगा है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के कम से कम 15 प्रमुख नेता भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं। खास ख़बर ये है कि इन 15 में से 11 ऐसे नेता हैं, जिन्होंने बसपा के टिकट पर विधानसभा और आम चुनाव भी लड़ा है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, यूपी में सपा, रालोद और कॉन्ग्रेस सहित विभिन्न विपक्षी दलों के 28 नेता पिछले महीने सत्ताधारी पार्टी में शामिल हो गए हैं। जनवरी में गठबंधन की घोषणा करने वाली सपा और बसपा आगामी चुनाव में क्रमश: 37 और 38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। आरएलडी, जो कि गठबंधन का भी हिस्सा है, वो भी तीन सीटों पर चुनाव लड़ेगी।

बता दें कि जिन बसपा नेताओं ने दल बदला है, उनमें एक राज्य मंत्री और 12 मार्च को भाजपा में शामिल होने वाले विजय प्रकाश जायसवाल सहित पार्टी में प्रमुख संगठनात्मक भूमिका निभाने वाले लोग भी शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी में बसपा के उम्मीदवार के रूप में जायसवाल ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ 60,579 वोट हासिल किए थे।

बसपा के एक और नेता गुटियारी लाल दुवेश ने भी उसी दिन दल बदला था, जिस दिन जायसवाल ने दल बदला था। ये साल 2012 में आगरा छावनी से बसपा के टिकट पर विधायक भी चुने गए थे, लेकिन 2017 में दूसरे स्थान पर रहे। प्रतापगढ़ जिले के रामपुर खास से 2007 का विधानसभा चुनाव हारने वाले बसपा के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता उम्मेद प्रताप सिंह भी भाजपा में शामिल हो गए हैं।

बीजेपी में शामिल हुए एक और नेता हैं वेदराम भाटी। जिन्होंने 2012 में गौतमबुद्ध नगर के जेवर से विधानसभा चुनाव जीता था, लेकिन 2017 में हार गए थे। पिछली मायावती सरकार में मंत्री और सीतापुर जिले के एक दलित नेता रामहेत भारती भी बीजेपी में शामिल हुए। भारती ने 2007 और 2012 में हरगांव से विधानसभा चुनाव जीता लेकिन 2017 में हार गए। तीन बार विधायक रह चुके छोटेलाल वर्मा, जिन्होंने 2012 के विधानसभा चुनाव में फतेहाबाद से सपा के उम्मीदवार को हराया था, 23 फरवरी को भारती के 11 दिन बाद भाजपा में शामिल हो गए। मायावती के सरकार में छोटेलाल वर्मा मंत्री के पद पर आसीन थे।

भाजपा में शामिल होने वाले बसपा के संगठनात्मक संगठन के नेताओं में मथुरा के उदयन शर्मा भी शामिल हैं। जिन्होंने पहले आगरा मंडल में पार्टी के चुनाव प्रभारी का पद संभाला था। इसके अलावा ऋषभ तिवारी, जो पयागपुर विधानसभा क्षेत्र के प्रभारी थे और ध्रुव पाराशर, जो आगरा में पार्टी के जोनल को ऑर्डिनेटर थे।

बता दें कि आम चुनाव 11 अप्रैल से शुरू हो रहा है और यह 19 मई तक चलेगा। राज्य की 80 सीटों पर सात चरणों में मतदान होगा।

देश के 38.5% मतदाता बेवकूफ़: कॉन्ग्रेस IT सेल प्रमुख

लोकसभा चुनाव नज़दीक होने के साथ ही इन दिनों राजनीतिक गलियारों में काफ़ी हलचल देखने को मिल रही है। यूँ तो हर पार्टी के नेता और कार्यकर्ता मोदी सरकार को हराने के लिए सक्रिय हो गए हैं, लेकिन कॉन्ग्रेस की भूमिका इसमें कुछ ज्यादा ही जान पड़ती है। अपनी इस अत्यधिक सक्रियता के कारण कॉन्ग्रेस अपनी ओछी मानसिकता और कारनामों का भी सबूत लगातार दे रही है।

इन दिनों ऑपइंडिया के माध्यम से कॉन्ग्रेस के झूठों का लगातार पर्दाफाश हो रहा है, ऐसे में कॉन्ग्रेस की साख़ को बरकरार रखने के लिए पार्टी समर्थकों के पास एक ही उपाय बचा है कि मोदी सरकार की छवि को धूमिल कर दिया जाए। लेकिन अगर कोई राजनैतिक पार्टी भाजपा की छवि बिगाड़ते-बिगाड़ते भारत के मतदाताओं पर भी सवालिया निशान लगा दे तो एक मतदाता के विचार उस पार्टी के बारे में क्या होंगे?

दरअसल, कॉन्ग्रेस की आईटी सेल प्रमुख दिव्या स्पंदना ने अपने अकॉउंट पर ट्वीट करते हुए मीम शेयर किया है कि मोदी को वोट देने वाले तीन लोगों में एक आदमी बेवकूफ़ होता है, बिलकुल बाक़ी दोनों की तरह।

मानते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है, लेकर पीएम पद पर आसीन एक व्यक्ति के लिए और देश की जनता का इस तरह से मज़ाक उड़ाना कहाँ तक उचित है? वो भी तब जब आप देश की सबसे बड़ी विपक्षी राजनैतिक पार्टी के लिए जनमत जुटाने की कवायद में लगे हैं।

खैर, देखा जाए तो दिव्या की इस तरह की टिप्पणी का आना एक आम आदमी के नज़रिए से गलत हो सकता है लेकिन उनकी पार्टी में इसका चलन है, जिसके कारण उन्हें सोशल प्लेटफॉर्म पर ऐसा करना बेहद सरल लगा। बता दें कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने खुद कुछ समय पहले मोदी को ‘मौत का सौदागरबताया था। राजनीति में हमेशा से जमे रहने के लिए कॉन्ग्रेस ने लोगों को हमेशा जाति-पाति के नाम पर बाँटा हैं। आज वही कॉन्ग्रेस से जुड़े चेहरे मतदाताओं को बेवकूफ़ भी बता रहे हैं।

अब कॉन्ग्रेस IT सेल की प्रमुख दिव्या की मैथमैटिक्स पर यदि बात की जाए तो मालूम पड़ेगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल किया था। यहाँ कॉन्ग्रेस को 44 सीटें मिली थी और भाजपा ने 282 सीट जीती थी। बीजेपी ने 31.2 फीसदी वोट अपने दम पर हासिल किए थे, जबकि NDA को 38.5% वोट मिले।

इसके अलावा अभी हाल ही में टाइम्स ने एक मेगा पोल कराया था जिसमें 8 लाख इंटरनेट यूजर्स ने भाग लिया था। इस सर्वेक्षण के मुताबिक 71.9 फीसदी लोगों का कहना था कि वो एक बार फिर से पीएम पद के लिए मोदी को ही वोट करेंगे, जबकि 73.3 फीसदी लोगों ने मत रखा था कि इस बार दोबारा मोदी सरकार ही सत्ता में जीतकर वापस आएगी।

इस पोल में सामने आए नतीजे बताते हैं कि नरेंद्र मोदी लोकप्रियता के मामले में अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे हैं। इसलिए इस पोल में लगभग 84% यूज़र्स ने बताया कि अगर आज की तारीख़ में चुनाव होते हैं तो वे पीएम के तौर पर मोदी को चुनेंगे।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दिव्या और कॉन्ग्रेस देश के उन सभी नागरिकों को बेवकूफ समझते हैं, जिनसे इन दिनों कॉन्ग्रेस वोट माँगने में व्यस्त है। सब जानते हैं कि सोशल मीडिया के आने के बाद से हर राजनैतिक पार्टी का अपना आइटी सेल है, जो वर्चुअल स्पेस पर ‘जनमत निर्माण’ कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिसके कारण ही वार रूम से बदतर स्थिति हमें अपने फेसबुक, ट्वीटर पर आए दिन देखने को मिलती है। चूँकि, चुनाव नज़दीक हैं और हर नेटीजन सोशल मीडिया पर अपना समर्थन दर्ज करा रहा है। ऐसे में दिव्या के ट्वीट को देखकर मालूम पड़ता है कि चुनाव आते ही सोशल मीडिया को वॉर रूम में तब्दील किस तरह की मानसिकता वाले लोगों द्वारा किया जाता है।

क्राइस्टचर्च में 50 लोगों की जान लेने वाला हेडमास्टर का बेटा नहीं, उसे कहिए आतंकी: वामपंथी मीडिया गिरोह

सुबह-सुबह एक ख़बर आई जिसमें एक बंदूकधारी युवक ने न्यूज़ीलैंड के दो मस्जिदों में गोलियाँ चलाते हुए लगभग 50 लोगों की जान ले ली और क़रीब 20 को घायल कर दिया। कहा जा रहा है कि यह घटना न्यूज़ीलैंड के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है। बंदूक़धारी युवक ने इस पूरे कृत्य को फेसबुक लाइव के ज़रिए शेयर किया था।

आगे, उसने जो कारण बताए थे, उनमें से एक यह था कि बाहर से आने वाले ‘मुस्लिम प्रवासी जो बहुत ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं’ उन्हें रोकने की ज़रूरत है। फिर उसने ‘क्रूसेड’ (रिलिजन के नाम पर युद्ध) आदि का ज़िक्र किया। उसने एक ‘नए समाज की स्थापना’ की बात की और बताया कि उसकी वैचारिक समीपता चीन से है। कॉरपोरेट कल्चर को उसने इस पूरी ‘समस्या’ का एक कारण बताया।

ये तो हो गई घटना, जो कि आपराधिक घटना है। एक अपराध हुआ है, जिसके कारण मौतें हुई हैं। महीने भर पहले पुलवामा में आतंकी हमला हुआ था। कुछ समय पहले बुरहान वनी जैसे आतंकियों ने सेना और समाज को परेशान कर रखा था। आए दिन छिटपुट हिंसा की घटनाएँ इसी देश में होती रहती हैं, जिसे हम मीडिया के ज़रिए जानते हैं।

इस घटना, या वैसी कोई भी घटना जहाँ सफ़ेद चमड़ी के लोगों के देश में हानि होती है तो चाहे वहाँ दो मरे, या बीस, वो ग्लोबल ट्रेंड बन जाता है। उस पर खूब चर्चा होती है, आतंकवाद की भर्त्सना होती है। भारत के लोग भी अमूमन प्रोफाइल काला करके, हैशटैग सहमति देकर इसमें अपनी संवेदना व्यक्त करते हैं। ये सब एक ट्रेंड की तरह हर ‘श्वेत देश’ में, जिनकी जड़ें यूरोप में हों, जो बेहतर अर्थव्यवस्था रही हों, छोटी से छोटी आतंकी घटना के बाद दिखने लगता है।

ऐसा ही आतंकी हमला उरी में हुआ था, पुलवामा में हुआ था, पठानकोट में हुआ था, संकटमोचन मंदिर में हुआ था, सरोजिनी नगर मार्केट में हुआ था, मुंबई लोकल ट्रेनों में हुआ था, मुंबई शहर में 2008 में हुआ था… भारत से ज़्यादा ऐसे हमले बहुत कम देशों ने झेले हैं। वहीं, आईसिस के आतंक से सीरिया कैसे उबर रहा है, उस पर वैश्विक सन्नाटा खूब फबता है।

इसी सन्नाटे के बाद एक और विचित्र प्रचलन दिखने लगा है हमारी मीडिया में जहाँ भारत पर हुए आतंकी हमलों के मास्टरमाइंड के ‘बाप हेडमास्टर थे’, ‘बेटे ने बारहवीं का इम्तिहान पास किया’, ‘आतंकी ओसामा एक अच्छा पिता था’, और ‘अहमद डार को सेना के अफसर ने डाँट लगाई थी’ आदि कहकर उसके आतंक को जस्टिफाय करने की कोशिश की जाती है। 

आज बरखा दत्त ने ट्वीट किया है कि क्राइस्टचर्च के बंदूक़धारी युवक को जो भी आतंकवादी नहीं कहेगा वो स्वयं भी एक सायकोपाथ है। मैं बार-बार उस अपराधी को जानबूझकर ‘बंदूक़धारी युवक’ कह रहा हूँ क्योंकि श्वेत देशों की मीडिया में भारत पर हमला करने वाले आतंकियों को ‘रायफल बेयरिंग यंग मैन’ से लेकर ‘गनमैन’ जैसे शब्दों से ट्रिवियलाइज करने की कोशिश की जाती है। भूरी चमड़ी वाले तथाकथित थर्ड वर्ल्ड कंट्री के लोगों की जान भी क़ीमती है, ये श्वेत चमड़ी वाले देशों की मीडिया को जानने की ज़रूरत है।

बरखा दत्त का अचानक से सेंसिटिव हो जाना उसकी संवेदना नहीं धूर्तता का परिचायक है। पत्रकारिता का ये समुदाय विशेष, ये पाक अकुपाइड पत्रकार, ये वामपंथियों का गिरोह भारत पर हुई आतंकी घटनाओं पर विशेष कारण बताकर उसे सही साबित करने की कोशिश में लगा रहता है, और विदेशी हमलों पर आँसू दिखाकर दूसरों को गरियाने की कोशिश करता है।

इससे पता चलता है कि न सिर्फ वैश्विक परिदृश्य में, बल्कि भारतीय मीडिया के एक हिस्से के लिए आतंक की परिभाषा भी अलग होती है। क़ायदे से देखा जाए तो न्यूज़ीलैंड में मस्जिद पर हुआ हमला आतंकी गतिविधि नहीं, एक सामाजिक अपराध है। ओरलैंडो के समलैंगिक बार में किया गया हमला एक अपराध है, आतंकी गतिविधि नहीं। जबकि किसी सैन्य संगठन पर, प्रतिष्ठान पर, सैनिकों के समूह पर हमला करना आतंकी गतिविधि है, जिसे पश्चिमी देशों ने लम्बे समय तक ‘कन्फ्लिक्ट’ कहकर नकारा था। 

ये मैं क्यों बता रहा हूँ? ये इसलिए बता रहा हूँ कि हम अभी भी तीसरी दुनिया ही हैं जिन्हें अभी भी दुनिया के तीसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता है। आतंकी हमलों में तो सबको, पूरी दुनिया को साथ आना चाहिए। इनके मीडिया संस्थानों को अपने शब्द चुनते वक़्त भौगोलिक सीमाएँ और नाम नहीं देखने चाहिए। लेकिन क्या ऐसा होता है? 

गूगल में जब आप ‘टेरर अटैक’ टाइप करेंगे तो सबसे पहला सजेशन 9/11 का आता है मानो उससे पहले कोई घटना हुई ही ना हो! फिर अगर आप विकिपीडिया पर ‘टेरर अटैक इन …’ करके देशों के नाम देकर खोजेंगे तो आपको हर यूरोपी देश के लिए लगभग 1800 से लेकर आजतक के हर हमले की जानकारी मिल जाएगी। वही हाल अमेरिका का भी है। लेकिन भारत के नाम आपको ये आँकड़ें 1970 के बाद से मिलेंगे। और उसमें भी अगर आपको हमलों के नाम और बाक़ी जानकारी चाहिए तो 1984 के बाद से आँकड़े मिलेंगे।

जब बात आँकड़ों की हो ही रही है तो भारत में 1970 के बाद से 2015 तक कुल 9,982 आतंकी घटनाओं में  18,842 मौतें हुईं, 28,814 लोग घायल हुए। अगर 1984 से 2016 तक के आँकड़ें लें तो क़रीब 80 आतंकी हमलों में 1985 मौतें हुईं, और लगभग 6000 से ज़्यादा घायल हुए। अगर और क़रीब के दिनों को लें, तो 2005  से अब तक हुए आतंकी हमलों में 707 मौतें हुईं, और 3200 के क़रीब घायल हुए हैं।

अब आईए यूरोप पर जहाँ, तुर्की और रूस को छोड़कर, आतंकी हमलों में 2004 से अब तक 615 मौतें हुईं और 4000 के लगभग लोग घायल हुए। अमेरिका में 2000 से अबतक क़रीब 3188 मौतें हुईं जिसमें से 2996 लोग सिर्फ 9/11 वाले हमले में मारे गए। यानि, बाक़ी के हमलों में 192 लोग मरे। अमेरिका के लगभग 90% से ज़्यादा हमलों में ईकाई अंकों में मौतें हुई हैं। यूरोप में आतंकी हमले भी 2004 के बाद से ही शुरू माने जा सकते हैं, क्योंकि उससे पहले वो वैश्विक आतंकवाद से पीड़ित नहीं दिखते। 

आज जब यूरोप या अमेरिका के किसी हवाई अड्डे पर पटाखे की भी आवाज़ आती है तो हर चैनल, हर वेबसाइट, हर सोशल मीडिया पर, जिसमें भारत के संस्थान भी शामिल हैं, उसे अपनी पहली ख़बर बनाकर कवरेज करते हैं। लेकिन स्वयं भारत, बांग्लादेश, अफ़्रीका आदि में हो रही मौतों को उतनी तरजीह नहीं दी जाती। 

ये बस कुछ आँकड़े हैं जिस पर ध्यान देने से पता चलता है कि आतंकवाद की परिभाषाएँ कैसे देश, सीमा, रंग और नस्ल देखकर बदलती रहती है। अफ़्रीकी जानों की क़ीमत नहीं है, इसलिए पश्चिमी मीडिया में दसियों लोगों की हत्या की खबरें नहीं आती। सीरिया, लीबिया, इराक़ आदि उन्हीं की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है, इसलिए वहाँ ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार दे दिया जाता है। 

भारत की मीडिया और बरखा दत्त जैसे लोग भले ही ये लॉजिक लगा लें कि क्राइस्टचर्च के बंदूक़धारी युवक को किसी भारतीय सेना के अफसर ने डाँटा नहीं था, या वो कश्मीर के हेडमास्टर का बेटा नहीं था, इसलिए वो आतंकी है, लेकिन सत्य यही है कि बंदूक लेकर टहलने वाले किसी भी बाप, बेटे, दामाद या जीजा को सिर्फ इसलिए जस्टिफाय नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी बिटिया आठ साल की है जिसे सफ़ेद कबूतरों का उड़ना देखना अच्छा लगता है। उस बच्ची का अपने बाप के आतंकी होने में कोई दोष नहीं, लेकिन उसकी निश्छलता उसके बाप के अपराध को कम नहीं कर सकती। 

आर्टिकल को वीडियो रूप में यहाँ देखें

कॉन्ग्रेस भारत का वो बेजोड़ विपक्ष है जिसकी तलाश राष्ट्रवादियों को 70 सालों से थी

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी, कॉन्ग्रेस, लगातार अपने आप को हर मोर्चे पर आजमा चुकी है और उसने साबित भी कर दिया है कि वो राजनीति में सिर्फ सत्ता में रहकर ही नहीं, बल्कि एक बेजोड़ विपक्ष की भी भूमिका बखूबी निभा सकती है। पिछले दो सालों में जो सूझ-बूझ कॉन्ग्रेस ने दिखाई है, हर राष्ट्रवादी व्यक्ति उन्हें इसी रूप में अपने हृदय के भीतरी कक्ष में स्थापित कर लेना चाहता है।

गोदी मीडिया द्वारा लाई गई ‘मोदी लहर’ और ‘मोदी आँधी’ के बीच भी कॉन्ग्रेस ने मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान मजबूती से अपने आप को स्थापित कर के रखा, बावजूद इसके कि 2014 के आम चुनाव में कॉन्ग्रेस को जनता ने संसद में विपक्ष कहलाए जाने लायक भी नहीं छोड़ा था। राष्ट्रवादी लोग चाहे कितनी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कार्यकाल की तारीफ़ करें, लेकिन मोदी भक्त कभी ये बात स्वीकार नहीं करेंगे कि इसमें पूरा योगदान कॉन्ग्रेस का ही रहा है।

सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर एयर स्ट्राइक तक कॉन्ग्रेस ने जमकर माँगे सबूत

मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि आतंकवाद पर उनका सख्त रवैया रहा। लेकिन अगर कॉन्ग्रेस अपने प्रशंसकों की प्रार्थना के खिलाफ जाकर भी लगातार और दिन-रात मोदी सरकार पर दबाव न बनाती तो शायद ही कभी पीएम मोदी भारतीय सेना को कभी इतनी खुली छूट देते कि वो पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों को सबक सिखा पाते।

तीन तलाक़ बिल

अपने चुनावी मेनिफेस्टो से लेकर रैलियों तक में महिला सशक्तिकरण की माला जपने वाले गाँधी परिवार ने ‘कभी घोडा-कभी चतुर’ की नीति वाले कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल को खुली छूट दी थी कि वो तीन तलाक़ पर मोदी सरकार को घेरे। आखिरकार मोदी सरकार ने कॉन्ग्रेस की सदियों पुरानी तुष्टिकरण की राजनीति के सामने नई लकीर खींचकर और अल्पसंख्यक वोट बैंक की चिंता किए बिना ही तीन तलाक़ जैसे संवेदनशील विषय पर अध्यादेश लाना ही पड़ा।

SC-ST आयोग में कॉन्ग्रेस की भूमिका

सदियों से दलित वोट बैंक की हितैषी रहने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी के दबाव के कारण ही भाजपा को दलितों के प्रति होने वाले सामाजिक शोषण रोकने के लिए यह आयोग बनाना पड़ा। हालाँकि, ‘थैंकलेस कॉन्ग्रेस’ चाहती तो आजादी के इतने वर्षों में इस आयोग का गठन कर  इसे आसानी से ‘पन्डित नेहरू आयोग’ का नाम दे सकती थी, लेकिन मूर्ख कॉन्ग्रेस ने इसका क्रेडिट भी नरेंद्र मोदी को सौंप दिया।

मनरेगा vs किसान निधि योजना

कॉन्ग्रेस के बड़ी विदेशी यूनिवर्सिटी से पढ़कर आए बड़े नेताओं ने किसानों को सामाजिक और आर्थिक तौर पर सक्षम बनाने के लिए उनको मात्र 60 साल में किसान से मनरेगा मजदूर में तब्दील कर उनका मानसिक प्रोमोशन किया, लेकिन खुद को प्रधानसेवक कहने वाले चायवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को उत्तम कृषि तकनीक के लिए अनेक योजनाएँ जारी की, जिनके कारण किसान सिर्फ किसान ही बनकर रह जाएगा। किसानों को कृषि और हल छोड़कर फावड़ा और सब्बल उठाकर दिहाड़ी-मजदूरी करने का जो अवसर कॉन्ग्रेस ने दिया था, वो अब मोदी जी ने समाप्त कर दिया है।

कॉन्ग्रेस ने फिर भी एक आदर्श विपक्ष की भूमिका में रहकर किसानों के लिए नया चुनावी जुमला ईजाद किया, कृषि ऋण माफ़ी। इस ऋण माफ़ी की नेहरूवादी दूरगामी सोच यह है कि किसान आराम से लेट-लेटकर ऋण लेता रहे और अपनी सेहत सुधारे। लेकिन फिर नरेंद्र मोदी ने सॉइल हेल्थ कार्ड और किसान निधि योजना का उद्घाटन कर किसानों को बुनियादी स्तर पर मजबूत बनाने और सहायता प्रदान कर उनके उस आराम के जीवन में दखल दे डाली, जिसने आजादी के इतने वर्षों बाद तक किसानों की एड़ियों में बिवाई डाली थी।

अगर कॉन्ग्रेस लगातार किसानों के माध्यम से धरना प्रदर्शन न करवाती और किसानों की एड़ियों का प्रोफेशनल तरीके से फोटोग्राफी करवाकर नरेंद्र मोदी सरकार को न दिखाती तो शायद मोदी सरकार इन योजनाओं की ओर कभी कदम नहीं उठाती और किसान की मनरेगा की आस में जीवन गुजारना पड़ता।

सामान्य वर्ग में आरक्षण

समाज की विभिन्न जातियों और वर्गों को देखते ही उनकी वोट बैंक क्षमता पहचानने की अचूक शक्ति रखने वाली कॉन्ग्रेस कभी सामान्य वर्ग को नहीं देख पाई थी। अगर कभी देख भी सकी तो वोट बैंक क्षमता को भाँपकर उसकी ओर ध्यान देना जरुरी नहीं समझा। समाज के जातिगत समीकरणों में कॉन्ग्रेस अपनी तमाम पंचवर्षीय में इतनी व्यस्त रही कि उसे कभी यह महसूस नहीं हुआ था कि सामान्य श्रेणी में भी ऐसे गरीब हो सकते हैं, जिन्हें सामाजिक न्याय की जरूरत है। लेकिन ‘थैंकलेस’ कॉन्ग्रेस सरकार ने आजादी के इतने वर्षों बाद भी सामान्य वर्ग के गरीबों को सामाजिक न्याय सिर्फ इसलिए नहीं दिया ताकि इसका श्रेय वो नरेंद्र मोदी को दे सकें।

लोग कॉन्ग्रेस पर परिवारवाद की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं लेकिन इस पंचवर्षीय में उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर नरेंद्र मोदी को इन सब जरुरी और बुनियादी कामों का श्रेय लेने का मौका दिया। वो भी तब, जब नेहरू, इंदिरा, राजीव इत्यादि गाँधी के नाम पर इन सब योजनाओं को चला सकती थी।

सबसे बड़ी उपलब्धि कॉन्ग्रेस सरकार की इन 5 वर्षों में ये रही कि इसने नरेंद्र मोदी सरकार को एक भी घोटाला नहीं करने दिया। यहाँ तक कि अपने पारिवारिक घोटाले भी अगले आम चुनाव से पहले कॉन्ग्रेस ने स्वीकार कर डाले। इन सब बातों को बड़े स्तर पर देखा जाए तो कॉन्ग्रेस के अंदर एक अच्छे विपक्ष के सारे गुण नजर आने लगे हैं। वरना UPA-2 के दौरान जितने ताबड़तोड़ घोटाले सत्तापरस्त कॉन्ग्रेस सरकार करती रही, उससे तो यही साबित होता है कि भाजपा एक कमजोर विपक्ष है और इसे विपक्ष की नहीं बल्कि देश के नेतृत्व की कमान दी जानी चाहिए। UNESCO चाहे तो कॉन्ग्रेस को ‘बेस्ट विपक्ष’ का पुरस्कार भी दे सकती है।

नेहरू को जाता है मोदी सरकार की सफलता का ‘पूरा-पूरा क्रेडिट’

बड़प्पन में कॉन्ग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता सौंपी और खुद विपक्षी पार्टी बनने का फैसला किया। इन सबके बावजूद भी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने इस देश को कश्मीर समस्या के सिवाय कुछ नहीं दिया है, तो इससे यही साबित होता है कि नरेंद्र मोदी नेहरू द्वारा दिए गए अवसरों के प्रति उदार नहीं हैं। मोदी सरकार पर दबाव बनाने के लिए कॉन्ग्रेस अकेले मैदान में नहीं रही बल्कि उसने अपने गोदी मीडिया, सस्ते कॉमेडियन्स, न्यूट्रल पत्रकारों के गिरोह और अवार्ड वापसी गैंग जैसी घातक टुकड़ियों को भी इस प्रक्रिया में एड़ी-छोटी का जोर लगाने पर मजबूर किया। यह दर्शाता है कि विपक्ष में बैठकर कॉन्ग्रेस, मोदी सरकार को अच्छे से मॉनिटर कर सकती है।

अगले चुनाव इन्हें विपक्ष ही दीजो’

मोदी सरकार के इस कार्यकाल की सबसे ख़ास बात यह रही है कि चुनाव से पहले पहले ‘लगभग’ कई बड़े विपक्ष के नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं। यह बड़ी उपलब्धि है कि आजकल जैसी ही कोई नेता कहता है कि वो उसी पार्टी के साथ खड़ा होगा, जो ‘देशहित’ की बात करेगी तो राष्ट्रवादी और गैर-राष्ट्रवादी जनता तुरंत समझ जाती है कि ये भाजपा में शामिल होने की बात कर रहा है। कॉन्ग्रेस के तमाम सस्ते-महँगे, बड़ी-छोटी गोदी मीडिया जिस ‘राष्ट्रवाद’ और ‘देशभक्ति‘ शब्द को मजाक साबित करने के प्रयास करती रही, चुनाव से पहले वही शब्द सम्मान का विषय बनकर उभर चुके हैं। शायद नरेंद्र मोदी की इन्हीं खूबियों का नतीजा भी है कि इस चुनाव में कॉन्ग्रेस ने भी उनके खिलाफ कोई PM कैंडिडेट मैदान में नहीं उतरा है। लेकिन राष्ट्रवादी लोग कॉन्ग्रेस का मास्टरस्ट्रोक कभी समझेंगे ही नहीं।

ऐसे ही तमाम मुद्दे हैं, जिनके लिए यदि विपक्ष में बैठी कॉंग्रेस द्वारा भाजपा पर निरंतर दबाव न बनाया गया होता, तो शायद राष्ट्रवादी मोदी सरकार का उन पर ध्यान ही नहीं जाता। इसलिए देशहित तो इसमें नजर आता है कि कॉन्ग्रेस इसी तरह से विपक्ष में रहकर भाजपा पर इसी सख्ती से दबाव बनाती रहे, ताकि सभी राजनीतिक और सामाजिक कार्यक्रम चाक-चौबंद तरीके से आगे बढ़ते रहें और नरेंद्र मोदी अपने भारत निर्माण का लक्ष्य पूरा कर सकें। आरक्षण, सर्जिकल स्ट्राइक, आतंकवाद, जो भी आपत्तियाँ विपक्ष द्वारा लगायी गईं, मोदी सरकार को उन्हें पूरा करना पड़ा। अब जिस संवेदनशीलता से राम मंदिर पर विपक्ष सरकार को लगातार कोस रहा है, उससे लगता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जल्दी ही राम मन्दिर निर्माण कार्य को भी पूरा करेंगे और मास्टरस्ट्रोक की झड़ी लगाते रहेंगे।

फ्रांस ने जैश और मसूद पर लगाया बैन, सम्पत्तियों को ज़ब्त करने का लिया फ़ैसला

न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक, फ्रांस ने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर की सभी फ्रांसीसी सम्पत्तियों को ज़ब्त करने का फैसला किया है। यह आदेश फ्रांस के आंतरिक, विदेशी और वित्त मंत्रालयों द्वारा जारी की गई। फ्रांस ने आगे कहा है कि वह यूरोपीय संघ में मसूद अज़हर को आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों की सूची में शामिल करने पर ज़ोर देगा।

फ्रांस ने हमेशा से ही भारत का साथ निभाने वादा किया था। फ्रांस ने पुलवामा में आत्मघाती हमले की ज़िम्मेदारी लेने का दावा करने के बाद आतंकी समूह जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है। बता दें कि 14 फरवरी को जैश द्वारा किए गए इस हमले में CRPF के 40 भारतीय जवानों को वीरगति मिली थी। जिस आतंकवादी आदिल अहमद उर्फ़ वकास कमांडो ने इस भयावह हमले को अंजाम दिया था उसे आतंकी समूह जैश द्वारा ही प्रशिक्षित किया गया था।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि फ्रांस उन देशों में से एक है जिसने मसूद अज़हर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वैश्विक आतंकवादी के रूप में नामित करने का प्रस्ताव रखा था। पाकिस्तान से संचालित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNNC) द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित करने की राह में चीन ने चौथी बार अड़ंगा लगा दिया था। मसूद को वैश्विक आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव पर फ़ैसले से कुछ मिनट पहले चीन ने वीटो का इस्तेमाल करते हुए प्रस्ताव पर रोक लगा दी थी। 2017 में भी चीन ने ऐसा ही किया था। बीते 10 वर्षों में संयुक्त राष्ट्र में अज़हर को वैश्विक आंतकी घोषित करने का यह चौथा प्रस्ताव था।

पुलवामा हमले के बाद से ही फ्रांस जैश-ए-मोहम्मद और उसके प्रमुख मसूद अज़हर को नज़रबंद करने का मुद्दा उठाता रहा है। अमेरिका ने हाल ही में कहा था कि मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित नहीं करना क्षेत्रीय स्थिरता और शांति के ख़िलाफ़ है।

कॉन्ग्रेस के पूर्व सांसद आए BJP के साथ, 8 नेता पहले ही छोड़ चुके हैं पार्टी का हाथ

चुनाव के नजदीक आने के साथ ही एक तरफ जहाँ किसी राजनैतिक पार्टी को मजबूत होते जाना चाहिए, वहीं कॉन्ग्रेस पार्टी दिन पर दिन कमजोर हो रही है। कल टॉम वडक्कन के भाजपा में शामिल होने के साथ ही कॉन्ग्रेस को एक बड़ा झटका लगा। और आज हरियाणा के पूर्व कॉन्ग्रेस सांसद अरविंद शर्मा ने भी उचित नेतृत्व को पहचानते हुए भाजपा का हाथ थाम लिया है।

अरविंद शर्मा के राजनैतिक करियर के बारे में अगर बात करें, तो उन्होंने 1996 में 11वीं लोकसभा सीट के चुनाव में सोनीपत सीट से बतौर स्वतंत्र उम्मीदवार चुनाव लड़कर जीत हासिल की थी। इसके बाद वो शिवसेना के प्रदेश अध्यक्ष रहे, उन्होंने वहाँ से चुनाव लड़ा लेकिन वह हार गए। जिसके बाद वे कॉन्ग्रेस में शामिल हुए। कॉन्ग्रेस से अरविंद ने करनाल लोकसभा से 2004 और 2009 में चुनाव लड़ा और यहाँ से उन्होंने दोनों बार जीत हासिल की, तीसरी बार 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें भाजपा के अश्विनी चोपड़ा से हार का मुँह देखना पड़ा। फिर उन्होंने कॉन्ग्रेस छोड़ दी और बसपा ज्वॉइन की।

बसपा की ओर से अरविंद शर्मा ने विधानसभा चुनाव 2014 लड़ा, लेकिन इसमें भी वे हार गए। फिलहाल इन दिनों वो किसी पार्टी के सदस्य नहीं थे।

इसके अलावा आपको बता दें कि केवल अरविंद शर्मा और टॉम वडक्कन ही नहीं बल्कि कई नेता इन दिनों अपनी पार्टियाँ छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उम्मीद है इससे उन लोगों के सुरों पर सवालिया निशान लगेगा जो मोदी को तानाशाह बताकर उनकी तुलना हिटलर से करते हैं। वैसे तो चुनावी हवा में बहकर बहुत से नेता बीजेपी में शामिल हुए हैं। लेकिन इस सूची में कॉन्ग्रेस नेताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। टॉम की ही तरह हाल ही में तृणमूल कॉन्ग्रेस विधायक अर्जुन सिंह ने भी भाजपा के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया।

हाल ही में कॉन्ग्रेस पार्टी को छोड़ने वालों में कर्नाटक के पूर्व विधायक उमेश जाधव का नाम भी शामिल है। इनके साथ ही महाराष्ट्र कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल के बेटे सुजय भी मंगलवार (मार्च 12, 2019) को पिता के ख़िलाफ़ जाते हुए बीजेपी में शामिल हुए।

ऐसे ही कुछ दिन पहले कॉन्ग्रेस के 3 विधायकों ने गुजरात में इस्तीफ़ा दिया था। इन में जामनगर के विधायक वल्लभ धारविया ने विधानसभा अध्यक्ष राजेंद्र त्रिवेदीको अपना इस्तीफा सौंप दिया है। पार्टी के पूर्व सहयोगी परषोत्तम सबारिया भी भाजपा में शामिल हो गए हैं। बता दें कि गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 के बाद से अब तक कॉन्ग्रेस के 5 विधायक बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। 8 मार्च को माणवदर से कॉन्ग्रेस विधायक जवाहर चावड़ा ने भी विधानसभा से इस्तीफा देकर बीजेपी जॉइन कर लिया था।

गुजरात: फोन पर PUBG गेम खेलने पर 10 छात्र गिरफ्तार

PUBG गेम पर प्रतिबंध लगने के बावजूद इसे खेलने के आरोप में गुजरात पुलिस ने राजकोट में 10 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया है। इनमें से 6 कॉलेज के छात्र भी शामिल हैं।

ये गिरफ्तारी राजकोट पुलिस द्वारा एक अधिसूचना जारी करने के बाद हुई है। राजकोट पुलिस द्वारा जारी की गई अधिसूचना में ये कहते हुए इस पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है कि PUBG खेलने वाले लोगों के व्यवहार और आचरण में काफी नकारात्मक बदलाव आ जाता है, जो कि चिंता का विषय है। इसी बात पर गौर करते हुए पुलिस आयुक्त मनोज अग्रवाल ने 6 मार्च को ऑनलाइन PUBG और शहर में ‘मोमो चैलेंज’ पर प्रतिबंध लगाया था।

फिलहाल इस प्रतिबंध को 30 अप्रैल तक लागू किया गया है क्योंकि इस समय तक अधिकतर छात्र परीक्षा की तैयारी में व्यस्त रहेंगे।

इस गिरफ्तारी पर पुलिस इंस्पेक्टर रोहित रावल ने कहा कि उनकी टीम ने इन छात्रों को PUBG गेम खेलते हुए रंगे हाथों पकड़ा। जिसके बाद उन्हें हिरासत में ले लिया गया। उन्होंने बताया कि उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 188 के तहत पुलिस आयुक्त द्वारा जारी अधिसूचना का उल्लंघन करने और गुजरात पुलिस अधिनियम की धारा 35 के तहत दो मामले दर्ज किए हैं।

पुलिस निरीक्षक वीएस वंजारा ने गुरुवार को कहा कि हिरासत में लिए गए छात्रों को उसी दिन बाद में जमानत पर रिहा कर दिया गया। वहीं इंस्पेक्टर रोहित रावल ने कहा कि आरोपी इस खेल को खेलने में इतने तल्लीन थे कि उन्हें पुलिस के आने की भी भनक नहीं लगी।

इस गेम को 100 मिलियन से अधिक बार डाउनलोड किया जा चुका है और इस खेल पर काफी समय से बैन लगाने की बात कही जा रही है, मगर गुजरात PUBG गेम पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला और एकमात्र राज्य है।

इस खेल के लत को लेकर दुनिया भर में कई चिंताओं के बारे में बात की गई है, जिसमें बच्चों को हिंसक व्यवहार की ओर धकेलने की प्रवृत्ति भी शामिल है। माता-पिता और शिक्षकों का कहना है कि खेल हिंसा को उकसाता है और छात्रों को उनकी पढ़ाई से विचलित करता है।

हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाई स्कूल से लेकर कॉलेज के लगभग 2,000 छात्रों के साथ ‘परीक्षा पर चर्चा’ के माध्यम से बातचीत कर रहे थे तभी एक माँ ने बातचीत के दौरान अपने बच्चे की शिकायत करते हुए पीएम से कहा था कि उनका बेटा पढ़ाई नहीं करता है, सिर्फ ऑनलाइन गेम खेलता रहता है। इस पर प्रधानमंत्री ने भी पूछ लिया, “ये PUBG वाला है क्या?”

गोवा के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रोहन खाँटी ने भी हाल ही में PUBG को “हर घर में एक दानव” के रूप में वर्णित किया था और कहा था कि छात्र इसे खेलने और अपनी पढ़ाई की उपेक्षा कर रहे थे।

बता दें कि PUBG एक ऑनलाइन मल्टीप्लेयर बैटल गेम है, जो दक्षिण कोरियाई फर्म द्वारा विकसित किया गया है और ऑनलाइन गेमिंग मार्केट में एक बेस्ट-सेलर है।